Published on Dec 02, 2019 Updated 0 Hours ago

आज सभी देशों को अमेरिकी जनता की इस राय को गंभीरता से लेना चाहिए कि अब वो अपने देश को दुनिया के दारोगा की ज़िम्मेदारी निभाते नहीं देखना चाहते.

डोनल्ड ट्रंप और हिंद-प्रशांत क्षेत्र: एक अस्थायी समस्या या बुनियादी बदलाव?

हिंद-प्रशांत क्षेत्र और एशिया को लेकर अमेरिका की प्रतिबद्धता को लेकर इन दिनों गंभीर सवाल उठ रहे हैं. जिस तरह अमेरिका और दक्षिण कोरिया के बीच  हिंद-प्रशांत क्षेत्र की ज़िम्मेदारी उठाने को लेकर मतभेद पैदा हुए हैं, उन की वजह से अमेरिका की नीति को लेकर सवालों का शोर आगे और बढ़ने की आशंका है.

अब जब कि  हिंद-प्रशांत सहयोग संगठन के सदस्य देशों के बीच इस बात पर आम सहमति बन रही है कि इस क्षेत्र में चीन की बढ़ती ताक़त को रोकने की ज़रूरत है. तो, ऐसे में ये सवाल भी उठना लाज़िम है कि, ये देश इस दिशा में क़दम उठाने के लिए कितने इच्छुक हैं? इस बात की आशंका जताई जा रही है कि क्षेत्रीय सुरक्षा और स्थिरता के लिए शायद अमेरिका एक बड़ी भूमिका निभाने के लिए तैयार नहीं है. चीन की बढ़ती शक्ति के साथ संतुलन बनाए रखने की चुनौती और भी बढ़ जाएगी, अगर क्षेत्रीय ताक़तें इस नतीजे पर पहुंचती हैं कि अमेरिका भरोसेमंद साझीदार नहीं है.

अमेरिका के मौजूदा राष्ट्रपति तमाम बहुराष्ट्रीय समझौतों के प्रति वचनबद्धता दिखाने को लेकर लंबे समय से हीला-हवाली करते आ रहे हैं. ये बात भी बिल्कुल सही है कि अमेरिका के सहयोगी लंबे समय से अमेरिका का फ़ायदा उठाते आए हैं. ट्रंप की शिकायत है कि अपनी सुरक्षा के लिए अमेरिका पर निर्भर बहुत से देश इसका आर्थिक बोझ नहीं उठा रहे हैं. उन्हें अमेरिका को और रक़म अदा करनी चाहिए. या फिर उन्हें अपनी सुरक्षा का ज़िम्मा भी ख़ुद ही उठाना चाहिए. ट्रंप के ये विचार लंबे समय से सार्वजनिक हैं. फिर भी, जब अमेरिकी सरकार ने दक्षिणी कोरिया में तैनात अपनी सैन्य टुकड़ियों के ख़र्च के एवज़ में दक्षिण कोरियाई सरकार से 5 अरब डॉलर की अतिरिक्त मांग की, तो ऐसे मामलों के जानकारों को ज़बरदस्त झटका लगा. इसका नतीजा ये हुआ कि अमेरिका और दक्षिणी कोरिया के बीच सुरक्षा का ख़र्च उठाने को लेकर चल रही वार्ता टूट गई. अगले साल अमेरिका और जापान के बीच भी ऐसे ही ख़र्च का बोझ उठाने को लेकर वार्ता होने वाली है. इस बात की पूरी संभावना है कि अमेरिका और  उसके साथी देश आख़िरकार किसी न किसी समझौते पर राजी  हो जाएंगे. लेकिन, इन मतभेदों और अमेरिका की मांगों का असर ऐसे समझौतों पर पड़ना तय है.

अगर, सुरक्षा को लेकर अमेरिका और उसके क़रीबी सहयोगी देशों, जैसे जापान और दक्षिण कोरिया के बीच पैदा हुए मतभेद जल्द दूर नहीं हुए, तो  इससे चीन का अतिआत्मविश्वास और भी बढ़ेगा. हो सकता है कि इससे पूरे इलाक़े के सामरिक समीकरण भी गड़बड़ा जाएं

इससे भी ज़्यादा अहम बात ये है कि पूरे  हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी सरकार के बर्ताव की बारीकी  से पड़ताल की जा रही है. इस पर अमेरिका के सहयोगी देशों की भी नज़र है और प्रतिद्वंदी चीन भी, अमेरिकी सरकार के रुख़ पर निगाह गड़ाए हुए है. अमेरिका के रुख़ की वजह से  उसके और सहयोगी देशों के बीच जो तनातनी पैदा हो रही है,  इससे चीन का हौसला और बढ़ने की आशंका है. एक दौर में चीन, इस क्षेत्र में अमेरिका और  उसके सहयोगी देशों के बीच समझौतों को क्षेत्रीय स्थिरता की गारंटी के तौर पर देखता था. चीन को लगता था कि उसकी तरक़्क़ी से चिंतित देशों को अमेरिका की मौजूदगी से भरोसा मिलता है. लेकिन, हाल के कुछ बरसों में चीन का आत्मविश्वास काफ़ी बढ़ा है. अब वहां की हुक़ूमत  को लगता है कि चीन ने काफ़ी तरक़्क़ी कर ली है. इसी वजह से अब  हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका और दूसरे देशों के बीच सैन्य सहयोग और अमेरिकी फ़ौजी बेड़ों की मौजूदगी से चीन को खीझ होने लगी है. अगर, सुरक्षा को लेकर अमेरिका और उसके क़रीबी सहयोगी देशों, जैसे जापान और दक्षिण कोरिया के बीच पैदा हुए मतभेद जल्द दूर नहीं हुए, तो  इससे चीन का अतिआत्मविश्वास और भी बढ़ेगा. हो सकता है कि इससे पूरे इलाक़े के सामरिक समीकरण भी गड़बड़ा जाएं. साथ ही साथ अमेरिका के मौजूदा सहयोगी और संभावित साझीदार देशों के बीच अमेरिका का ये बर्ताव चिंता का बायस बनेगा. फिर वो अपनी सुरक्षा की पूरी ज़िम्मेदारी अमेरिका के हवाले करने से हिचकेंगे. अगर ये देश इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि, इस क्षेत्र में अमेरिकी सेनाओं की मौजूदगी अस्थायी है, तो उन देशों के लिए अमेरिका के बजाय चीन से समझौता कर लेना बेहतर विकल्प होगा.

