फ्रांस: तत्कालीन राष्ट्रपति चुनाव का यूरोपीय राजनीति पर कितना और किस तरह का असर?
10 अप्रैल को फ्रांस में राष्ट्रपति चुनाव के पहले दौर का मतदान पूरा हो गया. 2017 के चुनाव के बाद एक बार फिर से फ्रांस के मौजूदा राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों और उनकी प्रतिद्वंदी मरीन ली पेन के बीच सीधा मुक़ाबला है. हालांकि, पिछले पांच बरस में दुनिया का भू-राजनीतिक मंज़र बिल्कुल बदल गया है और इस वक़्त दुनिया का पूरा ध्यान, यूक्रेन पर रूस के आक्रमण पर लगा हुआ है. वैसे तो यूरोप और यूरोपीय संघ, रूस को लेकर अपनी नीतियों में एकरूपता लाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन, यूरोपीय संघ की नीतियां तय करने में फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे बहुत बड़ी भूमिका तय करने वाले हैं. आज जब यूरोप में जंग छिड़ी हुई है तो जर्मनी और फ्रांस की आर्थिक और सियासी ताक़त को देखते हुए राजनीतिक स्थिरता और जवाबदेही की ज़रूरत काफ़ी बढ़ गई है. पिछले साल के आख़िर में जर्मनी में उस वक़्त सत्ता परिवर्तन हुआ जब एंगेला मर्केल ने चांसलर पद से इस्तीफ़ा दिया और ओलाफ़ शल्ट, जर्मनी के नए चांसलर चुने गए और एक गठबंधन सरकार के अगुवा बने. इसी तरह, अब फ्रास में भी 24 अप्रैल को राष्ट्रपति चुनाव के दूसरे दौर का मतदान होगा. पहले दौर की वोटिंग में राष्ट्रपति मैक्रों को 27.6 फ़ीसद वोट मिले हैं. वहीं मरीन ली पेन ने 23.4 प्रतिशत वोट हासिल किए हैं. वैसे तो चुनाव से पहले हुए तमाम सर्वेक्षणों में ये अनुमान लगाया गया है कि राष्ट्रपति मैक्रों अपनी कुर्सी बचा पाने में कामयाब हो जाएंगे. लेकिन, मरीन ली पेन की उम्मीदवारी और उनके आक्रामक राजनीतिक प्रचार के चलते ये मुक़ाबला इन अनुमानों से कहीं ज़्यादा कांटे का साबित हो सकता है. चुनाव पूर्व सर्वे कह रहे हैं कि 51 प्रतिशत वोट हासिल करके मैक्रों चुनाव जीत जाएंगे. वहीं, मरीन ली पेन को 49 फ़ीसद वोट मिलने का अंदाज़ा लगाया जा रहा है. राष्ट्रपति चुनाव के अन्य संभावित उम्मीदवार जैसे कि कट्टर वामपंथी ज्यां लू मेलेंचोन 21.9 प्रतिशत वोट हासिल करने के चलते, मरीन ली पेन को इस रेस में दूसरे स्थान से हटाने में नाकाम रहे हैं. पहले दौर के मतदान ने पहले सरकार चला चुकी सोशलिस्ट पार्टी और ल रिपब्लिकेंस के प्रत्याशियों की उम्मीदों को भी झटका दिया है, क्योंकि वो पांच फ़ीसद से भी कम वोट हासिल कर सके और इस वजह से वो प्रचार के बदले में भुगतान हासिल नहीं कर पाए. इसके बावजूद, अब मैक्रों को हारे हुए समाजवादियों, वामपंथियों, ग्रीन दलों और रुढ़िवादी उम्मीदवारों का समर्थन हासिल हो गया है. वहीं, मरीन ली पेन की उम्मीदवारी पूरी तरह से उनके कट्टर दक्षिणपंथी प्रतिद्वंदी एरिक ज़ेमूर के समर्थन पर टिकी है. मरीन ली पेन और ज़ेमूर, दोनों ही अप्रवासियों के ख़तरे और यूरोपीय संघ को लेकर आशंका जैसे अहम मुद्दों पर आपस में सहमत हैं. समाजवादी पार्टी की प्रत्याशी एन हिडाल्गो ने ली पेन की जीत के ख़िलाफ़ राय दी है. उनका कहना है कि इससे सबके प्रति नफ़रत बढ़ेगी. वहीं, रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्याशी वैलेरी पेक्रेसे ने कट्टरपंथियों के राष्ट्रपति पद के बेहद क़रीब तक पहुंच जाने को लेकर चिंता जताई है.
