इस समय पूरी दुनिया एक अभूतपूर्व संकट से जूझ रही है. और ऐसे समय में आपसी सहयोग बढ़ाने और संकट में फंसी दुनिया को नेतृत्व देने के बजाय, दुनिया के दो शक्तिशाली देश, अमेरिका और चीन आपसी संघर्ष में उलझे हुए हैं. दोनों देशों के बीच कड़वाहट इस क़दर बढ़ गई है कि ये द्विपक्षीय संबंधों को पटरी से भी उतार सकती है. जैसे कि किसी मामूली बात पर लोगों के बीच गोलियां चलने लगती हैं. उसी तरह, अमेरिका और चीन के बीच संघर्ष का मौजूदा दौर भी मामूली विवादों से शुरू हुआ है. जैसे कि, पत्रकारों का निष्कासन और कोरोना वायरस की उत्पत्ति के लिए एक दूसरे को ज़िम्मेदार ठहराना. 18 मार्च को चीन ने अपने यहां काम कर रहे एक दर्जन से अधिक अमेरिकी पत्रकारों को निष्कासित कर दिया. ये पत्रकार, द न्यूयॉर्क टाइम्स, द वॉल स्ट्रीट जर्नल और द वॉशिंगटन पोस्ट जैसे बड़े अमरीकी मीडिया संस्थानों के लिए काम कर रहे थे. ये उस प्रक्रिया के समापन जैसा था, जिसकी शुरुआत फरवरी महीने के मध्य में हुई थी. जब अमेरिका ने चीन के पांच मीडिया संस्थानों, जैसे कि शिन्हुआ, और सीजीटीएन टीवी (CGTN TV) को, ‘विदेशी अभियान’ घोषित कर दिया था.
अमेरिका ने कम्युनिस्ट शासन वाले चीन से दोस्ती गांठ ली. इसके बाद दोनों देश, सोवियत संघ के ख़िलाफ़ एक अर्ध गठबंधन के तौर पर काम करते रहे. इस दौरान, अमेरिका लगातार चीन को अपनी सैन्य क्षमताएं विकसित करने में सहयोग देता रहा. ताकि सोवियत संघ के ख़िलाफ़ एक ताक़तवर कम्युनिस्ट राष्ट्र को खड़ा किया जा सके
अमेरिका के राष्ट्रपति कोरोना वायरस को ‘चाइना वायरस’ कहते हैं. ये बड़ा पेचीदा मसला है. इसकी शुरुआत शायद उस वक़्त से हुई थी, जब चीन, अमेरिका के विदेश मंत्री माइकल पॉम्पियो द्वारा बार-बार और जान बूझकर कोरोना वायरस को ‘वुहान वायरस’ कहा जाने लगा. इससे पहले चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियान ने अमेरिका पर बेहद गंभीर आरोप लगाया था. चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने दावा किया था कि, कोरोना वायरस को असल में अमेरिकी सैनिक, चीन लेकर आए थे. जो अक्टूबर 2019 के अंत में वुहान में हुए विश्व सैन्य खेलों में शामिल हुए थे. तो, शायद चीन के इस आरोप की प्रतिक्रिया स्वरूप डोनाल्ड ट्रंप ने 17 मार्च को जान-बूझ कर ट्वीट किया कि उनकी सरकार ‘चीनी वायरस’ के प्रकोप से प्रभावित उद्योगों की मदद करेगी. और बाद में ट्रंप अक्सर अपने बयानों और ट्वीट में कोरोना वायरस को चाइनीज़ वायरस कहने लगे थे. 17 मार्च को ही एक प्रेस कांफ्रेंस में अमेरिका के विदेश मंत्री माइकल पॉम्पियो ने सीधे तौर पर चीन पर आरोप लगाया कि वो कोरोना वायरस के प्रकोप की ज़िम्मेदारी से बचने के लिए, ‘ग़लत और भ्रामक ख़बरें फैलाने का अभियान’ चला रहा है. पॉम्पियो ने आगे कहा कि दुनिया की जो पहली सरकार, ‘वुहान वायरस’ के प्रकोप से परिचित हुई थी, वो चीन की ही थी. पॉम्पियो ने कहा कि चीन को चाहिए था कि वो दुनिया को इस वायरस के प्रकोप के ख़तरे से सावधान करता. अमेरिकी विदेश मंत्री ने कहा कि,
‘चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की ये ज़िम्मेदारी थी कि वो इस बात की जानकारी अमेरिकी, इटैलियन, ईरानी और दक्षिणी कोरियाई नागरिकों को देती, क्योंकि आज वो इस प्रकोप से पीड़ित हैं. बल्कि, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की जवाबदेही अपनी जनता के प्रति भी थी.’
