पिछले महीने कोलकाता के एनआरएस हॉस्पिटल में दो जूनियर डॉक्टरों पर हमले के बाद देश भर में डॉक्टरों की हड़ताल और उस पर हंगामे के चलते एक भयावह त्रासदी पर लोगों का ध्यान नहीं गया. डॉक्टरों की हड़ताल ख़त्म होने और सुर्खियों से उसके बाहर होने के बाद लोगों को पता चला कि इस बीच बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस या दिमागी बुखार) से सौ से अधिक बच्चों की जान चली गई. इनकी उम्र एक से 10 साल के बीच थी. उम्र के अलावा इन बच्चों में एक और कॉमन बात उनकी गरीबी थी. इस वजह से परिवार वालों को मातम का वक्त़ भी नसीब नहीं हुआ. दिमाग़ी बुख़ार से चार साल के बेटे को गंवाने वाले राज किशोर राम के पास रोने तक का समय नहीं था. इस दिहाड़ी मजदूर की चिंता काम तलाशने की थी ताकि उनके तीन और बच्चे और पत्नी जिंदा रह सकें. जिन गरीब परिवारों ने दिमागी बुख़ार से बच्चों को गंवाया था, उन सबकी ऐसी ही कहानी है.
बिहार के मुजफ्फरपुर जिले में एक्यूट इंसेफेलाइटिस सिंड्रोम (एईएस या दिमागी बुखार) से सौ से अधिक बच्चों की जान चली गई. इनकी उम्र एक से 10 साल के बीच थी. उम्र के अलावा इन बच्चों में एक और कॉमन बात उनकी गरीबी थी. इस वजह से परिवार वालों को मातम का वक्त भी नसीब नहीं हुआ.
वैसे तो मुजफ्फ़रपुर राज्य का दूरदराज का क्षेत्र है, लेकिन वहां पहुंचना मुश्किल नहीं है. ज़िला मुख्यालय सिर्फ़ 72 किलोमीटर दूर है. राज्य की राजधानी पटना से वहां दो घंटे से भी कम समय में पहुंचा जा सकता है. इस मामले में राज्य प्रशासन के ढुलमुल रवैये की शिकायत एक संवेदनशील शख्स़ को सुप्रीम कोर्ट से करनी पड़ी. उन्होंने याचिका में इस बीमारी के कारणों का पता लगाने के लिए सुप्रीम कोर्ट से केंद्र सरकार को स्पेशलिस्ट डॉक्टरों की टीम बनाने का निर्देश देने की अपील की. याचिका में यह भी कहा गया कि बच्चों के असरदार इलाज के लिए सारे ज़रूरी मेडिकल इक्विपमेंट (मशीनें) देने के निर्देश दिए जाएं.
अफ़सोस कि राज्य में दिमागी बुखार से पहली बार बच्चों की जान नहीं गई है. बिहार में 2008 से इस बीमारी से बच्चे मर रहे हैं. ख़ासतौर पर 2014 के बाद से ऐसे मामले काफी बढ़े हैं. उस साल दिमागी बुख़ार से 139 मौतें हुई थीं और एक दशक में इससे मरने वालों की संख्या अब हज़ार से अधिक हो गई है. इस बीमारी के कारणों का पता लगाने की कई बार कोशिश हुई, लेकिन इस पर अभी तक आम सहमति नहीं बनी है. कुछ जानकारों का कहना है कि लीची के बीजों में मेथलीन साइक्लोप्रोपाइल ग्लाइसीन नाम का टॉक्सिन होता है, जिससे यह बीमारी होती है. दूसरी स्टडीज में लीची के पल्प, जड़ों, बीजों या छिलके में ऐसा टॉक्सिन नहीं पाया गया. कुछ जांच में बीमारी की वजह लू लगने को बताया गया तो कुछ में स्क्रब टाइफस को. दिमागी बुख़ार को लेकर कई और थ्योरी हैं, लेकिन कोई अंतिम नतीजा नहीं निकला है.
