Author : Terri Chapman

Published on Nov 16, 2019 Updated 0 Hours ago

लोकतंत्र का मतलब केवल हर व्यक्ति की अभिव्यक्ति या बहुसंख्यकों द्वारा फ़ैसला लेना भर नहीं है. इसका मतलब क़ानून का राज होना, लोकतंत्र में हर समुदाय की नुमाइंदगी होना, किसी व्यक्ति विशेष के हाथ में अथाह ताक़त होने से रोकना और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का संरक्षण भी है.

डिजिटल डेमोक्रेसी: नई तकनीक में पुरानी चुनौतियां?

सबसे पहले इस लेख का शीर्षक ये सवाल उठाता है कि क्या डिजिटल तकनीक और कॉरपोरेट एल्गोरिदम की वजह से आज हुकूमतों की ताक़त, बड़ी तकनीकी कंपनियों के हाथ में जा रही है? लेकिन, हमने ये भी देखा है कि बहुत से देश डिजिटल टूल्स का इस्तेमाल कर के अपने देश की जनता पर नियंत्रण बढ़ाते जा रहे हैं. दूसरी बात ये है कि बड़ी तकनीकी कंपनियों ने तकनीक की मदद से बहुत बड़ा बाज़ार हथिया लिया है. इससे उनके हाथ में सियासी ताक़त भी बहुत आ गई है. आज ये कंपनियां सूचना के प्रसार का बहुत बड़ा माध्यम बन गई हैं. मगर, दिक़्क़त ये है कि इन कंपनियों के प्लेटफ़ॉर्म पर जो तथ्य या जानकारियां मौजूद हैं, उनकी जवाबदेही इन कंपनियों की होती ही नहीं. तीसरी चुनौती ये है कि संवाद के डिजिटल माध्यमों की जो संरचना है, उस में किसी ख़ास विचारधारा या संगठन के लोगों का इको-चैम्बर बन जाता है, जो विरोधी पक्ष को परेशान करने के लिए भीड़ के तौर पर काम करता है. इस से सामाजिक दुर्भावना बढ़ रही है. ऐसे डिजिटल गिरोह के सदस्य आपस में मिलकर विपरीत विचारधारा के प्रति सामूहिक हिफ़ाज़त की भावना से काम करते हैं. ऐसे में डिजिटल प्लेटफ़ॉर्म पर भी हालात वही बन जाते हैं, जैसे किसी भेदभाव वाले समाज में अलग-अलग सामुदायिक समूहों के बीच भेद-भाव होता हो. और आख़िर में, आज तकनीकी कंपनियां जो एल्गोरिदम यानी आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की मदद से तैयार आंकड़ों की बुनियाद पर चुनाव करने की प्रक्रिया अपना रही हैं, उनमें बिल्कुल भी पारदर्शिता नहीं हैं. वो कैसे काम करते हैं, इसका कोई पता नहीं होता. और उनकी करतूतों के नतीजों के प्रति न इन कंपनियों की कोई जवाबदेही तय है, न ही इन एल्गोरिदम की ज़िम्मेदारी तय की गई है.

