Author : Yun Sun

Published on Oct 09, 2020 Updated 0 Hours ago

सुरक्षा की दृष्टि से भारत की नज़र में चीन बुनियादी ख़तरा है जबकि चीन की दृष्टि में भारत से उसे ख़तरा दोयम दर्ज़े का है

हिमालय में मुकाबला: कैसे चीन बढ़ा रहा है जोख़िम उठाने की अपनी ‘क्षमता’

साल 2020 भारत एवं चीन के बीच राजनयिक संबंधों के सामान्यीकरण की 70वीं जयंती है. सामान्यत: इस वर्ष में दो महान देशों के बीच ऐतिहासिक संबंधों का उत्सव मनाया जाना चाहिए था. दुर्भाग्य से परिस्थिति इसके विपरीत है विशेषकर इनके बीच विवादास्पद सीमा के पश्चिमी सेक्टर में मई से छिड़े मुकाबले और सैन्य क्षमता के प्रदर्शन के बाद से भारत और चीन के मध्य इस वर्ष में संघर्ष एवं दुश्मनी का ही बोलबाला है. दोनों देशों के संबंधों में गिरावट का यह सिलसिला जारी रहने या न रहने का दारोमदार विशेषकर दोनों पक्षों की इच्छाशक्ति, आंकलन, उम्मीदों आदि विभिन्न कारकों पर निर्भर है. इस बार चीन की स्थिति में पिछली घटनाओं के मुकाबले फ़र्क साफ़ दिख रहा है. अपने स्तर पर संभव हो तो चीन अब भी लड़ाई को टालना चाहेगा. फिर भी भारत के मोर्चे पर उसके लिए जोख़िम में अत्यधिक इज़ाफा हो गया है. परिस्थिति अभी भले ही ज्य़ादा जोख़िमयुक्त न लग रही हो मगर इसे पूर्णत: जोख़िम से मुक्त नहीं बताया जा सकता.

रणनीतिक संदर्भ

भारत के साथ चीन की तनातनी का स्रोत इनकी विषम सुरक्षा प्राथमिकता हैं. सुरक्षा की दृष्टि से भारत की नज़र में चीन बुनियादी ख़तरा है जबकि चीन की दृष्टि में भारत से उसे ख़तरा दोयम दर्ज़े का है क्योंकि उसकी सुरक्षा प्राथमिकता बेशक पश्चिमी प्रशांत में निहित है. भारत को चीन चूंकि अपने लिए बुनियादी ख़तरा और दक्षिण एशिया को चीन का प्राथमिक सुरक्षा क्षेत्र नहीं आंकता इसलिए अपनी लागत की बचत करते हुए भारत से मुकाबले के लिए न्यूनतम सैन्य एवं रणनीतिक संसाधन लगाएगा. संघर्ष से बच पाना यदि संभव नहीं हुआ तो रणभूमि में निर्णायक जीत पाने के लिए चीन बेशुमार क्षमता जुटा सकता है. लेकिन उस जीत से चीन को प्रशांत क्षेत्र में मौजूद मुख्य सुरक्षा चुनौतियों से छुटकारा पाने में कोई मदद नहीं मिलने वाली. भारत से अपने सीमा विवाद में चीन की प्राथमिकता में लंबे समय से पश्चिमी प्रशांत एवं दक्षिण एशिया के दोनों मोर्चों पर युद्ध से बचने की नीति हावी रही है.

हाल के वर्षों में भारत से सीमा संबंधी बातचीत पर बीजिंग का निष्कर्ष यह है कि अपनी-अपनी प्राथमिकताओं एवं इच्छाशक्ति में इस विषमता तथा असंतुलन का भारत फायदा उठाना चाहता है. गलवान घाटी में तनातनी शुरू होने के समय से ही भारत के अनेक रणनीतिकारों ने चीन की हरकत की उपयुक्तता पर सवाल किया है क्योंकि चीन पर कोविड19 महामारी फैलाने के आरोप लग रहे हैं और अमेरिका से भी उसके संबंध दिनों-दिन बिगड़ रहे हैं. चीन को ऐसा लगता है कि भारत इस मौके को अपने लिए फ़ायदेमंद मान रहा है जिसके परिणामस्वरूप वह चीन से रियायत पाने का मंसूबा बांधे हुए है. ऐसा समझना हालांकि संभवत: निराधार भी हो सकता है मगर उनकी बातचीत का आगे भी इन्हीं गहरे पैठे विचारों से मुक्त हो पाना संभव नहीं लग रहा.

