Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

इस साल का बजट महामारी से आर्थिक रिकवरी की पिछले साल की रणनीति का सुदृढ़ीकरण है, लेकिन इसे दीर्घकालिक आर्थिक वृद्धि के लिए बूस्टर डोज भी साबित होना है.

भविष्य का बजट: अल्पकालिक उपायों के बजाय दीर्घकालिक फ़ायदों पर केंद्रित है #Budget 2022-23
भविष्य का बजट: अल्पकालिक उपायों के बजाय दीर्घकालिक फ़ायदों पर केंद्रित है #Budget 2022-23

Budget 2022: ‘यह बजट किसे फ़ायदा पहुंचाता है’ – नेशनल टीवी पर यह सवाल एक एंकर ने किया, जिन्हें इस बात को लेकर निराशा थी कि राष्ट्रीय बजट घोषणाओं में ग़रीबों और मध्यम वर्ग के लिए कुछ भी अलग से नहीं है. उनके सवाल का छोटा सा जवाब है- भावी पीढ़ी को! इस साल के बजट का इकलौता फोकस देश में आर्थिक वृद्धि को गति देना है. यह भारत की वृद्धि की कहानी के सबसे चिंताजनक रुझान – पिछले 10 सालों से घटते निजी निवेश – को संबोधित करने की रणनीति अपनाता है. आसान शब्दों में कहें, तो इस साल का बजट महामारी से आर्थिक रिकवरी की पिछले साल की रणनीति का सुदृढ़ीकरण है, लेकिन इसे दीर्घकालिक आर्थिक वृद्धि के लिए बूस्टर डोज भी साबित होना है. मुख्य रणनीति है, परिसंपत्तियों और रोज़गार के सृजन पर ध्यान केंद्रित करते हुए सरकारी ख़र्च में ठीकठाक तेज़ी लाना.

अगले वित्त वर्ष के लिए बजट में पूंजीगत खर्च में वृद्धि पिछले साल के संशोधित अनुमान के मुकाबले 24.5 फ़ीसद ज़्यादा है. इसके लिए जो रास्ता चुना गया है, वह है प्रधानमंत्री-गतिशक्ति योजना.

सरकारी ख़र्च की दो मुख्य श्रेणियां हैं- राजस्व ख़र्च और पूंजीगत ख़र्च. राजस्व ख़र्च में सरकार के ऐसे सारे ख़र्च शामिल होते हैं जिनसे न तो कोई परिसंपत्ति सृजित होती है और न देनदारी में कोई कमी आती है. इनमें वेतन, ब्याज भुगतान, पेंशन, प्रशासनिक ख़र्च वग़ैरह शामिल हैं. यह जानना काफ़ी अहम है कि इनमें खाद्य सुरक्षा क़ानून, मनरेगा और कई डायरेक्ट कैश ट्रांसफर योजनाओं जैसी बड़ी कल्याणकारी योजनाएं भी शामिल हैं. विनाशकारी कोविड-19 महामारी के बाद, इनमें से कई योजनाएं भारत में मानवीय संकट और भूख से मौतों से बचाव में मददगार थीं. बीते दो साल के उलट, इस साल के बजट आवंटन में, इनमें से ज़्यादातर योजनाओं के लिए बहुत मामूली वृद्धि हुई है, जबकि सरकारी ख़र्च में बड़ी बढ़ोतरी का फोकस दूसरी श्रेणी के ख़र्च यानी पूंजीगत ख़र्च पर है. इसमें परिसंपत्ति सृजन शामिल है, जो उत्पादकता, रोज़गार के सृजन, और दीर्घकालिक वृद्धि को बढ़ाता है. अगले वित्त वर्ष के लिए बजट में पूंजीगत खर्च में वृद्धि पिछले साल के संशोधित अनुमान के मुकाबले 24.5 फ़ीसद ज़्यादा है. इसके लिए जो रास्ता चुना गया है, वह है प्रधानमंत्री-गतिशक्ति योजना. यह योजना पूरी अर्थव्यवस्था में बड़े बुनियादी ढांचे के विकास को तेज करने और सड़कों, रेलवे, जलमार्ग, हवाई मार्ग इत्यादि के ज़रिये कनेक्टिविटी को बेहतर करने के लिए है. इसे बाज़ार पर नज़र रखनेवालों और आर्थिक वृद्धि एवं विकास का अध्ययन करनेवाले अर्थशास्त्रियों की ओर से ज़बरदस्त समर्थन मिलने की उम्मीद है. विभिन्न विकासशील देशों से इस बात के अकाट्य सबूत हैं कि सड़कें ग़रीबी घटाती हैं.

