Author : Dhaval Desai

Published on Sep 27, 2019 Updated 0 Hours ago

अगर भारत अर्बन प्लानिंग को गंभीरता से नहीं लेता तो मौजूदा सरकार की स्मार्ट सिटीज मिशन, स्वच्छ भारत मिशन, ऐतिहासिक शहरों कें लिए ‘हृदय’, 2022 तक हाउसिंग फॉर ऑल और अमृत जैसी बड़ी योजनाओं का अंजाम JNNURM जैसा हो सकता है.

बच्चों का खेल नहीं अर्बन प्लानिंग, गंभीरता से करना होगा काम

इकॉनमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (EIU) की इस साल 4 सितंबर को आई लिवेबिलिटी इंडेक्स (सूचकांक) में देश के दो सबसे बड़े शहर — मुंबई और दिल्ली कुछ पायदान फिसल गए. यह एक ग्लोबल इंडेक्स है, जिसमें जीवनस्तर के आधार पर दुनिया के 140 शहरों की रैंकिंग की जाती है. इस साल की रैंकिंग में देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली 6 पायदान गिरकर 118वें और आर्थिक राजधानी मुंबई दो पायदान फिसलकर दिल्ली के बाद 119वें नंबर पर रही.

इस इंडेक्स से पता चलता है कि दुनिया के कौन से शहर रहने के लिए अच्छे हैं और कौन से बुरे. इसमें हर शहर की रैंकिंग पांच बुनियादी वर्गों में 30 क्वॉलिटेटिव (गुणात्मक) और क्वॉन्टिटेटिव (मात्रात्मक) फैक्टर्स के आधार पर होती है. इसकी बिनापर उन शहरों के तुलनात्मक आधार पर बेहतर होने का पता लगाया जाता है और उससे शहरों की रैंकिंग तय होती है. इन पांच बुनियादी वर्गों में स्थिरता, स्वास्थ्य, संस्कृति और पर्यावरण, शिक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर शामिल हैं. इसमें स्थिरता और संस्कृति व पर्यावरण में से हरेक को 25 प्रतिशत का वेटेज दिया जाता है, जबकि स्वास्थ्य और इंफ्रास्ट्रक्चर में से हरेक को 20 प्रतिशत का वेटेज मिलता है. बाकी का 10 प्रतिशत वेटेज शिक्षा को मिलता है. रैंकिंग करते वक्त हर फैक्टर के आधार पर शहर को स्वीकार्य, बर्दाश्त करने लायक, असहज, अवांछित या असहनीय जैसे वर्गों में बांटा जाता है. इसके बाद इस आधार पर मिले नंबरों को मिलाकर उन्हें एक से 100 के बीच अंक दिए जाते हैं. इसमें एक नंबर मिलने का मतलब असहनीय और 100 नंबर मिलने का मतलब आदर्श है. इंडेक्स में हर शहर को अंक देने के लिए न्यूयॉर्क को आधार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. और इस तरह से लिवेबिलिटी इंडेक्स तैयार किया जाता है.

एक अनुमान के मुताबिक, 2030 तक देश की 1.5 अरब आबादी में से आधे लोगों के शहरी क्षेत्रों में रहने का अनुमान है. अगर अर्बन प्लानिंग को गंभीरता से नहीं लिया गया तो इनमें से ज्यादातर लोग झुग्गी बस्तियों जैसे हालात में रहने को मज़बूर होंगे.