गलवान घाटी में तनातनी शुरू होने के समय से ही भारत के अनेक रणनीतिकारों ने चीन की हरकत की उपयुक्तता पर सवाल किया है क्योंकि चीन पर कोविड19 महामारी फैलाने के आरोप लग रहे हैं और अमेरिका से भी उसके संबंध दिनोंदिन बिगड़ रहे हैं. चीन को ऐसा लगता है कि भारत इस मौके को अपने लिए फ़ायदेमंद मान रहा है जिसके परिणामस्वरूप वह चीन से रियायत पाने का मंसूबा बांधे हुए है.

चीन की प्रतिक्रियात्मक दृढ़ता

डोकलाम में 2017 में हुई तनातनी के विपरीत बीजिंग इस बार पीछे नहीं हटना चाहता. चीन ने तो बल्कि पश्चिमी सेक्टर में अनेक जगह पर अतिक्रमण कर लिया है. दिल्ली जहां मई से पूर्व की स्थिति की बहाली चाहती है वहीं बीजिंग की चाहत है कि उसकी कार्रवाई के बाद निर्मित स्थिति को ही भारत अपना भाग्य का बदा स्वीकार कर ले.

चीन का दावा है कि उसने तो भारत द्वारा गलवान घाटी में वसंत के मौसम में शुरू की गई कार्रवाई (सड़क निर्माण) जिसे वो अतिक्रमणकारी कार्रवाई समझता है, का मजबूरी में प्रतिकार भर किया है. ऐसा मानने के बाद मुनासिब यह है कि नई परिस्थिति को भाग्य का बदा मनवाने की धारणा के बजाय पूर्व स्थिति बहाल की जाए. रणनीतिक रूप में इससे यह संदेह होता है कि चीन दरअसल 1962 के युद्ध में जहां तक घुस आया था वहीं से एलएसी यानी वास्तविक नियंत्रण रेखा स्वीकार करवाने के फेर में है. हालांकि चीन के किसी भी सरकारी सूत्र ने इस मंशा की पुष्टि नहीं की है. (और चीन तो इसे कबूलने से रहा भले ही चीन का मनोरथ ऐसा ही हो) यथास्थिति की बहाली से इंकार को सामरिक रूप में राष्ट्रपति शी चिनफ़िंग के राज में प्रतिक्रियात्मक हठधर्मिता की परंपरा का आंकलन करके सबसे अच्छी तरह समझा जा सकता है. उनके नेतृत्व में परंपरा यह पड़ी है कि कथित अतिक्रमण के प्रति चीन की दंडात्मक प्रतिक्रिया होनी चाहिए – इसलिए मूल अपराध के अनुपात में सज़ा अधिक होनी चाहिए ताकि भविष्य के समान अतिक्रमणों का और अधिक करारा जवाब दिया जा सके. चीन के हालिया रिकॉर्ड में ऐसे व्यवहार के अनेक उदाहरण हैं विशेषकर विवादास्पद सेनकाकू/डिआओयू द्वीपों के आसपास समुद्र में

यथा​स्थिति बदलने के संबंध में जहां टोक्यो द्वारा साल 2012 में द्वीपों के राष्ट्रीयकरण की प्रतिक्रिया में चीन के सरकारी जहाज़ अब नियमित गश्त कर रहे हैं.

