Published on Jan 07, 2022 Updated 0 Hours ago

कोविड-19 महामारी के चलते लागू लॉकडाउन ने पूर्णकालिक श्रमबल को गिग वर्क की ओर धकेल दिया. राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान महिलाओं पर घरेलू कामकाज और परिवार के सदस्यों के देखभाल की ज़िम्मेदारी कई गुणा बढ़ गई थी.

कोरोना वायरस की महामारी: महिला श्रमशक्ति पर इसके स्थायी और दूरगामी प्रभाव

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कोरोना महामारी के चलते लगी पाबंदियों की वजह से दुनियाभर की अर्थव्यवस्थाओं की रफ़्तार मंद पड़ चुकी है. 1930 के दशक की महामंदी के बाद वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिहाज़ से ये सबसे बुरा दौर रहा है. अर्थव्यवस्था के बाक़ी तमाम हिस्सों के मुक़ाबले महिला श्रम बाज़ार पर इस संकट का सबसे ज़्यादा असर पड़ा है. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) ने लेबर फ़ोर्स पार्टिसिपेशन रेट (LFPR) के तहत लैंगिक अंतर को परिभाषित किया है. श्रम बाज़ार में सक्रिय रूप से भागीदारी करने वाली यानी काम में लगी या काम की तलाश कर रही देश की कामकाजी आबादी (working-age population) के अनुपात के रूप में इसकी माप की जाती है. इससे वस्तुओं और सेवाओं के उत्पादन के लिए मौजूद श्रम की आपूर्ति के आकार का पता चलता है. देश की जनसंख्या की कार्यशील आयु के हिसाब से इसका आकलन किया जाता है.

भारत में आर्थिक वृद्धि की ऊंची दरों के बावजूद LFPR में लैंगिक असमानता एक लंबे अर्से से बदस्तूर बरकरार है. महामारी ने इन विषमताओं को और पुख़्ता बना दिया है. इस बात की गहरी आशंका है कि रोज़गार के दायरे से बाहर हो चुकी इनमें से ज़्यादातर महिलाएं भविष्य में कभी कार्यबल में शामिल नहीं होंगी.

LFPR में बढ़ता लैंगिक अंतर

अशोका यूनिवर्सिटी के अश्विनी देशपांडे ने सेंटर फ़ॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनोमी (CMIE)-कंज़्यूमर पिरामिड्स हाउसहोल्ड सर्वे (CPHS) के जनवरी 2019 से अगस्त 2020 के बीच के आंकड़ों की पड़ताल की है. इस अध्ययन से पता चला है कि महामारी से पहले के कालखंड के मुक़ाबले मौजूदा दौर में पुरुषों की तुलना में महिलाओं के रोज़गार में लगे होने की संभावना 9.5 प्रतिशत अंक कम हो गई है. इससे साफ़ संकेत मिलते हैं कि महामारी से पहले की अवधि की अपेक्षा मौजूदा वक़्त में रोज़गार दर में लैंगिक अंतर और बढ़ गया है. हालांकि, कार्यशील आबादी में महिलाओं की भागीदारी में गिरावट कोई नई बात नहीं है. भारत में आर्थिक वृद्धि की ऊंची दरों के बावजूद LFPR में लैंगिक असमानता एक लंबे अर्से से बदस्तूर बरकरार है. महामारी ने इन विषमताओं को और पुख़्ता बना दिया है. इस बात की गहरी आशंका है कि रोज़गार के दायरे से बाहर हो चुकी इनमें से ज़्यादातर महिलाएं भविष्य में कभी कार्यबल में शामिल नहीं होंगी. एक बड़ा ख़तरा ये है कि कार्यशील आबादी से महिलाओं के बाहर निकलने का ये वाक़या स्थायी सूरत ले सकता है. इससे न सिर्फ़ लैंगिक समानता के मोर्चे पर अब तक हासिल कामयाबियों पर पानी फिर जाने का ख़तरा है, बल्कि जीडीपी को लेकर हासिल फ़ायदों में भी पिछड़ने का डर है.

स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की तादाद अपेक्षाकृत ज़्यादा है. महामारी के चलते लागू देशव्यापी लॉकडाउन की मार इन्हीं दो क्षेत्रों पर सबसे आक्रामक तरीक़े से पड़ी. ये हालात 2007-08 के ठीक विपरीत हैं. उस समय मंदी की मार पुरुषों पर ज़्यादा पड़ी थी.