ग्लोबल लिवेबिलिटी इंडेक्स में दिल्ली और मुंबई, अफ्रीका, पश्चिम एशिया, दक्षिण एशिया और दक्षिण अमेरिका के शहरों के साथ निचले 25 प्रतिशत शहरों में शामिल हैं. इससे पता चलता है कि देश के इन दो सबसे बड़े शहरों को वहां रहने वालों को बेहतर जीवनस्तर मुहैया कराने में कितनी बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. अगर हमारे दो सबसे वाइब्रेंट ग्लोबल शहरों की यह हालत है तो देश के दूसरे शहरी क्षेत्रों की स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. भारत में आज जिस तेजी से शहरीकरण बढ़ रहा है, उसे देखते हुए इस क्षेत्र में देश की चुनौती का पता चलता है. इतना ही नहीं, ग्लोबल लिवेबिलिटी इंडेक्स में खराब रैंकिंग से कई सवाल भी खड़े होते हैं. एक अनुमान के मुताबिक, 2030 तक देश की 1.5 अरब आबादी में से आधे लोगों के शहरी क्षेत्रों में रहने का अनुमान है. अगर अर्बन प्लानिंग को गंभीरता से नहीं लिया गया तो इनमें से ज्यादातर लोग झुग्गी बस्तियों जैसे हालात में रहने को मज़बूर होंगे.

शहरों को आर्थिक विकास का इंजन माना जाता है. क्या हमारे यहां के शहर देश को 21वीं सदी में तरक्की की राह पर ले जाएंगे या वे उसमें बाधा खड़ी करेंगे? क्या इन सवालों से सरकार की चिंता बढ़नी चाहिए? इस मामले में सरकार के सामने बड़ी चुनौती है. खासतौर पर यह देखते हुए कि इस इंडेक्स में जिस मुंबई शहर को 119वीं रैंकिंग मिली है, उसे देश का शहरी विकास मंत्रालय ‘ईज ऑफ लिविंग’ के आधार पर बेहतरीन तीन शहरों में से एक मानता है. अगस्त 2019 में शहरी विकास मंत्रालय ने देश का पहला ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स जारी किया था, जिसमें 111 शहरों की रैंकिंग की गई थी.

EIU में जहां कई क्वॉलिटेटिव और क्वॉन्टिटेटिव पैमानों पर शहरों की रैंकिंग तय की जाती है, वहीं ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स में उनका प्रदर्शन 78 फ़िज़िकल, सांस्थानिक, सामाजिक और आर्थिक पैमानों पर परखा जाता है. ये पैमाने गवर्नेंस, पहचान व संस्कृति, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, किफायती आवास, लैंड यूज प्लानिंग, लोगों के लिए खुली जगह, यातायात और गतिशीलता, पानी की सप्लाई, वेस्ट वॉटर मैनेजमेंट, सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट, बिजली और पर्यावरण से जुड़े हैं. मुंबई के 2.3 करोड़ लोगों के रोज़मर्रा का संघर्ष किसी से छिपा नहीं है. ऐसे में शहरी विकास मंत्रालय का ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स में इसे देश के शीर्ष तीन शहरों में शामिल करना अजीब लगता है. शायद, सरकार ने सुरक्षा और लगातार बिजली सप्लाई (देश में बहुत कम ऐसे शहर हैं, जहां नियमित बिजली मिलती है) जैसे मानकों के आधार पर मुंबई की इतनी ऊंची रैंकिंग दी है. इसके उलट, दिल्ली में लोगों की आवाजाही के लिए बेहतर ट्रांसपोर्ट सिस्टम है, जिसकी सराहना भी होती आई है. इसके बावजूद, शहरी विकास मंत्रालय की रैंकिंग में यह 65वें नंबर पर है, जबकि चेन्नई (14), अहमदाबाद (23) और हैदराबाद (27) उससे काफी ऊपर हैं.

इकॉनमिस्ट इंटेलिजेंस यूनिट (EIU) की इस साल 4 सितंबर को आई लिवेबिलिटी इंडेक्स (सूचकांक) में देश के दो सबसे बड़े शहर — मुंबई और दिल्ली कुछ पायदान फिसल गए. यह एक ग्लोबल इंडेक्स है, जिसमें जीवनस्तर के आधार पर दुनिया के 140 शहरों की रैंकिंग की जाती है. इस साल की रैंकिंग में देश की राजनीतिक राजधानी दिल्ली 6 पायदान गिरकर 118वें और आर्थिक राजधानी मुंबई दो पायदान फिसलकर दिल्ली के बाद 119वें नंबर पर रही.

