Author : Sushant Sareen

Published on Jan 18, 2021 Updated 0 Hours ago

पाकिस्तान, कई दशकों से इस दुविधा का शिकार है कि वो इज़राइल को मान्यता दे या नहीं. ख़ास तौर से 1990 के दशक में जब से भारत ने इज़राइल के साथ कूटनीतिक संबंध बहाल किए, तब से पाकिस्तान की ये दुविधा और बढ़ गई है.

पाकिस्तान में इज़राइल को लेकर अवरोध

पाकिस्तान में अक्सर इज़राइल को मान्यता देने को लेकर बहस छिड़ जाती है. फिर कुछ दिनों तक यहूदी देश इज़राइल को मान्यता देने और उसके साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करने के फ़ायदे और नुक़सान का हिसाब करने के बाद, ये मामला दोबारा ठंडे बस्ते में चला जाता है, और बहस के अगले दौर का इंतज़ार करता है. पिछले साल नवंबर-दिसंबर में पाकिस्तान में इस बात को लेकर सार्वजनिक तौर पर ख़ूब बहस हुई कि इज़राइल को मान्यता दी जाए या नहीं. इस बार, पाकिस्तान में इज़राइल पर बहस का ये दौर तब शुरू हुआ, जब संयुक्त अरब अमीरात (UAE) और बहरीन ने इज़राइल के साथ कूटनीतिक संबंध पूरी तरह बहाल कर लिए.

संयुक्त अरब अमीरात और इज़राइल ने जिस तेज़ी से अपने संबंधों को सामान्य बनाने के लिए क़दम बढ़ाए, उससे पाकिस्तान में हर कोई हैरान रह गया. पाकिस्तान में लगभग हर किसी को इस बात का विश्वास है कि अंदरूनी तौर पर सऊदी अरब ने ही अब्राहम समझौतों को हरी झंडी दी थी, जिसके बाद UAE और इज़राइल ने आपस में कूटनीतिक संबंध स्थापित करने का फ़ैसला किया. इस बीच पाकिस्तान के ‘सेलेक्टेड’ प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने पत्रकारों से दावा किया कि उन पर इज़राइल को मान्यता देने का ज़बरदस्त दबाव है. जब सऊदी अरब के युवराज, प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान और इज़राइल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतान्याहू के बीच एक ख़ुफ़िया मुलाक़ात की ख़बरें सामने आईं, तो पाकिस्तान में, इज़राइल को मान्यता देने को लेकर बहस और तेज़ हो गई. ख़ास तौर से तब और जब पाकिस्तान की फ़ौज के प्रवक्ता की तरह बोलने वाले वहां के पत्रकारों ने इज़राइल के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करने के फ़ायदे गिनाने शुरू कर दिए.

पाकिस्तान में लगभग हर किसी को इस बात का विश्वास है कि अंदरूनी तौर पर सऊदी अरब ने ही अब्राहम समझौतों को हरी झंडी दी थी, जिसके बाद UAE और इज़राइल ने आपस में कूटनीतिक संबंध स्थापित करने का फ़ैसला किया.

पाकिस्तान के मीडिया में फ़ौज के चाटुकार इन पत्रकारों द्वारा इज़राइल को मान्यता देने की वकालत करने को इस तरह से देखा गया कि पाकिस्तान की आर्मी ही अपने समर्थक पत्रकारों से ये शिगूफा छोड़ने को कह रही है. इसका मक़सद ये अंदाज़ा लगाना है कि अगर पाकिस्तान इज़राइल को मान्यता देने का फ़ैसला करता है, तो जनता की ओर से कैसी प्रतिक्रिया आएगी. लेकिन, पाकिस्तान की फ़ौज के प्रयोग वाला ये गुब्बारा बहुत जल्द फूट गया क्योंकि न केवल मीडिया, बल्कि राजनेताओं, आम जनता, मुल्ला-मौलवियों और पाकिस्तान के हर तबक़े के लोगों ने इज़राइल के साथ किसी भी तरह के ताल्लुक़ात स्थापित करने के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की. लोगों के रुख़ को देखते हुए पहले इमरान ख़ान और फिर पाकिस्तान के विदेश मंत्रालय ने घोषणा की कि पाकिस्तान के इज़राइल को मान्यता देने का तब तक सवाल नहीं उठता, जब तक इज़राइल, दो राष्ट्रों के सिद्धांत को मान्यता नहीं देता, 1967 से पहले की स्थिति नहीं बहाल करता और येरुशलम को फिलिस्तीन की राजधानी नहीं बनाता. पाकिस्तान में जब  ऐसी अफ़वाहों का बाज़ार गर्म हो गया कि इज़राइल के मसले पर पाकिस्तान की फ़ौज और उसके ‘सेलेक्टेड’ वज़ीर-ए-आज़म की राय एक नहीं है, तो पाकिस्तान की आर्मी को भी इस बारे में आगे आकर बयान देने को मजबूर होना पड़ा कि वो इज़राइल के मसले पर पूरी तरह से सरकार के साथ है.