पुराने दृष्टिकोण से हटते हुए, यह सरकार देश में सामाजिक सुरक्षा की अवधारणा को पुनर्परिभाषित और विस्तृत कर रही है. सामाजिक सुरक्षा के मौजूदा स्वरूप फ़ौरी राहत और कैश ट्रांसफर, खाद्यान्न व रोज़गार गारंटी जैसे अल्पकालिक दृष्टिकोण पर आधारित हैं, लेकिन इस साल का बजट सामाजिक सुरक्षा का विस्तार करते हुए उसमें सस्ते घर तथा नल-जल और स्वच्छता सुविधाओं तक पहुंच को शामिल करता है. इन योजनाओं को बजट में बड़े आवंटन से प्रोत्साहन दिया गया है. इसलिए सामाजिक सुरक्षा की दृष्टि से भी, परिसंपत्ति सृजन को काफ़ी बल मिला है.

उत्तर प्रदेश ने महामारी के बाद कमाई में 23 फ़ीसद की गिरावट देखी, जबकि संपूर्ण भारत के लिए यह 22 फ़ीसद ही रही. लेकिन इससे भी ज़्यादा ग़ौरतलब है, आंकड़े दिखाते हैं कि उत्तर प्रदेश के युवाओं की कमाई में आयी गिरावट देश में सबसे बड़ी गिरावटों में शामिल है.

आर्थिक वृद्धि के लिए दीर्घकालिक रणनीति

सरकार ने दीर्घकालिक आर्थिक वृद्धि के लिए रणनीति में अपना विश्वास जताया है, बदले में जिस चीज़ से समझौता किया गया है वह स्पष्ट रूप से तत्कालिक उपभोग और मांग को समर्थन के रूप में है. इसने कई समझ में आने लायक वजहों से लोगों को ख़फ़ा कर दिया है. महामारी ने पूरी आबादी की रोजी-रोटी और कमाई को गहरी चोट पहुंचायी है. इससे निपटने के लिए राजकोषीय समर्थन मूलत: आबादी के निचले 40 फ़ीसद हिस्से पर केंद्रित रहा है. हालांकि, हमारा विश्लेषण दिखाता है कि ग्रामीण भारत के निचले 80 फ़ीसद हिस्से के लिए उपभोग में अच्छी ख़ासी गिरावट आयी है. यह विश्लेषण ग्रामीण परिवारों (उपलब्ध आंकड़े पर आधारित) के लिए है, लेकिन आसानी से इसके ज़रिये शहरी परिवारों के लिए भी निष्कर्ष निकाला जा सकता है. क्योंकि, इन रिपोर्ट्स से सभी वाकिफ़ हैं कि पूरे भारत के शहरी इलाकों में महामारी की स्थिति ज्यादा बुरी थी. लिहाज़ा, मध्यम वर्ग ने उपभोग के स्तर में आबादी के 20 फ़ीसद सबसे ग़रीब हिस्से के समतुल्य गिरावट का सामना किया.

राजस्व ख़र्च से ज़्यादा पूंजीगत ख़र्च में विश्वास

राजस्व ख़र्च से ज़्यादा पूंजीगत ख़र्च में विश्वास रखने का आर्थिक तर्क मज़बूत है. वैश्विक और भारतीय आंकड़ों के प्रमाण यह दिखाते हैं कि राजस्व ख़र्च के आर्थिक गतिविधियों पर गुणक प्रभाव (multiplier effect) के मुक़ाबले पूंजीगत ख़र्च का आर्थिक गतिविधियों पर गुणक प्रभाव कहीं ज़्यादा बड़ा है. दरअसल, पूंजीगत ख़र्च और राजस्व ख़र्च के लिए प्राक्कलकों (इस्टीमेटर्स) की भारत के लिए सटीकता से गणना की गयी है, जो क्रमश: 2.45 और 0.99 हैं. लिहाज़ा आर्थिक समझदारी इसमें दिखती है कि अतिरिक्त (मार्जिनल) सरकारी ख़र्च को बुनियादी ढांचे और दीर्घकालिक परिसंपत्ति सृजन में लगाया जाए.

