Published on Jan 15, 2021 Updated 0 Hours ago

कोई भी संगठन सिर्फ अपने दम पर वजूद में नहीं रह सकता, संगठन सदस्यों से मिलकर बनता है और इसकी सफलता और नाकामी इस बात पर निर्भर करती है कि इन सदस्यों के लक्ष्य किस हद तक एक दूसरे से मेल खाते हैं और किस सीमा तक वो एक दूसरे के हित के पोषक होते हैं .

शंघाई सहयोग संगठन को लेकर भारत पाकिस्तान के बीच विवाद

साल 2017 में जब भारत और पाकिस्तान की शंघाई सहयोग संगठन में स्थायी सदस्य के तौर पर एंट्री हुई तब राजनीतिक पंडित और विशेषज्ञ दो खेमों में बंटे थे. एक जो आशावादी दृष्टिकोण रखते थे और दूसरे वो जिन्हें इसे लेकर नाउम्मीदी नजर आ रही थी. निराशावादी दृष्टिकोण रखने वालों का मानना था कि एससीओ में नई दिल्ली और इस्लामाबाद की एंट्री का मतलब बेहद साफ़ है कि दोनों देश शंघाई सहयोग संगठन में अपने-अपने विवादित मुद्दों को घसीटेंगे लिहाज़ा एससीओ का कामकाज इससे पूरी तरह ठप हो जाएगा. जबकि एससीओ में भारत और पाकिस्तान की एंट्री को लेकर आशावादी खेमे के लोगों का कहना था कि बग़ैर भारत और यहां तक कि पाकिस्तान के यूरेशिया में स्थिरता की कोई भी पूर्ण व्यवस्था क़ायम कर पाना नामुमकिन है और यही वज़ह है कि इस सवाल का कोई औचित्य ही नहीं कि भारत और पाकिस्तान को एसीओ में स्वीकार किया जाए या नहीं. ऐसे में इन देशों को एससीओ में स्वीकार करना ही पड़ेगा और जैसा कि तर्क दिया गया कि शायद शंघाई सहयोग की भावना और आपसी सहमति की भावना का सम्मान करते हुए ये दोनों देश अपने विवादित मुद्दों को अलग-थलग रखकर यूरेशिया की उन्नति और समृद्धि के लिए साथ-साथ काम करने को तैयार हो जाएंगे. और इस तरह एससीओ में भारत और पाकिस्तान की एंट्री हो गई और दोनों ही देश इसके सदस्य बन गए.

एससीओ नियमों के तहत भारत और पाकिस्तान के लिए यह ज़रूरी है कि वो आतंकवाद के खिलाफ जारी लड़ाई के लिए गुप्त डाटा एक दूसरे से साझा करें. लेकिन सैद्धान्तिक तौर पर जो बातें आवश्यक हैं उन्हें अमल में ला पाना बेहद कठिन है. वो भी तब जबकि कश्मीर में वास्तविक नियंत्रण रेखा के क़रीब भारत और पाकिस्तान हर महीने नियमित तौर पर एक दूसरे पर गोलाबारी करते हैं.