वैसे तो यूरोप और यूरोपीय संघ, रूस को लेकर अपनी नीतियों में एकरूपता लाने की कोशिश कर रहे हैं. लेकिन, यूरोपीय संघ की नीतियां तय करने में फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे बहुत बड़ी भूमिका तय करने वाले हैं.
मैक्रों राष्ट्रपति पद से कितने दूर, कितने पास
मैक्रों ने मतदाताओं से अपील की है कि वो वोटिंग से ग़ैरहाज़िर रहने के बजाय अपना वोट ज़रूर डालें. उन्होंने अपने भाषण में कहा कि, ‘मैं नहीं चाहता कि फ्रांस, यूरोप से अलग हो जाए और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसके पास नस्लवादी और जनवादी नेताओं का ही समर्थन बचा रहे. हम ऐसे नहीं हैं. मैं चाहता हूं कि इंसानियत के प्रति फ्रांस का लगाव बना रहे, और वो नवजागरण के प्रति भी वफ़ादार बना रहे’. अगर, मैक्रों चुनाव जीत जाते हैं, तो 2002 में याक शिराक के बाद, लगातार दूसरी बार चुने जाने वाले वो फ्रांस के पहले राष्ट्रपति होंगे. जबकि वो बहुत कम रैलियां कर रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ़, मरीन ली पेन ने अप्रवासियों और सार्वजनिक रूप से मुसलमानों के हिजाब पहनने जैसे मुद्दों पर अपना रुख़ काफ़ी नरम कर लिया है. कट्टर दक्षिणपंथी ली पेन ने अपने पिछले तजुर्बों से काफ़ी सबक़ सीख लिया है और अब वो अपनी रैलियों में नरमपंथी और मुख्यधारा वाले मुद्दे जैसे कि, रहन सहन के बढ़ते ख़र्च, बढ़ती महंगाई से निपटने, ईंधन की क़ीमतों और ‘फ्रांस का सामान ख़रीदने’ की नीति लागू करने की बातें कर रही हैं. हालांकि, अप्रवासियों की अनियंत्रित बाढ़ को रोकना और इस्लामिक विचारधाराओं का ख़ात्मा अभी भी उनकी मुख्य प्राथमिकताएं बनी हुई हैं. रणनीति में ये बदलाव अब तक तो मरीन ली पेन के लिए कारगर साबित हुआ है क्योंकि 2017 के चुनाव की तुलना में इस बार उनको ज़्यादा वोट मिलते दिखाई दे रहे हैं. यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद, ली पेन को अपने प्रचार के एक पर्चे को हटाना पड़ा, जिसमें 2017 में उनके क्रेमलिन दौरे में पुतिन के साथ की तस्वीर थी. मरीन ली पेन, पुतिन की कट्टर समर्थक रही हैं. हालांकि, उन्होंने बड़ी तेज़ी से ख़ुद को पुतिन से दूर कर लिया है और अब वो घरेलू मुद्दों पर ज़ोर दे रही हैं, जो फ्रांस के ग्रामीण और उपनगरीय मतदाताओं को लुभा रहे हैं. वहीं, मैक्रों के लिए उनकी जीत की बुनियाद उनकी मिली जुली उपलब्धियां हैं. यूरोप की रक्षा को लेकर अन्य देशों के साथ यूरोप की सामरिक स्वायत्तता की महत्वाकांक्षी योजना को अमल में लाने के एलान पर सवाल बने हुए हैं. हालांकि, यूरोपीय संघ द्वारा इस क्षेत्र और अन्य इलाक़ों में सम्मान अर्जित करने में मैक्रों की भूमिका का काफ़ी योगदान माना जाता है. जबकि फ्रांस में उन्हें विभाजनकारी नेता के तौर पर देखा जाता है. मैक्रों जिस तरह गिलेट यानस आंदोलन से निपटे और उन्होंने लोगों से कोरोना के टीके लगवाने के सबूत दिखाने को मजबूर किया, उस वजह से अल्पसंख्यक वर्ग उनके राष्ट्रपति बनने के ख़िलाफ़ हो गया है.
