Author : Evan N. Resnick

Published on Nov 02, 2020 Updated 0 Hours ago

यदि ट्रंप जीतते हैं तो अगले चार साल तक, एक बार फिर उनकी विदेश नीति का अमेरिका पर वार उसे कमज़ोर बनाएगा, और इस बार यह किसी विदेशी विपक्षी के हाथों नहीं होगा बल्कि स्वयं अमेरिका के पथभ्रष्ट और अयोग्य नेतृत्व के परिणामस्वरूप ही ऐसा होगा.  

‘अपवादों’ पर आधारित डोनाल्ड ट्रंप की नकारात्मक विदेश नीति!

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के पूर्ववर्ती सभी राष्ट्रपतियों ने ‘आदर्शवाद’ और ‘यथार्थवाद’ के बीच अपनी विदेश नीति को संतुलित करने का प्रयास किया. ट्रंप अमेरिका के पहले ऐसे राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने आदर्शवाद और यथार्थवाद, दोनों को झुठलाने की कोशिश की है, और जिसके घातक परिणाम सामने आए हैं.

आदर्शवादी और व्यवहारवादी राजनीति से मिलकर बनती है, सफलता

एक ओर, ओबामा तक के अमेरिका के सभी पिछले राष्ट्रपति, “अमेरिकी असाधारणता” के सिद्धांत को मानते आए हैं. अमेरिका के अभिजात्य वर्ग और आम लोगों के बीच, व्यापक रूप से यह विश्वास व्याप्त है, कि संयुक्त राज्य अमेरिका लोकतंत्र, व्यक्तिगत स्वतंत्रता और कानून के शासन को लेकर, जिन मूल्यों को सबसे महत्वपूर्ण मानता है, उनका विदेशों में प्रसार करना, अमेरिका का एक विशेष मिशन है. यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो अंततः पूरे विश्व में शांति और समृद्धि स्थापित करेगी. वहीं दूसरी ओर, इन नेताओं ने अराजक अंतरराष्ट्रीय प्रणालियों से अमेरिका राष्ट्र हितों को बचाने और राष्ट्रीय सुरक्षा बहाल करने की ज़रूरत को भी पहचाना, क्योंकि कई व्यवस्थाएं उदारता और पश्चिमी यूटोपिया का विरोध करती रही हैं. इसके चलते सत्तावादी राजनीति के संतुलन संबंधी रणनीतियों को अपनाने की ज़रूरत पड़ी, जो असाधारणता यानी अपवादवाद के सिद्धांत का उल्लंघन करती है.

अमेरिका में सबसे सफल रहे प्रशासकों ने इन दोनों अनिवार्यताओं (आदर्शवाद और यथार्थवाद) को कुशलतापूर्वक जोड़ते हुए, अमेरिकी हितों की रक्षा की है और विश्व के सामने अमेरिका को उदार मूल्यों के एक नि:स्वार्थ प्रस्तावक के रूप में पेश किया है. इसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अमेरिका की छवि को बेहतर बनाने का काम भी किया है. उदाहरण के लिए, द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, फ्रेंकलिन डी. रूज़वेल्ट ने 1941 के अटलांटिक चार्टर पर हस्ताक्षर करते हुए, ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल का साथ दिया. इस चार्टर के अंतर्गत कई तरह की नि:स्वार्थ प्रतिबद्धताएं शामिल थीं, जैसे- आत्मनिर्णय, खुला व्यापार, समुद्रों की स्वतंत्रता और अहिंसा. हालांकि, उसी समय, फ्रेंकलिन डी. रूज़वेल्ट और चर्चिल ने सोवियत तानाशाह जोसेफ़ स्टालिन के साथ उत्साहपूर्वक साझेदारी करते हुए, उन्हें हथियारों की मदद भी दी. हालाँकि स्टालिन अपनी विचारधारा, व्यवहार और महत्वाकांक्षाओं में, उन उदात्त सिद्धांतों की पूरी तरह अवहेलना करते थे, जिनकी रक्षा के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका युद्ध लड़ रहा था, लेकिन स्टालिन की दुर्जेय, ‘रेड-आर्मी’ ने उन इलाकों में वह भीषण लड़ाई लड़ी और अपने सैनिकों की जान दांव पर लगाई, जिसके बिना, यूरोप में युद्ध जीतना मुमकिन नहीं था.

