हालिया दिनों में, ऑस्ट्रेलिया और कनाडा में खालिस्तानी चरमपंथियों द्वारा हिंदू मंदिरों पर हमले की कई घटनाएं सामने आई हैं. मार्च 2023 में यूनाइटेड किंगडम (UK) में भारतीय उच्चायोग के सामने खालिस्तानी चरमपंथियों द्वारा हिंसक विरोध प्रदर्शन की घटनाएं सामने आईं. इससे पहले यूके में रहने वाले खालिस्तानियों ने 2018 और अक्टूबर 2022 में भारतीय उच्चायोग के सामने विरोध प्रदर्शन किया था. खालिस्तानी अलगाववादी संगठन, सिख फॉर जस्टिस (SFJ) ने पंजाब के भारतीय राज्य से अलग होने को लेकर एक जनमत संग्रह का आयोजन किया. 2020 में, कनाडा में भी SFJ ने एक ऐसे जनमत संग्रह का आयोजन किया. खालिस्तान आंदोलन में आई तेज़ी ने भारतीय रणनीतिक हलकों को परेशान किया है. यूके में भारतीय उच्चायोग पर हमले के बाद, दिल्ली ने उच्चायोग परिसर के बाहर सुरक्षा खामियों पर सवाल उठाते हुए कड़ा विरोध दर्ज कराया. नवंबर 2022 में, द्विपक्षीय संबंधों पर इन घटनाओं के प्रभावों पर विचार करने के भारत के अनुरोध के बावजूद, लंदन द्वारा "हिंसा, घृणा और अलगाववाद को बढ़ावा देने वाले" समूहों को विरोध प्रदर्शन की अनुमति दिए जाने को लेकर भारत ने लंदन के प्रति अपनी निराशा और पीड़ा का इज़हार किया.
खालिस्तानी अलगाववादी संगठन, सिख फॉर जस्टिस (SFJ) ने पंजाब के भारतीय राज्य से अलग होने को लेकर एक जनमत संग्रह का आयोजन किया. 2020 में, कनाडा में भी SFJ ने एक ऐसे जनमत संग्रह का आयोजन किया.
पश्चिम में खालिस्तान की मौजूदगी
प्रवासी सिख समुदाय के भीतर खालिस्तानी चरमपंथियों का एक बेहद छोटा सा वर्ग है, हालांकि यह वर्ग बहुत ज्य़ादा आक्रामक, मुखर और हिंसक है. जिसके कारण उनके बहुसंख्यक होने का भ्रम पैदा होता है, जहां सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक और राजनीतिक, सभी क्षेत्रों में उनका दबदबा कायम है.
इसके पीछे की वजहों को तलाशने के लिए, लेखक ने कनाडा और यूके में रहने वाले सिख लोगों और कुछ सिख नेताओं से बात की. यूके और कनाडा के सिखों के साथ इंटरव्यू में, लोगों ने बताया कि खालिस्तान के ज़्यादातर समर्थक निम्न सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से ताल्लुक रखते हैं, जिनमें साक्षरता का स्तर बेहद कम है और वे छोटी-मोटी नौकरियां करते हैं. उनमें से कई पश्चिमी देशों में शरणार्थी हैं और ज़्यादातर अवैध प्रवासी हैं. वहां ज़्यादा समय तक टिकने के लिए, शरण पर अपने दावे को सही ठहराने के लिए, वे ऐसा कह देते हैं कि भारत में उनका जीवन, उनकी आज़ादी, और मानवाधिकार सब ख़तरे में है. भावनात्मक आवेश के साथ और शब्दों के जाल बुनकर कही गई बातों और लगाए गए इल्ज़ामों से शरण या स्थाई निवास पर उनके दावे को और मज़बूती मिलती है.
