Author : Manoj Joshi

Published on May 08, 2017 Updated 0 Hours ago

चीन की पुरानी योजनाओं का उद्देश्य चीनी वस्तुओं की खपत सुनिश्चित करना और सामरिक परियोजनाओं का उद्देश्य बीजिंग की भू-राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखना था।

चीन का फैलता संजाल

मार्च 2016 में ‘रायसीना डॉयलॉग’ (दिल्ली में होने वाला वार्षिक सम्मेलन) में विचार रखते हुए भारत के विदेश सचिव एस जयशंकर ने संकेत किए थे कि चीन की विशालकाय परियोजना ‘द बेल्ट रोड इनीशिएटिव'(बीआरआई) और ‘वन बेल्ट वन रोड’ (ओबीओआर) पर भारत की प्रतिक्रिया किस तरह की होगी। उन्होंने कहा था,’मुख्य मुद्दा यह है कि क्या हम कनेक्टिविटी (संपर्क) का निर्माण संवाद के जरिये करेंगे या एकतरफा निर्णयों के जरिये। हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि दूसरे देश फैसला पहले करते हैं और उसके बाद दूसरों को साथ आने के लिए कहते हैं।’

भारत ने अब तक बीआरआई का समर्थन नहीं किया है; उसे समर्थन न देने वाले कुछ देश ही हैं। जबकि अब तक 60 से ज्यादा देश बीआरआई का समर्थन कर चुके हैं और संभावना है कि इस सिलसिले में 14-15 मई को बीजिंग में हो रही बैठक में अनेक वैश्विक नेता शामिल होंगे। इस परियोजना का आकार बहुत विशाल है। इसमें निवेश के लिए दस खरब डॉलर का वचन दिया जा चुका है, और चीन के सरकारी बैंक इसे बढ़ावा दे रहे हैं। अभी तक तो यह पहल सिर्फ चीन के राष्ट्रीय हितों को पोषित करती ही दिख रही है। चूंकि चीन दक्षिण एशिया के दूसरे देशों को इससे जुड़ी विभिन्न तरह की योजनाओं और धन के जरिये आकर्षित कर रहा है, इसलिए भारत को सावधानी बरतते हुए प्रतिक्रिया देनी चाहिए। भारत न तो बीआरआई को अवरुद्ध करने की स्थिति में है और न ही उसके पास चीन का मुकाबला करने के लिए धन है। लेकिन वह उन क्षेत्रों की पहचान कर सकता है, जिससे वह लाभ उठा सके।

चीन की पुरानी योजनाओं का उद्देश्य चीनी वस्तुओं की खपत सुनिश्चित करना और सामरिक परियोजनाओं का उद्देश्य बीजिंग की भू-राजनीतिक प्रासंगिकता बनाए रखना था। उसके साथ ही वह अब अपने नकदी भंडार और कुछ निश्चित उद्योगों की क्षमता का इस्तेमाल कर यूरोप जैसे सामरिक महत्व के गंतव्य तक सड़क और रेल लाइन का निर्माण करना चाहता है या पाइप लाइन बिछाना चाहता है, ताकि भविष्य में व्यापार और वाणिज्य के लिए मार्ग उपलब्ध हो।

आलोचकों का कहना है कि जो दूसरे देश चीन से धन और बुनियादी संरचना संबंधी परियोजनाएं स्वीकार कर रहे हैं, उन्हें संभवतः मामूली फायदा ही हो। उन्हें सावधान रहना होगा कि कहीं वे कर्ज के जाल में तो नहीं फंस रहे हैं। श्रीलंका पहले से ही कर्ज के बोझ से जूझ रहा है और वह एक चीनी कंपनी को हंबटोटा बंदरगाह का 80 फीसदी बेचने के लिए मजबूर है। अनुमान है कि पाकिस्तान की भी वैसी ही स्थिति होगी। संभवतः चीन इसे अपने हित में मानता है, क्योंकि श्रीलंका और पाकिस्तान को कर्ज के जाल में फंसाकर वह उनकी नीतियों पर नियंत्रण कर सकता है। एक अन्य उदाहरण मध्य एशिया से संबंधित है, जो कि पूर्व सोवियत संघ का हिस्सा था और सड़क, रेल लाइन, पाइप लाइन और सुरक्षा नेटवर्क के जरिये रूस से जुड़ा था। वर्ष 2000 में मध्य एशियाई देश चीन से 2.4 फीसदी और रूस से 29.4 फीसदी आयात करते थे, लेकिन 2010 में वे चीन से 20.5 फीसदी और रूस से 18.9 आयात करने लगे।