इस इंडेक्स से पता चलता है कि दुनिया के कौन से शहर रहने के लिए अच्छे हैं और कौन से बुरे. इसमें हर शहर की रैंकिंग पांच बुनियादी वर्गों में 30 क्वॉलिटेटिव (गुणात्मक) और क्वॉन्टिटेटिव (मात्रात्मक) फैक्टर्स के आधार पर होती है. इसकी बिनापर उन शहरों के तुलनात्मक आधार पर बेहतर होने का पता लगाया जाता है और उससे शहरों की रैंकिंग तय होती है. इन पांच बुनियादी वर्गों में स्थिरता, स्वास्थ्य, संस्कृति और पर्यावरण, शिक्षा और इंफ्रास्ट्रक्चर शामिल हैं. इसमें स्थिरता और संस्कृति व पर्यावरण में से हरेक को 25 प्रतिशत का वेटेज दिया जाता है, जबकि स्वास्थ्य और इंफ्रास्ट्रक्चर में से हरेक को 20 प्रतिशत का वेटेज मिलता है. बाकी का 10 प्रतिशत वेटेज शिक्षा को मिलता है. रैंकिंग करते वक्त हर फैक्टर के आधार पर शहर को स्वीकार्य, बर्दाश्त करने लायक, असहज, अवांछित या असहनीय जैसे वर्गों में बांटा जाता है. इसके बाद इस आधार पर मिले नंबरों को मिलाकर उन्हें एक से 100 के बीच अंक दिए जाते हैं. इसमें एक नंबर मिलने का मतलब असहनीय और 100 नंबर मिलने का मतलब आदर्श है. इंडेक्स में हर शहर को अंक देने के लिए न्यूयॉर्क को आधार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है. और इस तरह से लिवेबिलिटी इंडेक्स तैयार किया जाता है.

एक अनुमान के मुताबिक, 2030 तक देश की 1.5 अरब आबादी में से आधे लोगों के शहरी क्षेत्रों में रहने का अनुमान है. अगर अर्बन प्लानिंग को गंभीरता से नहीं लिया गया तो इनमें से ज्यादातर लोग झुग्गी बस्तियों जैसे हालात में रहने को मज़बूर होंगे.

ग्लोबल लिवेबिलिटी इंडेक्स में दिल्ली और मुंबई, अफ्रीका, पश्चिम एशिया, दक्षिण एशिया और दक्षिण अमेरिका के शहरों के साथ निचले 25 प्रतिशत शहरों में शामिल हैं. इससे पता चलता है कि देश के इन दो सबसे बड़े शहरों को वहां रहने वालों को बेहतर जीवनस्तर मुहैया कराने में कितनी बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. अगर हमारे दो सबसे वाइब्रेंट ग्लोबल शहरों की यह हालत है तो देश के दूसरे शहरी क्षेत्रों की स्थिति का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है. भारत में आज जिस तेजी से शहरीकरण बढ़ रहा है, उसे देखते हुए इस क्षेत्र में देश की चुनौती का पता चलता है. इतना ही नहीं, ग्लोबल लिवेबिलिटी इंडेक्स में खराब रैंकिंग से कई सवाल भी खड़े होते हैं. एक अनुमान के मुताबिक, 2030 तक देश की 1.5 अरब आबादी में से आधे लोगों के शहरी क्षेत्रों में रहने का अनुमान है. अगर अर्बन प्लानिंग को गंभीरता से नहीं लिया गया तो इनमें से ज्यादातर लोग झुग्गी बस्तियों जैसे हालात में रहने को मज़बूर होंगे.