आज ऐसे देशों की तादाद बढ़ती जा रही है, जो सूचना के प्रसार पर नियंत्रण बढ़ाते जा रहे हैं. ऐसे नियंत्रण कभी तो इंटरनेट पर पाबंदी से, कभी इसकी सेवाओं में बाधाओं से और कई बार वेबसाइट पर पाबंदियों से लागू किए जाते हैं. इसके अलावा लोगों को पहचान छुपा कर अपनी बात कहने से रोका जाता है. डिजिटल कंटेंट को सीमित करने या फिर उस पर पूरी तरह पाबंदी लगाने की कोशिशें भी डिजिटल सूचना के प्रसार पर रोक लगाने के तरीक़े हैं. अगर हम वाक़ई इंटरनेट की मदद से लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोगों की मुक्ति का मार्ग खोलना चाहते हैं, तो फिर हमें इसे खुला और स्वतंत्र रखना होगा. लेकिन, दुनिया में जो हो रहा है, वो इसके उलट है. 2018 में 25 देशों में इंटरनेट बंद करने की 196 घटनाएं हुई थीं. इंटरनेट पर पाबंदी लगाने की ये घटनाएं लगातार बढ़ती जा रही हैं. 2016 में इनकी संख्या 75 थी. जो, 2017 में बढ़ कर 106 हो गई. 2018 में सरकारों ने इंटरनेट पर पाबंदी लगाने की जो वजहें बताईं, उन में से ज़्यादातर सुरक्षा, राष्ट्रीय सुरक्षा, फ़ेक न्यूज़ के ख़िलाफ़ कार्रवाई, स्कूलों के इम्तिहान और नफ़रत भरी बातें फैलने से रोकने की कोशिशें अहम थीं. 2018 में जिन देशों में इंटरनेट पर पाबंदी लगाने की घटनाएं सबसे ज़्यादा हुईं, उन में भारत, पाकिस्तान, यमन, इराक़ और इथियोपिया जैसे देश सबसे आगे हैं. भारत ने इसी साल कश्मीर में इंटरनेट पर जो रोक लगाई, वो यहां इंटरनेट पर पाबंदी का 51वां मामला था. इंटरनेट पर पाबंदी लगाने से तमाम तरह के बुरे सामाजिक प्रभाव पड़ते हैं. इनके अलावा उस देश को आर्थिक नुक़सान भी उठाना पड़ता है. 2012 से 2017 के बीच इंटरनेट पर रोक लगाने की घटनाओं की वजह से तमाम देशों को क़रीब तीन अरब डॉलर का नुक़सान उठाना पड़ा है.

अगर हम वाक़ई इंटरनेट की मदद से लोकतांत्रिक व्यवस्था और लोगों की मुक्ति का मार्ग खोलना चाहते हैं, तो फिर हमें इसे खुला और स्वतंत्र रखना होगा. लेकिन, दुनिया में जो हो रहा है, वो इसके उलट है.

इंटरनेट तक पहुंच के अलावा ऑनलाइन दुनिया में पहचान उजागर किए बिना अपनी बात कह पाना भी बेहद महत्वपूर्ण है. क्योंकि ये लोगों की निजता को बनाए रखता है. साथ ही ये उन्हें बोलने की पूरी आज़ादी देता है. विश्व स्तर पर तमाम राज्य ऐसे उपाय अपना रहे हैं जिन से इंटरनेट की दुनिया में लोगों का अजनबी रह कर अपने विचार रखना मुश्किल होता जा रहा है. इसके लिए बहुत सी सरकारें, एनक्रिप्शन पर पाबंदी लगा रही हैं. यानी लोग गुप्त संदेशों का आदान-प्रदान नहीं कर सकते हैं. इसके अलावा बिना पहचान उजागर किए इंटरनेट के इस्तेमाल पर रोक लगाई जा रही है. मसलन, पाकिस्तान ने 2016 में प्रिवेंशन ऑफ़ इलेक्ट्रॉनिक क्राइम्स एक्ट नाम का क़ानून लागू किया है. इस क़ानून के तहत पाकिस्तान में एनक्रिप्शन की मदद लेना ग़ैर क़ानूनी बना दिया गया है, क्योंकि इससे लोग पहचान छुपा कर संवाद कर सकते हैं. कई देशों ने ऑनलाइन माध्यमों के प्रयोग के लिए लाइसेंस लेने और रजिस्ट्रेशन को अनिवार्य बना दिया है. इसकी एक मिसाल वियतनाम है, जहां पर 2015 में लॉ ऑन नेटवर्क इन्फॉर्मेशन सिक्योरिटी को लागू किया गया था. इस क़ानून के तहत आम लोगों को एनक्रिप्शन की तकनीक मुहैया कराने वाली कंपनियों को कारोबार के लिए लाइसेंस लेना अनिवार्य बना दिया गया है. इसी तरह अफ्रीकी देश मलावी में एनक्रिप्शन सेवाएं देने वाली कंपनियों के लिए रजिस्ट्रेशन ज़रूरी कर दिया. इसके अलावा इन कंपनियों को एनक्रिप्शन तकनीक के बारे में भी जानकारी सरकार को देनी होगी. इसके अलावा, अमेरिका, ब्रिटेन और ऑस्ट्रेलिया जैसे देश एनक्रिप्शन की तकनीक को ही कमज़ोर करने में जुटे हैं, ताकि वो पिछले दरवाज़े से इन गुप्त संदेशों को पढ़ सकें. कई देशों ने ऑनलाइन डेटा को अपने यहां जमा करने को ज़रूरी बना दिया है. इसी तरह एनक्रिप्शन को भी स्थानीय स्तर पर ही जमा करना ज़रूरी कर दिया गया है. आज एनक्रिप्शन को लेकर निजता और सुरक्षा के बीच जो बहस चल रही है, वो अब तक किसी भी नतीजे पर नहीं पहुंच सकी है. एनक्रिप्शन को लेकर जो नीतियां बनाई जा रही हैं, उन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के बीच संतुलन बनाए रखने पर ज़ोर देना होगा.

