Published on Feb 16, 2019 Updated 0 Hours ago

डिसरप्टिव टेक्नालॉजी में तेजी से होते बदलाव परमाणु रक्षा के स्वरूप को बदल देने वाले हैं। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, साइबर हथियार, हाइपरसोनिक हथियार और सतत निगरानी, अकेले तौर पर या एक-दूसरे के साथ मिल कर परमाणु बेड़े के भविष्य के लिए संकट खड़ा कर देंगे।

उभरती तकनीकें और भारत की परमाणु रक्षा

नई दिल्ली में 26 जनवरी 2009 को गणतंत्र दिवस परेड के दौरान अग्नि 3 परमाणु सक्षम मिसाइल की झांकी। फोटो: Daniel Berehulak/Getty

पिछले सात दशक से परमाणु हथियार अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा के अहम पायदान बने रहे हैं। परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र की अपने दुश्मनों पर जवाबी हमले की क्षमता यानी आतंक के परमाणु संतुलन ने परमाणु शक्ति संपन्न विरोधियों के बीच ‘लंबी शांति’ या ‘रणनीतिक स्थायित्व’ कायम रखा है। परमाणु शक्ति संपन्न विरोधियों के बीच यह साझा खतरा अब खुद खतरे में है। पिछले दो दशक के करीब में सामने आए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई), निगरानी क्षमता, साइबर डोमेन और हाइपरसोनिक हथियारों के क्षेत्र में तेज तकनीकी प्रगति ने यह खतरा पैदा किया है। इन ‘डिसरप्टिव तकनीक’ को वर्ल्ड इकनोमिक फोरम (डब्लूईएफ) ने ‘चौथी औद्योगिक क्रांति’ कहा गया है और इनकी प्रगति के साथ ही दुनिया ऐसी तकनीकी क्रांति के करीब है जिसमें परमाणु रक्षा के पीछे मौजूद सबसे मौलिक भाव ही सिमट कर रह जाएगा। यह मौलिक भाव है परमाणु हथियार संपन्न देशों की अपने परमाणु हथियार संपन्न विरोधियों का अकल्पनीय नुकसान करने की दक्षता।


आतंक का परमाणु संतुलन यानी परमाणु हथियार संपन्न देशों की अपने दुश्मनों पर जवाबी हमले करने की क्षमता ने परमाणु शक्ति संपन्न विरोधियों के बीच ‘लंबी शांति’ या ‘रणनीतिक स्थायित्व’ कायम रखा है।


परमाणु रक्षा के खेल में भारत का प्रवेश काफी देर से हुआ है। 1950 और 60 के दशक में जब यह तीसरी दुनिया के देशों में परमाणु शोध के लिहाज से तकनीकी रूप से सबसे अग्रणी देशों में से था, तब भी भारतीय नीति निर्माताओं को परमाणु रक्षा के तर्क को समझ कर इसे अपनाने में पांच दशक का लंबा समय लगा। 1998 में जब भारत ने अपने आप को परमाणु शक्ति संपन्न देश घोषित किया, भारत की परमाणु रक्षा ने इसे आश्वस्त कर दिया कि चीन और पाकिस्तान के परमाणु हथियार का मुकाबला कर सकता है। उसी समय से भारत लगातार यह प्रयास करता रहा है कि इसकी परमाणु रक्षा मजबूत हो सके। इसके लिए इसने परमाणु प्रक्षेपण यंत्रों की तकनीकी सुधार और उनकी मारक क्षमता को बढ़ाने पर लगातार ध्यान दिया है। अपने परमाणु प्रतिद्वंद्वियों को कड़ी टक्कर देने के लिए इसने लंबी दूरी की बैलिस्टिक मिसाइलों, समुद्र आधारित परमाणु वेक्टर, सीमित बैलिस्टिक मिसाइल रक्षा कार्यक्रम, मल्टीपल री-एंट्री लांच व्हीकल (एमआईआरवी) और व्यापक कमांड और कंट्रोल तंत्र पर काफी काम किया है। परमाणु रक्षा के अचूक और विश्वसनीय होने में इस तकनीकी विकास का अहम योगदान है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि इन तकनीकों ने ही परमाणु रक्षा के लिहाज से वैश्विक यथास्थिति को बहाल रखा है।