शहरों को आर्थिक विकास का इंजन माना जाता है. क्या हमारे यहां के शहर देश को 21वीं सदी में तरक्की की राह पर ले जाएंगे या वे उसमें बाधा खड़ी करेंगे? क्या इन सवालों से सरकार की चिंता बढ़नी चाहिए? इस मामले में सरकार के सामने बड़ी चुनौती है. खासतौर पर यह देखते हुए कि इस इंडेक्स में जिस मुंबई शहर को 119वीं रैंकिंग मिली है, उसे देश का शहरी विकास मंत्रालय ‘ईज ऑफ लिविंग’ के आधार पर बेहतरीन तीन शहरों में से एक मानता है. अगस्त 2019 में शहरी विकास मंत्रालय ने देश का पहला ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स जारी किया था, जिसमें 111 शहरों की रैंकिंग की गई थी.

EIU में जहां कई क्वॉलिटेटिव और क्वॉन्टिटेटिव पैमानों पर शहरों की रैंकिंग तय की जाती है, वहीं ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स में उनका प्रदर्शन 78 फ़िज़िकल, सांस्थानिक, सामाजिक और आर्थिक पैमानों पर परखा जाता है. ये पैमाने गवर्नेंस, पहचान व संस्कृति, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, अर्थव्यवस्था, किफायती आवास, लैंड यूज प्लानिंग, लोगों के लिए खुली जगह, यातायात और गतिशीलता, पानी की सप्लाई, वेस्ट वॉटर मैनेजमेंट, सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट, बिजली और पर्यावरण से जुड़े हैं. मुंबई के 2.3 करोड़ लोगों के रोज़मर्रा का संघर्ष किसी से छिपा नहीं है. ऐसे में शहरी विकास मंत्रालय का ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स में इसे देश के शीर्ष तीन शहरों में शामिल करना अजीब लगता है. शायद, सरकार ने सुरक्षा और लगातार बिजली सप्लाई (देश में बहुत कम ऐसे शहर हैं, जहां नियमित बिजली मिलती है) जैसे मानकों के आधार पर मुंबई की इतनी ऊंची रैंकिंग दी है. इसके उलट, दिल्ली में लोगों की आवाजाही के लिए बेहतर ट्रांसपोर्ट सिस्टम है, जिसकी सराहना भी होती आई है. इसके बावजूद, शहरी विकास मंत्रालय की रैंकिंग में यह 65वें नंबर पर है, जबकि चेन्नई (14), अहमदाबाद (23) और हैदराबाद (27) उससे काफी ऊपर हैं.

यूपीए सरकार की योजना को पीछे छोड़ने की नीयत से बनाई गई इन योजनाओं का स्केल बड़ा और लक्ष्य ऊंचे रखे गए हैं, लेकिन ये असल में नई बोतल में पुरानी शराब जैसा मामला है.

