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अक्टूबर की शुरुआत में मैक्रों ने इस्लाम के नियमन और इस्लामी अलगाववाद के काट के लिए एक नए कानून बनाने की अपनी योजना को सार्वजनिक किया था.
फ्रांस इन दिनों इस्लाम के नाम पर छेड़ी गई हिंसा के एक दौर से जूझ रहा है. पिछले महीने चेचेन मूल के एक लड़के ने पैगंबर मोहम्मद की विवादित तस्वीरों के प्रदर्शन के लिए अपने स्कूल टीचर की हत्या कर दी थी. यही विवाद 2015 में व्यंग्य पत्रिका चार्ली हेब्दो के खिलाफ़ खूनी आतंकी हमले की वजह बना था. अक्टूबर की शुरुआत में मैक्रों ने इस्लाम के नियमन और इस्लामी अलगाववाद के काट के लिए एक नए कानून बनाने की अपनी योजना को सार्वजनिक किया था. मारे गए स्कूल टीचर को श्रद्धांजलि देते हुए मैक्रों ने कहा था, “हमलोग कार्टून और चित्रों का त्याग नहीं करेंगे भले ही दूसरे लोग पीछे हट जाएं”. हालांकि तनाव बढ़ता गया और एक और इस्लामिक आतंकवादी ने नीस शहर के चर्च में तीन नागरिकों की हत्या कर दी. हिंसा की ये तमाम घटनाएं बेहद निंदनीय हैं पर इन घटनाओं ने आत्मविश्लेषण करने की ज़रूरत भी बता दी है. क्या इस्लाम में सुधार फ्रांस में उग्रवाद से निपटने का सर्वश्रेष्ठ उपाय है.
फ्रांस और इस्लाम का रिश्ता उपनिवेशवाद के दौर तक जाता है जब उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व के कई अरब देशों में फ्रांसीसी हुकूमत थी. इसी कब्ज़े की बदौलत फ्रांस ने दूसरे विश्वयुद्ध में इन उपनिवेशों पर अपना रुतबा दिखाया था. इन देशों की आज़ादी की मांग को कुचलने और अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए फ्रांस ने यहां काफी खून-खराबा मचाया था. अल्जीरियाई युद्ध में फ्रांस ने स्थानीय लोगों के साथ नस्लीय भेदभाव का बर्ताव किया. हालांकि, ट्यूनीशिया, मोरक्को या लेबनॉन को आज़ादी के लिए ऐसे किसी खूनी संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ा लेकिन गुलामी के उस दौर की यादें वहां के लोगों के ज़ेहन में बसी हुई है.
फ्रांस और इस्लाम का रिश्ता उपनिवेशवाद के दौर तक जाता है जब उत्तरी अफ्रीका और मध्य पूर्व के कई अरब देशों में फ्रांसीसी हुकूमत थी. इसी कब्ज़े की बदौलत फ्रांस ने दूसरे विश्वयुद्ध में इन उपनिवेशों पर अपना रुतबा दिखाया था.
फ्रांस के हाथों दशकों की गुलामी झेलने की वजह से यहां लोगों के दिलोदिमाग में एक चोट खाई अस्मिता ने घर बना लिया. जब इन्हीं पूर्व उपनिवेशों से नई पीढ़ी फ्रांस में प्रवासी बनकर पहुंचने लगी तो वो अपने साथ फ्रांसीसी राजसत्ता के प्रति अपने पूर्वजों की वही कड़वाहट लेकर वहां पहुंचे. यहीं से फ्रांस और उसके मुस्लिम नागरिकों के बीच रस्साकशी की शुरुआत हुई. इन प्रवासियों की बदतर माली हालत ने कड़वाहट भरी इन भावनाओं को और गहरा कर दिया.