ट्रंप पहले ऐसे राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने आदर्शवाद और यथार्थवाद दोनों से दूरी बनाकर रखी है, और इसके साथ ही एक ऐसी संकुचित और अवास्तविक शासन प्रणाली को अपनाया है, जिसने विश्व की नज़रों में अमेरिका की छवि को धूमिल किया है, और अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा किया है. 

ट्रंप का संकुचित असाधारणवाद

ट्रंप पहले ऐसे राष्ट्रपति हैं, जिन्होंने आदर्शवाद और यथार्थवाद दोनों से दूरी बनाकर रखी है, और इसके साथ ही एक ऐसी संकुचित और अवास्तविक शासन प्रणाली को अपनाया है, जिसने विश्व की नज़रों में अमेरिका की छवि को धूमिल किया है, और अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा किया है.

ट्रंप ने लगातार और बेहद खुले रूप में, अमेरिकी असाधारणता के स्तंभों को तिरस्कृत किया है. सबसे शर्मनाक बात यह है कि उन्होंने लगातार अलोकतांत्रिक व्यवस्थाओं और निरंकुश व दमनकारी शासकों की प्रशंसा करते हुए, अपने साथ के लोकतांत्रिक नेताओं की आलोचना और अपमान किया है. इसके उलट, उनके पूर्ववर्तियों ने निरंकुश विरोधियों और शासकों के साथ काम करते हुए भी लगातार उनके द्वारा किए जाने वाले मानवाधिकार उल्लंघनों की निंदा की. सबसे शर्मनाक और उद्वेलित करने वाला उदाहरण है, ट्रंप के पूर्व-राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जॉन बोल्टन का हाल ही में आया बयान, जिसमें उन्होंने खुलासा किया कि राष्ट्रपति ट्रंप ने साल 2019 की एक बैठक में चीनी नेता शी जिनपिंग से कहा कि, उन्हें चीन के अल्पसंख्यक वीगर मुसलमानों के लिए ‘यातना शिविरों’ के “निर्माण” का काम शुरु कर देना चाहिए, क्योंकि ऐसा “करना पूरी तरह से सही क़दम होगा.”

ट्रंप ने फ्रेंकलिन डी. रूज़वेल्ट के बाद, अंतरराष्ट्रीय व्यापार में उदारीकरण को लेकर, अमेरिका की लगभग सौ साल पुरानी प्रतबद्धता को भी नकार दिया है. इसके चलते, ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप (TPP) संबंधी व्यापार समझौते का त्याग कर, कई देशों पर विभिन्न तरह के दंडात्मक कर लगाए गए हैं, और चीन के साथ एक प्रतिशोधी, व्यापार-युद्ध छेड़ दिया गया है. टीपीपी के अलावा, उन्होंने कई अंतरराष्ट्रीय क़रार और समझौतों से भी अमेरिका को अलग कर लिया है, जिसमें पेरिस जलवायु समझौता, संयुक्त राष्ट्र शैक्षणिक करार, वैज्ञानिक व सांस्कृतिक संगठनों के साथ हुए समझौते, संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद, और हाल ही में, विश्व स्वास्थ्य संगठन से अलगाव शामिल है, जो दुनियाभर में भीषण रूप में फैली कोविड-19 की महामारी के बीच लिया गया फैसला है.

ट्रंप की संकुचित असाधारणता या अपवादवाद ने संयुक्त राज्य अमेरिका को अपने पारंपरिक सहयोगियों और भागीदारों से अलग कर दिया है, जिससे इन देशों के बीच अमेरिका की ‘सॉफ्ट पावर’ ख़त्म हुई है. 