चीन–अमेरिका संबंधों का इतिहास
चीन और अमेरिका के संबंध अक्सर भारी उठा-पटक से गुज़रते आए हैं. 1950 में कोरिया में युद्ध के बाद, अमेरिका और चीन लंबे समय तक शीत युद्ध लड़ते रहे थे. इसके बाद 1970 के दशक में राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन के समय में उनके विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर ने चीन की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाया. अमेरिका ने कम्युनिस्ट शासन वाले चीन से दोस्ती गांठ ली. इसके बाद दोनों देश, सोवियत संघ के ख़िलाफ़ एक अर्ध गठबंधन के तौर पर काम करते रहे. इस दौरान, अमेरिका लगातार चीन को अपनी सैन्य क्षमताएं विकसित करने में सहयोग देता रहा. ताकि सोवियत संघ के ख़िलाफ़ एक ताक़तवर कम्युनिस्ट राष्ट्र को खड़ा किया जा सके. ख़ुफ़िया जानकारी के सहयोग के अलाव अमेरिका ने चीन की सेना को उच्च तकनीक से लैस कई हथियार बनाने में भी मदद की. 1980 के दशक के आख़िर में चीन को अमेरिका से कंप्यूटर, उच्च तकनीक वाली मशीनें वग़ैरह मिलीं. इसके अलावा चीन के वैज्ञानिकों व छात्रों को अमेरिका ने ट्रेनिंग भी दी. साथ ही साथ चीन को अपने अंतरिक्ष कार्यक्रम में भी अमेरिकी तकनीकी विशेषज्ञों और इंजीनियरों से बहुमूल्य सहयोग प्राप्त हुआ.
लेकिन, 1989 में चीन की राजधानी बीजिंग के तियाननमेन में सरकार विरोधी प्रदर्शनों को हिंसक तरीक़े से कुचलने के हत्याकांड के बाद, चीन और अमेरिका में सैन्य सहयोग बेहद सीमित हो गया. हालांकि, इसके बाद दोनों देशों के व्यापारिक संबंधों में ज़बरदस्त उछाल आया. दोनों देशों के बीच सूचना और तकनीक के संबंध अर्श तक पहुंच गए. अमेरिका ने चीन को विश्व व्यापार संगठन में प्रवेश करने में मदद की. इसके साथ ही साथ अमेरिका ने चीन को दुनिया का सबसे बड़ा निर्यातक बनने में भी मूल्यवान योगदान दिया. और चीन का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार बन गया. इसके अलावा अमेरिका को ये लगा कि चीन, व्यापार से आगे भी उसके लिए काफ़ी काम आ सकता है और विश्व व्यवस्था को सुचारु रूप से चलाने में सहयोगी साबित हो सकता है. चीन, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य है. जो परमाणु अप्रसार, शांति स्थापना, मानवीय मदद और इस्लामिक कट्टरपंथ से लड़ने में अमेरिका का मददगार हो सकता है.
अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा की रणनीति
2015 में जब राष्ट्रपति बराक ओबामा की सरकार ने अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति की घोषणा की, तो उसमें कहा कि, ‘चीन के साथ हमारे सहयोग की संभावनाएं अपार हैं.’ ये दावा करते हुए अमेरिका को ये एहसास था कि चीन अक्सर, ज़मीनी विवाद का समाधान करने के लिए डराने धमकाने की नीति पर चलता है. हालांकि चीन की सेना के व्यापक आधुनिकीकरण को ध्यान में रखते हुए, ओबामा प्रशासन की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि अमेरिका के लिए, ‘एशिया के संतुलन’ को फिर से स्थापित करने की आवश्यकता है. ये अमेरिका और चीन के बीच ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (TPP) पर आधारित थी. लेकिन, उस समय चीन और अमेरिका के संबंध का मूलभूत तत्व ये लाइन थी, ‘एक शांतिप्रिय स्थिर और समृद्ध चीन के उदय का अमेरिका स्वागत करता है.’ और इसके साथ एक सकारात्मक संबंध स्थापित करने का इच्छुक है. जिससे दोनों देशों का भी भला होगा और बाक़ी दुनिया का भी फ़ायदा होगा. चीन की बढ़ती ताक़त का सामना करने की ओबामा की नीति ज़्यादा महीन और आलस्य से भरपूर थी. इसके अंतर्गत, अमेरिका का इरादा था कि वो ट्रांस पैसिफ़िक पार्टनरशिप के माध्यम से चीन के साथ कारोबार को अपने पक्ष में झुका ले. क्योंकि सैन्य दृष्टि से देखें, तो अमेरिका अधिक बड़ी महाशक्ति है.
लेकिन, ओबामा के बाद राष्ट्रपति बने डोनाल्ड ट्रंप ने इन समीकरणों को उलट-पुलट दिया. सबसे पहले तो ट्रंप, चीन के साथ ट्रांस पैसिफिक पार्टनरशिप (TPP) से अलग हो गए. और इसके बाद उन्होंने चीन के साथ लंबे व्यापार युद्ध की शुरुआत कर दी. ये बात जल्द ही स्पष्ट हो गई कि अमेरिका और चीन का संघर्ष केवल व्यापार को लेकर नहीं था. 2017 में आई अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा नीति में चीन और रूस पर सीधे तौर पर आरोप लगाया गया कि, ‘दोनों देश अमेरिका की सुरक्षा और समृद्धि को चोट पहुंचा रहे हैं.’ और चीन व रूस मिल कर, ‘एक ऐसी विश्व व्यवस्था की संरचना करना चाह रहे हैं जो अमेरिकी मूल्यों और इसके हितों के विपरीत हो.’ इस अमेरिकी दस्तावेज़ में बार-बार इस बात का हवाला दिया गया था कि किस तरह कूटनीति से लेकर विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में अमेरिकी हितों को बढ़ावा देने की आवश्यकता है.
व्यापार एवं तकनीक का संघर्ष
जनवरी और मार्च 2018 में अमेरिका ने चीन पर शुरुआती व्यापारिक कर लगाए. जो वॉशिंग मशीनों, सोलर पैनल, और इसके बाद स्टील और एल्यूमिनियम के आयात पर थे, जो अन्य देशों पर भी लागू होते थे. लेकिन, चूंकि ट्रंप के इस कारोबारी दांव का सीधा निशाना चीन ही था, तो उसने भी पलटवार करते हुए अमेरिका से होने वाले आयातों पर टैक्स बढ़ा दिया. जिसके बाद दोनों देशों में ‘व्यापार युद्ध’ छिड़ गया.