ग्लोबल लिवेबिलिटी इंडेक्स में दिल्ली और मुंबई की खराब रैंकिंग को देखते हुए ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स तैयार करने के लिए शहरी विकास मंत्रालय ने जो तरीका अपनाया है, उसकी पड़ताल जरूरी हो जाती है. अगर ऐसा नहीं किया गया तो टिकाऊ और समान शहरी विकास की तरफ सरकारी पहल को केंद्रित करने के बजाय ऐसी रैंकिंग से देश के शहरों में रहने वालों के लिए मुश्किलें और बढ़ेंगी और ईज ऑफ लिविंग उनके लिए सपना ही रह जाएगा. ऐसे सूचकांकों को तैयार करने के लिए अपनाए गए तरीके की बात रहने भी दें तो यह भी सच है कि देश में शहरों के गवर्नेंस में कई बुनियादी गड़बड़ियां हैं. हालात इतने बुरे हैं कि ऊपर जिन मानकों का जिक्र किया गया है, उसमें देश का कोई भी शहर ग्लोबल बेंचमार्क के करीब नहीं पहुंच सकता. पिछली सरकारों ने इसमें सुधार की जो नाकाम कोशिश की, उनसे भी यह बात साफ हो जाती है कि भारत ने इस मामले में किस तरह से अपने ही लिए दलदल तैयार की है. इस मामले में जवाहर लाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्युअल मिशन (JNNURM) का जिक्र किया जा सकता है, जिसे यूपीए 1 सरकार ने 2005 में पूरे देश में लागू किया था. इंफ्रास्ट्रक्चर और नागरिक सेवाओं में स्थानीय निकायों के सुधार के आधार पर शहरी विकास मंत्रालय ने राज्यों को शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार के लिए 662.53 अरब रुपये देने का वादा किया था. 1. इसके लिए स्थानीय निकायों के सामने अर्बन रिन्युअल यानी शहर के पुराने इलाकों के विकास (सड़कों को चौड़ा करने सहित), कंजेशन यानी भीड़-भाड़ कम करने के लिए शहर के नॉन-कॉन्फॉर्मिंग यानी अंदरूनी इलाकों से औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियों को कॉन्फॉर्मिंग यानी बाहरी इलाकों में शिफ्ट करना, पुरानी पाइपों की जगह नए और अधिक क्षमता के पाइप लगाने, सीवरेज और ड्रेनेज रिन्युअल, 2. पानी की सप्लाई और सैनिटेशन, 3. सीवरेज और सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट, 4. ड्रेन और स्ट्रॉर्म वॉटर ड्रेन (जल निकासी) में सुधार, 5. रोड, हाइवे, एक्सप्रेस वे, मास रैपिड ट्रांसपोर्ट सर्विसेज और मेट्रो प्रोजेक्ट की मदद से यातायात सुविधाओं में सुधार, 6. पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप आधार पर तय पार्किंग स्पेस, 7. हेरिटेज क्षेत्रों का विकास, 8. मिट्टी के कटाव को रोकना और उसे पहले जैसा बनाए रखना, भू-स्खलन को रोकना, 9. जलाशयों के संरक्षण जैसी शर्तें तय की गई थीं. मार्च 2012 में JNNURM का जब सात साल का पहला फेज ख़त्म हुआ, तब तक इसके लिए 71 योग्य शहरों में सिर्फ 20 प्रतिशत प्रोजेक्ट्स ही पूरे हुए थे. इस फेज के आखिर में योजना आयोग के एक सदस्य की अध्यक्षता में बनी उच्चस्तरीय समिति ने JNNURM की असफलता के लिए दशकों पुरानी कमजोरियों का जिक्र किया था. समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि शहर के स्तर पर लंबी अवधि की योजना नहीं बनाई गई, निकायों के पास ऐसे काम करने की क्षमता का अभाव है, योजनाओं पर बेतरतीब ढंग से काम हुआ और स्थानीय निकाय जरूरी रिफ़ॉर्म को लागू नहीं कर सके और इन्हीं वजहों से यूपीए सरकार की फ्लैगशिप योजना नाकाम हो गई. रिपोर्ट में खराब प्लानिंग प्रोसेस के अभाव को JNNURM के पहले फेज के नाकाम होने की सबसे बड़ी वजह माना गया था. इसमें लिखा था कि इस कारण से किसी भी शहर का संपूर्ण विकास नहीं किया जा सका. इसमें यह भी कहा गया था कि इन योजनाओं का लोगों से जुड़ाव नहीं हुआ. रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि शहरी विकास के लिए पूरे देश पर एक फ़ॉर्मूला थोपना ठीक नहीं है और इससे परियोजनाओं को पूरा करने और उनसे जुड़े रिफ़ॉर्म में दिक्कत हुई. JNNURM फेज 1 इतनी तल्ख आलोचना के बावजूद समिति ने इसके दूसरे फेज के लिए 10 साल की अवधि तय करने का सुझाव दिया. 2012 में कंप्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल (कैग) ने भी JNNURM के पहले फेज की नाकामी पर मुहर लगाई थी. उसने इसके तहत दिए गए फंड का पूरा इस्तेमाल न करने, 1.15 अरब रुपये का अयोग्य लाभार्थियों के लिए इस्तेमाल (इनमें नगर निगम के कर्मचारियों को दी जाने वाली पगार भी शामिल थी), रिफ़ॉर्म नहीं करने और प्रोजेक्ट्स पर सिर्फ 8.9 प्रतिशत काम होने का जिक्र किया था. JNNURM के तहत रिफ़ॉर्म एजेंडा को कमजोर किए जाने से उस ब्यूरोक्रेटिक माइंडसेट को मज़बूती मिली, जो यथास्थिति से खुश थी. साथ ही, JNNURM के तहत मिले फंड का चुनावी, राजनीतिक और अन्य निहित स्वार्थों के लिए भी इस्तेमाल हुआ.