हालांकि, इसमें दो राय नहीं है कि यह बीमारी खासतौर पर कुपोषित बच्चों को होती है. हेल्थ सर्वे से पता चलता है कि बिहार में कुपोषित बच्चों की संख्या काफी अधिक है. 2015-16 में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 से पता चला था कि पांच साल से कम उम्र के 48 पर्सेंट बच्चों की लंबाई सामान्य से कम थी. इस मामले में बिहार का रिकॉर्ड देश के दूसरे सभी राज्यों से ख़राब है, लेकिन राज्य सरकार ने कुपोषण की समस्या पर परदा डालने की कोशिश की. वह जवाबदेही से बचना चाहती थी. इसी वजह से राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) को स्वास्थ्य मंत्रालय और बिहार सरकार को मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौत जारी रहने पर नोटिस भेजना पड़ा. उसने न सिर्फ ‘टीकाकरण बल्कि बीमारी से बचाव के लिए सफाई और स्वच्छता से जुड़े उपायों’ पर भी रिपोर्ट मांगी है. एनएचआरसी ने नोटिस में दो टूक कहा कि लगता है कि राज्य सरकार ‘निर्दोष बच्चों की जिंदगी बचाने में असफल रही.’
इसमें दो राय नहीं है कि यह बीमारी खासतौर पर कुपोषित बच्चों को होती है. हेल्थ सर्वे से पता चलता है कि बिहार में कुपोषित बच्चों की संख्या काफी अधिक है. 2015-16 में नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-4 से पता चला था कि पांच साल से कम उम्र के 48 पर्सेंट बच्चों की लंबाई सामान्य से कम थी. इस मामले में बिहार का रिकॉर्ड देश के दूसरे सभी राज्यों से खराब है.
एक तरफ जहां बीमारी के कारणों और केंद्र व बिहार सरकार की भूमिकाओं पर बहस चल रही है, वहीं दूसरी ओर इस पर भी गौर करना जरूरी है कि स्वास्थ्य सेवाओं पर कितना ध्यान दिया गया है. स्वास्थ्य के किसी भी देश के दो अहम सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर में शामिल होने पर आम राय होने के बावजूद भारत में इसकी पिछले कई दशकों से अनदेखी हुई है. ख़राब स्वास्थ्य मानकों के बावजूद स्वास्थ्य बजट बहुत कम रहा है. बिहार देश के पिछड़े राज्यों में शामिल है, इसलिए स्वाभाविक तौर पर वहां हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर की हालत और भी ख़राब है. प्राथमिक स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर भी राज्य की स्थिति काफी बुरी है, जबकि इससे गरीबी और सामाजिक-आर्थिक पिछड़ेपन को भी बढ़ावा मिलता है.
बिहार में हजारों डॉक्टरों की कमी है. स्वास्थ्य मंत्रालय की एक आधिकारिक एजेंसी ने 2018-19 में मुजफ्फरपुर जिले के सभी 130 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (पीएचसी) को 5 में से जीरो नंबर दिए थे. 98 स्वास्थ्य केंद्र तो न्यूनतम एक मेडिकल ऑफिसर, दो नर्स-मिडवाइफ और एक लेबर रूम की शर्त भी पूरी नहीं कर पाए थे. केंद्र से दिमागी बुख़ार से हुई मौतों की जांच करने जो टीम मुजफ्फ़रपुर गई थी, उसने पाया कि श्रीकृष्ण मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल की पीडियाट्रिक इंटेंसिव केयर यूनिट (आईसीयू) न्यूनतम शर्तें भी पूरी नहीं करती थी. राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था में कामकाज की भी कोई जवाबदेही भी नहीं है.
दूसरे मानकों पर भी बिहार काफी पिछड़ा हुआ है. प्रति व्यक्ति आय और साक्षरता में यह देश के अधिकतर राज्यों से पीछे है. बड़े राज्यों की तुलना में यहां सघन आबादी रहती है और शहरीकरण भी काफी कम हुआ है. मानव विकास सूचकांक में भी यह सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से पीछे है.
