Author : Niranjan Sahoo

Published on Jul 20, 2020 Updated 0 Hours ago

अब समय आ गया है कि सामाजिक सुरक्षा की इस महत्वपूर्ण योजना के लक्ष्यों का फिर से निर्धारण किया जाए. ताकि ये अधिक टिकाऊ और असरदार योजना बन सके.

मनरेगा को महामारी से सुरक्षित बनाने की कोशिश: सरकार क्या कदम उठाए?

कोविड-19 महामारी के प्रकोप को और फैलने से रोकने के लिए पूरे देश में लॉकडाउन लगाया गया था. देश के इतिहास में ये अभूतपूर्व क़दम था. लॉकडाउन के कारण अपने अपने गांवों या छोटे शहरों से जाकर बड़े शहरों में काम-धंधा करने वाले कामगारों की परेशानियों को उजागर कर दिया था. प्रवासी मज़दूरों के संकट ने भारत में सामाजिक सुरक्षा के सबसे बड़े कार्यक्रम, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (MNREGA) को लेकर भी चर्चाएं तेज़ हुई हैं. लॉकडाउन के कारण शहरों से करोड़ों प्रवासी कामगारों को अपने घरेलू राज्यों को लौटने को मजबूर होना पड़ा. अब कोविड-19 महामारी का प्रकोप जारी है. जिसके कारण देश की अर्थव्यवस्था और नौकरियों पर तो ख़ास तौर से विपरीत प्रभाव पड़ा है.

आज जब भारत के अधिकतर ग्रामीण परिवार, सामाजिक सुरक्षा के दायरे से महरूम हैं, ऐसे में कोविड-19 की वैश्विक महामारी के दौरान मनरेगा योजना करोड़ों परिवारों के लिए उम्मीद की इकलौती किरण नज़र आती है.

देश के असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों को तो इसका सबसे बुरा असर झेलना पड़ रहा है. इन मुश्किल हालात में उस रोज़गार गारंटी योजना की मांग सबसे अधिक है, जिसका कभी मज़ाक़ उड़ाया जाता था. आज सरकार और आम जनता, दोनों ही मनरेगा का ज़्यादा से ज़्यादा उपयोग करना चाहते हैं. अकेले मई महीने में 41 करोड़ 77 लाख दिवस की मज़दूरी का काम लोगों ने इस योजना के तहत कर डाला था. ये पिछले साल के मुक़ाबले 13 प्रतिशत अधिक है. इसके अलावा, मनरेगा की रोज़गार गारंटी योजना के तहत जिन परिवारों को सामाजिक सुरक्षा दी गई, उनकी संख्या मई में 31 प्रतिशत बढ़ कर 2 करोड़ अस्सी लाख से अधिक हो गई थी.15 साल पहले लॉन्च होने वाली मनरेगा योजना के तहत कवर किए गए परिवारों की ये अब तक की सबसे अधिक संख्या है. संक्षेप में कहें तो, आज जब भारत के अधिकतर ग्रामीण परिवार, सामाजिक सुरक्षा के दायरे से महरूम हैं, ऐसे में कोविड-19 की वैश्विक महामारी के दौरान मनरेगा योजना करोड़ों परिवारों के लिए उम्मीद की इकलौती किरण नज़र आती है.

मनरेगा ही क्यों?