फ्रांस पहुंचे ज़्यादातर प्रवासी पेरिस के आसपास के तंगहाल उपनगरों जिन्हे बनलिउयेस कहा जाता है, में बसने लगे और यही इलाके आगे चलकर इस्लामिक चरमपंथ का अड्डा बनते गए. कई विशेषज्ञों का मानना है कि इन बस्तियों की सामाजिक परिस्थितियों ने ही यहां रहने वाले मुस्लिम नौजवानों के दिलोदिमाग में उग्रवाद का बीजारोपण किया. लंदन के किंग्स कॉलेज में अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के रीडर मैथ्यू मोरन ने अपने निबंध में बताया है कि इन तंगहाल बस्तियों में जीवन जीने का अनुभव इन युवाओं में कुंठा, भ्रम और पहचान से जुड़ा संकट पैदा करता है. इन्ही संकटों की वजह से उनके ज़ेहन में पहले कठमुल्ला भावनाएं पनपती हैं जो आगे चलकर हिंसक उग्रवाद का रूप धारण कर लेती हैं.
वैसे तो उत्तरी अफ्रीका से भौगोलिक करीबी फ्रांस में इस्लामिक आतंकी हमलों की एक बड़ी वजह है, लेकिन इसके अलावा भी फ्रांस को निशाना बनाकर अंजाम दी जाने वाली इन हिंसक घटनाओं के दूसरे कारण मौजूद हैं. इस सदी की शुरुआत में कट्टरतावादी जिहादी संगठनों के उभार ने फ्रांस की इन तंगहाल बस्तियों के नागरिकों को फ्रांसीसी सरकार के सामने अपने गुस्से के इज़हार का एक मौका प्रदान किया. इसके साथ ही अल-क़ायदा और आईएसआईएस जैसे गुटों ने कभी फ्रांस की शान रहे तथाकथित इस्लामिक मग़रिब के लड़ाकों को आकर्षित करना शुरू किया. उदाहरण के तौर पर फ्रांस के पूर्व उपनिवेश ट्यूनीशिया से बड़ी संख्या में मुस्लिम आईएसआईएस संगठन में शामिल हुए. फ्रांस के नीस शहर में ट्यूनीशिया से आए प्रवासियों की एक बड़ी आबादी रहती है. गौरतलब है कि इसी शहर में हाल ही में चर्च में चाकूबाज़ी की घटना हुई थी और 2016 में भी यहीं ‘लोन वुल्फ’ अटैक का मामला सामने आया था. यही ऐतिहासिक तथ्य और कड़ियां ब्रिटेन और अमेरिका जैसे पश्चिम के दूसरे देशों के मुकाबले फ्रांस को इस्लामिक आतंकवादियों का निशाना बनाए जाने के पीछे की मुख्य़ वजहें हैं. आंकड़े बताते हैं कि 1700 से ज़्यादा फ्रांसीसी नागरिक आईएसआईएस के उभार के दिनों में लड़ाकों के रूप में इसमें शामिल हुए थे.
फ्रांस पहुंचे ज़्यादातर प्रवासी पेरिस के आसपास के तंगहाल उपनगरों जिन्हे बनलिउयेस कहा जाता है, में बसने लगे और यही इलाके आगे चलकर इस्लामिक चरमपंथ का अड्डा बनते गए.
इन तमाम प्रवृत्तियों से स्पष्ट है कि आर्थिक और सामाजिक पिछड़ेपन के हालात जस के तस रहने से उपजे तात्कालिक असंतोष ने फ्रांसीसी मुस्लिम समाज में मज़हबी रंग अख्त़ियार कर लिया है. गहरे अंसतोष का शिकार युवा कट्टर इस्लामिक संगठनों का मोहरा बन जाता है जो इन्हें हथियारों के ज़रिए अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए भड़काता है. इस तरह एक विशुद्ध घरेलू सामाजिक-आर्थिक समस्या अंतरराष्ट्रीय रूप धर लेती है और इसका फायदा उठाकर बाहरी शैतानी ताकतें विध्वंस के मकसद से अपने लड़ाकों की भर्तियां करती रहती हैं.