गुरुद्वारों पर नियंत्रण
उनका गुरुद्वारों पर मज़बूत नियंत्रण है, जिससे उन्हें समुदाय से जुड़े सभी मुद्दों पर अपनी बात रखने, उन्हें प्रभावित करने का अधिकार मिल जाता है. गुरुद्वारा किसी भी धार्मिक सिख के लिए सबसे महत्वपूर्ण स्थान है. विवाह, धार्मिक अनुष्ठान, सामाजिक समारोह या फिर आध्यात्मिक लक्ष्यों के लिए गुरुद्वारा सिखों के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण है. गुरुद्वारों पर खालिस्तानी नियंत्रण के कारण कई सिखों के आश्रित और असुरक्षित बने रहने की संभावना बढ़ जाती है. टेरी मिल्सवस्की ने कनाडा में खालिस्तानी गतिविधियों पर अपनी रिपोर्ट में एक तेज़तर्रार खालिस्तानी कार्यकर्ता प्रवकर सिंह दुलई का उल्लेख किया है, जो सरे के दशमेश साहिब गुरुद्वारा में ख़ास ओहदा रखते हैं. संयोग से, गुरुद्वारे में खालिस्तानी आतंकवादी तलविंदर सिंह परमार की भी एक तस्वीर लगी है, जो मॉन्ट्रियल से लंदन जाने वाली एयर इंडिया-182 विमान में हुए बम विस्फोट हादसे का मास्टरमाइंड था, जिसमें 329 लोग मारे गए थे. गुरुद्वारे के भीतर उसे एक शहीद का दर्जा दिया गया है. कनाडा में रहने सिखों के एक प्रमुख नेता ने लेखक को बताया कि कई अन्य गुरुद्वारों में एक खालिस्तानी हीरो भिंडरावाले की तस्वीरें लगी हुई हैं. गुरुद्वारे के ज़रिए, उन्हें अपने उद्देश्य के लिए भारी फंड मिलता है. इसके अलावा, उन्होंने बताया कि वे शादियों या लोगों के घरों में गुरु ग्रंथ साहिब का पाठ कराने जैसे सामाजिक आयोजनों के लिए भी पैसे लेते हैं. इसके अलावा, खालिस्तानी प्रबंधन सामुदायिक कल्याण के लिए भी फंड इकट्ठा करता है, जिसे चरमपंथी और विध्वंसक गतिविधियों में लगा दिया जाता है.
खालिस्तानियों की आतंकी क्षमता को जो चीज़ मज़बूत करती है, वो उनके अपराधियों, तस्करों और मानव तस्कर गिरोहों के साथ गहरे संबंध हैं. कथित रूप से, वे कनाडा के गिरोहों के ज़रिए कनाडा और भारत के लोगों को निशाना बना रहे हैं.
आतंक, डर और ख़तरा
सिख चरमपंथी लोगों को डरा-धमका कर खालिस्तानी विचारधारा और उसके नेताओं के बारे में आम धारणाओं को नियंत्रित करते हैं. मुख्यधारा के ज़्यादातर सिख लोग डर के मारे चुप्पी साधे हुए हैं. जो लोग खालिस्तानियों से असहमत हैं या उनके खिलाफ बोलते हैं, उन्हें डराया जाता है या मार दिया जाता है. कथित रूप से, रिपुदमन सिंह मलिक की हत्या (जुलाई 2022) का मामला ऐसा ही है. रिपुदमन सिंह मलिक 1985 के एयर इंडिया बम विस्फोट मामले में नामजद एक आतंकी था, जिसे बाद में बरी कर दिया गया. ऐसा कहा जाता है कि खालिस्तानियों ने उसकी हत्या की साज़िश को अंजाम दिया था क्योंकि वह बाद में उनके खिलाफ़ हो गया था. उसने 2019 में भारत का दौरा किया था, सिख समुदाय के लिए कल्याणकारी योजनाएं चलाने के लिए भारतीय प्रधानमंत्री को धन्यवाद देते हुए एक पत्र लिखा था, और कनाडा के सिखों से अनुरोध करते हुए कहा था कि वे "बिला वजह" उनकी (भारतीय प्रधानमंत्री की) आलोचना न करें. ब्लूम रिव्यू में यह भी उल्लेख किया गया है कि लोगों से साक्षात्कार के दौरान सिख अपनी पहचान को गोपनीय रखने की शर्त पर इस अध्ययन में शामिल हुए थे क्योंकि उन्हें बदला लिए जाने का डर था. उनमें से कईयों ने बताया कि खालिस्तानी विचारधारा से असहमति के कारण उन्हें आक्रामक सिख कार्यकर्ताओं द्वारा "डराया, धमकाया, सताया और अपमानित" किया गया था. उन्हें "गद्दार, नास्तिक, अशुद्ध और पतित" कहा गया. ब्रिटिश कोलंबिया के पूर्व प्रधानमंत्री उज्जल दोसांझ को खालिस्तानियों का विरोध करने पर धमकाया गया और बुरी तरह उन्हें पीटा गया. हाउस ऑफ लॉर्ड्स की आचरण समिति के सामने सिख मुद्दों पर प्रतिकूल जानकारियां पेश करने के कारण खालिस्तानियों ने कथित रूप से विंबलडन के लॉर्ड सिंह को भी परेशान किया. खालिस्तानियों की आतंकी क्षमता को जो चीज़ मज़बूत करती है, वो उनके अपराधियों, तस्करों और मानव तस्कर गिरोहों के साथ गहरे संबंध हैं. कथित रूप से, वे कनाडा के गिरोहों के ज़रिए कनाडा और भारत के लोगों को निशाना बना रहे हैं.