2019 के अंत तक दोनों ही देशों ने एक दूसरे के ऊपर 420 अरब डॉलर के आयात-निर्यात पर टैरिफ़ बढ़ा दिया था. इसका अधिक नुक़सान चीन को ही हो रहा था. क्योंकि, अमेरिका को उसके निर्यात की मात्रा अधिक है. लेकिन, इस बार अमेरिका और चीन के बीच संघर्ष केवल सामान पर कर तक ही सीमित नहीं था. ये बात तब और स्पष्ट हो गई, जब अमेरिका ने चीन की तकनीकी कंपनियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करनी शुरू कर दी. 2018 में चीन की तकनीकी कंपनी ZTE को उम्मीद के ख़िलाफ़ जाकर राहत देने के बाद अमेरिका ने अपनी कंपनियों के चीन की इंटीग्रेटेड सर्किट बनाने वाली कंपनी फुजिया जिनहुआ को कोई भी निर्यात करने पर रोक लगा दी. फुजियान जिनहुआ, मेमोरी चिप बनाने वाली चीन की प्रमुख कंपनी थी. अमेरिकी प्रतिबंधों के चलते ये कंपनी बर्बाद हो गई. 2019 के लिए अमेरिका के डिफेंस ऑदराइज़ेशन एक्ट (NDAA) के अंतर्गत, अमेरिकी संस्थाओं के चीन की तकनीकी कंपनियों जैसे हुवावे और ZTE वग़ैरह से उपकरण ख़रीदने पर पाबंदी लगा दी गई. इस क़ानून के अंतर्गत बुनियादी तकनीक से जुड़े निर्यात अमेरिका से चीन को करने पर ये कहते हुए और पाबंदियां लगा दी गईं कि इनसे अमेरिका की राष्ट्रीय सुरक्षा को ख़तरा है. अमेरिका के इन क़दमों के निशाने पर चीन की प्रमुख संचार कंपनी हुवावे थी, जो 5G तकनीक के मामले में दुनिया भर में सबसे अग्रणी कंपनी मानी जाती है. अमेरिकी सरकार दुनिया भर में अपने सहयोगी देशों की सरकारों को इस बात के लिए राज़ी करने में जुटी है कि वो हुवावे की 5G तकनीक का इस्तेमाल न करें.
चीन अपने सामान के कुल निर्यात का 19 प्रतिशत अकेले अमेरिका को ही करता है. इसका प्रभाव केवल चीन की कंपनियों पर ही नहीं पड़ेगा. चीन की कंपनियां तो अपने निर्यात के लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहेंगी ही. लेकिन, इसका दुष्प्रभाव अमेरिका को भी झेलना पड़ेगा
इन सबके बावजूद, चीन और अमेरिका, व्यापारिक समझौते के पहले चरण के लिए सहमति बनाने में सफल रहे. जिसके अंतर्गत चीन, 2017 के कारोबारी स्तर के अतिरिक्त भी, अमेरिका से 200 अरब डॉलर के सामान का और आयात करेगा. इसके अलावा दोनों देश मिल कर ऐसे क़दम उठाएंगे, ताकि पश्चिमी देशों की कंपनियों के बौद्धिक संपदा के अधिकारों का संरक्षण हो सके. इसके एवज में अमेरिका, चीन पर लगाए अपने व्यापार कर को घटा कर आधा करेगा.
कोरोना वायरस की चुनौती
अमेरिका और चीन के बीच बनी ये अस्थायी सहमति भी अब कोरोना वायरस के संकट के कारण समाप्त हो गई है. इस कारण से चीन की अर्थव्यवस्था को हुई क्षति और अमेरिकी अर्थव्यवस्था के मंदी के भंवर में फंसने की आशंका से चीन की अर्थव्यवस्था के दोबारा पटरी पर लौटने की संभावनाएं कमज़ोर हुई हैं. क्योंकि, चीन अपने सामान के कुल निर्यात का 19 प्रतिशत अकेले अमेरिका को ही करता है. इसका प्रभाव केवल चीन की कंपनियों पर ही नहीं पड़ेगा. चीन की कंपनियां तो अपने निर्यात के लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहेंगी ही. लेकिन, इसका दुष्प्रभाव अमेरिका को भी झेलना पड़ेगा. क्योंकि, उसके पास चीन को निर्यात करने के लिए पर्याप्त सामान ही नहीं होगा. दोनों देशों के बीच बढ़ती कड़वाहट इस स्थिति को और बिगाड़ सकती है. चीन और अमेरिका दोनों ही, कोरोना वायरस की उत्पत्ति को लेकर एक दूसरे पर गंभीर आरोप लगा रहे हैं.