इस समस्या ने फ्रांसीसी समाज की एक गंभीर बीमारी को भी सामने लाकर खड़ा कर दिया है और वह है विभिन्न तबकों में एकीकरण का अभाव. जिन दिनों फ्रांस आईएसआईएस के साथ सैनिक युद्ध में शामिल था तब के तनावपूर्ण हालातों ने मैरिन-ले-पेन के नेतृत्व वाली दक्षिणपंथी अतिवादी दल नेशनल फ्रंट पार्टी को राजनीतिक हथियार प्रदान किया. बीते वर्षों में नेशनल फ्रंट ने उन शिगूफों में अपनी दक्षता बना ली है जिनके लिए दक्षिणपंथी नेतृत्व वाले कई देश जाने जाते हैं. विदेशियों के खिलाफ़ नफ़रत का खुला इज़हार करने वाली इस राजनीतिक पार्टी के मुख्य़धारा में शामिल होने से फ्रांस में पहले से ही कमज़ोर सामाजिक तानेबाने को और चोट पहुंची है.
फ्रांसीसी समाज में समन्वय स्थापित करने के लिए इस समय एक ऐसी सरकार की ज़रूरत है जो मुस्लिमों के आतंकवादी बनने की मूल वजहों में जाए और उसे दूर करे. उनके लिए अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के अवसरों के निर्माण के साथ-साथ एक ऐसा समाज भी चाहिए जो उन्हें वो जैसे हैं उसी रूप में स्वीकार करे. उनकी सामाजिक-आर्थिक चिंताओं पर ध्यान देकर उन्हें समाज की मुख्य़धारा से जोड़ा जाना चाहिए ताकि कट्टरतावादियों को उनको भटकाने का मौका न मिल पाए. लेकिन फ्रांसीसी राज्य के कुछ सिद्धांत जिनमें धर्मनिरपेक्षता और अभिव्यक्ति की आज़ादी प्रमुख हैं इन प्रयासों के रास्ते की मुख्य़ बाधाएं हैं.
सेक्युलरिज़्म का फ्रांसीसी स्वरूप फ्रांस में मुस्लिम समाज के अलग-थलग पड़ जाने की एक बड़ी वजह है. फ्रांसीसी गणतंत्र और एकाधिकारवादी चर्च के बीच इतिहास में वर्चस्व के लिए छिड़ी प्रतिस्पर्धा ने फ्रांस में सेक्युलरिज़्म की स्थापना को एक नई ऊर्जा प्रदान की थी. 1905 में एक क़ानून के ज़रिए फ्रांसीसी राज्य में सेक्युलरिज़्म की स्थापना की गई, जिसके तहत नागरिकों को अंतरात्मा की आज़ादी दी गई और राज्य को किसी भी पंथ, आस्था और धर्म से अलग रखा गया. दूसरे शब्दों में फ्रांसीसी राज्य किसी भी मजहब को मान्यता नहीं देता और एक तरह से किसी भी तरह की आस्था से ऊपर है. हालांकि, सरसरी तौर पर देखें तो इसमें कुछ भी ग़लत नहीं लगता लेकिन इसी कानून के दूसरे प्रावधान सार्वजनिक स्थानों में किसी भी तरह के धार्मिक प्रतीकों के इस्तेमाल की मनाही करते हैं. इस तरह के प्रावधान फ्रांस में सार्वजनिक जीवन में भाईचारे के लिए बड़ा ख़तरा बन गए हैं.