मनरेगा को विश्व बैंक ने सरकार द्वारा प्रायोजित दुनिया की सबसे बड़ी रोज़गार और ग़रीबी उन्मूलन योजना का दर्जा दिया है. रोज़गार गारंटी की ये योजना कांग्रेस के नेतृत्व वाले संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (UPA) के पहले कार्यकाल (2004-2009) की प्रमुख कार्यक्रमों में से एक थी. ये योजना 2004 के आम चुनाव में में कांग्रेस के घोषणापत्र में शामिल मुख्य विषय थी. 2004 में यूपीए के सत्ता में आने के बाद ये योजना, गठबंधन सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम का अभिन्न अंग बन गई. मनरेगा योजना की परिकल्पना, सामाजिक सुरक्षा के विशेषज्ञों और नीतिगत मामलों के जानकारों ने मिलकर तैयार की थी. इसका मक़सद, देश के ग्रामीण क्षेत्रों की बिगड़ती आर्थिक स्थिति का समाधान निकालना था. योजना के अंतर्गत, ग्रामीण क्षेत्र के परिवारों को सामान्य मज़दूरी के काम की सौ दिन की रोज़गार गारंटी दी जाती थी. अपने शुरुआती चरण (2006-2007) में इस योजना को देश के 200 ग्रामीण ज़िलों में लागू किया गया था. लेकिन, अब योजना के पंद्रह साल बाद इसे देश के 691 ज़िलों में लागू कर दिया गया है. सिर्फ़ इसी बात से ग़रीब तबक़े को सामाजिक सुरक्षा देने में मनरेगा योजना के योगदान और इसकी अहमियत को समझा जा सकता है.

अपने शुरुआती रूप में मनरेगा योजना का साफ़ मक़सद था, ग्रामीण क्षेत्रों में संपत्ति का निर्माण करना. जैसे कि सूखाग्रस्त इलाक़ों में जल संचयन की व्यवस्थाओं जैसे कि तालाब का निर्माण. या फिर बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में बाढ़ से बचने के लिए निर्माण कार्य करना. इस योजना से समाज के सबसे ग़रीब और हाशिए पर पड़े लोगों का सशक्तिकरण करने की कोशिश की गई थी. इस योजना की एक प्रमुख ख़ूबी ये थी कि इसके अंतर्गत, उपेक्षा के शिकार पंचायती राज संस्थानों (PRI) को बहुत अहमियत दी गई थी. इस योजना के तहत कौन सा काम कराना है. किन लोगों को काम देना है और उन्हें कितनी मज़दूरी देनी है. इन सभी फ़ैसलों के माध्यम से रोज़गार गारंटी योजना को चलाने में ग्राम पंचायतों (GPs) को महती भूमिका दी गई थी. फिर भी, इस योजना की सबसे बड़ी ख़ूबी ये है कि इसमें हर क़दम पर पारदर्शिता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी गई है. हालांकि, आज मनरेगा योजना की इस ख़ूबी की सबसे कम चर्चा होती है. मांग आधारित इस योजना के हर क़दम को पारदर्शी बनाने का पूरा ख़याल रखा गया था. इससे पहले की तमाम सरकारी योजनाओं की नाकामी को देखते हुए, मनरेगा से जुड़ी हर जानकारी (लाभार्थियों के चुनाव से लेकर उनको दी जाने वाली मज़दूरी तक) को सार्वजनिक रखा गया था. हर राज्य में इस योजना की वेबसाइट, इस योजना को लागू करने की वास्तविक जानकारी लगातार देती रहती हैं. लेकिन, इस योजना की एक और बड़ी ख़ूबी ये है कि इसमें हर दो साल में योजना के सामाजिक निरीक्षण का प्रावधान किया गया है. इस व्यवस्था के अंतर्गत, आम लोग और इस योजना के लाभार्थी ख़ुद, इस योजना के काम का ऑडिट करते हैं. जवाबदेही की मज़बूत व्यवस्था होने के कारण, ग्रामीण रोज़गार गारंटी की इस योजना में लगातार सुधार किया जाता रहा है. इसे लागू करने वाले राज्यों ने इसमें अपने स्तर पर भी कई सुधार किए हैं. हालांकि, योजना के मूलभूत लक्ष्यों में कोई परिवर्तन नहीं किया गया है.