इसलिए दारोमदार अब भारत पर है. सर्दी बढ़ने के बावजूद दोनों पक्ष अपने-अपने मोर्चे पर डटे रहने को सन्नद्ध दिख रहे हैं. चीन से अपनी बात मनवाने के लिए भारत की राह आसान नहीं दिख रही. सैन्य तैनाती बढ़ाने के प्रयास तथा दृढ़ संकल्प जताने के बावजूद निकट भविष्य में इन उपायों से उसे वांछित परिणाम हासिल होने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही.

दिल्ली जहां मई से पूर्व की स्थिति की बहाली चाहती है वहीं बीजिंग की चाहत है कि उसकी कार्रवाई के बाद निर्मित स्थिति को ही भारत अपना भाग्य का बदा स्वीकार कर ले.

चीन में ख़तरे का बदलता आकलन एवं जोख़िम क्षमता

लद्दाख संकट से चीन एवं भारत दोनों की नज़र में एक-दूसरे से उत्पन्न ख़तरे की तीव्रता बढ़ गई है. दोनों देशों के बीच लंबे समय से लटके विवादास्पद मुद्दों तथा एक-दूसरे की रणनीतिक मंशा के प्रति गहरे पैठे अविश्वास ने भरोसे की गुंजाईश वैसे भी नहीं छोड़ी है. फिर भी अविश्वास एवं समस्याओं तथा दुश्मनी और संघर्ष में बुनियादी अंतर है क्योंकि दूसरी स्थिति में दूसरे पक्ष को हराने के लिए सक्रिय नीतियां अपनानी पड़ती हैं.

भारत को दोयम ख़तरा तथा दक्षिण एशिया को दोयम संघर्ष क्षेत्र समझने की चीन की धारणा में न तो कोई परिवर्तन हुआ है और न ही भविष्य में ऐसा होने के आसार हैं. फिर भी इस वर्ष की घटनाओं ने भारत से वास्तव में युद्ध छिड़ने पर बनने वाली परिस्थिति से दो-चार होने संबंधी कारकों की लंबी सूची से चीन को परिचित होने के लिए मजबूर होना पड़ा है. इनमें तनाव में अत्यधिक एवं लंबी अवधि तक होने वाली बढ़ोतरी, भारत से वास्तव में लड़ाई छिड़ने की बढ़ती आशंका और उसके कारण पड़ने वाली सैन्य नियोजन/तैनाती/तैयारी की ज़रूरत शामिल हैं. इनके साथ ही भारत द्वारा सीमा के मुद्दे से द्विपक्षीय आर्थिक एवं वाणिज्यिक रिश्तों को प्रभावित करने के उपाय अपनाने की तैयारी को भी चीन को मद्देनज़र करना होगा. इससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि दो मोर्चों पर युद्ध छिड़ने की आशंका ने चीन को यह अहसास करवा दिया है कि ताईवान पर उसके किसी भी कार्रवाई में उलझते ही भारत द्वारा मौके का फायदा उठाकर विवादास्पद सीमा पर कार्रवाई की जा सकती है. क्योंकि चीन की धारणा है कि भारत द्वारा सीमा पर तैनाती और हरकतें दरअसल कोविड19 में बंटे चीन के ध्यान एवं कमज़ोरी का फ़ायदा उठाने के लिए की जा रही हैं.

चीन की निग़ाह में भारत भले ही दोयम ख़तरा हो मगर भारत के प्रति चीन की नीतियों का लक्ष्य बदल गया है. बाकी बातों के अलावा, थोपे जाने पर लड़ाई सहित भारत से खराब संबंधों के प्रति उसकी सहनशीलता बढ़ गई है. यह स्थिति उस पिछली मानसिकता से एकदम अलग है कि चीन को कोई ख़तरा नहीं है और भविष्य में उसकी आशंका भी नहीं है इसलिए भारत से किसी भी संघर्ष से हर कीमत पर बचा जाएगा. इसका मतलब यह भी नहीं है कि भारत को युद्ध के लिए चीन द्वारा सक्रिय रूप में उकसाया जाएगा लेकिन इससे इतना अवश्य प्रतिध्वनित होता है कि युद्ध अवश्यंभावी होने पर चीन अपने सैन्य मोर्चों की सुरक्षा के लिए सन्नद्ध है. तूल दी जा रही है और आगे भी दी जाएगी मगर चीन कोई काठ का शेर नहीं है जैसा कि डोकलाम संकट के परिणाम के बाद से कुछ भारतीय सिद्ध करना चाह रहे हैं.