आज ऑनलाइन दुनिया में ग़लत सूचनाओं के प्रसार अभियान में अपराधी तत्वों के साथ-साथ सरकारें भी जुटती देखी जा रही हैं. सरकार की तरफ़ से चलाया जाने वाला प्रचार अभियान अक्सर बनावटी होता है. इनके प्रसार के लिए अक्सर बॉट की मदद ली जाती है. या फिर सरकार पैसे देकर ऐसे लेख या सामग्री तैयार कराती है, जो उसका प्रचार कर सके. फ़्रीडम हाउस की 2018 की रिपोर्ट में 32 देशों में ऐसे लेखक और टिप्पणीकार देखे गए थे, जो पैसे लेकर सरकार के पक्ष में ऑनलाइन सामग्री और तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे थे, ताकि ऑनलाइन संवाद का रुख़ सरकार के पक्ष में हो. चीन की सरकार ने क़रीब 20 लाख लोगों को नौकरी पर रखा है, जो पहचान छुपा कर सरकार के पक्ष में ऑनलाइन सामग्री तैयार करते हैं, जिसे सोशल मीडिया पर बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जाता है. हाल ही में हुए एक अध्ययन के मुताबिक़, चीन के ये सरकारी टिप्पणीकार हर साल क़रीब 50 करोड़ कमेंट प्रकाशित करते हैं. इनका मुख्य लक्ष्य होता है कि सोशल मीडिया पर विवादित विषयों पर हो रही बहस को पटरी से उतार दें, ताकि लोग सरकार के विरुद्ध नाराज़गी न जता सकें.

सीमाओं के आर-पार ऐसे प्रभावित करने वाले अभियान सरकारें भी चलाती हैं और गैर सरकारी किरदार भी. इनकी वजह से लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की विश्वसनीयता भी ख़त्म हो रही है और इन पर भरोसा भी कमज़ोर हो रहा है. सरकार के ख़र्चे पर ऐसे प्रभावित करने वाले अभियानों की मदद से सम्मानित लोगों को बदनाम करने, लोगों की राय प्रभावित करने और सामाजिक राजनीतिक बंटवारे और ध्रुवीकरण को बढ़ाने के लिए किया जा रहा है. इससे लोकतांत्रिक परंपराएं और संस्थाएं कमज़ोर हो रही हैं. हाल ही में हुए एक रिसर्च में देखा गया कि 2013 से 2018 के बीच विदेशी माध्यमों से प्रभाव डालने की घटनाएं 24 देशों में हुईं. इन में से आधे से ज़्यादा अभियानों के पीछे रूस का हाथ पाया गया. रूस का ऑनलाइन प्रचार तंत्र 2016 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव के दौरान काफ़ी असरदार साबित हुआ था. ये इस बात की मिसाल है कि विदेशी संगठन और सरकार किस तरह लोकतांत्रिक परंपराओं को पटरी से उतार रहे हैं. रूस के अलावा चीन, ईरान और सऊदी अरब की सरकारों ने भी दूसरे देशों में ऐसे ऑनलाइन अभियान चलाए. आज ऐसे अभियानों के लिए फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे बेहद लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म का इस्तेमाल बड़े ज़ोर-शोर से किया जा रहा है.

नई नई तकनीकें सरकारों को ऑनलाइन दुनिया पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के नए तरीक़े उपलब्ध कराती हैं. इनके साथ साथ बड़ी तकनीकी कंपनियां जैसे-फ़ेसबुक, गूगल, एप्पल और अमेज़न भी बाज़ार और सियासी ताक़त जमा करती जा रही हैं.

