Published on Mar 02, 2019 Updated 0 Hours ago

संरचनात्मक यथार्थवाद इस व्यवस्था के साथ भारत के संबंध को बेहतर ढ़ंग से बताता है — और उन चुनौतियों को भी जो भविष्य में इस व्यवस्था को झेलनी पड़ सकती हैं।

उभरती हुई शक्तियां और वैश्विक परमाणु व्यवस्था: भारत के समायोजन का एक संरचनात्मक अध्ययन

परमाणु सुरक्षा शिखर सम्मेलन, अप्रैल 2016, वाशिंगटन, डीसी। फोटो: Andrew Harrer/Getty

व्यवस्थाअंतरराष्ट्रीय परमाणु व्यवस्था के भीतर भारत की यात्रा उल्लेखनीय रही है। कभी उसे इस जमात में अस्पृश्य माना जाता था, लेकिन भारत इस व्यवस्था से कुछ इस तरह जुड़ा जैसे परमाणु अप्रसार संधि से बाहर खड़ा कोई भी परमाणु देश नहीं जुड़ पाया। 2008 में भारत ने अंतरराष्ट्रीय परमाणु कारोबार से जुड़ने के लिए एनएसजी — यानी नाभिकीय आपूर्ति समूह — से इस शर्त पर छूट हासिल की कि वह अपने सभी परमाणु प्रतिष्ठान संयुक्त राष्ट्र के परमाणु चौकीदार — अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी — की निगरानी में रखने को तैयार है। ये हैसियत पहले सिर्फ़ एनपीटी में आने वाले पांच परमाणुसंपन्न देशों को हासिल थी और जबकि भारत का विकास उल्लेखनीय रहा है। इसके आगे समायोजन की चुनौतियां अब तक तीखी बनी हुई हैं। करीब एक दशक से ज़्यादा समय तक एनएसजी के साथ सहयोग करने के बाद भारत ने 2016 में समूह की सदस्यता के लिए आवेदन किया। लेकिन भारत के प्रवेश का चीन द्वारा मुखर विरोध ऐसी रुकावट बना हुआ है जिससे निकट भविष्य में पार पाना संभव नहीं लगता। इस लेख में अंतरराष्ट्रीय परमाणु व्यवस्था के साथ भारत के एकीकरण या समायोजन का जायज़ा लिया गया है — यह समझने के लिए कि संरचनात्मक यथार्थवाद इस व्यवस्था के साथ भारत के संबंध को बेहतर ढ़ंग से बताता है — और उन चुनौतियों को भी जो भविष्य में इस व्यवस्था को झेलनी पड़ सकती हैं।

अगर उदारवाद मानता है कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं प्रभावशाली हैं क्योंकि वे एक अराजकतावादी अंतरराष्ट्रीय संरचना के मातहत रह रहे सभी राज्यों के सकारात्मक फ़ायदों तक ले जाती हैं, तो संरचनात्मकतावादी मानते हैं कि अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं सामान्य नियमों और कायदों पर आधारित राज्यों के बीच एक साझा समझ रोपते हुए काम करती हैं। दूसरी तरफ़ संरचनात्मक यथार्थवाद तर्क देता है कि अंतरराष्ट्रीय राजनीति के बाक़ी पहलुओं की तरह अंतरराष्ट्रीय संस्थान भी प्राथमिक तौर पर सत्ता-राजनीति की जगह हैं और मौजूदा सत्ता संरचनाओं को सूत्रबद्ध करने में मदद करते हैं। इसलिए संस्थानों के भीतर बदलाव किसी सकारात्मक लाभ की चिंता या अनिवार्यत: कायदे कानून पर अमल के प्रति झुकाव से पैदा नहीं होते; बदलाव कहीं ज़्यादा अपने निर्माताओं के हितों और उनके बीच के शक्ति संतुलन से निर्धारित होते हैं जिसमे दोनों परिवर्तनशील हैं।

संस्थानों के भीतर बदलाव किसी सकारात्मक लाभ की चिंता या अनिवार्यत: कायदे कानून पर अमल के प्रति झुकाव से पैदा नहीं होते; बदलाव कहीं ज़्यादा अपने निर्माताओं के हितों और उनके बीच के शक्ति संतुलन से निर्धारित होते हैं जिसमैं दोनों परिवर्तनशील हैं।