दोनों देशों का शीर्ष नेतृत्व यदि तय कर ले तो डोकलाम की तरह उनके दखल से समस्या को अस्थाई रूप में हल किया जा सकता है मगर डोकलाम के बाद का समझौता साल 2018 से 2019 तक ही चल पाना और उसका झटके से बिखर जाना इस बात का द्योतक है कि ऐसे तात्कालिक हल कितने भंगुर एवं अरक्षणीय  साबित होंगे. भारत एवं चीन के बीच इनके इतिहास, भूक्षेत्र, वाणिज्य, क्षेत्रीय हैसियत एवं ऐतिहासिक भाग्य से संबंधित कठोर, वास्तविक संघर्ष इतने गहरे हैं जिन्हें आसानी से मिटाया नहीं जा सकता. उनसे निपटने का सर्वश्रेष्ठ उपाय शायद बिना विनाशकारी युद्ध किए उन्हें सुलटाने का प्रयास ही है.

भारत को दोयम ख़तरा तथा दक्षिण एशिया को दोयम संघर्ष क्षेत्र समझने की चीन की धारणा में न तो कोई परिवर्तन हुआ है और न ही भविष्य में ऐसा होने के आसार हैं. फिर भी इस वर्ष की घटनाओं ने भारत से वास्तव में युद्ध छिड़ने पर बनने वाली परिस्थिति से दो-चार होने संबंधी कारकों की लंबी सूची से चीन को परिचित होने के लिए मजबूर होना पड़ा है.

चीन के पास तीन विकल्प?

मॉस्को में 10 सितंबर को दोनों देशों के विदेश मंत्रियों द्वारा तनाव घटाने संबंधी साझा प्रतिबद्धता जताने के बावजूद दोनों ओर की सेना दो हफ्ते बाद भी पीछे नहीं हटी है जबकि समझौते में साफ कहा गया था, ”दोनों पक्षों की सीमा पर तैनात सेना को आपस में बातचीत जारी रखनी चाहिए, फ़टाफ़ट पीछे हटना चाहिए, उचित दूरी का पालन करना चाहिए एवं तनाव को घटाना चाहिए”.  चीन में उसके अगले कदम के लिए कम से कम तीन विकल्पों पर चर्चा हो रही है.

पहला विकल्प: युद्ध जिससे बार-बार लड़ाई ख़त्म हो सके

चीन में गरमपंथी यही चाहते हैं कि बीजिंग को अंतत: मज़बूती से अपना संकल्प करके भारत को रोकने की पहल करके ऐसा युद्ध करना चाहिए जिससे बार-बार की लड़ाई ख़त्म हो जाए, बिल्कुल वैसे ही जैसे उसने 1962 में किया था. उन्हें लगता है कि भारत में गहराते घरेलू हिंदू राष्ट्रवाद और हिंद-प्रशांत रणनीति सहित अपने पक्ष में बने बाहरी कारकों से  ताक़तवर होने की ख़ुशफ़हमी पैदा हो गई है जिसके कारण वह चीन के प्रति अत्यधिक महत्वाकांक्षी एवं उकसावे की नीति अपनाने का दिखावा कर रहा है. और यह रवैया आगे भी जारी रहने के आसार हैं क्योंकि भारतीय नेताओं को घरेलू ध्यान बंटाने के लिए विदेशी संकट का सहारा चाहिए ताकि कोविड19 एवं भारत का आर्थिक परिदृश्य साल की पहली ही तिमाही में 23.9 फीसद सिकुड़ने जैसी नाकामियों का ठीकरा अपने माथे फूटने से बचा जा सके. चीनियों को लगता है यदि चीन पीछे हटा तो भारत को अपनी इस धारणा की पुष्टि हो जाएगी कि भारत से निपटने में चीन झिझक रहा है अथवा वह इसमें अक्षम है जिसकी वजह से भारत द्वारा आगे जाकर और भी आक्रामक रूख अपनाया जा सकता है.

