एशिया-पैसिफिक क्षेत्र: दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में अस्थिरता ने बढ़ाई चिंता!
बीजिंग और होनियारा के बीच हुए खुफ़िया सिक्योरिटी समझौता के ऑनलाइन लीक हुए दस्तावेजों ने हिंद-प्रशांत में राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता को हवा दे दी है. होनियारा द्वारा की गई पुष्टि के अनुसार, इस समझौते के अंतर्गत वे चीन को वहाँ के सामाजिक व्यवस्था के रख-रखाव के लिए ज़रूरी सैन्य और विधि प्रवर्तन अधिकारियों को प्रवेश की अनुमति देगा. इसने इस क्षेत्र में ख़तरे की घंटी बजा कर तापमान में तल्ख़ी पैदा कर दी है और इस क्षेत्र में चीन के बढ़ते वर्चस्व संबंधी आशंकाएं प्रबल हो गई हैं, जैसी की इससे बीजिंग को इस द्वीप में अपना सैन्य बेस बनाने की राह आसान हो जाएगी. एक तरफ, सोलोमन द्वीप के प्रधानमंत्री ने अपनी संप्रभु विशेषाधिकार के तहत इस समझौते का प्रतिवाद किया है वहीं इस समझौते के आलोचक ऐसी आशंका रखते हैं कि इससे इस क्षेत्र में सैन्यीकरण को बल मिलेगा.
एक तरफ, सोलोमन द्वीप के प्रधानमंत्री ने अपनी संप्रभु विशेषाधिकार के तहत इस समझौते का प्रतिवाद किया है वहीं इस समझौते के आलोचक ऐसी आशंका रखते हैं कि इससे इस क्षेत्र में सैन्यीकरण को बल मिलेगा.
पैसिफिक द्वीप पर चीन की मौजूदगी
इस क्षेत्र में होने वाली आर्थिक गतिविधियों के कारण इंडो-पैसिफिक को वैश्विक स्तर पर ‘गुरुत्वाकर्षण का केंद्र’ के रूप में जाना गया है, जिसमें भौगौलिक तौर पर वैश्विक अर्थव्यवस्था को कई अन्य कारणों से प्रेरित अथवा बाधित करने की क्षमताहै, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण है इस क्षेत्र के इर्द-गिर्द चीन के बढ़ते और विस्तृत होते प्रभुत्व के भू-राजनैतिक महत्ता की. और एक तरह से, चीन का अभ्युदय भी, इंडो-पैसिफिक के आख्यान को एशिया प्रशांत के आख्यान के बनिस्पत मज़बूती प्रदान की है. ऐसा इसलिये भी हुआ क्योंकि एशिया प्रशांत के आख्यान पर ये आरोप है कि उसने दुनिया को खेमों में बांटने का काम किया है, जिसमें एक खेमा उदारवादी पश्चिमी प्रजातांत्रिक व्यवस्था का हिमायती है तो दूसरा खेमा वो जो उसके खिलाफ़ है. इसी वजह से आज इंडो-पैसिफिक के आख्यान ने पूरी सामरिक दुनिया में अभूतपूर्व प्रमुखता ग्रहण की है और इसीलिए वो हाल-फिलहाल के दिनों में भू-राजनीतिक गतिरोध के केंद्र में है.
पैसिफिक द्वीप में बीजिंग की उपस्थिति, जिसकी शुरुआत 1970 के दशक से हो गई थी, वो सन् 1990 के उपरांत धीरे-धीरे और भी ज़्यादा विस्तृत होती जा रही है, जिसमें उसकी उस क्षेत्र के प्रति दिलचस्पी, अपनी आर्थिक योग्यता के विस्तार के अनुरूप बढ़ती गई है.
पैसिफिक द्वीप में बीजिंग की उपस्थिति, जिसकी शुरुआत 1970 के दशक से हो गई थी, वो सन् 1990 के उपरांत धीरे-धीरे और भी ज़्यादा विस्तृत होती जा रही है, जिसमें उसकी उस क्षेत्र के प्रति दिलचस्पी, अपनी आर्थिक योग्यता के विस्तार के अनुरूप बढ़ती गई है. हालांकि, ऑस्ट्रेलिया एवं अमेरिका की तुलना में, चीनी अनुदान अभी भी काफी कम है, जहां इस क्षेत्र को ‘अमेरिकी झील’; या ऑस्ट्रेलिया की जमीन के नाम से जाना जाता है, चूंकि साउथ पैसिफिक पारंपरिक तौर पर इन दोनों देशों और न्यूज़ीलैंड के लिए निश्चित प्रभाव का क्षेत्र रहा है.