राजनीतिक प्रभुत्व और राज्य की नीति
सिख चरमपंथियों ने सामुदायिक वोटों पर नियंत्रण स्थापित करके अपनी स्थिति को काफ़ी मज़बूत बना लिया है. टोरंटो, ब्राम्पटन, सरे और वैंकूवर में खालिस्तानी सिख वोटों पर अपनी मज़बूत पकड़ रखते हैं और स्थानीय स्वशासित निकायों के चुनावों में निर्णायक भूमिका निभाते हैं. चूंकि गुरुद्वारे से उन्हें बड़ी आमदनी होती है, खालिस्तानी राजनीतिक पार्टियों को फंड भी करते हैं और नीतियों और कानूनों को प्रभावित भी करते हैं. राज्य संस्थानों में उनकी पैठ बहुत मज़बूत है और उन पर उनका असर भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है. कनाडा में खालिस्तानी गतिविधियों को लेकर मैकडोनाल्ड लॉरियर इंस्टीट्यूट का कहना है कि 2018 में, खालिस्तानियों ने पब्लिक रिपोर्ट ऑन टेरररिज्म थ्रेट टू कनाडा में "सिख (खालिस्तानी) चरमपंथी विचाराधाराओं और आंदोलनों" की जगह महज़ "चरमपंथी" शब्द के इस्तेमाल (जिससे कुछ स्पष्ट नहीं होता) के लिए कनाडा सरकार पर दबाव डाला. ये एहसास होने पर कि स्थानीय निकायों के ज़रिए वे राष्ट्रीय स्तर पर नीतियों को प्रभावित नहीं कर सकते और भारत के खिलाफ़ माहौल खड़ा नहीं कर सकते, इसलिए वे अब राष्ट्रीय राजनीति में सीधे भाग ले रहे हैं. पैसों की ताकत से उनका हौसला काफ़ी मज़बूत हुआ है. एक नामी खालिस्तान-समर्थक जगमीत सिंह, जिस पर भारत-विरोधी अभियान चलाने का आरोप है, एक ताकतवर राष्ट्रीय पार्टी, न्यू डेमोक्रेटिक पार्टी का प्रमुख है. ब्रिटेन की राजनीति और राज्य नीति में खालिस्तानी अलगाववादी एजेंडा कितना आगे बढ़ चुका है, इसका एक और उदाहरण 2021 में देखने को मिला जब सिखों ने सरकारी कागज़ों में भारतीय मूल के सिख होने पहचान की बजाय जातीय सिख पहचान के विकल्प की मांग की.
हालांकि, ब्रिटेन की सिख आबादी में खालिस्तानी एक ऐसा छोटा सा तबका है जो "बहुत ज़्यादा मुखर और आक्रामक" है, लेकिन उन्होंने समुदाय के नेतृत्वकर्ता के रूप में संसदीय भागीदारी या राज्य निकायों के साथ बातचीत में अपने एकाधिकार को स्थापित कर लिया है. सिख समुदाय से जुड़े मुद्दों और उनकी धार्मिक प्रथाओं के बारे में पश्चिमी राजनीतिज्ञ पर्याप्त समझ नहीं रखते और वोट बैंक पर भी खालिस्तान का नियंत्रण है, जिससे राजनीति में बहुत ज़्यादा प्रतिनिधित्व और नेतृत्व मिला है.