अमेरिका के अकादमिक  सर्किल और थिंक टैंकों में जानकारों के बीच लंबे समय से ये विचार हो रहा है कि अमेरिका को अपनी सीमाओं से परे, दूसरे देशों की हिफ़ाज़त की कितनी फ़िक्र करनी चाहिए

अमेरिका के बर्ताव की सबसे चिंताजनक बात ये है कि ट्रंप प्रशासन बड़ी ही दादागिरी वाले तरीके  से अपने सहयोगी देशों के साथ सुरक्षा के मसले पर बात कर रहा है. हालांकि, वैश्विक स्थिरता और सुरक्षा बनाए रखने को लेकर अमेरिकी प्रतिबद्धता पर लंबे समय से शक किया जा रहा है. आज अमेरिका में कट्टरपंथी और उदारवादी, दोनों ही सियासी जमातों के बीच इस बात पर आम राय है कि अमेरिका को बाक़ी दुनिया की फिक्र  करने से पहले अपनी हिफ़ाज़त पर ध्यान देना चाहिए. क्योंकि अब अमेरिका के लिए दुनिया का दारोगा बने रहना मुमकिन नहीं है. वो अब इसका ख़र्च उठाने की स्थिति में नहीं है. ये बात समझ में आती है. क्योंकि, क़रीब दो दशक से भी ज़्यादा लंबे समय से इराक़ और अफ़ग़ानिस्तान में चल रहे सुरक्षा और सैन्य अभियानों से अमेरिकी जनता उकता गई है. वो अब इसका आर्थिक बोझ उठाने को तैयार नहीं है. अमेरिकी जनता की ये सोच न सिर्फ़ ट्रंप प्रशासन के बर्ताव से ज़ाहिर है, बल्कि उन के पहले अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा के कार्यकाल में इस के साफ़ संकेत मिल रहे थे. अमेरिका के अकादमिक  सर्किल और थिंक टैंकों में जानकारों के बीच लंबे समय से ये विचार हो रहा है कि अमेरिका को अपनी सीमाओं से परे, दूसरे देशों की हिफ़ाज़त की कितनी फ़िक्र करनी चाहिए. जिस तरह, अमेरिकी जनत, तमाम देशों में तैनात अमेरिकी सैनिक टुकड़ियों को स्वदेश वापस बुलाने को लेकर उत्सुक है, उस से ये प्रश्न भी उठता है कि क्या विश्व की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी से पांव पीछे खींचने की ये प्रवृत्ति केवल ट्रंप सरकार के दौर की है, या फिर अमेरिकी जनमानस में ये बात गहरे जड़ें जमा चुकी है. जो अमेरिकी विश्लेषक, दुनिया भर में अमेरिकी सैन्य टुकड़ियों की मौजूदगी की वक़ालत करते हैं, उन्हें अमेरिका के अकादमिक  हलके में पुरानी सामंतवादी सोच वाले लोग कह कर दुत्कारा जाता है. उनके बारे में कहा जाता है वो हक़ीक़त से अनजान हैं और अमेरिकी जनता का दर्द नहीं महसूस कर पाते हैं. इन बातों का एक ही मतलब है कि  हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सुरक्षा को लेकर अमेरिकी प्रतिबद्धता, केवल ट्रंप सरकार की नीति नहीं. अगर हम ये मान लें कि अगले साल होने वाले अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप हार जाते हैं. तो, उन के बाद जो भी नेता अमेरिका का राष्ट्रपति बनेगा, तो उस से भी क्षेत्रीय सुरक्षा के लिए अमेरिकी सेनाओं की मौजूदगी बढ़ाने को लेकर तर्क करना चुनौतीपूर्ण होगा. भले ही वो नेता इस विचार का हो कि  हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी प्रतिबद्धता बनाए रखना, क्षेत्रीय ही नहीं, ख़ुद अमेरिका की सुरक्षा के लिए अहम है.

तो, भले ही हम अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बर्ताव को जाहिलाना कह कर उस की खिल्ली उड़ाएं, लेकिन आज सभी देशों को अमेरिकी जनता की इस राय को गंभीरता से लेना चाहिए कि अब वो अपने देश को दुनिया के दारोगा की ज़िम्मेदारी निभाते नहीं देखना चाहते. हो सकता है कि अगला अमेरिकी राष्ट्रपति अपने देश की जनता को इस बात के लिए मना सके कि इस क्षेत्र की सुरक्षा के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी निभाना अमेरिका के लिए भी महत्वपूर्ण है. लेकिन, हम अमेरिका के बर्ताव को हल्के में लेने की भूल नहीं कर सकते हैं.

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