चीन के लिए उपयुक्त चारागाह़
बहरहाल, इन द्वीपों तक के अपनी पहुँच के बल पर चीन को इनके प्रति खिंचाव प्राप्त हुआ है. चीन ऐसा क्या कर सकता हैं जिसकी अन्य देश न तो बराबरी कर सकते हैं न ही उसका पलड़ा झुक सकता है? एक तो, चीन की उधार देने की क्षमता त्वरित है और वो इसके साथ की कई बारीकियों को घोषित नहीं करता है, जो की बहुदा, अत्यंत समस्याग्रस्त होती है. दूसरे शब्दों में, चीनी अनुदान किसी पूर्वशर्त रहित होता है . चीन के नज़रिए से देखें तो, विकास, बेहतर शासन से भी बेहतरीन होती है. इसके विपरीत, चीन से अलग बाकी अन्य देशों से मिलने वाले विदेशी सहायता, कई प्रकार के परिक्षण और बैलेंस/बकाया के बाद पूर्ण पारदर्शिता और ज़िम्मेदारी के साथ आती है – ये ऐसे गुण हैं जो ज़रूरी हैं परंतु फ़ायदेमंद नहीं है. छोटे और आर्थिक रूप से कमज़ोर ऐसे देश जिन्हें अक्सरहाँ ऐसे छोटे-छोटे उधार/क़र्ज़ की ज़रूरत पड़ती रहती है, चीन के लिए दो वजहों से सबसे उपयुक्त चारागाह हैं – पहला कि वे हमेशा इसे स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हैं और दूसरा ये कि वे हमेशा लंबे अथवा कम समय में इन कर्जों का भुगतान करने में असमर्थ रहते हैं, जिसकी वजह से बीजिंग के लिए अपने उद्धारकर्ता वाली शर्त को पुनः सक्रिय करने का अवसर मिल जाता है, और उन्हें उनकी आर्थिक परेशानियों से उबारने के एवज़ में, वे इन देशों में व्यापाक कंट्रोल और उनके व्यपारिक क्षेत्रों में दख़ल करने का अधिकार एक ही झटके में प्राप्त कर लेते हैं.
चीन के लिए दो वजहों से सबसे उपयुक्त चारागाह हैं – पहला कि वे हमेशा इसे स्वीकार करने के लिए तैयार रहते हैं और दूसरा ये कि वे हमेशा लंबे अथवा कम समय में इन कर्जों का भुगतान करने में असमर्थ रहते हैं, जिसकी वजह से बीजिंग के लिए अपने उद्धारकर्ता वाली शर्त को पुनः सक्रिय करने का अवसर मिल जाता है
हालांकि, हाल के दिनों में पैसिफिक द्वीप में चीन के बढ़ते प्रभाव से द्वीप में बीजिंग की नियत, ख़ासकर के उसके शिकारी स्वभाव वाले अर्थशास्त्र की नीति को लेकर उनके भीतर भय का माहौल बना हुआ है. उदाहरण के लिए, सामोआ- अपने पूर्ववर्ती शासनकाल के दौरान किये गए एक समझौते के अंतर्गत चीन- समर्थित बंदरगाह प्रोजेक्ट के हो रहे निर्माण को रोकने के प्रयास में है. सोलोमोन द्वीप में चीन की पैठ ने राजनीति और सुरक्षा समझौते को काफ़ी तीक्ष्णता से बाँट दिया है, जिसे कथित तौर पर विरोधियों द्वारा लीक कर दिया गया, और जो की आगे देश को काफ़ी गहरे तक विभाजित करके काफी भीतर तक गहरी अशान्ति मचाना चाहते हैं. 2019 में एक-चीन नीति को पहचान देने के निर्णय ने – समूचे पैसिफिक द्वीप के देशों के इलाकों जिनमें पलाऊ, नौरू, मार्शल द्वीपसमूह और तुवालु आदि को आपस में बांटने का काम किया था. इसकी वजह कहीं न कहीं इन देशों द्वारा ताईवान और कुछ अन्य देशों का चीन के साथ जाना था. सोलोमोन द्वीप के मलैईटा राज्य द्वारा 2020 में, ताइवान से कोविड 19 सहायता को स्वीकारने के निर्णय के कारण काफ़ी जटिल स्थिति पैदा हो गई थी. 