ट्रंप की संकुचित असाधारणता या अपवादवाद ने संयुक्त राज्य अमेरिका को अपने पारंपरिक सहयोगियों और भागीदारों से अलग कर दिया है, जिससे इन देशों के बीच अमेरिका की ‘सॉफ्ट पावर’ ख़त्म हुई है. पिछले सितंबर में कनाडा, जर्मनी, ब्रिटेन और जापान सहित 13 संबद्ध देशों में किए गए, प्यू रिसर्च सेंटर के एक सर्वेक्षण के मुताबिक, इन देशों के आम लोगों के बीच, संयुक्त राज्य अमेरिका की सकारात्मक छवि, इस सर्वेक्षण के शरुआती सालों के बाद से, अब तक के सबसे कम स्तर तक पहुंच गई है. इससे भी निराशाजनक बात यह है कि इस सर्वेक्षण में अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप को अपने रूसी और चीनी समकक्षों से भी कम आंका गया.

ट्रम्प की अवास्तविकता

ट्रंप का संकुचित उदारवाद, अवास्तविक भी है और असंगत भी, क्योंकि उन्होंने रियलपोलिटिक (realpolitik) के चिर-परिचित सिद्धांतों की अवहेलना की है. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि ट्रंप, सुसंगत रूप से वह भव्य रणनीति लागू करने में बुरी तरह से विफल रहे हैं, जिसके ज़रिए अंतिम नतीजों को तोलते हुए, प्राथमिकता के आधार पर और पूरी सावधानी के साथ, बाहरी ख़तरों से निपटा जाता है. सबसे यथार्थवादी नेताओं ने स्पष्ट रूप से सतही व परिधीय हितों को, महत्वपूर्ण हितों से अलग किया है और उसी के अनुरूप उन पर ध्यान देने व अपने संसाधनों को केंद्रित करने का काम किया है. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपने हितों को पूरी तरह साधने के लिए, कट्टर-यथार्थवादी, टेडी रूजवेल्ट की व्यावहारिक सलाह का पालन करते हुए, “हाथ में बड़ी सी छड़ी और मुंह में मिठास” की रणनीति को अपनाया है. इस रणनीति के मुताबिक, सैन्य बल की ताकत की धमकी केवल उस वक्त दी जानी चाहिए, जब ख़तरा विश्वसनीय हो और सैन्य ताक़त का इस्तेमाल, तभी किया जाना चाहिए जब इसके सफल होने की पूरी उम्मीद हो.

ट्रंप ने इनमें से कोई भी हिदायत या सलाह नहीं मानी है. भले ही उनके प्रशासन में, साल 2017 की राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति और साल 2018 की राष्ट्रीय रक्षा रणनीति में चीन की उभरती हुई ताकत को पहचाना गया और पुनर्गठित हो रहे रूस को राष्ट्रीय सुरक्षा की पहली प्राथमिकता करार दिया गया, लेकिन उनके प्रशासन की दिन-प्रतिदिन की विदेश नीति में यह कहीं भी प्रतिबिंबित नहीं होता है. मध्य पूर्व में “बेहिसाब और अंतहीन रूप से जारी युद्धों” को समाप्त करने के अपने वादे के विपरीत, ट्रंप ने अफगानिस्तान में दो दशक से भी लंबे समय से जारी अमेरिकी युद्ध को जारी रखा है, और इस्लामिक स्टेट के आतंकवादियों से लड़ने के लिए इराक़ और सीरिया में भी सैनिकों की तैनाती की है.

व्हाइट हाउस ने ईरान के साथ तनाव को भी नाटकीय रूप से बढ़ा दिया है. “अधिकतम दबाव” की इसकी नीति ने बहुपक्षीय संयुक्त व्यापक कार्य योजना (Joint Comprehensive Plan of Action) को कमज़ोर बनाने और उससे अलग होने का काम किया है. इस योजना ने तेहरान के परमाणु कार्यक्रम को बहुत हद तक नियंत्रण में रखा था. इसके अलावा, इस्लामी गणतंत्र के ख़िलाफ़ कड़े आर्थिक प्रतिबंध लागू किए गए और एक ड्रोन हमले में उसके प्रमुख सैन्य नेता क़ासम सोलेमानी की हत्या हुई. इसके जवाब में, ईरान ने आक्रामक रूप से एक बार फिर, यूरेनियम संवर्धन शुरू कर दिया है, और खाड़ी क्षेत्र में अमेरिकी हितों और रणनीतिक साझेदारों के खिलाफ़ उकसावे की कार्रवाई शुरु कर दी है.