चुनाव पूर्व सर्वे कह रहे हैं कि 51 प्रतिशत वोट हासिल करके मैक्रों चुनाव जीत जाएंगे. वहीं, मरीन ली पेन को 49 फ़ीसद वोट मिलने का अंदाज़ा लगाया जा रहा है
मैक्रों का मध्यमार्गी विचारधारा
मैक्रों जहां फ्रांस और यूरोप की विदेश नीति पर ज़ोर दे रहे हैं. वहीं, मरीन ली पेन ने अपना पूरा प्रचार घरेलू मुद्दों पर केंद्रित कर दिया है, जिससे जनता के बीच उनकी लोकप्रियता बहुत बढ़ गई है. ली पेन, संरक्षणवादी आर्थिक नीतियां अपनाने और ‘फ्रांस का सामान ख़रीदो’ की नीति लागू करने का इरादा रखती हैं. वो रिटायर होने की न्यूनतम उम्र घटाकर 60 साल करने और ऊर्जा पर वैट की मौजूदा 20 प्रतिशत की दर को कम करके 5.5 प्रतिशत तक लाने का इरादा रखती हैं. वो अस्पताल में काम करने वालों दस हज़ार लोगों की तादाद बढ़ाने और उनकी तनख्वाह में इज़ाफ़े के लिए दो अरब यूरो की रक़म ख़र्च करने का भी इरादा रखती हैं. हालांकि, उन्होंने यूरोपीय संघ को फ्रांस के योगदान में कटौती और यूरोपीय संघ के क़ानूनों पर फ्रांस के राष्ट्रीय क़ानूनों को तरज़ीह देने के विवादित वादे भी कर रखे हैं. वैसे मरीन ली पेन ने यूरोज़ोन से अलग होने की अपनी योजना से किनारा कर लिया है. लेकिन, अन्य यूरोपीय देशों से फ्रांस में दाख़िल होने वाले सामान की निगरानी के लिए और कस्टम अधिकारी तैनात करने का वादा किया है, जो यूरोप के एकीकृत बाज़ार की परिकल्पना के ख़िलाफ़ है. मरीन ली पेन ने ख़ुद को फ्रांस के पांचवें गणतंत्र के संस्थापक और पहले राष्ट्रपति चार्ल्ड डे गॉल का अनुयायी घोषित कर रखा है. चार्ल्ड डे गॉल ने नेटो की कमान से फ्रांस के सैनिकों को वापस बुला लिया था और फ्रांस से सहयोगी दलों के सैन्य अड्डे ख़त्म करने की शुरुआत करते हुए फ्रांस के स्वतंत्र परमाणु कार्यक्रम को भी प्रोत्साहन देना शुरू किया था. चार्ल्ड डे गॉल के ये क़दम न तो कोई सिद्धांत थे और न ही कोई राजनीतिक विचारधारा. बल्कि उन्होंने ये क़दम व्यावहारिक राजनीति के लिए उठाया था और बीसवीं सदी में फ्रांस की राजनीति में एक अहम किरदार बन गए थे. उन्होंने ये संदेश दिया था कि फ्रांस किसी भी देश का पिछलग्गू नहीं बनेगा. चार्ल्स डे गॉल की तर्ज पर मरीन ली पेन भी नेटो की एकीकृत कमान से फ्रांस को अलग करने का इरादा रखती हैं और यूरोपीय संघ की जगह, ‘तमाम देशों का यूरोप’ बनाना चाहती हैं. अगर, वो नेटो की कमान से ख़ुद को अलग करती हैं, तो फ्रांस में इसका कड़ा विरोध होने की आशंका है. क्योंकि, फ्रांस के 67 प्रतिशत नागरिक ये नहीं मानते हैं कि उनके देश को नेटो