हालांकि ‘डिसरप्टिव तकनीक’ के लिहाज से तेजी से हुआ बदलाव परमाणु रक्षा की प्रवृत्ति को बदल कर रख देने वाला है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, साइबर हथियार, हाइपरसोनिक हथियार और अनवरत निगरानी, अपने स्तर पर या एक साथ मिल कर परमाणु बेड़े के भविष्य को खतरे में डाल देंगे और इस तरह परमाणु शक्ति संपन्न देशों की पर्याप्त रूप से बदले की कार्रवाई कर सकने की क्षमता में विश्वास को कम कर देंगे। सर्वप्रथम, लगातार गिद्ध सी नजर गड़ाए दुश्मन की आंख से परमाणु हमले करने वाले प्लेटफार्म को छुपाए रख पाना बहुत मुश्किल हो जाएगा। दूसरे, ये तकनीक परमाणु कमांड, संचार, और अहम ढांचागत नेटवर्क को निशाना बनाने में सक्षम होंगे, जिससे दुश्मन के निर्णय लेने वाली श्रृंखला को नुकसान पहुंचाया जा सकेगा। अंतत: हमला करने वाले पारंपरिक हथियारों के विकसित स्वरूप परमाणु हथियारों के अड्डे को भी बिल्कुल सटीक रूप से निशाना बनाने में मददगार होंगे। विकसित हो रही इस तकनीकी क्रांति से अगर परमाणु हथियार संपन्न देशों को आगे बढ़ कर पहले हमला करने में मदद मिलती है तो इससे तकनीकी रूप से कम संपन्न देशों पर अपने परमाणु बेड़े को हेयर-ट्रिगर ऑपरेशनल स्थिति में रखने का दबाव भी बढ़ता है। जब ये नई तकनीक परमाणु युद्ध के मैदान में उतारी जाएंगी तो पलट कर ताकतवर हमला करने की क्षमता विकसित करने के लिए प्रयासरत एक उभरती हुई परमाणु शक्ति के रूप में भारत को सबसे ज्यादा नुकसान होने वाला है।


अगर विकसित हो रही तकनीकी क्रांति से परमाणु हथियार संपन्न देशों को आगे बढ़ कर पहले हमला करने में मदद मिलती है तो इससे तकनीकी रूप से कम संपन्न देशों पर अपने परमाणु बेड़े को हेयर-ट्रिगर ऑपरेशनल स्थिति में रखने का दबाव भी बढ़ता है।


आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस से शस्त्र प्रणाली भौतिक स्थल की निगरानी करने और मानवीय दखलंदाजी के बिना ही प्रतिक्रिया करने में मदद करते हैं। एआई और एआई-सूचित स्वायत्त हथियारों में युद्ध के मैदान को बदल देने की बहुत संभावना हैं। मानवीय निर्णय लेने के विपरीत एआई किसी भी सूचना के बहुत तेजी से विश्लेषण को संभव बनाती है। क्रिया-प्रतिक्रिया का चक्र यहां बहुत छोटा होता है। दूसरे, स्वतंत्र रूप से कदम उठाने की क्षमता से मानवीय दखलंदाजी का तत्व समाप्त हो जाता है। हालांकि पूर्ण रूप से स्वचालित युद्ध के मैदान में गतिरोध कहां तक बढ़ेगा, इसका आकलन करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। सैन्य रणनीति के दो अहम पहलू यानी पहल और रफ्तार दोनों ही में वे आगे होंगे जिनकी एआई में महारथ होगी। एआई की मदद से दुश्मन के परमाणु बेड़े की लगातार निगरानी करना भी संभव होगा। देशों के लिए अपने सचल भूमि-आधारित मिसाइल सिस्टम और एसएसबीएन को छुपा कर रखना बहुत मुश्किल हो जाएगा। ये ही परमाणु प्रक्षेपण के लिहाज से सबसे अहम हैं। ऐसे में स्वायत्त हथियारों को ऐसे परमाणु प्लेटफार्म की खोज के लिए लगाया जा सकता है। उदाहरण के तौर पर इस समय पेंटागन समुद्र आधारित स्वायत्त हथियार ‘अटैक स्वार्म्स’ पर काम कर रहा है, जिसे वुल्फ पैक्स के नाम से भी जाना जाता है। इससे वह दुश्मन के एसएसबीएन को तलाश कर नष्ट करने की क्षमता हासिल करना चाहता है।