जब तक देश शहरी विकास को उस गंभीरता से नहीं लेता, जिसकी जरूरत है, तब तक मौजूदा सरकार की स्मार्ट सिटीज मिशन, स्वच्छ भारत मिशन, हेरिटेज सिटी के लिए हृदय, 2022 तक हाउसिंग फॉर ऑल और अमृत योजनाओं का हश्र भी JNNURM जैसा हो सकता है. यूपीए सरकार की योजना को पीछे छोड़ने की नीयत से बनाई गई इन योजनाओं का स्केल बड़ा और लक्ष्य ऊंचे रखे गए हैं, लेकिन ये असल में नई बोतल में पुरानी शराब जैसा मामला है. सरकार के फरवरी 2018 तक के आंकड़े के अनुसार, शहरी विकास मंत्रालय स्मार्ट सिटीज मिशन के तहत पहले ही 99.4 अरब रुपये जारी कर चुका है. 31 मार्च 2020 तक के पांच साल के लिए अमृत की ख़ातिर 500 अरब का फंड दिया जाना है. हृदय के लिए 5 अरब रुपये रखे गए हैं और स्वच्छ भारत मिशन के लिए तो सिर्फ वित्त वर्ष 2019-20 में ही 27.5 अरब रुपये खर्च किए जाने हैं. हालांकि, शहरी गवर्नेंस और प्लानिंग अभी भी पुराने मर्ज से घिरे हुए हैं. स्थानीय निकायों के पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं हैं. उनके पास बड़े प्रोजेक्ट्स पर काम करने की क्षमता नहीं है. उनका सशक्तिकरण नहीं किया गया है और न ही उन्हें जवाबदेह बनाया जा रहा है. अगर युद्धस्तर पर व्यापक रिफ़ॉर्म नहीं किए गए तो इन योजनाओं का भी फेल होना तय है. अगर शहरी जीवन से जुड़े सभी पहलुओं में व्यापक बदलाव की पहल नहीं हुई तो EIU में दिल्ली और मुंबई की रैंकिंग के और गिरने से हैरानी नहीं होनी चाहिए. दूसरी तरफ, किसी भी शहर में ईज ऑफ लिविंग में सुधार करने के बजाय शहरी विकास मंत्रालय की रैंकिंग का कोई मतलब नहीं होगा.

यूपीए सरकार की योजना को पीछे छोड़ने की नीयत से बनाई गई इन योजनाओं का स्केल बड़ा और लक्ष्य ऊंचे रखे गए हैं, लेकिन ये असल में नई बोतल में पुरानी शराब जैसा मामला है.