यह दलील दी जाती रही है कि संरचनावाद वैश्विक परमाणु व्यवस्था में भारत के उभार की व्याख्या करने में इसलिए नाकाम रहा कि भारत के मामले में यथास्थिति को चुनौती देने वाले एक परम्परागत संशोधनवादी राज्य के जाने-पहचाने तत्व नहीं दिखते। भले ही, भारत ने, दूसरी उभरती हुई शक्तियों की तरह अपनी सापेक्ष स्थिति मज़बूत करने के लिए वैश्विक परमाणु व्यवस्था में सुधार की मांग की है। बहरहाल, यहां यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि वैश्विक परमाणु व्यवस्था किसी भी दूसरे संस्थान की तरह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की संरचना का भी नतीजा होती है। और भले ही भारत ने 1998 में अपने परमाणु हथियारों की क्षमता को अमल में लाकर इस वैश्विक परमाणु व्यवस्था को खुली चुनौती दी और इस व्यवस्था में अपनी हैसियत बेहतर करनी चाही, लेकिन जहां तक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का सवाल है, तब से वह मोटे तौर पर यथास्थितिवादी शक्ति ही बना रहा है।

अकेली महाशक्ति अमेरिका ने भारत के उभार को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की संरचना पर एक ख़तरे की तरह नहीं देखा, यह उन कोशिशों से स्पष्ट था जो अमेरिका ने भारत के उभार में सहयोग करने के लिए की। दूसरी ओर वाशिंगटन डीसी ने चीन के उभार को बड़ी फ़िक्र से देखा है क्योंकि बीजिंग ने कई मोर्चों पर अमेरिकी प्रभुत्व को चुनौती दी है। इसलिए चीन के उभार को रोकना और इसकी बढ़ती आर्थिक-सैन्य ताकत को प्रतिसंतुलित करना वह एक कारण बनाता है जिससे अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में भारत के उभार को मदद दी। ग्लोबल अमेरिकी व्यवस्था में भारत की जगह बनाना इसी अमेरिकी रणनीति के नतीजे के तौर पर देखा जा सकता है।

संरचनावाद, बीच में, इस बात की भी व्याख्या करता है कि इस व्यवस्था में भारत का समायोजन, जैसी कल्पना की गई थी, वैसा हाल के वर्षों में क्यों पूरा नहीं हो सका। भारत चाहता था कि वह एनएसजी से जुड़ कर ख़ुद को वैश्विक परमाणु व्यवस्था के संदर्भ में प्रवृत्ति निर्धारक की तरह स्थापित करे और इस व्यवस्था के भीतर एक सक्रिय भूमिका अदा करे। 2016 में भारत ने जब एनएसजी की सदस्यता के लिए आवेदन किया, इसके तत्काल बाद चीनी सरकार ने एक सार्वजनिक बयान जारी कर कहा कि भारत के एनएसजी की सदस्यता लेने पर वह चिंतित है क्योंकि इसका परमाणु अप्रसार समझौते पर नकारात्मक असर होगा। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता लू कांग ने जोड़ा कि “एनएसजी सहित सभी बहुपक्षीय अप्रसार निर्यात नियंत्रण व्यवस्थाओं ने एनपीटी को एनएसजी के विस्तार के लिए एक अहम कसौटी की तरह देखा है।

2016 में भारत ने जब एनएसजी की सदस्यता के लिए आवेदन किया, इसके तत्काल बाद चीनी सरकार ने एक सार्वजनिक बयान जारी कर कहा कि भारत के एनएसजी की सदस्यता लेने पर वह चिंतित है क्योंकि इसका परमाणु अप्रसार समझौते पर नकारात्मक असर होगा। जहां चीन अपने विरोध के लिए मानदंड संबंधी आधार का हवाला दिया, कई और तथ्य हैं जो चीन के रुख़ के पीछे कहीं ज़्यादा संरचनात्मक वजहों की इशारा करते हैं।

जहां चीन अपने विरोध के लिए मापदंड संबंधी आधार का हवाला दिया, कई और तथ्य हैं जो चीन के रुख़ के पीछे कहीं ज़्यादा संरचनात्मक वजहों की इशारा करते हैं।

पहली बात यह कि तार्किक तौर पर 2008 में एनएसजी की ओर से दी गई रियायत के परमाणु अप्रसार संधि पर अगर बड़े नहीं तो लगभग वही असर रहे थे। अगर एनएसजी में भारत की सदस्यता का चीन की ओर से किया जा रहा विरोध सैद्धांतिक आधार पर है तो उन्होंने 2008 के समय मिली रियायतों को क्यों नहीं रोका? एक संभव व्याख्या यह है कि 2008 में अमेरिका का एनएसजी के सभी सदस्य देशों पर कहीं ज़्यादा प्रभाव था और चीन इस आम सहमति को रोकने में अलग-थलग नहीं पड़ना चाहता था। लेकिन 2016 तक चीन ने इतनी ताक़त और हैसियत बना ली थी कि वह कहीं ज़्यादा मुखर रुख ले सके। चीन ने सिर्फ एनएसजी में भारत के प्रवेश के विरोध का नेतृत्व करने की इच्छा ही नहीं दिखाई, इसने अपनी आर्थिक ताकत के ज़रिए अपने विरोध के पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए कथित तौर पर एनएसजी के कुछ सदस्य देशों पर अपने प्रभाव का इस्तेमाल करने की कोशिश भी की।