जनवरी 2020 में बेरोज़गारी दर 7.22 प्रतिशत थी जो जुलाई 2021 में गिरकर 6.95 फ़ीसदी पर पहुंच गई. इसी कालखंड में श्रम भागीदारी दर में भी गिरावट दर्ज की गई. जनवरी 2020 में श्रम भागीदारी दर 42.9 प्रतिशत थी जो जुलाई 2021 में गिरकर 40.17 फ़ीसदी हो गई थी. इससे साफ़ होता है कि महामारी के पहले के स्तर के मुक़ाबले श्रम बाज़ार में मौजूद लोगों की तादाद में गिरावट आई है. इस अवधि में ये गिरावट 2.73 प्रतिशत अंक की थी. ये लोग श्रम बल से स्थायी रूप से बाहर निकल चुके थे. ज़ाहिर तौर पर इनमें से ज़्यादातर महिलाएं थीं. समाज में महिलाओं की भूमिका को लेकर परंपरागत सोच LFPR में विषमता की एक मुख्य वजह रही है. घर-परिवार के सदस्यों की देखभाल करने की प्राथमिक ज़िम्मेदारी (बिना वेतन के देखरेख से जुड़े काम) महिलाओं के कंधों पर होती है. इसके अलावा आम तौर पर घरेलू कामकाज भी महिलाओं के ज़िम्मे ही होता है. इससे श्रमशक्ति में महिलाओं के हिस्से में गिरावट आती है. बाल-बच्चों वाली कामकाजी महिलाएं हमेशा से “डबल शिफ़्ट” में काम करती रही हैं. पूरा दिन पेशेवर काम करने के बाद उन्हें घंटों तक बच्चों की देखभाल और घर-परिवार के बाक़ी काम निपटाने होते हैं.

स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में महिलाओं की तादाद अपेक्षाकृत ज़्यादा है. महामारी के चलते लागू देशव्यापी लॉकडाउन की मार इन्हीं दो क्षेत्रों पर सबसे आक्रामक तरीक़े से पड़ी. ये हालात 2007-08 के ठीक विपरीत हैं. उस समय मंदी की मार पुरुषों पर ज़्यादा पड़ी थी. तब महिलाओं के मुक़ाबले पुरुषों ने ज़्यादा नौकरियां गंवाई थीं. श्रम और रोज़गार से जुड़े बाज़ार के हालात प्रतिकूल बने हुए हैं. लिहाज़ा ऐसे संकट के समय स्वरोज़गार भी इन महिलाओं के लिए कोई ठोस विकल्प साबित नहीं हो सका है. अज़ीम प्रेमजी यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं के एक अध्ययन के मुताबिक लॉकडाउन के बाद रोज़गार के तमाम क्षेत्रों से जुड़ी कुल श्रमशक्ति में से 47 फ़ीसदी महिलाएं बाहर निकल गई थीं. पुरुष कामगारों के उलट इन महिला श्रमिकों के लिए स्वरोज़गार का विकल्प खुले तौर पर इन विपरीत परिस्थितियों में सहारा बनकर नहीं उभर सका. लॉकडाउन के दौरान स्थायी वेतन वाली नौकरियों में लगी सिर्फ़ 2 फ़ीसदी महिलाएं ही स्वरोज़गार से जुड़ पाई थीं. दूसरी ओर इसी श्रेणी के 37 प्रतिशत पुरुष कामगारों ने स्वरोज़गार अपना लिया था.

महिलाओं के रोज़गार में गिग इकॉनमी की भूमिका

कोविड-19 महामारी के चलते लागू लॉकडाउन ने पूर्णकालिक श्रमबल (ख़ासतौर से महिलाओं) को गिग वर्क की ओर धकेल दिया. राष्ट्रव्यापी लॉकडाउन के दौरान महिलाओं पर घरेलू कामकाज और परिवार के सदस्यों के देखभाल की ज़िम्मेदारी कई गुणा बढ़ गई थी. अब तक गिग इकॉनोमी की परिकल्पना प्रवासी मज़दूरों समेत असंगठित कामगारों (हुनरमंद और ग़ैर-हुनरमंद) तक ही सीमित रही है. बॉस्टन कंसल्टिंग ग्रुप (BCG) ने गिग इकॉनोमी की परिभाषा को तीन हिस्सों में बांटा है- एक व्यक्ति द्वारा किया गया कार्य, समय या काम के आधार पर नौकरी पर रखा गया (इसमें भविष्य में काम को लेकर कोई प्रतिबद्धता नहीं होती) और कमाई की संभावनाओं पर किसी तरह के नकारात्मक प्रभाव के बग़ैर काम के घंटे तय करने की लचीली व्यवस्था.