ग्लोबल लिवेबिलिटी इंडेक्स में दिल्ली और मुंबई की खराब रैंकिंग को देखते हुए ईज ऑफ लिविंग इंडेक्स तैयार करने के लिए शहरी विकास मंत्रालय ने जो तरीका अपनाया है, उसकी पड़ताल जरूरी हो जाती है. अगर ऐसा नहीं किया गया तो टिकाऊ और समान शहरी विकास की तरफ सरकारी पहल को केंद्रित करने के बजाय ऐसी रैंकिंग से देश के शहरों में रहने वालों के लिए मुश्किलें और बढ़ेंगी और ईज ऑफ लिविंग उनके लिए सपना ही रह जाएगा. ऐसे सूचकांकों को तैयार करने के लिए अपनाए गए तरीके की बात रहने भी दें तो यह भी सच है कि देश में शहरों के गवर्नेंस में कई बुनियादी गड़बड़ियां हैं. हालात इतने बुरे हैं कि ऊपर जिन मानकों का जिक्र किया गया है, उसमें देश का कोई भी शहर ग्लोबल बेंचमार्क के करीब नहीं पहुंच सकता. पिछली सरकारों ने इसमें सुधार की जो नाकाम कोशिश की, उनसे भी यह बात साफ हो जाती है कि भारत ने इस मामले में किस तरह से अपने ही लिए दलदल तैयार की है. इस मामले में जवाहर लाल नेहरू नेशनल अर्बन रिन्युअल मिशन (JNNURM) का जिक्र किया जा सकता है, जिसे यूपीए 1 सरकार ने 2005 में पूरे देश में लागू किया था. इंफ्रास्ट्रक्चर और नागरिक सेवाओं में स्थानीय निकायों के सुधार के आधार पर शहरी विकास मंत्रालय ने राज्यों को शहरी इंफ्रास्ट्रक्चर में सुधार के लिए 662.53 अरब रुपये देने का वादा किया था. 1. इसके लिए स्थानीय निकायों के सामने अर्बन रिन्युअल यानी शहर के पुराने इलाकों के विकास (सड़कों को चौड़ा करने सहित), कंजेशन यानी भीड़-भाड़ कम करने के लिए शहर के नॉन-कॉन्फॉर्मिंग यानी अंदरूनी इलाकों से औद्योगिक और व्यावसायिक गतिविधियों को कॉन्फॉर्मिंग यानी बाहरी इलाकों में शिफ्ट करना, पुरानी पाइपों की जगह नए और अधिक क्षमता के पाइप लगाने, सीवरेज और ड्रेनेज रिन्युअल, 2. पानी की सप्लाई और सैनिटेशन, 3. सीवरेज और सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट, 4. ड्रेन और स्ट्रॉर्म वॉटर ड्रेन (जल निकासी) में सुधार, 5. रोड, हाइवे, एक्सप्रेस वे, मास रैपिड ट्रांसपोर्ट सर्विसेज और मेट्रो प्रोजेक्ट की मदद से यातायात सुविधाओं में सुधार, 6. पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप आधार पर तय पार्किंग स्पेस, 7. हेरिटेज क्षेत्रों का विकास, 8. मिट्टी के कटाव को रोकना और उसे पहले जैसा बनाए रखना, भू-स्खलन को रोकना, 9. जलाशयों के संरक्षण जैसी शर्तें तय की गई थीं. मार्च 2012 में JNNURM का जब सात साल का पहला फेज ख़त्म हुआ, तब तक इसके लिए 71 योग्य शहरों में सिर्फ 20 प्रतिशत प्रोजेक्ट्स ही पूरे हुए थे. इस फेज के आखिर में योजना आयोग के एक सदस्य की अध्यक्षता में बनी उच्चस्तरीय समिति ने JNNURM की असफलता के लिए दशकों पुरानी कमजोरियों का जिक्र किया था. समिति ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि शहर के स्तर पर लंबी अवधि की योजना नहीं बनाई गई, निकायों के पास ऐसे काम करने की क्षमता का अभाव है, योजनाओं पर बेतरतीब ढंग से काम हुआ और स्थानीय निकाय जरूरी रिफ़ॉर्म को लागू नहीं कर सके और इन्हीं वजहों से यूपीए सरकार की फ्लैगशिप योजना नाकाम हो गई. रिपोर्ट में खराब प्लानिंग प्रोसेस के अभाव को JNNURM के पहले फेज के नाकाम होने की सबसे बड़ी वजह माना गया था. इसमें लिखा था कि इस कारण से किसी भी शहर का संपूर्ण विकास नहीं किया जा सका. इसमें यह भी कहा गया था कि इन योजनाओं का लोगों से जुड़ाव नहीं हुआ. रिपोर्ट में यह भी बताया गया था कि शहरी विकास के लिए पूरे देश पर एक फ़ॉर्मूला थोपना ठीक नहीं है और इससे परियोजनाओं को पूरा करने और उनसे जुड़े रिफ़ॉर्म में दिक्कत हुई. JNNURM फेज 1 इतनी तल्ख आलोचना के बावजूद समिति ने इसके दूसरे फेज के लिए 10 साल की अवधि तय करने का सुझाव दिया. 2012 में कंप्ट्रोलर एंड ऑडिटर जनरल (कैग) ने भी JNNURM के पहले फेज की नाकामी पर मुहर लगाई थी. उसने इसके तहत दिए गए फंड का पूरा इस्तेमाल न करने, 1.15 अरब रुपये का अयोग्य लाभार्थियों के लिए इस्तेमाल (इनमें नगर निगम के कर्मचारियों को दी जाने वाली पगार भी शामिल थी), रिफ़ॉर्म नहीं करने और प्रोजेक्ट्स पर सिर्फ 8.9 प्रतिशत काम होने का जिक्र किया था. JNNURM के तहत रिफ़ॉर्म एजेंडा को कमजोर किए जाने से उस ब्यूरोक्रेटिक माइंडसेट को मज़बूती मिली, जो यथास्थिति से खुश थी. साथ ही, JNNURM के तहत मिले फंड का चुनावी, राजनीतिक और अन्य निहित स्वार्थों के लिए भी इस्तेमाल हुआ.