चीन, विश्व का एकमात्र अन्य देश है, जो धन और सैन्य ताकत की दोहरी शक्ति के साथ, अमेरिका के सामने खड़ा होने की क्षमता रखता है. इस मायने में राष्ट्रपति ट्रंप ने पूर्वी एशिया में अमेरिका की रणनीतिक ताकत और हस्तक्षेप को कम किया है.

मध्य पूर्व में कम महत्ता वाले संघर्षों में निरंतर व्यस्त रहते हुए, अमेरिकी प्रशासन ने चीन द्वारा उत्पन्न अधिक विकराल और व्यापक भू-राजनीतिक चुनौती का सामना करने की अपनी क्षमता को कम कर दिया है. चीन, विश्व का एकमात्र अन्य देश है, जो धन और सैन्य ताकत की दोहरी शक्ति के साथ, अमेरिका के सामने खड़ा होने की क्षमता रखता है. इस मायने में राष्ट्रपति ट्रंप ने पूर्वी एशिया में अमेरिका की रणनीतिक ताकत और हस्तक्षेप को कम किया है. ट्रांस-पैसिफिक पार्टनरशिप यानी टीपीपी को कमज़ोर कर और संयुक्त राज्य अमेरिका के सबसे ताकतवर क्षेत्रीय सहयोगी जापान और दक्षिण कोरिया को लताड़कर, अमेरिका ने दक्षिण पूर्व एशिया के प्रमुख गठबंधनों और रणनीतिक साझेदारियों को बहुत हद तक कमज़ोर किया है.

व्हाइट हाउस ने रूस में व्लादिमीर पुतिन के साथ भी अपने संबंधों को बुरी तरह आहत किया है. ट्रंप ने अमेरिका की घरेलू राजनीति में रूसी हस्तक्षेप पर कड़ा रुख अपनाने से इनकार करते हुए, भले ही पुतिन को तुष्ट करने की कोशिश की हो, लेकिन उनके प्रशासन ने यूक्रेन में घातक हथियार भेजकर और इंटरमीडिएट-रेंज न्यूक्लियर फोर्सेस (Intermediate-Range Nuclear Forces-INF) से बाहर होकर, क्रेमलिन को नाराज़ किया है. इस असहमति ने पुतिन को चीन की ओर जाने का मौका दिया है, भले ही रूस और चीन पड़ोसी हैं, और प्राकृतिक रूप से भू–राजनीतिक प्रतिस्पर्धी हैं.

मोटे तौर पर, ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के मामलों को बेहद गलत और फूहड़ तरीके से हल किया है. विश्वभर में अमेरिका के मित्र देशों और दुश्मनों के साथ अंतरराष्ट्रीय संबंधों का प्रबंधन ट्रंप काल में ख़राब तरीके से किया गया है. रूज़वेल्ट की चर्चित हिदायत के उलट, ट्रंप ने नाज़ुक स्थिति में भी बड़बोलेपन से काम लिया. उनकी व्यक्तिगत शैली अपने विपक्षियों को पहले ज़ोरदार रूप से ललकारने की है, जिसके अंतर्गत वो अविश्वसनीय धमकियों तक का सहारा लेते हैं, इसके बाद वो उनके सामने समर्पण कर देते हैं, और हथियार डाल देते हैं, अगर उनके वार्ताकार उनकी प्रशंसा कर उन्हें आत्मतुष्ट कर दें.