इस प्रस्ताव का सीधा ताल्लुक पश्चिमी प्रशांत में विशेषकर ताईवान की घटनाओं से है. अमेरिका ओर ताईवान के बीच गहराते संबंधों से चीन बेहद व्याकुल है. अमेरिका-चीन के संबंध लगातार बिगड़ने की इस अवधि में हथियारों की बिक्री के बड़े सौदे तथा अमेरिका के वरिष्ठ अधिकारियों के ताईवान दौरे ने चीन की वांछित प्रतिक्रिया को अधिक से अधिक प्रभावित किया है. वह जब अपने विकल्पों की तैयारी कर रहा है, विशेषकर सैन्य विकल्प जिसे चीन में भारी जनसमर्थन हासिल है तब पूर्व एवं पश्चिम में दो मोर्चों पर एकसाथ संशयात्मक युद्ध की संभावना एवं खतरा लगातार गहरा रहा है. चीन के लिए ताईवान के संकट से निपटने की तैयारी से पहले अपनी पश्चिमी सीमा पर ”खुली गांठ को फिर से बांधना” पहले के मुकाबले और भी अधिक त्वरित एवं आवश्यक हो गया है.

दूसरा विकल्प: मुंहतोड़ जवाबी हमला

राष्ट्रवादियों एवं नीति नियंताओं के एक वर्ग द्वारा पहले प्रस्ताव को समर्थन देने के बावजूद अधिक व्यावहारिक विकल्प चीन द्वारा मुंहतोड़ जवाब देने में निहित है. जवाबी हमला करने के लिए भी चीन को भारत से आशंकित युद्ध के लिए अपनी पूरी तैयारी तो रखनी ही होगी मगर पहले हमला करने के बजाय भारत द्वारा उकसाने की कार्रवाई चीन सिर्फ़ जवाब देगा मगर पूरी ताकत और संकल्प के साथ. हमलावर की जगह सिर्फ़ जवाब देने वाले की श्रेणी में आने से चीन के पास नैतिक उंचाई होगी ख़ासकर तब, जबकि सभी राजनयिक विकल्प चुक गए होंगे.

जवाबी हमला करने की रणनीति का सार चीन को ख़ुद पर इस भरोसे में निहित ​है कि उसके पास भारत के मुकाबले तनातनी लंबी खींचने (अथवा युद्ध होने) पर उसे झेलने तथा श्रेष्ठता की होड़ में छा जाने के लिए बेहतर वित्तीय संसाधन, सैन्य क्षमता एवं घरेलू राजनैतिक समर्थन मौजूद है.  इससे चीन द्वारा शांति को महत्व देने मगर साथ ही ज़रूरी होने पर युद्ध लड़ने की प्रतिबद्धता ज़ाहिर होती है. भारत के साथ चीन का 1962 का तथा वियतनाम के साथ 1979 का युद्ध, दोनों से ही चीन के नियोजन में ‘आत्मरक्षात्मक युद्ध’ की प्रमुखता तथा उसका सार प्रतिध्वनित होते हैं. सीमा पर तनातनी यदि जारी रहती अथवा विकराल होती है तो अंतत: सबसे अधिक यही परिदृश्य बनने के आसार हैं.

भारत एवं चीन के बीच इनके इतिहास, भू-क्षेत्र, वाणिज्य, क्षेत्रीय हैसियत एवं ऐतिहासिक भाग्य से संबंधित कठोर, वास्तविक संघर्ष इतने गहरे हैं जिन्हें आसानी से मिटाया नहीं जा सकता. उनसे निपटने का सर्वश्रेष्ठ उपाय शायद बिना विनाशकारी युद्ध किए उन्हें सुलटाने का प्रयास ही है.