पाकिस्तान, इज़राइल और अरब देश

पाकिस्तान, कई दशकों से इस दुविधा का शिकार है कि वो इज़राइल को मान्यता दे या नहीं. ख़ास तौर से 1990 के दशक में जब से भारत ने इज़राइल के साथ कूटनीतिक संबंध बहाल किए, तब से पाकिस्तान की ये दुविधा और बढ़ गई है. हालांकि, पाकिस्तान में हमेशा ही कुछ लोगों ने इज़राइल के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करने की वकालत करते आए हैं, लेकिन पहले पाकिस्तान की ये दुविधा तब दूर हो जाती थी, जब वो ये देखता था कि दुनिया के ज़्यादातर मुस्लिम देश, इज़राइल को मान्यता नहीं देते हैं. ऐसे में पाकिस्तान को भी बाक़ी मुस्लिम देशों से अलग रास्ता पकड़ने में भी कोई फ़ायदा नहीं दिखा. क्योंकि, अगर पाकिस्तान, इज़राइल को मान्यता देता तो इससे अरब देश नाराज़ हो जाते. और पाकिस्तान कम से कम अरब देशों को नाख़ुश करने का जोखिम मोल नहीं ले सकता, क्योंकि वो उसकी आर्थिक जीवन रेखा रहे हैं. हालांकि, पाकिस्तान ने ख़ुफ़िया तौर पर इज़राइल से थोड़ा बहुत संपर्क हमेशा ही बनाए रखा था. पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री ख़ुर्शीद महमूद कसूरी ने अपनी किताब में ये राज़ खोला है कि पाकिस्तान के अधिकारी अक्सर इज़राइल के अधिकारियों के संपर्क में रहा करते थे. वो आपस में सूचनाओं का लेन-देन किया करते थे. एक-दूसरे को भरोसा देते रहे थे और अन्य देशों को लेकर सुरक्षा के मामलों पर भी चर्चा करते रहे थे. लेकिन, इज़राइल को औपचारिक रूप से मान्यता देने को लेकर पाकिस्तान में चर्चाएं भली चली हों, कभी इसे गंभीरता से नहीं लिया गया.

अगर पाकिस्तान, इज़राइल को मान्यता देता तो इससे अरब देश नाराज़ हो जाते. और पाकिस्तान कम से कम अरब देशों को नाख़ुश करने का जोखिम मोल नहीं ले सकता, क्योंकि वो उसकी आर्थिक जीवन रेखा रहे हैं. हालांकि, पाकिस्तान ने ख़ुफ़िया तौर पर इज़राइल से थोड़ा बहुत संपर्क हमेशा ही बनाए रखा था. 

2005 में इस मोर्चे पर काफ़ी हलचल तब देखने को मिली थी, जब संयुक्त राष्ट्र में इज़राइल के प्रधानमंत्री एरियल शैरोन और पाकिस्तान के सैनिक तानाशाह जनरल परवेज़ मुशर्रफ़ की मुलाक़ात हो गई थी. इसके बाद ख़ुर्शीद महमूद कसूरी, तुर्की में इज़राइल के विदेश मंत्री से भी मिले थे. हालांकि, पाकिस्तान ने परवेज़ मुशर्रफ़ और इज़राइल के प्रधानमंत्री की मुलाक़ात को महज़ एक इत्तेफ़ाक़ कह कर टालने की कोशिश की थी. लेकिन, एरियल शैरोन ने साफ़ कर दिया था कि वो कभी किसी से इत्तेफ़ाक़न नहीं मिलते. इन बातों से ज़ाहिर था कि पाकिस्तान और इज़राइल के बीच पर्दे के पीछे संपर्क बना हुआ था और इसी का नतीजा था कि संयुक्त राष्ट्र में परवेज़ मुशर्रफ़ और एरियल शैरोन आपस में ‘टकराए’ थे और उन्होंने एक दूसरे से अभिवादन किया था. हालांकि, इज़राइल से सकारात्मक संकेत आने के बावजूद-इज़राइल के विदेश मंत्री ने तो यहां तक कह दिया था कि वो पाकिस्तान को अपने दुश्मन देश के तौर पर नहीं देखते हैं और इज़राइल को पाकिस्तान के एटमी कार्यक्रम से कोई ख़तरा नहीं है (The News International 19/9/2005)-दोनों देशों के संबंध आगे नहीं बढ़ सके.