और अब तीन वर्षों के बाद अब यह साफ हो चुकी है कि दोनों ही आशावादी और निराशावादी खेमे के लोग इसे लेकर ग़लत साबित हुए हैं. क्योंकि शंघाई सहयोग संगठन अभी तक वज़ूद में है लेकिन इस दौरान भारत- पाकिस्तान के संबंधों में और गिरावट दर्ज़ की गई है. इसके अलावा कई मुद्दों पर बातचीत जो एससीओ के दायरे में पहले क़ामयाबी के साथ संपन्न हो जाया करती थी वो पूरी तरह बंद हो चुकी है मसलन, आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई. इससे पहले सभी संबंधित सदस्य देश एससीओ के क्षेत्रीय आतंकवाद विरोधी संरचना के ढांचे के तहत ऐसे मुद्दों पर एक दूसरे का सहयोग किया करते थे लेकिन अब ऐसे मुद्दों पर अगर कहा जाए तो चर्चा कराने की परंपरा एक तरह से बंद नहीं तो अब आसान भी नहीं रह गई है. दरअसल, एससीओ नियमों के तहत भारत और पाकिस्तान के लिए यह ज़रूरी है कि वो आतंकवाद के खिलाफ जारी लड़ाई के लिए गुप्त डाटा एक दूसरे से साझा करें. लेकिन सैद्धान्तिक तौर पर जो बातें आवश्यक हैं उन्हें अमल में ला पाना बेहद कठिन है. वो भी तब जबकि कश्मीर में वास्तविक नियंत्रण रेखा के क़रीब भारत और पाकिस्तान हर महीने नियमित तौर पर एक दूसरे पर गोलाबारी करते हैं. भारत हमेशा से आरोप लगाता रहा है कि पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी इंटर सर्विसेज इंटेलिजेंस कश्मीर में आतंकवादियों को ट्रेनिंग मुहैया कराती है और उन्हें भारतीय सैनिकों, पुलिस अधिकारियों, सरकारी दफ्तरों और सरकार के भरोसेमंद लोगों पर हमला कराने के लिए कश्मीर में घुसैपठ करवाने की कोशिश में जुटी रहती है. जबकि पाकिस्तान इसके जवाब में भारत पर तोहमत लगाता रहा है कि भारतीय ख़ुफ़िया एजेंसियां – रिसर्च एंड एनालिसिस विंग बलूचिस्तान में बलोच विद्रोहियों को हथियार मुहैया कराती है और उन्हें पाकिस्तान सरकार के ख़िलाफ़ गुरिल्ला युद्ध जारी रखने में मदद पहुंचाती है. सैद्धान्तिक रूप से आईएसआई और रॉ एक दूसरे के साथ आतंकवाद की चुनौतियों को रोकने के लिए बहुमूल्य जानकारी आपस में साझा करते हैं लेकिन असलियत यही है कि दोनों देश एक दूसरे से वही जानकारी साझा करते हैं जो गैर प्राथमिक होते हैं. ऐसे में दोनों देशों के बीच लगातार भरोसे की खाई और चौड़ी होती जा रही है.

अपरोक्ष जंग, हिंसक झड़प और चीन की मौजूदगी

कुल मिलाकर दोनों देश के बीच संबंध और ख़राब होते जा रहे हैं. जब भारत और पाकिस्तान ने एससीओ में एंट्री ली थी तब भी दोनों देशों के बीच संबंध आदर्श स्थिति से बहुत दूर कहे जा सकते थे, लेकिन अब तो दोनों देशों के बीच अपरोक्ष जंग जैसी स्थिति पैदा हो गई है. हाल के दिनों में भारत- चीन सरहद पर पैदा हुए कई तरह के विवादों ने भी इस आग में घी डालने जैसा काम किया है. साल 2018 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी वुहान में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग से मिलने गए तब भारतीय मीडिया ने इसे नई दिल्ली-बीजिंग के बीच वुहान के भावनात्मक संबंधों का हवाला देकर जोर-शोर से प्रचारित किया था. इसके बाद शी जिनपिंग के महाबलीपुरम दौरे से लगा कि भारत-चीन के संबंध और आपसी सहयोग और मजबूत होंगे क्योंकि इसके कुछ महीनों बाद ही भारत के विदेश मंत्री सुब्रमण्यम जयशंकर ने यह घोषणा की थी कि परस्पर भरोसे और हित के लिए भारत लंबे समय से चीन के साथ चले आ रहे सीमा विवाद का निपटारा करने की योजना बना रहा है. लेकिन इस घोषणा के छह महीनों बाद ही भारत-चीन संबंधों में वुहान की भावनात्मक अपील धुंधली पड़ गई और लद्दाख़ में दोनों देश के सैनिकों के बीच हिंसक झड़प हुई जिसमें कई लोग मारे गए.

हालांकि ना भारत और ना ही चीन अब अपने बीच जारी गतिरोध को और हवा देने की कोशिश में है. क्योंकि भारत के लिए चीन के साथ टकराव का मतलब है कि सावधानी से तैयार किए गए दोनों देशों के बीच रणनीतिक स्वायत्तता का अंत होना. जबकि चीन के लिए इसका अर्थ दक्षिण में एक और मोर्चा खोलना जहां उसे पैसिफिक क्षेत्र से अपने सैनिक और संसाधनों को हटाकर दक्षिण में लाना होगा जिसके चलते उसे भारी ख़र्च वहन करना पड़ेगा. और चीन बिना राजनीतिक हित साधे पैसिफिक इलाके से अपने कदम पीछे नहीं खींच सकता है.