तीसरा विकल्प: युद्धहीन विजय

दूरगामी एवं रणनीतिक दृष्टि से देखें तो भारत से विवादों के निपटारे एवं संबंधों को पोसने का चीन के लिए सबसे उपयुक्त विकल्प बिना लड़े ही जीत हासिल करना है. यह प्रतिबद्धता का सबूत चीन द्वारा पिछले दशकों में भारत से सीमा विवाद सुलटाने के लिए बार-बार राजनयिक उपाय अपनाने को वरीयता देना है। इस विकल्प का तर्क इस धारणा में निहित है कि चीन की प्रगति के साथ ही चीन एवं भारत के बीच विषमता बढ़ती जाएगी और आखिर वह दिन भी आएगा जब शक्ति असंतुलन इतना अधिक हो जाएगा कि भारत को अपने मंसूबे पूरे होने की निरर्थकता एवं अव्यावहारिकता का ख़ुद ही बख़ूबी अहसास हो जाएगा. ऐसा होने के बाद ही और सिर्फ़ तभी भारत की ओर से सीमा विवाद के व्यावहारिक समाधान की इच्छा जताई जाएगी.

राजनय आधारित इस रवैये ने ही दोनों क्षेत्रीय महाशक्तियों के बीच उत्पन्न अधिकतर विभाजक एवं तंग करने वाले मुद्दों पर पट़टी बांधे रखी है. एवं दोनों पक्ष जब सीमा पर आमने-सामने अपने सैन्य मोर्चे की रक्षा के लिए डटे हुए हैं तब इसकी उपादेयता एवं प्रभावशीलता पर भी बढ़-चढ़ कर सवाल उठ रहे हैं. इससे भी महत्वपूर्ण यह है कि इस राह की बुनियादी समस्या चीन यदि अपने कब्ज़े की भूमि से पीछे हट जाता है तो भी वह भविष्य के अपने अपेक्षित परिणाम के आधार एवं ज़रूरत दोनों से ही हाथ धो बैठेगा. चीन में आर्थिक मंदी तथा भारत की बढ़ती अंतरराष्ट्रीय हैसियत को देखते हुए भविष्य में ऐसी जीत अवश्यंभावी होने की संभावना नहीं लगती. इसलिए दिल्ली के मामले में सीमा के मुद्दे पर बीजिंग की निर्णयात्मकता में अतीत में इसी नीति की प्रधानता थी मगर डोकलाम के बाद की घटनाओं ने इसकी धार को लगातार भोथरा किया है.

उपसंहार

दूरदराज स्थित, जीने के लिए दुरूह हिमालयी पहाड़ों पर सैन्य चौकियों की उपादेयता पर अनेक लोगों ने सवाल किया है. उनके रणनीतिक महत्व पर सवाल उठाना जायज़ अथवा कम से कम बहस के योग्य ही मान लें मगर दोनों ओर उनके भावनात्मक, राजनीतिक, क़ानूनी, ऐतिहासिक एवं सैन्य महत्व ने उसके व्यावहारिक समाधान में रोड़ा अटका रखा है.

दोनों पक्षों द्वारा पश्चिमी सेक्टर में अपनी-अपनी वास्तविक नियंत्रण रेखा पर तैनाती बढ़ाने के साथ ही मुठभेड़, तनातनी एवं घटनाएं तब तक बार-बार और अधिक संख्या में घटने की आशंका है जब तक उनकी वास्तविक स्थिति की परिकल्पना संबंधी अस्पष्टता एवं उसकी गुंजाईश ख़त्म नहीं होती. और भविष्य में वही वास्तविक नियंत्रण रेखा चीन एवं भारत के बीच वास्तविक सीमा संबंधी बातचीत का आधार साबित होगी. आने वाले तमाम तनावों से यदि कोई सार्थक निष्कर्ष निकला तो वह यही हो सकता है.

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