विपरीत पक्ष का अभाव
खालिस्तानी विचारधारा के सामने दूसरी विचारधाराओं की ज़मीन मज़बूत नहीं है कि जहां व्यवस्थित और योजनाबद्ध ढंग से दूसरा पक्ष भी अपनी बातें रख सके, इसके कारण बहुत आसानी से खालिस्तानी नेटवर्क का विस्तार हुआ है. खालिस्तानी सिख धर्म की मूलभूत शिक्षाओं से काफ़ी कटे हुए हैं जबकि इनका आधार सनातन या हिंदू धर्मग्रंथ हैं. बारामुला के रहने वाले और सिख यूथ ऑफ जम्मू एंड कश्मीर (SYJK) के अध्यक्ष अमनजीत सिंह ने टेलीफोन पर दिए गए साक्षात्कार में बताया कि उदासीन, निर्मल संप्रदाय, निहंग सिख, संत बाबा ईशर सिंह संप्रदाय, कार सेवा संप्रदाय, निरंकारी और राधास्वामी जैसे ज़्यादातर बड़े और पुराने सिख संप्रदाय (या संगठन) अपने मूल में सनातन धर्म को देखते हैं और सिख धर्म के खालिस्तानी संस्करण को अस्वीकार करते हैं. इसके अलावा, उनका कहना था कि सिखों में जाट सिखों को छोड़कर भापा सिख (व्यापारी वर्ग) और मज़हबी सिख (निचली जाति के सिख) जैसे अन्य समुदाय खालिस्तान के प्रति कोई हमदर्दी नहीं रखते. हालांकि, खालिस्तानी विचारधारा के विपरीत किसी दूसरी विचारधारा का अस्तित्व नहीं है, जो इन संस्थाओं और उनकी आस्थाओं का प्रचार करे और जो सिख धर्म के मूल स्वरूप पर आधारित हो. वहीं दूसरी ओर, खालिस्तानी सिख धर्म के अपने संस्करण का बड़ी ज़ोर-शोर से प्रचार करते हैं, और युवाओं को सिख धर्म के पारंपरिक सनातन स्वरूप से दूर ले जा रहे हैं. खालिस्तान के प्रति पारंपरिक सिखों की सोच के बारे में बात करते हुए अमनजीत सिंह ने बताया कि खालिस्तानियों के हिंदू धर्म से कटे होने और बहुत ज़्यादा कर्मकांडी होने के कारण पारंपरिक सनातनी सिख उन्हें सिख धर्म के वहाबी संस्करण के रूप में देखते हैं. उनके और ज़ाकिर नाइक जैसे वहाबी प्रचारकों में कई दिलचस्प समानताएं देखी जा सकती हैं, ख़ासकर युवाओं तक पहुंचने के लिए प्रौद्यौगिकी के व्यापक इस्तेमाल के मामले में. अगर भारत के पंजाब में एक मज़बूत विरोधी विचारधारा पैदा होती है, तो यह पश्चिमी दुनिया में खालिस्तानी राजनीति को अवैध बनाने में मददगार सिद्ध होगा.
पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों की भूमिका
खालिस्तानी गतिविधियों में पाकिस्तानी खुफिया एजेंसियों का मज़बूत हाथ है, जो उनकी रणनीतियों, कार्यप्रणालियों, मांगों, सूचना युद्ध और भारत में आतंकी गतिविधियों के संचालन के रूप में हमारे सामने आती है. पश्चिमी समाज को भ्रमित करने, उदारवादी राजनीतिक व्यवस्था का फ़ायदा उठाने और भारत-विरोधी झूठी ख़बरें फ़ैलाने में पाकिस्तान को दशकों पुराना अनुभव है, जो खालिस्तानियों के लिए एक गाइडबुक की तरह है. कथित रूप से, पाकिस्तानी सेना के लिए लेफ्टिनेंट कर्नल शाहिद मोहम्मद मल्ही जनमतसंग्रह 2020 के प्रमुख सूत्रधार हैं, जिसे इंटर-सर्विसेज इंटेलिजेंस (ISI) द्वारा "ऑपरेशन एक्सप्रेस" नाम दिया गया था. ISI की कार्यशैली से सीख लेते हुए, खालिस्तानी समूहों जैसे SFJ और कई अन्य संगठन मानवाधिकार संगठनों के भेष में मौजूद हैं, जो पश्चिमी दुनिया में अपनी विचारधारा के प्रति स्वीकृति के लिए काम रहे हैं क्योंकि वहां अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बेहद महत्त्वपूर्ण समझा जाता है. इसके अलावा, ISI की अनुषंगी संस्थाओं की तरह खालिस्तानी समूह कई उपसमूहों में बंटे हुए हैं और भ्रमजाल पैदा करते हैं. कनाडा के मैकडोनाल्ड लॉरियर इंस्टीट्यूट और अमेरिका के हडसन इंस्टीट्यूट ने खालिस्तानी समूहों के पाकिस्तान के साथ संबंधों पर विस्तृत कई रिपोर्टें तैयार की हैं. ख़ास तौर पर, मैकडोनाल्ड की रिपोर्ट में खालिस्तान का जो नक्शा दिखाया गया है, उसमें पाकिस्तान के हिस्से वाले पंजाब को शामिल नहीं किया गया है. इसके अलावा, खालिस्तानी कभी भी इस्लामी चरमपंथियों द्वारा पाकिस्तान और अफगानिस्तान में सिखों के साथ दुर्व्यवहार, जबरन धर्मांतरण, अपहरण और सांस्कृतिक नरसंहार का मुद्दा नहीं उठाते हैं, ताकि उनके पाकिस्तानी समर्थक नाराज़ न हों. हडसन इंस्टीट्यूट ने ऐसे 55 कश्मीरी और खालिस्तानी संगठनों की एक सूची बनाई है, जो आपस में मिलकर काम कर रही हैं. कथित तौर पर, वे साझा कार्यक्रमों और विरोध प्रदर्शनों का आयोजन करते हैं और उनके लिए काम करने वाले वकील, अकाउंटेंट एक हैं, और उन्हें वित्तपोषित करने वाले स्रोत भी एक हैं.
खालिस्तानियों के हिंदू धर्म से कटे होने और बहुत ज़्यादा कर्मकांडी होने के कारण पारंपरिक सनातनी सिख उन्हें सिख धर्म के वहाबी संस्करण के रूप में देखते हैं. उनके और ज़ाकिर नाइक जैसे वहाबी प्रचारकों में कई दिलचस्प समानताएं देखी जा सकती हैं.
खालिस्तान की कार्यशैली पर चर्चा करने के बाद, यह कहना सही होगा कि भारत और पश्चिमी देशों की आंतरिक सुरक्षा और पश्चिम के साथ भारत के संबंधों पर खालिस्तानी ख़तरे के साए को दूर करने के लिए एक ठोस नीतिगत कार्रवाई की योजना बनाई जानी चाहिए. हालांकि, यहां यह उल्लेख करना ज़रूरी है कि इस मसले पर पश्चिमी देश भारत की चिंताओं के प्रति अनिच्छुक रहे हैं. कई भारतीय विशेषज्ञों का तर्क है कि पश्चिमी देशों ने कूटनीतिक हथियार के तौर पर कश्मीरियों, खालिस्तानियों एवं अन्य भारत-विरोधी गुटों को इतनी छूट दी है ताकि वे मानवाधिकार और लोकतंत्र जैसे मुद्दों को लेकर भारत पर दबाव बना सकें.
खालिस्तान की कार्यशैली पर चर्चा करने के बाद, यह कहना सही होगा कि भारत और पश्चिमी देशों की आंतरिक सुरक्षा और पश्चिम के साथ भारत के संबंधों पर खालिस्तानी ख़तरे के साए को दूर करने के लिए एक ठोस नीतिगत कार्रवाई की योजना बनाई जानी चाहिए.
यदि मौजूदा हालात बने रहते हैं, तो ये पश्चिम और भारत के बीच विश्वास और सहजता की स्थिति को मज़बूत बनाने में एक बड़ी बाधा का काम करेंगे.
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