कुल मिलाकर, यह बजट बढ़िया है, भले ही स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा के लिए आवंटनों में कोई बड़ी वृद्धि नहीं है. वित्तपोषण बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन वह भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा की बड़ी समस्या का एक हिस्सा भर है.

हालांकि, तत्कालिक उपभोग को समर्थन बढ़ाने की जगह दीर्घकालिक बुनियादी ढांचा विकास और रोज़गार सृजन पर दांव लगाने का राजनीतिक तर्क उतना स्पष्ट नहीं है. दरअसल, बेरोज़गारी के आंकड़ों से परे, आवधिक श्रम बल सर्वेक्षण (पीएलएफएस) के डाटा से यह स्पष्ट है कि कमाई में बड़ी गिरावट आयी है. जो बात शायद और अधिक साफ़ है वह ये कि बाक़ी देश की तुलना में उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में कमाई में गिरावट काफ़ी ज्यादा गंभीर है. जैसा कि तालिका 1 दिखाती है, उत्तर प्रदेश ने महामारी के बाद कमाई में 23 फ़ीसद की गिरावट देखी, जबकि संपूर्ण भारत के लिए यह 22 फ़ीसद ही रही. लेकिन इससे भी ज़्यादा ग़ौरतलब है, आंकड़े दिखाते हैं कि उत्तर प्रदेश के युवाओं की कमाई में आयी गिरावट देश में सबसे बड़ी गिरावटों में शामिल है. युवाओं की कमाई में संपूर्ण भारत में गिरावट लगभग 20 फ़ीसद रही, जो उत्तर प्रदेश के युवाओं के लिए कहीं ज्यादा, 30 फ़ीसद के ऊपर है. यह देखते हुए कि उत्तर प्रदेश में चुनाव हो रहे हैं, यह बात साफ़ है कि सरकार ने इस साल की बजट घोषणाओं में लोकलुभावन चुनावी उपायों से किनारा कर लिया है. दीर्घकालिक वृद्धि के लिए प्रतिबद्धता में अच्छी आर्थिक समझदारी दिखती है, लेकिन राजनीतिक रूप से, यह एक हिसाब बिठाया हुआ जोखिम लगता है, जिसे भाजपा सरकार लेना चाह रही है. इसके पीछे तर्क यह लगता है कि प्रधानमंत्री आवास योजना और ‘हर-घर-नल’ जैसी योजनाएं 2022 के राज्य चुनावों में मतदाताओं को उसी तरह प्रेरित करेंगी जैसे 2017 के पिछले राज्य चुनावों में बड़े पैमाने पर ग्रामीण विद्युतीकरण परियोजना ने किया था.

तालिका 1: महामारी के बाद मासिक कमाई

(All population) 2018-19 2019-20 % Change in earnings
All India

11,302

(11,054 to 11,550)

9,035

(8,736 to 9,334)

-22%

(-26.3% to -18.5%)

Uttar Pradesh

8,654

(8,162 to 9,146)

6,656

(6,171 to 7,141)

-23%

(-29% to -15.9%)

Youth population

(Age < 30 years)

All India

7,291

(7,054 to 7,528)

5,783

(5,193 to 6,373)

-20%

(-28.7% to -11.7%)

Uttar Pradesh

5,065

(4,600 to 5,531)

3,535

(3,080 to 3,990)

-30.2%

(-40.3% to -18.5%)

Source: PLFS (2018-19) & (2019-20)

हेडलाइन बननेवाले आवंटनों, जो केंद्रीय बजट को लेकर सबसे ज्यादा सार्वजनिक विमर्श प्रेरित करते हैं, से परे ऐसे कई प्रगतिशील और रणनीतिक विचार इस बजट में हैं, जिन्हें रेखांकित करने की ज़रूरत है. यहां कुछ को दिया जा रहा है :  

(1)  नि:शक्त व्यक्तियों के माता-पिता और अभिभावकों के लिए कर राहत बढ़ाना एक महत्वपूर्ण क़दम है. अभी भारत में नि:शक्तता बहुत ज़्यादा निजीकृत मामला है, जहां यथासंभव न्यूनतम सरकारी समर्थन के साथ पूरा बोझ परिवार उठाता है. नीति में मौजूद इस कम़जोरी को तुरंत दूर किये जाने की ज़रूरत है, क्योंकि भारत की आबादी का 5 फ़ीसद से ज्यादा हिस्सा नि:शक्त है, [i] जो तक़रीबन पांच करोड़ लोगों के बराबर है. बढ़ती जागरूकता तथा स्वास्थ्य देखभाल मुहैया कराने वालों और परिवारों द्वारा रिपोर्टिंग में सुधार के चलते आने वाली जनगणना में यह संख्या काफी बढ़ जायेगी.  