अगर एआई से परमाणु हथियारों के भविष्य को ले कर खतरा पैदा हो रहा है तो हाइपरसोनिक हथियार जो आवाज की रफ्तार से पांच गुना तेजी से मार करते हैं, मिसाइल सुरक्षा सिस्टम की हर परत को भेदने की क्षमता रखते हैं। अगर लांच के चरण पर ही इनका पता लगा लिया जाए, तो भी इनके लक्ष्य को समझ पाना बेहद ही मुश्किल है। जब एकदम सटीक निशाने को असाधारण रफ्तार, रास्ते में दूसरों को धोखा दे कर आगे बढ़ने की शानदार दक्षता और अत्यधिक मारक क्षमता की मदद मिल जाएगी तो लक्ष्य किए जा रहे देश के पास प्रतिक्रिया के लिए न्यूनतम समय होगा। परमाणु संपन्न देश जो ऐसी क्षमता वाले दुश्मनों का सामना कर रहे हों, वे स्वभाविक तौर पर अपने परमाणु बेड़े को ऐसी तैयारी में रखेंगे कि वे हेयर ट्रिगर यानी चेतावनी मिलते ही लांच कर देने को हमेशा तैयार हों। अंतत: आक्रामक साइबर ऑपरेशन से दुश्मन की पूर्व चेतावनी, कमांड और कंट्रोल, संचार व्यवस्था और अहम ढांचागत सुविधा को निष्क्रिय किया जा सकेगा। एक बार नष्ट कर दिए जाने पर देशों पर ऐसे परमाणु हमले का खतरा होगा जिसका वे प्रभावी जवाब नहीं दे पाएंगे। अगर परमाणु हथियार की वजह से पिछले सात दशकों के दौरान एक ऐसी व्यवस्था पैदा हुई थी, जिसमें आगे बढ़ कर आक्रमण की बजाय रक्षात्मक मुद्रा ज्यादा उपयुक्त थी तो इन डिसरप्टिव तकनीकों ने आगे बढ़ कर आक्रमण करने को ज्यादा उपयुक्त बना दिया है। परमाणु शक्ति संपन्न देशों की जो सबसे बड़ी आशंका रही है, वह परमाणु कत्लेआम जल्दी ही वास्तविकता में तब्दील हो सकता है। ऐसे में तकनीकी क्रांति की वजह से परमाणु रक्षा की पारंपरिक बुनियाद को गंभीर खतरा पैदा हो गया है।


अगर एआई से परमाणु हथियारों के भविष्य को ले कर खतरा पैदा हो रहा है तो हाइपरसोनिक हथियार जो आवाज की रफ्तार से पांच गुना तेजी से मार करते हैं, मिसाइल सुरक्षा सिस्टम की हर परत को भेदने की क्षमता रखते हैं।