से अलग होना चाहिए. वहीं, मैक्रों ‘न वामपंथी न दक्षिणपंथी’ के अपने नारे के प्रति ईमानदार बने हुए हैं. वो फ्रांस और यूरोप दोनों के लिए मध्यमार्गी विचारधारा की वकालत करते हैं. वो यूरोप की सामरिक स्वायत्तता को बढ़ाने की पुरज़ोर हिमायत करते हैं, जिससे अमेरिका और अन्य देशों पर यूरोपीय संघ की निर्भरता कायम होगी. वैसे तो मैक्रों हमेशा ही नेटो पर निर्भरता कम करने के लिए पेस्को (PESCO) और यूरोपीय संघ की सुरक्षा में और निवेश करने की बात कहते आए हैं. लेकिन, यूक्रेन पर रूस के हमले ने मैक्रों को यूरोप के सुरक्षा ढांचे में नेटो की अहमियत को लेकर अपनी प्रतिबद्धता दोहराने को मजबूर किया है. मैक्रों ने यूरोपीय संघ को हिंद प्रशांत क्षेत्र को अधिक तवज्जो देने को भी मजबूर किया है. इसी वजह से आख़िरकार अप्रैल 2021 में यूरोपीय संघ ने अपनी हिंद प्रशांत रणनीति जारी की थी.
यूरोपीय संघ द्वारा इस क्षेत्र और अन्य इलाक़ों में सम्मान अर्जित करने में मैक्रों की भूमिका का काफ़ी योगदान माना जाता है. जबकि फ्रांस में उन्हें विभाजनकारी नेता के तौर पर देखा जाता है.
20 अप्रैल को होने वाले बड़े टीवी डिबेट में दोनों उम्मीदवार आमने सामने होंगे. दोनों को पता होगा कि दांव पर क्या लगा है और उसके क्या नतीजे निकलने वाले हैं. यूरोप का प्रशासनिक ढांचा काफ़ी हद तक फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव नतीजों पर टिका है, जो हाल के वर्षों के सबसे नज़दीकी मुक़ाबले हो सकते हैं; हालांकि, उम्मीद यही है कि दोनों ही प्रत्याशी अपनी अपनी ताक़त वाले मुद्दों पर ही ज़ोर देंगे. जहां मैक्रों अपनी निर्णायक विदेश नीति की उपलब्धियों और यूरोपीय मामलों में अपने नेतृत्व के तजुर्बे का लाभ उठाने की कोशिश करेंगे. वहीं, मरीन ली पेन अपने नए उठाए गए मुद्दों जैसे कि, संरक्षणवादी आर्थिक नीतियों और दूसरे घरेलू मुद्दों को उठाएंगी, ताकि ग्रामीण मतदाताओं के वोट हासिल कर सकें. हालांकि, रूस के साथ उनके पुराने संबंध और विदेश नीति का तजुर्बा न होना उनके राष्ट्रपति बनने की महत्वाकांक्षाओं को बट्टा लगा सकता है. हो सकता है कि चुनाव पूर्व सर्वे सही साबित हों और इमैनुएल मैक्रों फिर से चुनाव जीत जाएं. लेकिन, यूरोप में कट्टर दक्षिणपंथी दलों के उभार का सिलसिला आगे भी जारी रहेगा. फ्रांस के राष्ट्रपति चुनाव के नतीजे न केवल फ्रांस के दिल की धड़कने थामकर रखने वाले होंगे, बल्कि बाकी यूरोप और अन्य देशों की नज़र भी उन पर होगी.
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