नई नई तकनीकें सरकारों को ऑनलाइन दुनिया पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के नए तरीक़े उपलब्ध कराती हैं. इनके साथ साथ बड़ी तकनीकी कंपनियां जैसे-फ़ेसबुक, गूगल, एप्पल और अमेज़न भी बाज़ार और सियासी ताक़त जमा करती जा रही हैं. ऐसे में नियामक संस्थाओं के लिए इन कंपनियों की बढ़ती ताक़त पर क़ाबू पाना मुश्किल होता जा रहा है. बड़ी कंपनियां आज सूचना के प्रसार की मुख्य माध्यम बन चुकी हैं. आज दो तिहाई अमेरिकी नागरिक फ़ेसबुक के माध्यम से ही ख़बरें जान पाते हैं. तकनीकी कंपनियां अपने प्लेटफ़ॉर्म पर मौजूद कंटेंट की जवाबदेही से बचती आई हैं. बड़ी कंपनियों का बिज़नेस मॉडल व्यक्तिगत विज्ञापनों पर आधारित है. ये उनके प्लेटफ़ॉर्म को इस्तेमाल करने वालों के बारे में अथाह जानकारी जुटा कर तैयार किया जाता है. इस बिज़नेस मॉडल की मदद से वही कंटेंट किसी यूज़र को दिखता है, जो उसकी पसंद का होता है और तेज़ी से फैलता है. कई बार में ये सामग्री विवादास्पद और नफ़रत फैलाने वाली ही नहीं, झूठी और नुक़सानदेह भी होती है. हाल ही में हुई एक स्टडी के मुताबिक़ 2006 से 2017 के बीच ट्विटर पर पोस्ट की गई 1 लाख 26 हज़ार ख़बरों में से जो सही जानकारी थी, उसे 1,500 लोगों तक पहुंचने में ग़लत ख़बरों के मुक़ाबले छह गुना ज़्यादा समय लगा. इन अध्ययन ने पाया कि ग़लत ख़बरों के प्रसार में मानवीय बर्ताव का रोल बढ़ता ही जा रहा है.

किसी भी वेबसाइट पर मौजूद सामग्री के लिए उसी प्लेटफॉर्म को ज़िम्मेदार बनाने के लिए जो नई नीतियां बनाई जा रही हैं, एक सही दिशा में उठाया गया क़दम है. फ्रांस ने रैपिड रिस्पॉन्स लॉ बनाया है, जिस में तकनीकी कंपनियों के लिए क़ानून और व्यवस्था के लिए काम करने वाली संस्थाओं के साथ सहयोग करना ज़रूरी बना दिया गया है. इसी तरह जर्मनी का नेटवर्क एनफ़ोर्समेंट लॉ 20 लाख या इससे ज़्यादा यूज़र्स वाली तकनीकी कंपनियों को इस बात के लिए बाध्य करता है कि वो ऐसे कंटेंट को अपनी वेबसाइट से 24 घंटे के अंदर हटाएं, जो जर्मनी के क़ानूनों का उल्लंघन करता हो. इसके अलावा ब्रिटेन का मैंडेटरी ड्यूटी ऑफ़ केयर का प्रस्तावित क़ानून नुक़सानदेह कंटेंट होने पर उस कंपनी या प्लेटफॉर्म को ही ज़िम्मेदार ठहराएगा. मलेशिया समेत कई देशों में फ़ेक न्यूज़ से निपटने के लिए बनाए गए क़ानूनों का इस्तेमाल, विरोध के सुर दबाने के लिए किया जा रहा है. ऐसे में ये सावधानी बरतने की ज़रूरत है कि कोई भी क़ानून ऑनलाइन माध्यमों में सूचना के अविरल प्रवाह को और बेहतर बनाएं. लेकिन, ये क़ानून निजी स्वतंत्रता का भी संरक्षण करें. ऐसे प्रयासों को इस बात का भी ख़याल रखना होगा कि ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर गलत सूचना के प्रवाह में इंसानों के बर्ताव का क्या रोल होता है.