BCG के आकलन के मुताबिक गिग इकॉनोमी में सिर्फ़ भारत की ग़ैर-कृषि अर्थव्यवस्था में ही नौ करोड़ नौकरियां पैदा करने की क्षमता है. इस प्रकार तक़रीबन 250 अरब अमेरिकी डॉलर के लेनदेन के बराबर के आकार का काम होने की संभावना है

BCG के आकलन के मुताबिक गिग इकॉनोमी में सिर्फ़ भारत की ग़ैर-कृषि अर्थव्यवस्था में ही नौ करोड़ नौकरियां पैदा करने की क्षमता है. इस प्रकार तक़रीबन 250 अरब अमेरिकी डॉलर के लेनदेन के बराबर के आकार का काम होने की संभावना है. दीर्घकाल में भारत की जीडीपी में गिग इकॉनोमी का योगदान बढ़कर 1.25 फ़ीसदी (लगभग) तक पहुंच जाने की संभावना है. मोटे तौर पर चार प्रमुख सेक्टरों के बारे में इन आंकड़ों की भविष्यवाणी की गई है. इनमें निर्माण, विनिर्माण (manufacturing), खुदरा व्यापार, और परिवहन व रसद से जुडे सेक्टर शामिल हैं. अकेले इन चारों क्षेत्रों में ऐसे अस्थायी तरीक़े के काम धंधों (gigable) के 7 करोड़ अवसर पैदा हो सकते हैं.

महामारी के प्रभावों के चलते कई लोगों ने घर से काम करने की व्यवस्था में ख़ुद को ढाल लिया है, जबकि कई लोग अब भी इन बदलावों से जूझ कर रहे हैं. महिलाएं घरेलू कामकाज और बच्चों की देखभाल के साथ-साथ दफ़्तर के काम के लिए समय निकालने की जद्दोजहद करती रहती हैं. ऐसे में कई बार हालात ऐसे हो जाते हैं कि उन्हें आख़िरकार अपना पेशेवर काम छोड़ना पड़ता है. दरअसल, महिलाओं को काम के लचीले घंटों और ठेके पर आधारित नौकरियों या ‘गिग्स’ की दरकार है. इस तरह के काम उन्हें अपने ख़र्चे उठाने में मददगार साबित होंगे. साथ ही इससे उन्हें अपनी बाक़ी ज़िम्मेदारियों का निपटारा करने में भी सहूलियत होगी. अस्थायी प्रकार के काम (Gig work) अपने लचीलेपन के चलते महिलाओं के लिए बेहद सुविधाजनक होते हैं. इस तरह उन्हें अपना पसंदीदा काम चुनने की आज़ादी मिलती है. सबसे ज़रूरी बात ये है कि इससे महिलाओं को आर्थिक स्वतंत्रता मिलती है.

 अध्ययन के मुताबिक महामारी के चलते आई मंदी महिलाओं के हुनर को घटा देती है. इससे उनके काम के घंटे कम हो जाते हैं या फिर वो श्रमशक्ति से पूरी तरह से बाहर निकल जाती हैं. इससे पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन का अंतर काफ़ी बढ़ जाता है.

हालांकि, गिग वर्क्स हरेक मर्ज़ की दवा नहीं हैं. स्थायी रोज़गार में जिस तरह की सुरक्षा और सहूलियतें मिलती हैं, उनका गिग वर्क में अभाव होता हैं. गिग इकॉनोमी में भी इस तरह के पूर्वाग्रहों ने अपने पैर पसार लिए हैं. मशीन लर्निंग एल्गोरिथम का इस्तेमाल कर ठेके पर आधारित काम मुहैया कराने वाले ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्मों में कोडिंग के वक़्त इस तरह के अंतर्निहित पूर्वाग्रहों के साथ प्रोग्राम किए जाने का ख़तरा रहता है. ऐसे एल्गोरिथम ख़ुद को ही जानकारियां मुहैया करते हुए आगे बढ़ते हैं. भविष्य में अपने कामकाज के संचालन में वो इन पूर्वाग्रहों को ज़ोरशोर से आगे बढ़ाने की पूरी क़ाबिलियत रखते हैं. काम के बदले किए जाने वाले भुगतानों के साथ-साथ इन प्लैटफ़ॉर्मों को लैंगिक तौर पर जड़ जमा चुके ऐसे किसी भी तरह के पूर्वाग्रह से मुक्त होना चाहिए.