एनडीए (NDA) सरकार और मनरेगा (MGNREGA)

बहुत से अर्थशास्त्रियों और नीतिगत मामलों के जानकार, रोज़गार गारंटी की इस योजना की कड़ी आलोचना करते रहे हैं. कोई इसे विशेषाधिकार वाली योजना कहता है. तो कोई इसे गड्ढा खोदने का कार्यक्रम कहता है. किसी ने इसे कीचड़ से खेलने की योजना बताया तो किसी ने इसे भ्रष्टाचार का दलदल क़रार दिया. 2014 में जब बीजेपी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक मोर्चे (NDA) ने केंद्र में सरकार बनाई, तो बीजेपी ने इस योजना को 60 साल में देश से ग़रीबी न दूर कर पाने की कांग्रेस की नाकामी का प्रतीक क़रार दिया था. नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली एनडीए सरकार ने खुलकर कहा था कि वो तकनीक आधारित योजनाओं के माध्यम से लोगों के सशक्तिकरण पर ज़ोर देगी. ख़ास तौर से नक़द आधारित जन कल्याण योजना पर एनडीए सरकार का बहुत ज़ोर रहा. इसके लिए जन धन, आधार और मोबाइल (JAM) की तीन सूत्री योजना पर काफ़ी ज़ोर दिया गया. जिसके कारण, नए सत्ताधारी गठबंधन में बहुत कम लोग ऐसे थे, जो मनरेगा योजना को लेकर उत्साहित थे. एनडीए सरकार के सत्ता में आने के पहले दो वर्षों के दौरान, फंड के आवंटन में कमी के माध्यम से इस योजना का गला घोंटने की पूरी कोशिश की गई.

लेकिन, नोटबंदी और जीएसटी को लागू करने में सुस्ती के कारण ग्रामीण क्षेत्र की अर्थव्यवस्था और असंगठित क्षेत्र के कामगारों के बीच भयंकर आर्थिक संकट खड़ा हो गया था. इसके चलते एनडीए सरकार को मनरेगा के लिए धन का आवंटन बढ़ाने को मजबूर होना पड़ा. यहां तक कि एनडीए के कई मुख्यमंत्रियों ने मनरेगा योजना को लेकर कोई ढिलाई बरतने का विरोध किया. क्योंकि इसके ज़रिए उन्हें काफ़ी राजनीतिक लाभ मिला था. इसका ये नतीजा हुआ कि 2017 के बाद से एनडीए सरकार, लगातार इस योजना के कोष का आवंटन बढ़ाती रही है. सच तो ये है कि 2019 में रोज़गार गारंटी की इस योजना के लिए सबसे अधिक फंड दिया गया था. और यही नहीं, एनडीए सरकार ने बीस हज़ार करोड़ के कोष से उन्नति नाम की एक नई योजना की शुरुआत भी की. इस योजना के माध्यम से 18 से 45 साल उम्र के मनरेगा के मज़दूरों को कौशल विकास की ट्रेनिंग दी जाने लगी. संक्षेप में कहें तो, शुरुआत में एनडीए ने जिस योजना को यूपीए की नाकामी की सबसे बड़ी मिसाल बताया था. उसे योजना पर एनडीए ने यू टर्न लेकर आख़िर में योजना की अहमियत को न सिर्फ़ स्वीकार किया, बल्कि उसे बढ़ावा भी दिया. जैसे एनडीए ने यूपीए की अन्य योजनाओं जैसे कि नक़द लाभ वितरण (DBT) या आधार को पहले ख़ारिज किया और फिर उसे और कुशलता से लागू किया. इसी तरह मनरेगा योजना को भी एनडीए सरकार ने असरदार बनाने के लिए कई और क़दम उठाए हैं.

