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जब-जब अर्थव्यवस्था पर संकट आया है तब-तब ग्रामीण क्षेत्र ने उपभोक्ता मांग बढ़ाकर अर्थव्यवस्था की मदद की है.
देश के लोगों के पास इतनी आय या बिक्री शक्ति नहीं है कि विभिन्न उत्पाद ख़रीद सकें. ऐसी स्थिति में रास्ता यही बचता है कि उनके हाथों में ज़्यादा आमदनी या पैसा पहुंचाया जाए. लेकिन दुर्भाग्य से सरकार अभी भी ब्याज़ दरों में कटौती के फेर में ही अटकी खड़ी है, वो चाहती है कि रिजर्व बैंक ऐसा ही करे. आरबीआई और कटौती नहीं कर रहा है, वो इसीलिए कि मुद्रास्फ़ीति पर उसकी नज़र है. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आंकड़ों को देखते हुए कहा जा सकता है कि केंद्रीय बैंक अपनी जगह सही है एवं मिनिस्ट्री ऑफ स्टेटिस्टिक्स एंड प्रोग्राम इम्प्लीमेंटेशन के नेशनल स्टेटिस्टीकल ऑफ़िस (एनएसओ) ने 29 नवंबर, 2019 को वित्तीय वर्ष 2019-20 की दूसरी तिमाही (जुलाई-सितम्बर) के लिए जीडीपी के आंकड़े जारी किए हैं. स्थिर मूल्य (2011-12) पर दूसरी तिमाही में जीडीपी 35.99 लाख करोड़ रुपये आंकी गई जो 2018-19 की संबद्ध अवधि में 34.43 लाख करोड़ रुपये थी. यह वृद्धि दर 4.5 है, जो बीते छह वर्षो में सर्वाधिक नीची है. यह आंकड़ा आने के बाद से ही चर्चा जोरों पर है कि क्या देश में मंदी का संकट आसन्न है. निवेश में वृद्धि दूसरी तिमाही में बीते वर्ष की संबद्ध अवधि की 11.8 प्रतिशत वृद्धि की तुलना में 1.0 प्रतिशत कम रही. निजी उपभोग में बीते वर्ष की दूसरी तिमाही में 9.8 प्रतिशत की वृद्धि दर की तुलना में वित्तीय वर्ष 2019-20 की दूसरी तिमाही में गिरकर 5.1 प्रतिशत रह गई.
आम तौर पर भारत में वित्तीय वर्ष की दूसरी तथा तीसरी तिमाही में आर्थिक गतिविधियां बेहतर रहती हैं-इसलिए कि दोनों तिमाहियां उत्सवी होती हैं. इन तिमाहियों में वृद्धि संबंधी आंकड़ों में थोड़ी-सी भी सुस्ती हुई नहीं कि आने वाले दिनों में ख़ासी समस्याएं उठ खड़ी होती हैं. इसलिए निवेश और उपभोग में बड़ी गिरावट अर्थव्यवस्था की सेहत के लिए अपशकुन हैं. जहां आयात में ख़ासी गिरावट दर्ज की गई है, वहीं निर्यात भी नकारात्मक है. अंतरराष्ट्रीय पटल पर मौजूदा उथल-पुथल को देखते हुए निर्यात वृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन निर्यात में नकारात्मक वृद्धि का अर्थ है कि अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे अपनी वृद्धि का एक महत्त्वपूर्ण वाहक खोने के कगार पर है. भुगतान संतुलन की दृष्टि से देखें तो आयात की नकारात्मक वृद्धि दर वांछित दिखलाई पड़ती है. लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि आयात की वृद्धि में -6.9 प्रतिशत की कमी से विनिर्माताओं की ओर से पूंजीगत सामान (भारतीय उद्योग आयातित मशीनरी तथा अन्य पूंजीगत सामान पर बहुत ज़्यादा निर्भर हैं) की मांग में ख़ासी गिरावट आएगी. आयात में गिरावट से आयातित सामान के लिए उपभोक्ता मांग में कमी का भी पता चलता है.