इस सदी की शुरुआत में कट्टरतावादी जिहादी संगठनों के उभार ने फ्रांस की इन तंगहाल बस्तियों के नागरिकों को फ्रांसीसी सरकार के सामने अपने गुस्से के इज़हार का एक मौका प्रदान किया. इसके साथ ही अल-क़ायदा और आईएसआईएस जैसे गुटों ने कभी फ्रांस की शान रहे तथाकथित इस्लामिक मग़रिब के लड़ाकों को आकर्षित करना शुरू किया
फ्रांस के पूर्व उपनिवेशों से मुस्लिम आबादी के निरंतर प्रवाह ने फ्रांस के जनसांख्यिकी-बनावट में विविधता लाने का काम किया और साथ ही फ्रांसीसी सेक्युलरिज़्म के सामने नए प्रश्न भी उठाए. दुपट्टे और हिजाब जैसे मुस्लिम पहनावे पर पाबंदी को इस्लाम के प्रति भेदभाव के नज़रिए से देखा जाने लगा. इन पाबंदियों को हटाने की मांगों को फ्रांसीसी सरकार द्वारा ख़ारिज किए जाने के बाद वहां का मुस्लिम समाज और असंतोष का शिकार हुआ. इतने कठोर तरीके से सेक्युलरिज़्म को लागू किए जाने को कभी-कभी पुरातनपंथी और अनावश्यक भी माना गया. 1905 में जब यह कानून पास किया गया था उस समय फ्रांस एक अपेक्षाकृत सजातीय देश था और चर्च का एकाधिकारवादी रुख़ राजसत्ता की श्रेष्ठता के रास्ते की बाधा था. मौजूदा वक्त में फ्रांस पश्चिमी यूरोप में सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी का केंद्र है और आज का कैथोलिक चर्च शायद ही मौजूदा राजसत्ता के लिए कोई ख़तरा है. एक निर्धन और सामाजिक रूप से जड़ मुस्लिम समुदाय फ्रांसीसी सांस्कृतिक और कानूनी ढांचे के सामने खड़ा है जो उनके भीतर सामाजिक बहिष्कार की भावना को बढ़ावा देता है. जैसा कि पूर्व आवासीय सचिव बेनोइस्ट एपारु ने कहा है- फ्रांसीसी सेक्युलरिज़्म आज एक सर्वसत्तावादी धर्मनिरपेक्षता का रुप धारण कर चुका है.
2015 की शुरुआत में व्यंग्य समाचारपत्र चार्ली हेब्दो ने अनुचित तरीके से पैगंबर मोहम्मद के कार्टूनों की एक सीरीज़ का प्रकाशन किया था. इसको इस्लाम में ईश-निंदा माना जाता है. इसके विरोध में अल्जीरियाई मूल के दो भाइयों ने समाचारपत्र के दफ्त़र में घुसकर चीफ एडिटर और कार्टूनिस्ट समेत 11 लोगों की नृशंस हत्या कर दी थी. इस आतंकी हमले की चौतरफा निंदा हुई और इसके बाद दूसरों की भावनाओं को आहत करने की छूट पर एक बहस भी शुरू हो गई थी. इस्लाम समेत दूसरे धर्मों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का चार्ली हेब्दो का एक कुख्य़ात इतिहास रहा है. हमलों के बाद अख़बार को अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए आवाज़ उठाने के चलते विश्व बिरादरी से व्यापक समर्थन मिला. लेकिन क्या कुछ मुद्दे व्यंग्य की सीमा रेखा से परे होते हैं इस पर भी बहस गरम होती रही.
गहरे अंसतोष का शिकार युवा कट्टर इस्लामिक संगठनों का मोहरा बन जाता है जो इन्हें हथियारों के ज़रिए अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिए भड़काता है. इस तरह एक विशुद्ध घरेलू सामाजिक-आर्थिक समस्या अंतरराष्ट्रीय रूप धर लेती है
चार्ली हेब्दो को मिल रहे अपार समर्थन के बीच ‘मैं हू चार्ली’ का नारा भी खूब उछला और यह आरोप भी लगे की समाचार पत्र नैतिकता के कतिपय नियमों का उल्लंघन कर रहा है. मोहम्मद की नग्न चित्रों का प्रदर्शन अपमानजनक तो थे ही क्योंकि न सिर्फ़ ये इस्लाम के खिलाफ़ है बल्कि ये आधारभूत मानवीय मर्यादा के भी खिलाफ़ हैं. हालांकि, इसके बाद चार्ली हेब्दो और अभिव्यक्ति की आज़ादी से जुड़े मुद्दों पर एक लोकप्रिय आंदोलन चल पड़ा जिसकी वजह से इन कार्टूनों से जुड़े मुद्दे की बारीकियों और अख़बार की संदिग्ध नैतिक श्रेष्ठता जैसे विषय धरे के धरे रह गए.