कोविड-19 महामारी और मनरेगा योजना

मार्च महीने के मध्य में पूरे देश में लॉकडाउन लगा दिया गया था. इसका मक़सद कोरोना वायरस की महामारी का प्रकोप भयंकर रूप से फैलने से रोकना था. मगर, अचानक लगे लॉकडाउन के कारण कई राज्यों से प्रवासी मज़दूरों का भारी संख्या में पलायन हुआ, जो किसी भी सूरत में अपने घरों को लौटना चाहते थे. एक मोटे अनुमान के मुताबिक़ मार्च के मध्य से अब तक कम से कम तीन करोड़ प्रवासी कामगार अपने अपने घरों को लौट चुके हैं. इतने बड़े पैमाने पर मज़दूरों की अपने गृह राज्यों को वापसी के कारण केंद्र सरकार को, मनरेगा योजना के लिए फंड में चालीस हज़ार करोड़ रुपए का अतिरिक्त योगदान करना पड़ा. इससे पहले सरकार ने मनरेगा के लिए 2020-21 के केंद्रीय बजट में 61 हज़ार 500 करोड़ रुपए का आवंटन किया था. इस अतिरिक्त अनुदान के कारण अब मनरेगा योजना का कुल बजट एक लाख करोड़ रुपए से भी अधिक का हो चुका है. जब अप्रैल महीने से धीरे-धीरे लॉकडाउन के नियमों में थोड़ी ढील दी जाने लगी, तब अपने अपने गांवों या गृह ज़िलों में लौटे मज़दूरों को इस योजना में तिनके का सहारा मिलता दिखा. क्योंकि दूसरे राज्यों से लौटे इन मज़दूरों के पास न तो खेती के लिए ज़मीन थी और न ही उनके पास इतनी बचत थी कि गुज़र बसर कर पाते.

अकेले मई महीने में ही पांच करोड़ दिनों से ज़्यादा रोज़गार सिर्फ़ यूपी में लोगों को इस योजना से मिला है. जो पिछले साल मई महीने के मुक़ाबले लगभग 300 प्रतिशत अधिक है. वहीं छत्तीसगढ़ में इस योजना का लाभ उठाने वालों की संख्या पिछले साल के मुक़ाबले 68.9 प्रतिशत बढ़ गई है

ऐसे में ये बात चौंकाने वाली बिल्कुल नहीं लगती कि मनरेगा योजना के तहत उन्हीं राज्यों में काम की मांग सबसे ज़्यादा देखने को मिल रही है, जहां के मज़दूर दूसरे राज्यों से वापस आए हैं. जैसे कि उत्तर प्रदेश मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड और ओडिशा. सबसे ताज़ा आंकड़ों के अनुसार, अकेले मई महीने में ही पांच करोड़ दिनों से ज़्यादा रोज़गार सिर्फ़ यूपी में लोगों को इस योजना से मिला है. जो पिछले साल मई महीने के मुक़ाबले लगभग 300 प्रतिशत अधिक है. वहीं छत्तीसगढ़ में इस योजना का लाभ उठाने वालों की संख्या पिछले साल के मुक़ाबले 68.9 प्रतिशत बढ़ गई है. छत्तीसगढ़ में मई महीने में 4.15 करोड़ कार्य दिवस का काम इस योजना के अंतर्गत कराया गया है. वहीं, मध्य प्रदेश में पिछले साल के मुक़ाबले इस योजना का फ़ायदा उठाने वालों की संख्या में 65.1 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. जहां 3 करोड़ 73 लाख कार्य दिवस की मज़दूरी मनरेगा योजना के तहत कराई गई है. इसी तरह मनरेगा योजना के अंतर्गत लाभ उठाने वालों की संख्या की वृद्धि उन दूसरे राज्यों में भी देखी गई है, जहां से लोग दूसरे राज्यों में काम के लिए जाते हैं. जैसे कि पश्चिम बंगाल में इस योजना से लाभ लेने वाले परिवारों की संख्या में 214.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. तो ओडिशा में 113.5 फ़ीसद का इज़ाफ़ा हुआ है. वहीं, बिहार में मनरेगा से फ़ायदा लेने वाले परिवारों की संख्या 62.1 प्रतिशत बढ़ गई है. और ये सारे आंकड़े केवल मई महीने के हैं. संक्षेप में कहें तो, जिस मनरेगा योजना का मखौल उड़ाया जाता था, आज वही योजना इस वैश्विक महामारी के दौर में सरकारों और आम नागरिकों की सबसे मज़बूत सहयोगी बन गई है. आज जब कोविड-19 की महामारी का क़हर पूरी दुनिया पर बरस रहा है और देश की अर्थव्यवस्था पटरी से उतर गई है. लोगों की रोज़ी रोटी छिन गई है. तो मनरेगा के ज़रिए ही समाज के बड़े तबक़े के लोगों को सामाजिक सुरक्षा दी जा रही है.