फिलिस्तीन और इज़राइल के बीच शांति समझौते के क़रीब एक चौथाई सदी के बाद, 2010 के दशक के दौरान, मध्य पूर्व की जियो-पॉलिटिक्स में एक बार फिर बड़े बदलाव आने शुरू हुए. इसके पीछे कई कारण थे. जैसे कि ‘अरब क्रांति’, पूरे क्षेत्र में ईरान का बढ़ता दखल और प्रभाव, आतंकवाद के चलते सुरक्षा की बढ़ती चुनौतियां और इस क्षेत्र में अमेरिका की कम होती दिलचस्पी. इन्हीं कारणों से मध्य-पूर्व के समीकरणों में एक बार फिर बदलाव आने शुरू हुए. उसी दौरान इज़राइल और अरब देशों के बीच अनौपचारिक संपर्क होने (ख़ास तौर से इज़राइल और सऊदी अरब) की चर्चाएं तेज़ हो गई थीं. ऐसी ही एक मुलाक़ात में भारत ने भी मध्यस्थ की भूमिका निभाई थी. सऊदी अरब के युवराज द्वारा कुछ शर्तों के साथ इज़राइल को मान्यता देने के बयान भी आए. 2018 में इज़राइल के एक रहस्यमयी कारोबारी विमान के इस्लामाबाद में उतरने की ख़बरें भी आई थीं. हालांकि, पाकिस्तान के अधिकारियों ने इस बात से साफ़ इनकार कर दिया कि इस्लामाबाद हवाई अड्डे पर इज़राइल का कोई विमान उतरा था, लेकिन अफ़वाहों का बाज़ार काफ़ी दिनों तक गर्म रहा था. जब संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन ने इज़राइल को मान्यता दे दी, तो सूडान ने भी यही क़दम उठाया. अब अन्य अरब देशों के भी इज़राइल के साथ कूटनीतिक संबंध स्थापित करने की चर्चाएं तेज़ हैं. इनमें सऊदी अरब का भी नाम आ रहा है. ऐसे में पाकिस्तान में इस बात को लेकर दुविधा है कि वो भी अरब देशों का अनुकरण करते हुए इज़राइल को मान्यता दे दे, या अभी भी अपने पुराने रुख़ पर क़ायम रहे.

पाकिस्तान की इस्लामिक दुविधा

इसी बीच, ऐसी ख़बरें आने लगीं कि अरब देश और अमेरिका, पाकिस्तान पर इस बात का दबाव बना रहे हैं कि वो इज़राइल को मान्यता दे दे. सऊदी अरब द्वारा पाकिस्तान को दिए गए क़र्ज़ को वापस मांगने की अभूतपूर्व घटना और बाद में दाम अदा करने की रियायत के साथ तेल देने की सुविधा को आगे बढ़ाने से इनकार करने को इसी दबाव के संकेत के तौर पर देखा गया. संयुक्त अरब अमीरात ने भी पाकिस्तान को दिया अपना क़र्ज़ लौटाने की समय सीमा बढ़ाने से इनकार कर दिया, और पाकिस्तानियों के UAE आने के वीज़ा पर प्रतिबंध लगा दिया. अरब देशों के इन क़दमों से पाकिस्तानियों को इस बात का यक़ीन हो गया कि वो इज़राइल को लेकर उस पर दबाव बना रहे हैं. अब इज़राइल को लेकर पाकिस्तान के सामने दुविधा ये है कि वो अपने वैचारिक (यानी इस्लामिक) रुख़ पर अड़ा रहे या फिर अपने हितों की हिफ़ाज़त के लिए इज़राइल को मान्यता दे दे.