सोशल मीडिया पर हर व्यक्ति के हिसाब से विज्ञापन तैयार करना और इनकी नेटवर्क संरचना का जोखिम ये है कि इनसे एक तरह के लोगों के गिरोह तैयार होने का डर होता है. तकनीकी कंपनियां और सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म, वैसी सामग्री को फिल्टर कर देते हैं, जिन्हें कोई शख़्स देखना पसंद न करे. नतीजा ये होता है कि इन्हें इस्तेमाल करने वालों को वही दिखता है, जिससे उनके विचार मेल खाते हैं. इससे कोई भी यूज़र अपनी पसंद की वेबसाइट पर ज़्यादा समय बिताता है. लेकिन इस में जोखिम ये भी होता है कि लोगों के बीच ध्रुवीकरण बढ़ता है. ख़ास तौर से राजनीतिक मसलों पर. ऐसा होने का मतलब ये है कि सोशल मीडिया पर लोकतांत्रिक रूप से स्वस्थ बहस नहीं होती. अभी ये साफ़ नहीं है कि ऑनलाइन दुनिया के ये इको चैम्बर किस तरह से ऑफ़लाइन समुदायों को प्रभावित करते हैं. अगर हम इन वर्चुअल इको चैम्बर्स को तोड़ना चाहते हैं, तो हमें अपने से ख़िलाफ़ विचार रखने वालों से संवाद करने के तौर-तरीक़ों को लेकर जागरूकता फैलानी होगी.

आम तौर पर माना ये जाता है कि इंटरनेट की मदद से लोगों का सशक्तिकरण हुआ है. उन्हें राजनीतिक भागीदारी ज़्यादा मिल रही है. वो सियासी मसलों पर ज़्यादा मज़बूती से अपनी बात कह पा रहे हैं. इंटरनेट के माध्यम से आज राजनीतिक संवाद में वो लोग भी साझीदार हो रहे हैं, जिनकी अनदेखी होती आई है. आज तमाम लिंक और सर्च इंजन के एल्गोरिदम के पेचीदा संबंध का नतीजा ये होता है कि यहां का संवाद कुछ मज़बूत स्रोत के इर्द-गिर्द ही घूमता है. यहां संवाद पारंपरिक मीडिया की तरह नहीं होता. इंटरनेट पर लोग ब्लॉग लिख कर अपनी राय तो ज़ाहिर कर सकते हैं. लेकिन, इसका ये मतलब नहीं है कि उनके विचारों को लोग पढ़ भी रहे हैं. इससे भी अहम बात ये है कि सभी के पास वो हुनर नहीं है कि वो ऑनलाइन परिचर्चा में शामिल हो सकें. और ऐसे बहुत ही कम लोग हैं, जो लोकतांत्रिक संवाद की दशा-दिशा तय कर सकें.

अभी ये साफ़ नहीं है कि ऑनलाइन दुनिया के ये इको चैम्बर किस तरह से ऑफ़लाइन समुदायों को प्रभावित करते हैं. अगर हम इन वर्चुअल इको चैम्बर्स को तोड़ना चाहते हैं, तो हमें अपने से ख़िलाफ़ विचार रखने वालों से संवाद करने के तौर-तरीक़ों को लेकर जागरूकता फैलानी होगी.

आज अभिव्यक्ति की आज़ादी पर चौतरफ़ा हमले हो रहे हैं. फिर वो ऑनलाइन हो या ऑफ़लाइन दुनिया. अमेरिका के कॉलेज जाने वाले 61 प्रतिशत छात्र कहते हैं कि उनके कैम्पस का माहौल ऐसा है कि वो खुल कर अपनी बात कहने से रोके जाते हैं. ये बहुत डराने वाली बात है. इसी सर्वे में शामिल 37 फ़ीसद छात्रों का ये भी मानना था कि विरोधी विचार रखने वालों को चिल्ला कर चुप करा देना सही बात है. इससे भी ज़्यादा डराने वाली बात ये है कि दस फ़ीसद छात्र ये मानने वाले थे कि दूसरों की आवाज़ दबाने के लिए हिंसा का इस्तेमाल भी जायज़ है. अमेरिका में कट्टर वामपंथी और दक्षिणपंथी विचार रखने वालों की अपने विरोध में उठने वाली आवाज़ें दबाने की जो प्रवृत्ति है, उसके दुष्परिणाम प्रतिक्रिया के रूप में दिखते हैं. ऐसी कई मिसालें हैं, जब परस्पर विरोधी विचारों को ग़लत ही नहीं, शैतानी समझा जाता है. विवादित मसलों पर खुल कर संवाद करना चाहिए और किसी के भी बोलने की आज़ादी को नियंत्रित करने की कोशिश कम से कम होनी चाहिए. हां, केवल हिंसक बातें करने या हिंसा की धमकी देने वालों की आवाज़ को ही क़ाबू किया जाना चाहिए.