यह चक्र, ट्रंप की बेसिर-पैर की उत्तर कोरिया संबंधी नीति में भी स्पष्ट रूप से दिखाई दिया. अमेरिकी राष्ट्रपति ने, उत्तर कोरिया के शासक, किम जोंग उन को “छोटे रॉकेट मैन” के रूप में संबोधित और अपमानित करते हुए अपने प्रशासनिक कार्यकाल की शुरुआत की, और उत्तर कोरिया पर “आग और रोष” बरसाने की धमकी दी, अगर उसने किसी भी रूप में अमेरिका के लिए ख़तरा पैदा करने की कोशिश की. इसके बाद जो हुआ वह अमेरिका के लिए शर्मिंदगी से भरा था. उत्तर कोरिया के तानाशाह किम जोंग उन की ओर से भेजे गए “प्रेम पत्रों” की श्रृंखला ने, ट्रंप को जल्दबाज़ी में इस तानाशाह के साथ दो निजी बैठकों को स्वीकार करने के लिए बाधित किया. हालांकि, वास्तव में, सिंगापुर (2018) और हनोई (2019) में हुई इन बैठकों में कुछ भी हासिल नहीं हुआ, सिवाय इसके कि दुनिया के सामने यह स्पष्ट हो गया कि अमेरिकी नेता डोनाल्ड ट्रंप कितने नासमझ हैं और पूरी दुनिया में ट्रंप की छवि, एक बेवकूफ और कान के कच्चे नेता के रूप में अंकित हो गई.

मोटे तौर पर, ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के मामलों को बेहद गलत और फूहड़ तरीके से हल किया है. विश्वभर में अमेरिका के मित्र देशों और दुश्मनों के साथ अंतरराष्ट्रीय संबंधों का प्रबंधन ट्रंप काल में ख़राब तरीके से किया गया है.

तमाम तरह के शोर, नाराज़गी, मखौल और करतबों के बीच, ज़मीनी स्तर पर देखें तो उत्तर कोरिया के परमाणु शस्त्रागार में लगातार बढ़ोत्तरी हुई है और प्योंगयांग में हाल ही में हुई एक परेड में, उत्तर कोरिया ने एक नई अंतरमहाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइल का अनावरण किया, जो अमेरिकी मिसाइलों पर भारी पड़ने की क्षमता रखती है. संक्षेप में कहें तो, भू-राजनीतिक तीक्ष्णता में कमतर साबित होने वाले ट्रंप के चलते, उनके कार्यालय के दौरान हर तरफ से अमेरिका के लिए प्रतिकूल परिस्थितियां सामने आई हैं और राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी ख़तरे पैदा हुए हैं, फिर चाहे वह अमेरिका के समकक्ष देशों की ओर से हों, या फिर क्षेत्रीय ताक़तों की ओर से.

नुकसानदायक, लेकिन (फिलहाल) घातक नहीं

ट्रंप के संकुचित अवास्तविकतावाद ने विश्व में अमेरिका की छवि और राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुँचाया है, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका अब भी दुनिया का सबसे धनी और सबसे शक्तिशाली देश है.

ट्रंप के संकुचित अवास्तविकतावाद ने विश्व में अमेरिका की छवि और राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुँचाया है, लेकिन संयुक्त राज्य अमेरिका अब भी दुनिया का सबसे धनी और सबसे शक्तिशाली देश है. जैसा कि आर्थिक दार्शनिक एडम स्मिथ ने कहा था, “किसी देश को बर्बाद करने में बहुत ताक़त लगती” है और संयुक्त राज्य अमेरिका में अभी भी बर्बादी के कई बिंदु अछूते हैं. यदि पूर्व उपराष्ट्रपति जो बाइडेन नवंबर में चुनाव जीतते हैं, जैसा कि कई लोग उम्मीद कर रहे हैं, तो नए प्रशासन की ओर से अमेरिका की पारंपरिक विदेश नीति की ओर बढ़ाए गए छोटे क़दम भी बहुत हद तक नुकसान की भरपाई कर सकते हैं. यदि ट्रंप जीतते हैं तो अगले चार साल तक, एक बार फिर उनकी विदेश नीति का अमेरिका पर वार उसे कमज़ोर बनाएगा, और इस बार यह किसी विदेशी विपक्षी के हाथों नहीं होगा बल्कि स्वयं अमेरिका के पथभ्रष्ट और अयोग्य नेतृत्व के परिणामस्वरूप ही ऐसा होगा.


यह लेख अमेरिका ऑन बैलट नाम की श्रृंखला की एक कड़ी है.

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