बीआरआई प्रोजक्ट के निर्माण और वित्त पोषण पर चीन की प्रमुख कंपनियों की कड़ी पकड़ है। चीन के केंद्रीय उद्यमों का पर्यवेक्षण करने वाली एसेट सुपरविजन ऐंड एडमिनिस्ट्रेशन कमीशन ऑफ स्टेट काउंसिल (एसएएसएसी) का दावा है कि 107 केंद्रीय उद्यमों ने दुनिया भर में 8,500 से ज्यादा शाखाएं स्थापित की हैं। उनमें से 80 राज्य उद्यम सक्रिय रूप से 80 देशों में कार्यरत हैं और बीआरआई का हिस्सा हैं। बीआरआई में उनकी हिस्सेदारी के साल भर के भीतर चीन के कई सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों की संपत्ति तेजी से बढ़ी है। और वास्तव में यही चीन का इरादा था। बीआरआई का एक अन्य उद्देश्य कंपनियों और उनके निवेश को दूसरे देशों में आगे बढ़ाना था। रिपोर्ट के मुताबिक, चीन के 20 फीसदी से ज्यादा सरकारी उद्यमों की कुल आय विदेशों से होती है।

इस योजना की विशालता को देखते हुए तथ्य यह है कि इसकी बराबरी करने के लिए भारत में संसाधनों या इंजीनियरिंग क्षमताओं की कमी है, ऐसे में सबसे विवेकपूर्ण काम है कि अपने फायदे के लिए इसका इस्तेमाल किया जाए। नई दिल्ली चीन के वर्चस्व वाले तीन संगठनों का सदस्य है-द एशियन इन्फ्रॉस्ट्रक्चर बैंक, द न्यू डेवलपमेंट बैंक और शंघाई कोऑपरेशन ऑर्गेनाइजेशन। ऐसे में कोई कारण नहीं है कि भारत अपने संपर्क के दायरे में पूर्वी अफ्रीका, ईरान, दक्षिण एशिया या हिंद महासागर क्षेत्र में कनेक्टिविटी और अन्य बुनियादी संरचनाओं से संबंधित परियोजनाओं के लिए इन संस्थानों से धन क्यों नहीं मांग सकता। भारत चाह बहार या इंटरनेशनल नॉर्थ साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरीडोर, त्रिंकोमाली पोर्ट डेवलेपमेंट और अपनी आंतरिक कनेक्टिविटी योजनाओं, (सड़क, रेल या समुद्री) जैसी संभावित परियोजनाओं के लिए धन मांग सकता है।

प्रस्तावित चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) में भारत की संभावित भागीदारी कुछ हद तक विवादास्पद है। भारत ने सीपीईसी का विरोध किया है, क्योंकि यह पाक अधिकृत कश्मीर से गुजरता है। लेकिन काराकोरम राजमार्ग, जो चीन के शिनझियांग प्रांत को पाकिस्तान से जोड़ता है, 1960 के दशक में बना था और नई दिल्ली ने तब इस पर आपत्ति नहीं की थी। लेकिन अब पाकिस्तान में चीन की प्रतिबद्धता में नाटकीय बढ़ोतरी को देखते हुए भारत सीपीईसी पर आपत्ति जता रहा है। इस मुद्दे पर चीन के नरम पड़ने की संभावना नहीं है, पर उसे बातचीत से मनाया जा सकता है। भारत मांग कर सकता है कि सीईपीसी के समर्थन के बदले पाकिस्तान अपने बाजारों में भारतीय वस्तुओं की पहुंच की और अफगानिस्तान और ईरान को पारगमन की अनुमति दे। यह न सिर्फ पाकिस्तान को दक्षिण एशियाई मुक्‍त व्‍यापार क्षेत्र के प्रति प्रतिबद्ध बनाएगा, बल्कि पाकिस्तानी बाजार में भारत की पहुंच भी सुनिश्चित होगी, जिससे पाकिस्तानी सेना इन्कार कर रही है।


ये लेख मूल रूप से अमर उजाला में प्रकाशित हुई थी।

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