मुमकिन है कि इन तकनीक को अभी पूरी तरह से काम में लाने लायक बनाने में कुछ समय लगे। लेकिन इनके लिए मुकाबला अभी से बहुत तेज हो गया है। अमेरिका, रूस और चीन इस समय दुनिया में एआई, साइबर हथियार और हाइपरसोनिक्स को विकसित करने में सबसे आगे चल रहे हैं। भारत के लिए समस्या दोतरफा है। पहली, भारत के परमाणु रक्षा कार्यक्रम को इन देशों से मौजूद खतरे को छोड़ भी दिया जाए तो इन ‘डिसरप्टिव तकनीक’ में अमेरिका, चीन और रूस की प्रतिद्वंद्विता की वजह से भारत भी ऐसे सिस्टम विकसित करने के लिए मजबूर होगा और साथ ही इनका मुकाबला करने के लिए क्षमता विकसित करने पर भी इसे निवेश करना होगा। यह खास तौर पर इसलिए चिंता पैदा करने वाला है, क्योंकि भारत तो अभी परमाणु रक्षा का पुख्ता ढांचा खड़ा करने की प्रक्रिया में ही है। इसकी आईसीबीएम फोर्स और समुद्र आधारित परमाणु फोर्स अभी विकास के क्रम में ही हैं।

इसी तरह, भारत का परमाणु कमांड एंड कंट्रोल ढांचा अभी तक दूसरों के अपेक्षा कसौटी पर नहीं कसा जा सका है। इसी तरह परमाणु निर्णय लेने के ढांचे की विश्वसनीयता को ले कर भी चिंताएं हैं। अपेक्षाकृत ज्यादा स्थापित परमाणु शक्तियों के मुकाबले भारत का परमाणु रक्षा कार्यक्रम अगर पीछे है तो एआई, साइबर डोमेन और हाइपरसोनिक हथियारों में शोध और विकास के मामले में तो भारत अमेरिका, रूस और चीन के मुकाबले खतरनाक रूप से पीछे चल रहा है। आज तक की तारीख में भारतीय सैन्य बलों की एकीकृत सैन्य कमांड नहीं है। भारतीय निर्णय प्रक्रिया को खास तौर पर चीन में हो रही प्रगति को ले कर चिंता होगी, क्योंकि अमेरिका और रूस के विपरीत चीन से भारत को सीधे परमाणु खतरा है। ऐसी तकनीक में चीन की कामयाबी से भारत के परमाणु बेड़े चीन के हमले के खतरे की जद में आ जाएंगे। यहां तक कि पारंपरिक मामले में भी ये तकनीक भारत के दुश्मनों को अहम बढ़त दिला देगी।

ऐसी स्थिति में भारत सिर्फ सैन्य रूप से ही नहीं पिछड़ेगा, बल्कि तकनीकी अक्षमता की वजह से भारत अंतरराष्ट्रीय कूटनीति में भी हाशिए पर पहुंच सकता है। 1960 के दशक में भारत के परमाणु हथियारों से दूर रहने के फैसले की वजह से यह अप्रसार संधि से बाहर रह गया। लगभग चार दशक तक भारत वैश्विक अप्रसार व्यवस्था के लिए अछूत बना रहा। इस लिहाज से जरूरी दक्षता भारत को डिसरप्टिव तकनीक के संभावित नकारात्मक प्रभावों को साधने के लिए चल रहे कूटनीतिक प्रयासों को प्रभावित करने के लिहाज से भी सक्षम बनाएगी। भारतीय नीति नियंताओं को दीवार पर लिखी इबारत को पढ़ लेना चाहिए और इस तकनीकी क्रांति में भागीदारी को सुनिश्चित करना चाहिए ताकि यह इसमें हाशिए पर खड़े रहने को मजबूर नहीं हो, क्योंकि इसका नतीजा सिर्फ परमाणु हथियारों के क्षेत्र में ही देखने को नहीं मिलेगा।


[पंत और जोशी Indian Nuclear Policy (ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, 2018) के लेखक हैं।]

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