दिलचस्प बात ये है कि चीन और अमेरिका की प्रतिद्वंदिता का एक और मोर्चा खुल गया है. और वो ये है कि दोनों ही देश कोरोना वायरस की वैक्सीन को पहले बनाने की होड़ में जुट गए हैं. अमेरिका के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ हेल्थ ने कोविड-19 की वैक्सीन के पहले चरण के 6 क्लिनिकल ट्रायल 16 मार्च को शुरू कर दिए. इस वैक्सीन को mRNA-1273 नाम दिया गया है. इसे बायोटेक कंपनी मॉडर्ना और अमेरीक सरकार के नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ एलर्जी ऐंड इन्फ़ेक्शस डिज़ीज़ेज (NIAID) ने मिल कर विकसित किया है. अगले ही दिन अमेरिका के रक्षा मंत्री मार्क एस्पर ने एलान किया कि अमेरिकी सेना भी कोरोना वायरस की वैक्सीन विकिसत करने की दिशा में काम कर रही थी. इस घोषणा से पहले मार्क एस्पर आर्मी मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ़ इन्फ़ेक्शसन डिज़ीज़ेज के दौरे पर गए थे. एक और अमेरिकी सैन्य संस्थान वाल्टर रीड आर्मी इंस्टीट्यूट ऑफ़ रिसर्च ने भी कोरोना वायरस की वैक्सीन पर काम शुरू कर दिया है.
इसी दौरान चीन की सेना के एकेडमी ऑफ़ मिलिट्री मेडिकल साइंसेज (AMMS) को भी कोरोना वायरस की वैक्सीन विकिसत करने की रेस में शामिल होने का आदेश दिया गया है. मशहूर वायरस विशेषज्ञ, मेजर जनरल चेन वेई, कैनसिनो बायोलॉजिक्स कंपनी के साथ मिलकर ये वैक्सीन बनाने में जुटी टीम की अगुवाई करेंगे. हां, अन्य देशों में भी वैज्ञानिकों की कई टीमें कोरोना वायरस का टीका विकसित करने में जुटी हैं. लेकिन, जैसा की साउथ चाइना मॉर्निंग पोस्ट की रिपोर्ट में एक विशेषज्ञ के हवाले से कहा गया है, ‘अगर ये वैक्सीन अमेरिका पहले बना लेता है तो चीन के नेतृत्व को ये लगेगा कि उनकी इज़्ज़त चली गई है.’
चीन और अमेरिका के बीच आरोप प्रत्यारोप का ये सिलसिला केवल कूटनीतिक बढ़त हासिल करने की होड़ नहीं है. ये असल में लापरवाही के गंभीर आरोपों से पीछा छुड़ाने का भी प्रयास है. चीन को ये ज़िम्मेदारी लेनी ही होगी कि उसकी लापरवाही के कारण ही ये वायरस पूरी दुनिया में फैल गया. क्योंकि, चीन की सरकार ने समय पर दुनिया को आगाह नहीं किया और इस नए वायरस के संक्रमण को पूरी दुनिया से लगभग दो महीने तक छुपाए रखा.
और अब ऐसा लगता है कि ट्रंप की सरकार ने अमेरिका के साथ भी ऐसा ही किया है. अमेरिका की ख़ुफ़िया एजेंसियों ने जनवरी से ही इस वायरस के गंभीर ख़तरे को लेकर गोपनीय चेतावनी जारी की थी. जबकि ट्रंप प्रशासन, मार्च के मध्य तक इस ख़तरे को छोटा-मोटा कहकर ख़ारिज करता रहा.