भारत के लिए चीन के साथ टकराव का मतलब है कि सावधानी से तैयार किए गए दोनों देशों के बीच रणनीतिक स्वायत्तता का अंत होना. जबकि चीन के लिए इसका अर्थ दक्षिण में एक और मोर्चा खोलना जहां उसे पैसिफिक क्षेत्र से अपने सैनिक और संसाधनों को हटाकर दक्षिण में लाना होगा जिसके चलते उसे भारी ख़र्च वहन करना पड़ेगा. 

सैद्धान्तिक तौर पर आख़िरी पल तक जब तक कि स्थितियां पूरी तरह से गंभीर नहीं हो जाती चीन ऐसा नहीं करेगा. हालांकि अभी भी कई देशों के साथ सीमा विवाद जारी है, और तो और एससीओ सदस्य देशों के बीच भी सीमा विवाद एक अहम मुद्दा बना हुआ है. आखिरकार जब इस संगठन का गठन किया गया था तब एक तरफ चीन के साथ सीमा को लेकर विवाद और दूसरी तरफ रूस और तज़ाक़िस्तान के बीच सरहद को लेकर टकराव जारी थे और इन्हें तब तक सुलझाया नहीं जा सका था. हालांकि कुछ वर्षों बाद इनका निपटारा हो गया था. क़िर्ग़िस्तान और उज़्बेकिस्तान के बीच की सीमा को अभी तक पूरी तरह से सीमांकित नहीं किया जा सका है, और यहां अभी भी नियमित रूप से हिंसक झड़प होती रहती है. सैद्धान्तिक तौर पर एससीओ के वज़ूद में आने के बावज़ूद इसके सदस्य देशों में सीमा को लेकर हमेशा टकराव की स्थिति बनी रही इसके बाद भी एससीओ ने  सफलतापूर्वक अपना काम किया है.

सबसे बड़ी समस्या यह है कि गालवान घाटी में चीन के सैनिकों के साथ हिंसक झड़प होने के बाद भारत के राजनीतिक नेतृत्व ने पूरी तरह से चीन के साथ अपने क्षेत्रीय संघर्ष के निपटारे को लेकर अपनी नीतियों में बदलाव कर लिया है. दशकों से भारत ने पहले क्षेत्रीय विवादों के निपटारे करने के बाद संबंधों के सामान्यीकरण और शांति के फ़ॉर्मूले पर ज़ोर दिया है लेकिन राजीव गांधी के सत्ता में आने के बाद इस फॉर्मूले में बदलाव हो गया था क्योंकि राजीव गांधी इस बात पर विश्वास करते थे कि किसी भी मुश्किल मुद्दे को हल करने से पहले आपस में भरोसा पैदा करना बेहद ज़रूरी होता है और नतीज़तन सीमा विवाद का मुद्दा भविष्य के लिए छोड़ दिया गया. लेकिन भारत का मौज़ूदा राजनीतिक नेतृत्व कोरोना संक्रमण के बीच लोगों की उन्मादी अपेक्षाओं और राष्ट्रवाद की बढ़ती भावना के तहत यह मानता है कि बगैर विवादों को पहले हल किए संबंधों में सुधार की गुंजाइश नहीं हो सकती है जो भारत की परंपरागत लाइन रही है. अगर भारत और चीन पहले ही एससीओ के तहत इसे लेकर पूर्ण वार्ता आयोजित कर लेते तो धीरे-धीरे दोनों देश के बीच भरोसे की कमी को ख़त्म किया जा सकता था. लेकिन अब इस बात को भूल कर आगे बढ़ने की ज़रूरत है. गलवान में हुई हिंसक झड़प को भूल कर एससीओ के तहत भारत और चीन के बीच वार्ता करना सबसे बड़ी चुनौती है.