बड़ी आबादी वाले किसी राज्य को देश को पीछे धकेलने की छूट नहीं दी जा सकती. इसके लिए केंद्र को राज्य में निवेश बढ़ाना होगा. साथ ही, राज्य के लोगों को बेहतर गवर्नेंस सुनिश्चित करना होगा. प्रधानमंत्री कह चुके हैं कि देश में सिर्फ दो ही जातियां हैं — एक गरीब और दूसरा, जो इसे मिटाने की कोशिश में जुटे हैं. इस बयान की सचाई इससे पता चलेगी कि सरकार बिहार में क्या करती है, जहां की जनता तक विकास का फायदा नहीं पहुंच पा रहा है. देश के विकसित हिस्सों और बिहार के बीच सामाजिक-आर्थिक गैरबराबरी बढ़ रही है और इसे पलटने की कोई असरदार कोशिश अब तक नहीं दिखी है.
साल 2014 से जो वादे किए जा रहे हैं, वे अब तक पूरे नहीं हुए हैं. उस साल केंद्र सरकार ने राज्य में नया एम्स बनाने का ऐलान किया था. गया, भागलपुर, बेतिया, पावापुरी और नालंदा में ‘विरोलॉजिकल डायग्नोस्टिक लैबोरेटरी’ और मुजफ्फरपुर व दरभंगा में रिसर्च यूनिट लगाने की भी बात कही गई थी. इनके अलावा राज्य में 100 करोड़ के निवेश से 100 बेड वाला अस्पाल बनाने और दिमागी बुखार से बचाने के लिए 100 पर्सेंट टीकाकरण का भी लक्ष्य रखा गया था. हालांकि, पांच साल गुजरने के बाद भी इनमें से एक भी वादा पूरा नहीं हुआ है.
स्वास्थ्य के किसी भी देश के दो अहम सोशल इंफ्रास्ट्रक्चर में शामिल होने पर आम राय होने के बावजूद भारत में इसकी पिछले कई दशकों से अनदेखी हुई है. खराब स्वास्थ्य मानकों के बावजूद स्वास्थ्य बजट बहुत कम रहा है.
स्वच्छ भारत अभियान के तहत किए जाने वाले स्वच्छता सर्वे में बिहार के कई क्षेत्रों को देश के सबसे गंदे इलाकों में शामिल किया गया था. इसके बाद जो सर्वे हुए, उसमें भी राज्य की रैंकिंग नहीं सुधरी. गंभीर रूप से बीमार मरीज से डॉक्टर अगर यह कहता है कि तुम दूसरों की तुलना में अधिक बीमार हो, इसलिए तुम्हारी स्थिति सुधरनी चाहिए, तो इससे फिजूल बात क्या होगी. ऐसी स्थिति में डॉक्टर की ज़िम्मेदारी बनती है कि वह मर्ज़ का पता लगाए और उसे दूर करे.
जब तक केंद्र सरकार पहल नहीं करती, तब तक बिहार इस संकट से बाहर नहीं निकलेगा. इस मामले में राज्य का जो रिकॉर्ड रहा है, उसे देखते हुए नहीं लगता कि वह इस काम को अकेले कर पाएगा. केंद्र सरकार को बिहार में स्वास्थ्य सेवाओं को सुधारने की रणनीति बनाने के लिए एक उच्चस्तरीय समिति बनानी चाहिए. उसके बाद उस पर अमल के लिए एक समर्पित टीम गठित करनी चाहिए. इस टीम को पर्याप्त संसाधन देकर उसे अगले पांच साल में मानव संसाधन सूचकांक के आधार पर लक्ष्य हासिल करने को कहना चाहिए. तभी बिहार दूसरे विकसित राज्यों की बराबरी कर पाएगा. जब तक ऐसी कोशिश नहीं होती, बिहार देश को पीछे ले जाता रहेगा और इससे विकसित देश की हमारी छवि पर आंच आएगी. इसलिए, हमें भुला दिए गए राज्य में फिर से जान फूंकनी होगी.
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