ऑनलाइन प्लैटफ़ॉर्मों से जुड़ने वाले ग्राहकों के लिए जिस तरह उत्पीड़न का ख़तरा रहता है, उसी तरह गिग वर्कर्स के लिए भी उपभोक्ताओं द्वारा प्रताड़ित किए जाने का जोख़िम होता है. लिहाज़ा इनसे निपटने के लिए विवादों का निपटारा करने वाली नीतियों की दरकार है. इनसे न सिर्फ़ ग्राहकों को क़ानूनी तौर पर रक्षा कवच मिल सकेगा बल्कि महिला गिग कामगारों को भी कार्यस्थल पर होने वाले उत्पीड़नों जैसे मसलों से सुरक्षा मिल सकेगी. बहरहाल, इन महिलाओं को श्रमशक्ति के भीतर बनाए रखना निहायत ज़रूरी है. इंस्टीट्यूट ऑफ़ लेबर इकॉनोमिक्स द्वारा प्रकाशित एक चर्चा पत्र के मुताबिक आम तरह की मंदियों से लैंगिक मेहनताने के अंतर में 2 प्रतिशत अंक की गिरावट आती है जबकि महामारी के चलते आई मंदी के चलते इस अंतर में 5 प्रतिशत अंकों का इज़ाफ़ा हो जाता है. अध्ययन के मुताबिक महामारी के चलते आई मंदी महिलाओं के हुनर को घटा देती है. इससे उनके काम के घंटे कम हो जाते हैं या फिर वो श्रमशक्ति से पूरी तरह से बाहर निकल जाती हैं. इससे पुरुषों और महिलाओं के बीच वेतन का अंतर काफ़ी बढ़ जाता है. मंदी ख़त्म हो जाने के बाद भी इसका असर जारी रहता है. ये हालात नियमित तौर पर आने वाली मंदियों से बिल्कुल उलट हैं. इस तरह की मंदियों का असर महिलाओं के मुक़ाबले पुरुषों पर ज़्यादा होता है. नतीजतन मेहनताने में लैंगिक आधार पर मौजूद अंतर कुछ हद तक घट जाता है.

गिग इकॉनमी का नियमन

निश्चित रूप से गिग वर्क की ज़रूरत और लोकप्रियता बढ़ती जा रही है. ऐसे में गिग अर्थव्यवस्था को रेगुलेट करना और इसमें न्याय सुनिश्चित करना और भी अहम हो जाता है. सितंबर 2020 में भारत सरकार ने ‘कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी 2020’ बिल पेश किया. इसका मकसद गिग कामगारों को निबंधित करना और उनके लिए सामाजिक सुरक्षा कोष की स्थापना करना है. इस कोड के तहत गिग कामगारों को नौकरी पर रखने वाली कंपनियों के लिए अपने सालाना टर्नओवर का 1 प्रतिशत-2 प्रतिशत या गिग कामगारों को दिए गए वेतन का 5 प्रतिशत (इनमें से जो भी कम हो) सामाजिक सुरक्षा कोष में आवंटित करना आवश्यक होगा. साथ ही इस कोड का मकसद गिग इकॉनोमी के कामगारों तक सामाजिक सुरक्षा से जुड़े फ़ायदों का विस्तार करना भी है. इनमें मातृत्व अवकाश, दिव्यांगता बीमा, ग्रेच्युटी, स्वास्थ्य बीमा और वृद्धावस्था सहायता से जुड़े प्रावधान शामिल हैं.