एक-दूसरे का हित, संगठन का लक्ष्य

क्योंकि कोई भी संगठन सिर्फ अपने दम पर वज़ूद में नहीं रह सकता, संगठन सदस्यों से मिलकर बनता है और इसकी सफ़लता और नाक़ामी इस बात पर निर्भर करती है कि इन सदस्यों के लक्ष्य किस हद तक एक दूसरे से मेल खाते हैं और किस हद तक वो एक दूसरे के हित के लिए काम करते हैं और कैसे संगठन के सदस्यों के बीच सकारात्मक संवाद की रूपरेखा तय होती है. जब शंघाई सहयोग संगठन अस्तित्व में आया था तब इस क्षेत्र में जितने भी इसके सदस्य देश थे तब वो आपस में एक दूसरे के हित साझा किया करते थे. यह कोई नहीं चाहता था कि कोई भी सीमा क्षेत्र को संघर्ष की ज़मीन में तब्दील करे जिसका फ़ायदा सिर्फ़ चरमपंथी और आतंकवादी उठाया करते हैं. रूस अपनी पूर्वी और दक्षिणी सीमाओं पर शांति चाहता है, जबकि चीन अपने उत्तर और पश्चिम सीमा पर टकराव नहीं चाहता है और सेंट्रल एशियाई देश रूस और चीन के बीच होने वाले संवाद में अपनी भागीदारी चाहते हैं.तो इसके साथ ही हर देश यह सुनिश्चित करने में यकीन रखता है कि पड़ोसी मुल्क़ में ऐसे किसी समूह को शरण नहीं मिले जो किसी देश की आतंरिक सुरक्षा के लिए सवाल खड़े करते हों. समस्या यह है कि भारत और पाकिस्तान एससीओ में बहुत अलग लक्ष्यों के साथ शामिल हुए हैं. यह बात शायद ही किसी ने नई दिल्ली और इस्लामाबाद में सोची होगी कि एससीओ में शामिल होने के बाद भारत बलूच अलगाववादियों को हवा देना छोड़ देगा या फिर पाकिस्तान कश्मीर में आतंकवादियों की घुसपैठ कराना भूल जाएगा. यूरेशिया के भविष्य के आलोक में पाकिस्तान अपनी स्थिति को और बेहतर बनाना चाहता है और वह यह नहीं चाहता कि यूरेशिया के भविष्य पर होने वाली चर्चा में वो पीछे छूट जाए. जबकि भारत अपने रणनीतिक लक्ष्यों को साधने के लिए एक अलग मंच चाहता है जहां वह चीन का विरोध भी कर सके और उसके साथ बराबरी की चर्चा भी कर सके. और दोनों देश के लक्ष्य में यही अंतर एससीओ के भविष्य को लेकर बड़ा सवाल खड़ा करता है.

जब शंघाई सहयोग संगठन अस्तित्व में आया था तब इस क्षेत्र में जितने भी इसके सदस्य देश थे तब वो आपस में एक दूसरे के हित साझा किया करते थे. यह कोई नहीं चाहता था कि कोई भी सीमा क्षेत्र को संघर्ष की ज़मीन में तब्दील करे जिसका फ़ायदा सिर्फ़ चरमपंथी और आतंकवादी उठाया करते हैं. 