इस योजना के तहत केवल 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी दी जाती है. अब जबकि कोविड-19 का प्रकोप अभी जारी है. और जिसके अगले कई महीनों या वर्षों तक जारी रहने की आशंका जताई जा रही है. और अभी कामगारों की बड़ी तादाद है, जो अभी गांवों में ही बने रहना चाहती है. तो ऐसे में, मनरेगा योजना से काम की इस लंबे समय चलने वाली मांग को कैसे पूरा किया जा सकेगा?

कुछ सख़्त सवाल भी हैं

इन फ़ायदों के बावजूद, मनरेगा योजना से जुड़े कुछ ऐसे प्रश्न हैं, जिनका स्पष्टीकरण होना चाहिए. पहली और सबसे बुनियादी बात तो ये है कि सामाजिक सुरक्षा की इतनी महत्वपूर्ण योजना होने के बावजूद ये योजना मई और जून महीने में ही लोगों को रोज़गार देने के लिए लाई गई थी. क्योंकि इस दौरान ग्रामीण क्षेत्रों में लोगों के पास काम की काफ़ी कमी होती है. इसके अलावा इस योजना के तहत केवल 100 दिनों के रोज़गार की गारंटी दी जाती है. अब जबकि कोविड-19 का प्रकोप अभी जारी है. और जिसके अगले कई महीनों या वर्षों तक जारी रहने की आशंका जताई जा रही है. और अभी कामगारों की बड़ी तादाद है, जो अभी गांवों में ही बने रहना चाहती है. तो ऐसे में, मनरेगा योजना से काम की इस लंबे समय चलने वाली मांग को कैसे पूरा किया जा सकेगा? दूसरा सवाल ये है कि अगर सरकार मनरेगा योजना के तहत काम के दिनों की संख्या बढ़ा भी देती है, तो इस योजना के तहत किस तरह के काम कराने को प्राथमिकता दी जानी चाहिए? शुरुआत से ही मनरेगा योजना के तहत, सूखे से बचने के उपाय और ग्रामीण क्षेत्र की संपत्ति निर्माण के काम कराए जाते रहे हैं. लेकिन, यही काम अनिश्चित काल के लिए तो जारी नहीं रखे जा सकते. इसीलिए अभी बिल्कुल उचित समय है कि योजना के तहत 60:40 के मज़दूरी और सामान के अनुपात में बदलाव किया जाए. इसके अलावा, इस योजना को कुछ तय कार्यों तक ही क्यों सीमित रखा जाए? तीसरा सवाल ये है कि मनरेगा के तहत काम करने वाले मज़दूरों को राष्ट्रीय राजमार्ग निर्माण या ऐसे ही अन्य सार्वजनिक कार्यों जिसमें मज़दूरों की ज़रूरत होती है, जैसे कि रेलवे में क्यों न लगाया जाए? इसी तरह, क्या मनरेगा के तहत मज़दूरों को खेती के निजी कामों में नहीं लगाया जा सकता है? इससे खेती करने की लागत कम होगी और कृषि क्षेत्र की चुनौतियां दूर करने में मदद मिलेगी. जैसे कि मज़दूरों की कमी दूर होगी. अच्छा तो ये होता कि मनरेगा के तहत काम करने वाले ज़्यादातर लोगों को छोटे और सीमांत किसानों की मदद के लिए लगाया जा सकता है. इसके अलावा समाज के हाशिए पर पड़े लोगों को भी इस योजना से जोड़ा जा सकता है. कुल मिलाकर, अब समय आ गया है कि सामाजिक सुरक्षा की इस महत्वपूर्ण योजना के लक्ष्यों का फिर से निर्धारण किया जाए. ताकि ये अधिक टिकाऊ और असरदार योजना बन सके.

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