सरकार के उपभोग परिव्यय के बल पर अर्थव्यवस्था में मज़बूती बनी हुई है. लेकिन यह सोचना गलत और अतार्किक होगा कि सरकार के उपभोग परिव्यय से अर्थव्यवस्था के आगे बढ़ने के सिलसिले को बनाए रखा जा सकता है. ऐसा ज़्यादा दिन तक नहीं चल सकता क्योंकि रोजकोषीय ज़िम्मेदारी से सरकार के हाथबंध जाते हैं. जब तक निजी उपभोग और उसके उपरांत निजी निवेश नहीं बढ़ता (गुणक प्रभाव के तहत) तब तक सरकार अपने तई उपभोग परिव्यय को बढ़ाए रखकर अर्थव्यवस्था को सुस्ती से बाहर नहीं निकाल सकती. ध्यान रखना महत्त्वपूर्ण है कि सरकार का परिव्यय सरकारी (या सार्वजनिक) निवेश से भिन्न होता है. सरकार का परिव्यय पूरी तरह उपभोक्ता परिव्यय है, कोई निवेश नहीं है जिससे पूंजी निर्माण होता हो. सकल मूल्यवर्धन (जीवीए-ग्रॉस वैल्यू एडिड) में आठ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में साल-दर-साल वृद्धि दर से भी इस बात की पुष्टि होती है.
वित्तीय वर्ष 2019-20 की दूसरी तिमाही में सार्वजनिक प्रशासन, रक्षा एवं अन्य सेवाओं में 17.1 प्रतिशत की सर्वाधिक वृद्धि दर्ज की गई. विनिर्माण तथा खनन क्षेत्रमें नकारात्मक वृद्धि दर खतरे की घंटी बजा रही है. बिजली, गैस, जलापूर्ति तथा अन्य उपयोगी सेवाओं, निर्माण, व्यापार, होटल, परिवहन, संचार, प्रसारण सेवाओं, वित्तीय, रियल एस्टेट और व्यावसायिक सेवाओं समेत अर्थव्यवस्था के तमाम अन्य क्षेत्र ख़ासी गिरावट दर्शा रहे हैं. कृषि एकमात्र क्षेत्रहै, जो सुधार दिखा रहा है. इस क्षेत्र में दूसरी तिमाही में पिछले वर्ष की संबद्ध तिमाही की तुलना में वृद्धि दर्ज की गई है. लेकिन जीडीपी में कृषि के कम योगदान को देखते हुए अर्थव्यवस्था में सुधार के मददेनज़र इससे ज़्यादा उम्मीद नहीं बांधी जा सकती. मुद्रास्फ़ीति दरों के मासिक रुझान भी परेशानी पर चिंता की लकीरें खींच रहे हैं. थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) में वृद्धि बेहद कम है, वहीं उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) बढ़ रहा है. डब्ल्यूपीआई के अवयव पृथक करने पर यह पहेली स्पष्ट हो जाती है.
अंतरराष्ट्रीय पटल पर मौजूदा उथल-पुथल को देखते हुए निर्यात वृद्धि पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने से इनकार नहीं किया जा सकता. लेकिन निर्यात में नकारात्मक वृद्धि का अर्थ है कि अर्थव्यवस्था धीरे-धीरे अपनी वृद्धि का एक महत्त्वपूर्ण वाहक खोने के कगार पर है.
औद्योगिक मांग गिरने से विनिर्मित उत्पादों, ईधन और ऊर्जा के दाम 2019 में डुबकी लगा गए. तदनुसार डब्ल्यूपीआई की महंगाईदर ज़्यादा ख़तरे की घंटी नहीं है. लेकिन असली कारक यह है कि प्राथमिक वस्तुओं का मूल्य सूचकांक जनवरी, 2019 के 2.8 प्रतिशत से उछाल मारकर अक्टूबर, 2019 में 6.4 प्रतिशत के स्तर पर जा पहुंचा यानी दो गुना से ज़्यादा की वृद्धि. प्राथमिक वस्तुओं में मुख्यत: खाद्य आइटम शामिल होते हैं, जिनके मूल्यों में बीते दस महीनों में बढ़त का रुझान रहा. इसलिए प्याज़ के दाम ही अकेले कारक नहीं हैं प्राथमिक वस्तुओं के दाम बढ़ाने में. अन्य खाद्य पदार्थो के दामों में बढ़ोतरी भी प्रमुख कारक है उपभोक्ता मू्ल्यों में उछाल के लिए. जैसा कि सीपीआई में तेज वृद्धि से परिलक्षित होता है. यदि यही रुझान बना रहा तो अर्थव्यवस्था को खाद्य पदार्थो की महंगाई की समस्या से पार पाना होगा.