सैद्धांतिक तौर पर आने वाले दिनों में शंघाई सहयोग संगठन के पास तीन संभावित विकास के आयाम हैं. पहला आशावादी दृष्टिकोण है जिसमें यह मान लिया जाए कि भारत और चीन या तो अपनी सीमा से जुड़े मुद्दे का निपटारा करेंगे, या फिर इसे लेकर पुराने स्टैंड को बहाल करेंगे, या फिर कोई दूसरा तरीका ढूंढेगें जिससे कि सीमा पर टकराव दोनों देशों के बीच के संबंधों पर प्रतिकूल असर नहीं डाले. (मसलन, दोनों देश अपने बीच विवादित इलाक़े को न्यूट्रल ज़ोन में बदल दें) इसी प्रकार भारत और पाकिस्तान के बीच भी टकराव को ख़त्म किया जा सकता है या फिर उसे कम किया जा सकता है. ज़ाहिर तौर पर अगर ऐसा होता है तो यह एससीओ के लिए आदर्श स्थिति पैदा करेगी जिससे एससीओ के कामकाज को नई ऊंचाई हासिल होगी और क्षेत्रीय संगठन के रूप में इसकी पहचान मज़बूत होगी. लेकिन निकट भविष्य में इसे पूरी तरह से लागू कर पाना संभव नहीं दिखता. अगर सैद्धान्तिक तौर पर भारत चीन के साथ बातचीत को लेकर तैयार भी हो जाता है तो नई दिल्ली के लिए यह कतई मानने को तैयार नहीं होगा कि वो पाकिस्तान के साथ किसी सार्थक बातचीत का हिस्सा बने. हाल के वर्षों में भारत ने काफी व्यवस्थित रूप से आर्थिक और राजनीतिक नेटवर्क को विस्तार दिया है जिसमें पाकिस्तान को नज़रअंदाज़ किया गया है जिसे पूरी तरह छोड़ने का कोई सवाल ही नहीं खड़ा होता. लेकिन आंशिक तौर पर भी अगर यह स्थिति बहाल हो पाती है तो यह भारत के लिए अच्छा होगा.

दूसरा विकल्प यह हो सकता है कि शंघाई सहयोग संगठन इस बात पर विचार ही करना छोड़ दे कि जो भी हो रहा है वह एक चुनौती है लेकिन एक तरफ भारत के साथ और दूसरी तरफ चीन और पाकिस्तान के साथ जो भी गतिरोध के मुद्दे हैं उन पर लगातार काम करते रहे. मसलन, आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई को द्विपक्षीय स्तर पर ले जाया जाए. यह निकट भविष्य में क्षमताओं को कम करने वाला साबित होगा लेकिन यह रणनीतिक दृष्टि से सम्मानजनक होगा क्योंकि अगर विवाद जल्द या बाद में सुलझ जाते हैं तो एससीओ उन क्षेत्रों में काम कर सकता है जहां पहले गतिरोध था, टकराव पहले थे. किसी को लग सकता है कि यह विकल्प भारत और पाकिस्तान के लिए हितकर हो लेकिन इसमें एक जोख़िम यह भी है कि सीमित विषयों के साथ आगे बढ़ने पर एससीओ उस क्षण तक वज़ूद में नहीं रह सकता जब वह दूसरे संगठनों की तरह ही केवल काग़ज़ी बन  कर रह जाए.

अगर सैद्धान्तिक तौर पर भारत चीन के साथ बातचीत को लेकर तैयार भी हो जाता है तो नई दिल्ली के लिए यह कतई मानने को तैयार नहीं होगा कि वो पाकिस्तान के साथ किसी सार्थक बातचीत का हिस्सा बने.

और अंत में तीसरा विकल्प यह है कि दो संगठन वास्तव में एससीओ के भीतर पैदा हो जाएं, एक – अपेक्षाकृत “व्यापक एससीओ”- जिसमें सभी सदस्य देश उन्हीं मुद्दों पर चर्चा करें जो विवादित नहीं हों जबकि दूसरा – सीमित एससीओ – जिसके संवाद की वैकल्पिक व्यवस्था मौज़ूद हो और जिसके ज़रिए उन मुद्दों पर चर्चा हो सके जिसपर भारत और पाकिस्तान ने रोक लगा रखी है. कुल मिलाकर यह हुआ कि सभी सदस्यों के व्यापक जुड़ाव को लेकर विचार करना होगा और जिससे शंघाई सहयोग संगठन आगे बढ़ सके और संगठन की दीर्घकालीन लक्ष्यों की पूर्ति हो सके.

हालांकि इसे लेकर एक चौथा विकल्प भी है जिसके तहत शंघाई सहयोग संगठन को ही पूरी तरह से ख़त्म कर दिया जाए. हालांकि मैं इस विकल्प को अमल में आता हुआ देखना नहीं चाहता क्योंकि यूरेशिया के क्षेत्र में इस संगठन के अलावा किसी और विकल्प की कोई जगह ही नहीं है और ना ही भविष्य में इसे लेकर कोई योजना लंबित पड़ी है.

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