फ्रांसीसी समाज में अभिव्यक्ति की बेरोकटोक आज़ादी और सेकुलर सिद्धांतों का कड़ाई से होने वाला अनुपालन मिलकर मुसलमानों के मनमस्तिष्क में एक किस्म के विरोध की भावना भर चुका है और अब भी कर रहा है. अगर उनको धार्मिक आज़ादी के अवसर मिले होते तो शायद वे इन व्यंग्यों को एक स्वस्थ हास-परिहास के रूप में स्वीकार कर लेते. लेकिन यहां तो वो एक ऐसे घुटन भरे वातावरण में सांस ले रहे हैं जिसमें न तो उन्हें उनके धर्म के बुनियादी सिद्धांतों को मानने की आज़ादी मिलती है और न ही भावनाएं आहत होने पर उसपर एतराज़ जताने का कोई मौका मिलता है. जैसा कि एलिज़ाबेथ विंक्लर ने द न्यू रिपब्लिक में लिखा है, ‘व्यंग्य को धार्मिक अभिव्यक्ति के साथ-साथ फलने-फूलने का अवसर मिलना चाहिए.’
इस्लाम समेत दूसरे धर्मों की भावनाओं को ठेस पहुंचाने का चार्ली हेब्दो का एक कुख्य़ात इतिहास रहा है. हमलों के बाद अख़बार को अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए आवाज़ उठाने के चलते विश्व बिरादरी से व्यापक समर्थन मिला. लेकिन क्या कुछ मुद्दे व्यंग्य की सीमा रेखा से परे होते हैं इस पर भी बहस गरम होती रही.
फ्रांस में खून खराबे से भरे आतंकवादी घटनाक्रम ने राष्ट्रपति मैक्रों को क्षेत्र की सुरक्षा के लिए प्रयास दोगुने करने के लिए प्रेरित किया है. इस्लाम का फ्रेंच अवतार गढ़ने के उनके हालिया प्रयास फ्रांस में आतंकवाद के मूल कारणों को नज़रअंदाज़ करते हैं. इस्लाम में ‘सुधार’ लाने की कोशिशें फ्रांस में मुस्लिमों के मन में शक-ओ-सुबह़ और विरोध की पुरानी भावनाओं को ही और पुख्त़ा करेंगी. वॉशिंगटन पोस्ट ने अभी हाल ही में एक लेख में लिखा है, ‘फ्रांस के उपनगरीय बस्तियों में रहने वाले मुसलमानों के मन में घर कर गईं अलगाववाद की भावनाओं – जिन्हें ज़्यादातर विशेषज्ञ उग्रवाद और हिंसा के पीछे की मूल वजह मानते आए हैं- को दूर करने की बजाए सरकार 1400 साल पुराने धर्म को तथाकथित रूप से सुधारने की कोशिश कर रही है’. इसके बजाए राष्ट्रपति मैक्रों को समाज में आए दरार को पाटकर खुद को दरकिनार मान रहे समूहों के सामाजिक एकीकरण की दिशा में काम करना चाहिए. इस बात को मानना चाहिए कि आतंकवाद की जड़ में सामाजिक-आर्थिक असंतोष की वो भावना है जो उत्तर अफ्रीकी मूल के फ्रांसीसी नागरिकों के मन में गहरे जमी हुई है. इस घरेलू समस्या को समूचे इस्लामिक जगत की समस्या से जोड़कर देखने से मुस्लिम समाज और अलग-थलग महसूस करेगा और इसके फलस्वरूप शांतिप्रिय सामाजिक एकीकरण का मकसद हासिल करने में और देरी होगी.
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