(2) सार्वजनिक नीति से जुड़ी एक चिंता के बतौर मानसिक स्वास्थ्य को स्वीकार किये जाने और उस पर ज़ोर दिये जाने का स्वागत है. इस साल का बजट मानसिक स्वास्थ्य के लिए विस्तारित टेलीहेल्थ सेवा के लिए 23 डिजिटल सेंटर निर्मित किये जाने के लिए फंड आवंटित करता है. इसके लिए आईआईटी बेंगलुरु की मदद के साथ निमहांस (NIMHANS) द्वारा समन्वय किया जायेगा. बेशक, साधारण स्वास्थ्य देखभाल की तरह ही, मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी स्थानीय स्तर पर ईंट-गारे के भवन चाहिए, जहां प्रशिक्षित मैनपावर हो. उम्मीद है कि भविष्य में इन टेलीहेल्थ सेंटरों का विस्तार और एकीकरण पूरे देश में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों और वेलनेस सेंटरों में किया जा सकेगा. 

(3) एक स्वागतयोग्य (और रणनीतिक) क़दम के तहत, ग्रीन बॉन्ड्स के रूप में, बजट में ग्रीन फाइनेंस को जगह दी गयी है. एक बड़ा उभरता बाज़ार होने के नाते, भारत के पास वैश्विक ऊर्जा रूपांतरण को दिशा देने की क्षमता और महत्वाकांक्षा है. बाज़ार में बहुत सारे अवसर हैं, लेकिन भारत के पास वैसे वैश्विक निवेश आकर्षित करने के लिए आवश्यक वित्तीय उपकरणों का अभाव है, जो देश को उसका लक्ष्य हासिल करने में मदद कर सकें. ग्रीन बॉन्ड में भारत के लिए इस निर्णायक गैप को भरने की क्षमता है.

(4) वार्षिक बजट में शहरी योजना पर फोकस इस बात को बड़ी मान्यता देता है कि शहरों को योजनाबद्ध करने की ज़रूरत है, और उन्हें स्वाभाविक ढंग से बेतरतीब तरीक़े से, जैसाकि अब तक पूरे देश में होते आया है, बढ़ने नहीं दिया जा सकता. आज, भारत लगभग 65 फ़ीसदी शहरी है [ii], फिर भी शहरी योजना और गवर्नेंस के बारे में अक्सर मूल नीति के बाद ही सोचा जाता है. ख़राब योजना और ख़राब शहरी गवर्नेंस का नतीजा अक्षम प्रशासन और नागरिकों के लिए शहर के कम रहने-योग्य होने के रूप में सामने आता है.

कुल मिलाकर, यह बजट बढ़िया है, भले ही स्वास्थ्य देखभाल और शिक्षा के लिए आवंटनों में कोई बड़ी वृद्धि नहीं है. वित्तपोषण बहुत महत्वपूर्ण है, लेकिन वह भारत में स्वास्थ्य और शिक्षा की बड़ी समस्या का एक हिस्सा भर है. सार्वजनिक स्वास्थ्य और सार्वजनिक शिक्षा को सूचना तकनीक समाधानों और झटपट ठीक करने के उपायों से इतर, बड़ी मरम्मत की ज़रूरत है. उदाहरण के लिए, महामारी के बाद, 2021 के बजट में पूरे भारत के हरेक ज़िला अस्पताल में संक्रामक बीमारी वार्ड बनाने की बड़ी योजना शामिल की गयी. हमें इस पर अपडेट हासिल करना चाहिए- अगर काम में देरी है, तो यह ख़राब वित्तपोषण के चलते है या फिर राज्यों की निम्न क्षमता के चलते? दुर्भाग्य से, वित्त मंत्री के पास इनमें से एक का ही हल है!


[i] Sagar, R. et al. The burden of mental disorders across the states of India: The Global Burden of Disease Study 1990–2017. Lancet Psychiatry 7, 148–161 (2020).

[ii] Author’s calculations based on Night Lights Data (2018).


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