दूसरी बात यह कि ख़ासकर 2016 के सिओल सम्मेलन के बाद, एनएसजी में भारत के प्रवेश पर चीन के विरोध को लेकर नई दिल्ली से चल रहे लगातार लेखन के जवाब में बीजिंग के आधिकारिक प्रवक्ता, ग्लोबल टाइम्स ने अपनी जो मायूसी प्रगट की, वह कुछ हद तक भारत को बढ़ावा देने के पीछे के अमेरिकी मक़सद को लेकर उसके अंदेशों को पकड़ती है। मिसाल के तौर पर ग्लोबल टाइम्स के एक संपादकीय में लिखा गया।

अमेरिका के समर्थन ने भारत की हसरतों को सबसे ज़्यादा बढ़ावा दिया है। भारत के क़रीब जाकर, वाशिंगटन की भारत-नीति दरअसल चीन को रोकने का मक़सद पूरा करती है। अमेरिका पूरी दुनिया नहीं है। उसके समर्थन का यह मतलब नहीं है कि भारत को पूरी दुनिया का समर्थन मिल गया है। यह मूल तथ्य लेकिन भारत द्वारा नज़रअंदाज़ कर दिया गया है।

एनएसजी से जुड़ने की भारत की कोशिश पर चल रही बहस और इसके चीन के विरोध के अलग-अलग पहलुओं को समझने में संरचनात्म ढांचे की जो केंद्रीयता है, वह इस तर्क से सामने आ जाती है। यह धारणा कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में चीन के उभार का प्रत्युत्तर देने के लिए अमेरिका भारत को बढ़ावा दे रहा है, बीजिंग में भी मौजूद है। इस परिप्रेक्ष्य में एनएसजी में भारत के प्रवेश का बीजिंग द्वारा मुखर विरोध आम तौर पर भारत के उभार और भारत को बढ़ावा देने की अमेरिकी कोशिशों को रोकने की उसकी बड़ी रणनीति का हिस्सा है। तीसरी बात, चीन ने भी एनएसजी में भारत की सदस्यता के आवेदन को अपने सहयोगी पाकिस्तान के आवेदन से जोड़ कर शक्ति-संतुलन का अपना कार्ड खेला है।

यह अंतराष्ट्रीय व्यवस्था में भारत को बढ़ावा देने की अमेरिकी कोशिश का प्रत्युत्तर देने की चीनी रणनीति का हिस्सा है।

मौजूदा अंतरराष्ट्रीय परमाणु व्यवस्था में भारत के आंशिक समायोजन, और इसके संपूर्ण समायोजन के सामने की चुनौतियों को इसलिए बेहतर ढ़ंग से इस संरचनात्मक चौखटे द्वारा समझा जा सकता है। वर्चस्वशाली संरचनात्मक ढ़ाँचा वैश्विक परमाणु व्यवस्था को कहीं ज़्यादा अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की संरचना के नतीजे की तरह देखता है। सारतत्व में, जैसे-जैसे यह संरचना बदलती है, उसी तरह वैश्विक परमाणु व्यवस्था भी — और ज़रूरी नहीं कि यह काम किसी व्यवस्थित और संगठित तरीक़े से हो। परमाणु अप्रसार के कुछ लंबे समय से चले आ रहे क़ायदों को छोड़ते हुए भी वैश्विक परमाणु व्यवस्था में भारत को बढ़ावा देने का वाशिंगटन डीसी का निर्णय ऐसा ही मामला है। जवाब में एनएसजी की गाइडलाइन्स तोड़ते हुए पाकिस्तान को बढ़ावा देने के बीजिंग का निर्णय भी इसी तर्क के सबूत जुटाता है। अपने-अपने संरचनात्मक फायदों को लक्ष्य करते हुए, खासकर, स्थापित शक्तियों द्वारा एनपीटी जैसी संस्थाओं को किस हद तक चुनौती दी जा सकती है, इसकी सीमाएं हैं, लेकिन वैश्विक परमाणु व्यवस्था की स्थिरता के लिए उन सीमित चुनौतियों के भी महत्वपूर्ण नतीजे हो सकते हैं।


इस लेख का विस्तारित रूप थर्ड वर्ल्ड क्वार्टरली, वॉल्यूम 39, नंबर 12 — स्पेशल इशू: राइजिंग पॉवर इन इंटरनेशनल कनफ्लिक्ट मैनेजमेंट: कन्वर्जिंग एंड कॉंटेस्टींग अप्रोचेस में प्रकाशित हो चुका है।

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