विनिर्माण तथा खनन में सुस्ती के साथ सेवाओं समेत अन्य हिस्सों में धीमापन आने और उच्च मुद्रास्फ़ीति से भारतीय अर्थव्यवस्था मंदी जैसे हालात की ओर बढ़ती दिखी. दरअसल, इसका प्रमुख कारण अर्थव्यवस्था में मांग की कमी बन जाना है. दूसरे शब्दों में कहें, तो यह कि देश के लोगों के पास इतनी आय या क्रय शक्ति नहीं है कि विभिन्न उत्पाद ख़रीद सकें. ऐसी स्थिति में रास्ता यही बचता है कि उनके हाथों में ज़्यादा आमदनी या पैसा पहुंचाया जाए. लेकिन दुर्भाग्य से सरकार अभी भी ब्याज़ दरों में कटौती के फेर में ही अटकी खड़ी है. चाहती है कि रिजर्व बैंक ऐसा ही करे. आरबीआई और कटौती नहीं कर रहा है, तो इसीलिए कि मुद्रास्फ़ीति पर उसकी नज़र है. उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आंकड़ों को देखते हुए कहा जा सकता है कि केंद्रीय बैंक अपनी जगह सही है.
अर्थव्यवस्था के मौजूदा हालात को देखते हुए नीतिगत उपायों से ज़्यादा तात्कालिक उपाय करने की ज़रूरत है.
सरकार ने ढांचागत क्षेत्र में आने वाले वर्षो में ज़्यादा आवंटन की घोषणा करने जैसे नीतिगत उपायों पर भी ग़ौर किया है. लेकिन अर्थव्यवस्था के मौजूदा हालात को देखते हुए नीतिगत उपायों से ज़्यादा तात्कालिक उपाय करने की ज़रूरत है. नहीं भूलना चाहिए कि बड़ी संख्या में ढांचागत परियोजनाएं ठप पड़ी हैं, या पूरी नहीं हुई हैं. सरकार इन परियोजनाओं पर तत्काल काम शुरू कर दे तो अर्थव्यवस्था में पैसे का प्रवाह बढ़ा सकती है. इन परियोजनाओं में संलग्न कामगारों की क्रय शक्ति बढ़ी तो मांग में इज़ाफा हो सकता है. लेकिन सरकार इसके विपरीत सोच रही है. वह दीर्घकालिक उपाय आजमाने को तरजीह दे रही है. चाहती है कि निजी क्षेत्र की भागीदारी भी बढ़े जो अभी आगे बढ़कर अपनी यह भूमिका निभाने को तैयार नहीं है.
ग्रामीण भारत नीति-निर्माताओं की सदैव उपेक्षा का शिकार रहा है. लेकिन जब-जब अर्थव्यवस्था पर संकट आया है तब-तब ग्रामीण क्षेत्र ने उपभोक्ता मांग बढ़ाकर अर्थव्यवस्था की मदद की है. ग्रामीण उपभोक्ता न केवल उपभोक्ता सामान पर खर्च करते हैं, बल्कि दुपहिया, ट्रैक्टर आदि जैसे महत्त्वपूर्ण उत्पाद भी ख़रीदते हैं. मनरेगा जैसे कार्यक्रम को और मजबूत किया जाना चाहिए था. ऐसे कार्यक्रमों के तात्कालिक प्रभाव पड़ते हैं. प्रधानमंत्री आवास योजना जैसी योजनाओं के लिए तत्काल ज़्यादा संसाधनों का आवंटन बढ़ाना चाहिए. साथ ही, ढांचागत निवेश में भी बढ़ोतरी होनी चाहिए जिससे लोगों की क्रय शक्ति तत्काल बढ़े. लेकिन सरकार उन तथाकथित उपायों को आजमा रही है, जो पहले ही नाकाम और अप्रासंगिक साबित हो चुके हैं.
यह लेख मूलरूप से राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित हो चुका है.
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Abhijit was Senior Fellow with ORFs Economy and Growth Programme. His main areas of research include macroeconomics and public policy with core research areas in ...
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