जब तक देश शहरी विकास को उस गंभीरता से नहीं लेता, जिसकी जरूरत है, तब तक मौजूदा सरकार की स्मार्ट सिटीज मिशन, स्वच्छ भारत मिशन, हेरिटेज सिटी के लिए हृदय, 2022 तक हाउसिंग फॉर ऑल और अमृत योजनाओं का हश्र भी JNNURM जैसा हो सकता है. यूपीए सरकार की योजना को पीछे छोड़ने की नीयत से बनाई गई इन योजनाओं का स्केल बड़ा और लक्ष्य ऊंचे रखे गए हैं, लेकिन ये असल में नई बोतल में पुरानी शराब जैसा मामला है. सरकार के फरवरी 2018 तक के आंकड़े के अनुसार, शहरी विकास मंत्रालय स्मार्ट सिटीज मिशन के तहत पहले ही 99.4 अरब रुपये जारी कर चुका है. 31 मार्च 2020 तक के पांच साल के लिए अमृत की ख़ातिर 500 अरब का फंड दिया जाना है. हृदय के लिए 5 अरब रुपये रखे गए हैं और स्वच्छ भारत मिशन के लिए तो सिर्फ वित्त वर्ष 2019-20 में ही 27.5 अरब रुपये खर्च किए जाने हैं. हालांकि, शहरी गवर्नेंस और प्लानिंग अभी भी पुराने मर्ज से घिरे हुए हैं. स्थानीय निकायों के पास पर्याप्त वित्तीय संसाधन नहीं हैं. उनके पास बड़े प्रोजेक्ट्स पर काम करने की क्षमता नहीं है. उनका सशक्तिकरण नहीं किया गया है और न ही उन्हें जवाबदेह बनाया जा रहा है. अगर युद्धस्तर पर व्यापक रिफ़ॉर्म नहीं किए गए तो इन योजनाओं का भी फेल होना तय है. अगर शहरी जीवन से जुड़े सभी पहलुओं में व्यापक बदलाव की पहल नहीं हुई तो EIU में दिल्ली और मुंबई की रैंकिंग के और गिरने से हैरानी नहीं होनी चाहिए. दूसरी तरफ, किसी भी शहर में ईज ऑफ लिविंग में सुधार करने के बजाय शहरी विकास मंत्रालय की रैंकिंग का कोई मतलब नहीं होगा.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.