पोर्टेबल बेनिफ़िट फ़ंड का मकसद गिग वर्कर्स को सहारा देना होगा. कंपनियां अपने कमर्चारियों की आमदनी का एक हिस्सा इस फ़ंड में जमा करवाएंगी. कर्मचारी द्वारा संगठन छोड़ने या रिटायर होने की सूरत में इस रकम को बाहर निकाला जा सकेगा. इससे कई वर्षों तक बचत सुनिश्चित हो सकेगी. 

मौजूदा नीतियों में मुनासिब नियमनों को जोड़कर गिग इकोसिस्टम को कारगर बनाया जा सकता है. स्माही फ़ाउंडेशन ने अपनी हालिया रिपोर्ट में नीतिगत स्तर पर ऐसी सिफ़ारिशों का सघन ब्योरा दिया है. रिपोर्ट में दी गई इन तमाम सिफ़ारिशों में ‘पोर्टेबल बेनिफ़िट फ़ंड्स’ और एक ‘नेशनल रजिस्ट्री ऑफ़ ब्लू-कॉलर प्लैटफ़ॉर्म वर्कर्स’ की शुरुआत करने की वक़ालत की गई है. श्रम और रोज़गार मंत्रालय की ताज़ा पहल कोड ऑन सोशल सिक्योरिटी, 2020 के तहत प्लैटफ़ॉर्म कामगारों के लिए ऐसी पहलों की शुरुआत करने की सिफ़ारिश की गई है. पोर्टेबल बेनिफ़िट फ़ंड का मकसद गिग वर्कर्स को सहारा देना होगा. कंपनियां अपने कमर्चारियों की आमदनी का एक हिस्सा इस फ़ंड में जमा करवाएंगी. कर्मचारी द्वारा संगठन छोड़ने या रिटायर होने की सूरत में इस रकम को बाहर निकाला जा सकेगा. इससे कई वर्षों तक बचत सुनिश्चित हो सकेगी. साथ ही भविष्य में किसी तरह की अनहोनी से कमर्चारियों की हिफ़ाज़त भी हो सकेगी. इसमें ‘पोर्टेबिलिटी’ का कारक गिग कामगारों के लिए बेहद अहम है. दरअसल, गिग कर्मचारी एक साथ और एक ही समय पर कई प्लैटफ़ॉर्मों पर काम करते हैं. ऐसे में हरेक मालिक का हिस्सा या योगदान एक साझा कोष में जा सकता है. हर रोज़गार प्रदाता का हिस्सा अलग-अलग हो सकता है.

नेशनल रजिस्ट्री ऑफ़ ब्लू कॉलर प्लैटफ़ॉर्म वर्कर्स के पीछे का मकसद गिग इकॉनोमी से जुड़ी श्रमशक्ति का सटीक डेटाबेस तैयार करना है. इससे सरकार को गिग वर्कर्स का पता लगाने में मदद मिलेगी. इससे भविष्य में उनके लिए व्यापक नीतियां बनाना और उन्हें लागू कराना आसान हो सकेगा.

संगठित रोज़गार से निकलकर गिग इकॉनोमी की ओर महिलाओं के आगे बढ़ने में सामाजिक मान्यताएं रुकावट बनती हैं. ऐसे पूर्वाग्रहों को पूरी तरह से दूर करना ज़रूरी है, तभी करोड़ों डॉलर की गिग अर्थव्यवस्था का पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सकेगा. ऐसा नहीं हुआ तो हालात क्या हो सकते हैं, इसका अंदाज़ा अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के विश्लेषण से लगाया जा सकता है. ILO के मुताबिक “कोविड-19 महामारी के चलते श्रम बाज़ार में नौकरियों की भारी किल्लत है. महामारी के चलते लागू लॉकडाउन और पाबंदियों की वजह से महिलाओं के रोज़गार पर सबसे बड़ा संकट है. रोज़गार के मोर्चे पर महिलाओं को जितना ज़्यादा नुकसान होगा, उतनी ही मुश्किल नौकरियों से जुड़े इस संकट से उबरने में होगी.” महिलाओं पर ये बोझ जितनी देर तक रहेगा, उतनी ही ज़्यादा महिलाएं स्थायी रूप से श्रम बाज़ार से बाहर निकल जाएंगी. इससे न केवल लैंगिक समानता को लेकर अब तक हासिल सफलताओं पर पानी फिर जाएगा बल्कि आर्थिक वृद्धि की रफ़्तार भी मंद पड़ सकती है.

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