स्वास्थ्य की सिल्क रोड
इस बीच, चीन ने वायरस से बुरी तरह प्रभावित यूरोपीय देशों को मदद की कोशिशें बढ़ा दी हैं. इसके माध्यम से चीन का प्रयास है कि वो ख़ुद को एक ‘उत्तरदायी’ राष्ट्र के रूप में स्थापित कर सके. दूसरी बात ये है कि इस कोशिश के माध्यम से वो अमेरिका के उस अभियान का सामना करना चाहता है, जिसके तहत अमेरिका, कोरोना वायरस के इस वैश्विक स्वास्थ्य और आर्थिक संकट के लिए चीन को ज़िम्मेदार ठहरा रहा है. तीसरी बात ये है कि यूरोपीय देशों को मदद पहुंचा कर चीन ये संकेत भी देना चाहता है कि कोरोना वायरस के संकट से इसकी अर्थव्यवस्था को चोट ज़रूर पहुंची है, मगर ये अब भी बहुत मज़बूत है. और वापसी की राह पर है. और इसके ज़रिए चीन अगर कोरोना वायरस से प्रभावित देशों की आर्थिक मदद में प्रमुख नहीं तो कम से कम सकारात्मक भूमिका निभाने की स्थिति में है, ताकि इन देशों की अर्थव्यवस्था को दोबारा पटरी पर लाया जा सके. यहां ये बात याद रखने लायक़ है कि चीन के महत्वाकांक्षी बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव का मुख्य लक्ष्य यूरोप ही है.
ऐसे समय में जब अमेरिका लड़खड़ाता दिख रहा है. तब चीन बड़ी तेज़ी से ख़ुद को इस महामारी से निपटने में मदद करने वाले वैश्विक नेतृत्व वाली स्थिति में पहुंचाने में जुटा हुआ है
हाल ही में कर्ट कैम्पबेल और रुश दोषी ने पत्रिका ‘फॉरेन अफेयर्स’ में लिखा था कि ‘ऐसे समय में जब अमेरिका लड़खड़ाता दिख रहा है. तब चीन बड़ी तेज़ी से ख़ुद को इस महामारी से निपटने में मदद करने वाले वैश्विक नेतृत्व वाली स्थिति में पहुंचाने में जुटा हुआ है.’ इस वायरस के प्रकोप के नियंत्रण से बाहर चले जाने के लिए ज़िम्मेदार होने के बावजूद चीन की गतिविधियां और अमेरिका का ढुलमुल रवैया, विश्व राजनीति में अमेरिका के प्रभुत्व में बुनियादी बदलाव लाने वाला है. साथ ही साथ इस संकट से इक्कीसवीं सदी में ये संघर्ष और तेज़ होने वाला है कि विश्व का नेतृत्व कौन करेगा.
अब जो भी मामला हो, इस बात में कोई शक नहीं है कि आज अमेरिका और चीन के बीच राजनीतिक और तकनीकी अलगाव करीब करीब तय है. दोनों के सार्वजनिक संबंधों में आई कड़वाहट पूरी तरह से स्पष्ट हो चुकी है. तकनीक के क्षेत्र की बात करें, तो आईसीटी के माध्यम से चीन और अमेरिका के बीच बढ़ती दूरी 2018-19 में अमेरिकी नीति का प्रमुख अंग बन चुकी है. इसमें अब हम फार्मास्यूटिकल और मेडिकल उपकरणों को भी जोड़ सकते हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि अब कई और अन्य क्षेत्र सामने आएंगे, जिन में अब अमेरिका, चीन पर विश्वास नहीं कर सकता है. अमेरिका और चीन के संबंध अगर पूरी तरह टूट नहीं, तो दरार के स्तर तक पहुंच चुके हैं.
ये दुनिया के लिए बुरी ख़बर है. अमेरिका और चीन के नज़दीकी संबंध एशिया में स्थिरता और उसके कारण समृद्धि का बहुत बड़ा कारण रहे हैं. और, इन दोनों देशों के अलग होने के एशिया पर नकारात्मक प्रभाव पड़ने भी तय हैं. ख़ासतौर से तब और जब दोनों के बीच लंबे समय से क़रीबी ताल्लुक़ रहे थे. और अब जब दोनों अलग हो रहे हैं, तो ये प्रक्रिया भी बहुत लंबी और उठा-पटक भरी होगी.
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