आज जबकि हर इंसान बड़े पैमाने पर ऑनलाइन डेटा निर्मित कर रहा है, तो मशीन लर्निंग की मदद से ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी को प्रॉसेस किया जा सकता है. यही वजह है कि आज आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस या एल्गोरिदम हमारी ज़िंदगी के तमाम कोनों में घुसते जा रहे हैं. फ़ैसले लेने की प्रक्रिया में इनका इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है. सरकारी क्षेत्र में आज लोगों को वज़ीफ़े देने से लेकर आर्थिक मदद देने तक में इनका इस्तेमाल हो रहा है. वहीं आपराधिक न्याय प्रक्रिया से लेकर सरकारी मकानों के आवंटन में भी एल्गोरिदम इस्तेमाल किए जा रहे हैं. वहीं, निजी क्षेत्र में एल्गोरिदम की मदद से बीमा की रक़म का निस्तारण हो या फिर क़र्ज़ पाने की क्षमता का आकलन, ये सारे काम आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की मदद से किए जा रहे हैं. ऐसे फ़ैसले लेने में आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के रोल का असर लोगों की ज़िंदगी पर ही नहीं पड़ता, बहुत से संगठनों और समुदायों पर भी इसका प्रभाव पड़ता है.

अक्सर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की मदद फ़ैसले लेने में ये कह कर ली जाती है कि ये निष्पक्ष होते हैं. कार्यकुशल होते हैं, और इन पर भरोसा किया जा सकता है. लेकिन, मशीनों की मदद से किए जाने वाले फ़ैसले भी ऐतिहासिक आंकड़ों पर निर्भर होते हैं और ये भी पहले हुए भेदभाव से प्रभावित होते हैं. और, उसी आधार पर भेदभाव पूर्ण फ़ैसले करते हैं. ऐसे में जब भी कोई अहम फ़ैसला लेने में एल्गोरिदम की मदद ली जाए, तो उस में और पारदर्शिता लाने की ज़रूरत है. इसकी एक अच्छी मिसाल है अमेरिका की न्यायिक व्यवस्था में इस्तेमाल होने वाले आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के टूल कम्पास (COMPAS — Correctional Offender Management Profiling for Alternative Sanctions) है. इस तकनीकी औज़ार की मदद से क़ैदियों को पैरोल पर छोड़ने का फ़ैसला किया जाता है. रिसर्च से पता चलता है कि कम्पास ने केवल 61 प्रतिशत क़ैदियों के मामले में सही अनुमान लगाया. रिसर्चरों ने ये भी देखा है कि अश्वेत क़ैदियों के मामले में कम्पास का आकलन आम इंसानों जैसा ही भेदभाव वाला ही है. वहीं, गोरे अपराधियों को लेकर कम्पास का रुख़ नरम रहता है. गोरे क़ैदियों को कम्पास भी कम जोखिम वाले अपराधी ही मानता है. यानी एल्गोरिदम को भी यही लगता है कि गोरे अपराधियों के, अश्वेत अपराधियों के मुक़ाबले जेल से छूटने पर जुर्म करने की आशंका कम होती है. ये वही भेदभाव वाली सोच है, जिसका शिकार आम अमेरिकी समाज है.

अक्सर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस की मदद फ़ैसले लेने में ये कह कर ली जाती है कि ये निष्पक्ष होते हैं. कार्यकुशल होते हैं, और इन पर भरोसा किया जा सकता है. लेकिन, मशीनों की मदद से किए जाने वाले फ़ैसले भी ऐतिहासिक आंकड़ों पर निर्भर होते हैं और ये भी पहले हुए भेदभाव से प्रभावित होते हैं.