ऐसी ख़बरें आने लगीं कि अरब देश और अमेरिका, पाकिस्तान पर इस बात का दबाव बना रहे हैं कि वो इज़राइल को मान्यता दे दे. सऊदी अरब द्वारा पाकिस्तान को दिए गए क़र्ज़ को वापस मांगने की अभूतपूर्व घटना और बाद में दाम अदा करने की रियायत के साथ तेल देने की सुविधा को आगे बढ़ाने से इनकार करने को इसी दबाव के संकेत के तौर पर देखा गया.

इज़राइल के साथ संबंधों का नफ़ा-नुक़सान

बहुत से व्यवहारिक पाकिस्तानियों को लगता है कि अब जबकि अरब देश ही अपने दरवाज़े इज़राइल के लिए खोल रहे हैं, तो अगर पाकिस्तान भी इज़राइल को मान्यता दे देता है, तो उसे इस्लामिक देशों की नाराज़गी का सामना नहीं करना पड़ेगा. ये पाकिस्तानी ये भी मानते हैं कि अगर उनका देश इज़राइल के साथ संबंध सामन्य करता है, तो पाकिस्तान को वास्तविक आर्थिक और कूटनीतिक फ़ायदा होगा: तब इज़राइल में अकेले भारत का ही दबदबा नहीं होगा, क्योंकि तब इज़राइल भी पाकिस्तान और भारत के साथ संबंधों में कुछ हद तक संतुलन बनाए रखने की कोशिश करेगा; पाकिस्तान को इज़राइल से रक्षा उपकरण हासिल करने का अवसर मिलेगा; इज़राइल, पाकिस्तान को खेती और अन्य क्षेत्रों में तकनीकी मदद दे सकता है; तब इज़राइल के साथ बात करके पाकिस्तान, फिलिस्तीनियों के मसले को भी अच्छे से उठा सकेगा; जैसे भारत ने यहूदी लॉबी की मदद से अमेरिका में अपना प्रभाव बढ़ाया है, वैसा ही पाकिस्तान भी कर सकेगा; पाकिस्तान के इज़राइल को मान्यता देने से ‘यहूदी साज़िशों’ वाली अफ़वाहों पर भी लगाम लगेगी. वैसे भी पाकिस्तान का इज़राइल से कोई सीधा झगड़ा तो है नहीं, और न ही दोनों देश सीधे तौर पर, एक दूसरे के लिए ख़तरा हैं. और आख़िर में जब अरब देशों ने इज़राइल से हाथ मिला लिया है, तो फिर पाकिस्तान के लिए इस्लाम के नाम पर अलग-थलग रहने का कोई तुक नहीं बनता है.

स्पष्ट है कि सामरिक दृष्टि से हो या कूटनीतिक नज़रिए से, इज़राइल को मान्यता देने में पाकिस्तान का कोई नुक़सान नहीं है. मसला केवल वैचारिक और राजनीतिक है. भारत की तरह ही, पाकिस्तान के लिए भी इज़राइल एक वैचारिक चुनौती है. सच तो ये है कि अपने देश के अवाम को बरसों से भारत और इज़राइल के धार्मिक गठजोड़-‘यहूद-ओ-हुनूद’ की घुट्टी पिलाकर, उन्हें अपना जानी दुश्मन बताकर, पाकिस्तान ने अपने आपको मुश्किल में डाल लिया है. पाकिस्तान हमेशा इस बात का शोर मचाता रहता है कि इज़राइल और भारत, मुमलिक़ात-ए-ख़ुदादाद (यानी अल्लाह की नेमत पाकिस्तान) के ख़िलाफ़ लगातार साज़िशें रचते रहते हैं. अब लगातार ऐसी आक्रामक बातें करने वाले पाकिस्तान के लिए इज़राइल को लेकर अपने रुख़ में नरमी ला पाना सियासी तौर पर बेहद मुश्किल काम है. ये चुनौती सिर्फ़ पाकिस्तान के राजनेताओं की नहीं, वहां के सैन्य तंत्र की भी है. इमरान ख़ान की ज़हरीली और बदले की भावना वाली राजनीति ने उनकी सरकार के लिए, इस मुद्दे पर विपक्ष के साथ सहयोग की गुंजाइश को और कम कर दिया है. अगर, इमरान ख़ान इज़राइल के मसले पर एक इंच भी आगे बढ़ते हैं तो विपक्ष उन्हें कतई नहीं बख़्शेगा. पाकिस्तान के मुल्ला भी इज़राइल को मान्यता देने के ख़िलाफ़ हैं और इस मसले पर अपनी हुक़ूमत के ख़िलाफ़ जंग छेड़ने की धमकी दे चुके हैं. पाकिस्तान में नेताओं के राजनीतिक हित साधने और वैचारिक शुद्धता बनाए रखने की ज़िद आज पाकिस्तान के व्यवहारिक हितों पर भारी पड़ रही है. फिर उन्हें अपने संस्थापक जिन्ना के यहूदी देश के विरोधी होने का सम्मान करने का भी दिखावा करना है. यहां तक कि पाकिस्तान की फौज के भीतर भी, ऐसे बहुत से अधिकारी हैं, जो इज़राइल को मान्यता देने के ख़िलाफ़ हैं. फिर, पाकिस्तान का पसंदीदा, ‘मसला-ए-कश्मीर’ भी है, जहां बाज़ी भले ही उसके हाथ से निकल गई हो, मगर सियासी तौर पर तो अब भी कश्मीर का रोना पाकिस्तान के नेता रोते ही रहते हैं. पाकिस्तानियों को लगता है कि अगर वो इज़राइल को मान्यता दे देते हैं, तो इससे उनके प्यारे ‘कश्मीर के मसले’ को तगड़ा झटका लगेगा.