2019 में तुवालु ने समुद्र के बढ़ते जलस्तर की संवेदनशील हालात के बावजूद चीन द्वारा कृत्रिम द्वीप बनाने का ऑफ़र दिए जाने को नकार दिया था. इसके साथ-साथ, एक मज़बूत इंडो-पैसिफिक वृत्तान्त के ख़रीदार के तौर पर, बीजिंग के प्रयासों को किनारे लगाने और प्रांतीय स्तर पर साउथ पैसिफिक में अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए, ख़ास करके ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका काफी प्रयासरत हैं. कैनबरा की विदेश नीतियों में, पैसिफिक द्वीप देश उनकी अहम प्राथमिकता बने हुए हैं और निवेश का केंद्र बनकर उभरे हैं, जो 2018 के उपरांत, इस क्षेत्र में पिछले एक दशक में, बीजिंग के बढ़ते प्रभुत्व को देखते हुए उठाया गया कदम है. कैनबरा ने भी इस इलाके में अपनी पकड़ मज़बूत करने के लिये अरबों डॉलर का निवेश किया है, जो लंबे समय तक दी जाने वाली आर्थिक मदद के तौर पर है. इसका उद्देश्य मीडिया और सांस्कृतिक संबंधों के ज़रिये इस क्षेत्र में अपना दख़ल बढ़ाने की है.2018 में ऐसा भी था कि सोलोमन द्वीप में इंटरनेट केबल लाइन का निर्माण करने का ठेका हुआवेई को दिए जाने के बाद, ऑस्ट्रेलिया को दिया गया था. अमेरिका ने भी 1993 में इस देश में अपना मिशन ख़त्म करने के बाद पुनःफ़रवरी महीने में, सोलोमोन द्वीप में अपना खुद का दूतावास खोलने की घोषणा की हैं.
एक मज़बूत इंडो-पैसिफिक वृत्तान्त के ख़रीदार के तौर पर, बीजिंग के प्रयासों को किनारे लगाने और प्रांतीय स्तर पर साउथ पैसिफिक में अपना प्रभुत्व बढ़ाने के लिए, ख़ास करके ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका काफी प्रयासरत हैं.
पैसिफिक द्वीपों में चीन का पलड़ा भारी
हालांकि, ऐसा प्रतीत होता हैं कि पैसिफिक के द्वीपों के मध्य चिंता का विषय बने होने के बावजूद, फ़िलहाल पलड़ा चीन के ही पक्ष में जाता प्रतीत होता हैं क्योंकि इस क्षेत्र के द्वीप पिछले कई सालों से चीन के साथ आर्थिक रिश्ते बनाए हुए हैं जो लंबे समय तक दी जाने वाली आर्थिक मदद की नीतियों से कहीं ज्य़ादा व्यवहारिक और सार्थक है. ये वो मांग है जिसकी पूर्ति करने में चीन उनके पारंपरिक साझीदारों ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका की तुलना में काफी प्रभावशाली तरीके से निभाते आया है और उनके कई क़दम आगे है.
क्या चीन द्वारा प्राप्त की गई बढ़त लंबे समय तक चलने वाली साझेदारी में बदलेगी और क्या सुरक्षा समझौते संबंधी उठाए गई चिंता किसी नतीजे पर पहुँचती है, ये देखना अब भी बाकी है, परंतु जिस बात से बिल्कुल भी इनकार नहीं किया जा सकता हैं वो ये कि चीन अगर कहीं अपना पैर पसारने की कोशिश करता है तो ऐसा हो नहीं सकता है कि वो बग़ैर किसी कीमत अथवा वजह की होगी. उदाहरण के लिए चीन का पहला ओवरसीज़ में स्थापित मिलिट्री बेस ज़िबूती है, जिसे पहली बार चीन द्वारा पीएलए को समर्थन और रसद सुविधा देने वाली संस्था होने का दावा किया गया था, और जिसे बीजिंग की महत्वाकांक्षा का पहला उदाहरण माना जाता है. जिसके मद्देनज़र हम ये कह सकते हैं कि कैनबरा, वेलिंगटन और वॉशिंगटन द्वारा उठाई जा रही चिंताएं और आशंकाएं, बहुत ज़्यादाभय उत्पन्न करने वाली नहीं हैं.
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