ऐसे एल्गोरिदम के भेदभाव का असर किसी व्यक्ति के जीवन पर ही नहीं, पूरे समाज पर भी व्यापक रूप से पड़ता है. आज निजी क्षेत्र और सरकारी काम में भी मशीनों की मदद से फ़ैसले लेने का दायरा बढ़ता ही जा रहा है. इसका ये मतलब भी हुआ कि आज हमारी ज़िंदगियों, हमें मिलने वाले मौक़ों और हमारे जोखिमों में एल्गोरिदम का रोल बढ़ता ही जा रहा है. ये हमारी ज़िंदगी को इस तरह प्रभावित कर रहे हैं, जिसे आम जनता समझ नहीं पा रही है. इसीलिए आज एल्गोरिदम को किस आधार पर तैयार किया जा रहा है, वो फ़ैसला किस तरह से लेते हैं, उस में ज़्यादा पारदर्शिता और जवाबदेही लाने की ज़रूरत है. इसके लिए हमें ऐसी तकनीकों को और बेहतर तरीक़े समझाने, फिर उसके सत्यापन और निगरानी की ज़रूरत है. इससे जुड़े क़ानूनी बदलावों को लेकर सार्वजनिक परिचर्चा को और बढ़ाने की ज़रूरत है. इसका ये भी मतलब हो सकता है कि इन एल्गोरिदम को चुनने और तैयार करने में इंसानों के रोल को भी उजागर करना होगा. इससे ये फ़ायदा होगा कि एल्गोरिदम की डिज़ाइन में बुनियादी सामाजिक भेदभाव को शामिल करने से बचा जा सकेगा. इसे डिज़ाइन करने वाले व्यक्ति की जवाबदेही भी सुनिश्चित होगी. आंकड़ों में पारदर्शिता और इनकी निगरानी करने का मतलब ये है कि सटीक जानकारी मिल सकेगी. आंकड़े संपूर्ण होंगे. समय पर मुहैया कराए जाएंगे. वो हर वर्ग का प्रतिनिधित्व करने वाले होंगे. उन में अनिश्चितता होगी और आंकड़े इस्तेमाल करने की सीमाएं भी ज़ाहिर होंगी. आख़िर में आंकड़ों के इस्तेमाल से जो नतीजे निकलेंगे, जैसे कि ग़लतियों की आशंका या ग़लत तरीक़े से किसी की अच्छी या ख़राब ब्रैंडिंग और किसी भी व्यक्ति को लेकर जताया गया भरोसा उजागर किया जा सकता है और ऐसा किया भी जाना चाहिए.

लोकतंत्र का मतलब केवल हर व्यक्ति की अभिव्यक्ति या बहुसंख्यकों द्वारा फ़ैसला लेना भर नहीं है. इसका मतलब क़ानून का राज होना, लोकतंत्र में हर समुदाय की नुमाइंदगी होना, किसी व्यक्ति विशेष के हाथ में अथाह ताक़त होने से रोकना और अल्पसंख्यकों के अधिकारों का संरक्षण भी है. इन बातों को ध्यान में रख कर ही हमें लोकतंत्र के तमाम पहलुओं और लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर इन डिजिटल बदलावों के असर पर न सिर्फ़ निगाह रखनी चाहिए. बल्कि उसकी नियमित रूप से समीक्षा भी करनी चाहिए. इस लेख के माध्यम से हम ने ऐसी ही चार चुनौतियों को समझने की कोशिश की. इन में डिजिटल टूल्स की मदद से सरकारों द्वारा किए जा रहे निरंकुश कार्यों की समीक्षा, तकनीकी कंपनियों की बढ़ती ताक़त, सोशल मीडिया और न्यूज़ फीड के विरोधी विचारों वालों को अलग-थलग करने देने वाले असर, और फ़ैसला लेने में एल्गोरिदम के असर का आकलन किया गया. आख़िर में हमें उन चुनौतियों को समझना होगा जो डिजिटल दुनिया से किसी तरक़्‍क़ीपसंद लोकतंत्र को मिल रही हैं. क्योंकि ये दोनों ही अपने आप में अलग और ख़ास हैं. मगर, ये मौजूदा मसलों और चुनौतियों को ही नए स्वरूप में हमारे सामने ला रहे हैं.

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