आगे की राह

इन राजनीतिक नुक़सानों को देखते हुए ही, पाकिस्तान की सरकार और उसकी फौज ने इज़राइल को मान्यता देने के फ़ायदों और इसके लिए पड़ रहे दबाव की अनदेखी की है. लेकिन, वो कब तक ऐसा कर सकेंगे? हालांकि, फिलहाल तो इमरान ख़ान ने ज़ोर देकर कहा है कि वो इज़राइल के साथ तब तक कूटनीतिक संबंध नहीं स्थापित करेंगे, जब तक इज़राइल, उन तीन शर्तों को पूरा नहीं करता, ज़िनका ज़िक्र हमने पहले किया था. लेकिन, इमरान ख़ान को कोई गंभीरता से नहीं लेता. पहली बात तो ये कि ख़ुद इमरान, यू-टर्न ख़ान के रूप में बदनाम हैं और वो इस मसले पर भी अपना रुख़ बदल सकते हैं. ऐसा तब हो सकता है, जब वो इस्लाम के प्रति अपने दिल में हाल ही में पैदा की हुई सच्ची श्रद्धा और दुनिया भर में इस्लाम के सबसे बड़े पैरोकार होने के मुग़ालते से छुटकारा पा लें. या फिर, पाकिस्तान की सेना इस मसले पर आगे बढ़ने का फ़ैसला कर ले, भले ही वो अमेरिका और अरब देशों से पड़ रहे आर्थिक और राजनीतिक दबाव के कारण ही क्यों न हो. जहां तक, पाकिस्तान के कट्टर मौलवियों का सवाल है, तो उनमें से ज़्यादातर अरब देशों के पालतू हैं और उन्हीं की दी हुई ख़ैरात के बूते ज़हर उगलते हैं. अरब देशों से एक इशारा होगा या दबाव पड़ेगा, तो पाकिस्तान के ये कट्टरपंथी मुल्ला भी सही रास्ते पर आ जाएंगे. बल्कि, तब तो वो इज़राइल को मान्यता देने के लिए कोई इस्लामिक तर्क भी तलाश लेंगे. हां, पाकिस्तान में ऐसे कुछ लोग तो हमेशा ही रहेंगे, जो इज़राइल को मान्यता देने का विरोध करेंगे. लेकिन, ऐसे बड़बोले बयानवीरों को आसानी से क़ाबू किया जा सकता है.

बात तो ये है कि जब भी पाकिस्तान में कोई, इज़राइल के साथ कूटनीतिक संबंध बहाल करने का फ़ैसला करता है, तो उन्हीं चुनौतियों-फौज में मतभेद, विपक्ष के विरोध, मौलवियों की धमकियों-का सामना करना पड़ेगा. वहीं अगर, पाकिस्तान उन शर्तों पर ही अटका रहता है, जो उसने इज़राइल को मान्यता देने के लिए रखी हैं, तो फिर उसे इज़राइल के साथ संबंध स्थापित करने का ख़याल हमेशा के लिए अपने दिल से निकाल ही देना चाहिए, क्योंकि केवल पाकिस्तान से संबंध सामान्य करने के लिए इज़राइल ऐसा कभी नहीं करने जा रहा है, ख़ास तौर से तब और जब सभी प्रमुख इस्लामिक देश पहले ही इज़राइल को मान्यता देते जा रहे हैं.

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