Published on Oct 22, 2018 Updated 0 Hours ago

बांग्लादेश के लिए दिल्ली के नीति निर्माताओं के दिमाग़ में झांकना बहुत ज़रूरी है।

बांग्लादेश की राजनीति में इंडिया फ़ैक्टर

बांग्लादेश की पीएम शेख़ हसीना और पीएम मोदी की मुलाक़ात। फ़ाइल फ़ोटो

बांग्लादेश में भारत के उच्चायुक्त हर्षवर्धन श्रृंगला ने जानकारी दी कि नई दिल्ली बांग्लादेश के आगामी चुनावों पर नज़र बनाए हुए था, जिसका फ़ैसला बांग्लादेश के लोगों के हाथों होना है। इस बयान में कोई बुराई नहीं है, फिर भी संकेत था कि बांग्लादेश के लिए भारत का फ़ैक्टर कितना मायने रखता है। हाल के दिनों में बांग्लादेश में भारतीय कूटनीति का महत्व चीन के बेल्ट ऐंड रोड पहल से है, एक प्रोजेक्ट जिसके लिए बीजिंग एशिया के देशों पर चीन के साथ आर्थिक सहयोग की गारंटी और परिणामस्वरुप स्थानीय लोगों के लिए समृद्धि के तौर पर पर स्वीकारने के लिए दबाव बनाने में व्यस्त है।


शेख़ हसीना के रूप में एक मज़बूत प्रधानमंत्री के साथ बांग्लादेश के नीति निर्माताओं ने चीन के इस प्रलोभन से दूरी बनाई हुई है, जिसका प्रमाण बीजिंग को सोनाडिया में दाख़िला देने में सरकार की आनाकानी से मिल सकता है।


श्रीलंका का हंबनटोटा बंदरगाह अब प्रभावी तौर पर चीन के क़ब्ज़े में है, क्योंकि कोलंबो ने अतीत में बीजिंग से जो क़र्ज़ लिया था, उसे चुकाने में वो असमर्थ रहा है। चीन से मदद लेनेवाले दुनिया के दूसरे देशों के लिए भी ये परेशान करनेवाली ख़बर है और ये उन वजहों में से एक है जिसके चलते ढाका सोनाडिया को चीन को सौंपने के दबाव का विरोध कर रहा है। सोनाडिया पर चीन के प्रस्ताव पर बांग्लादेश के पीछे हटने के फ़ैसले में ये बढ़ती धारणा भी मददगार रही कि पाकिस्तान के मकरान तट पर ग्वादर के विकास से ऐसे हालात पैदा हो सकते हैं कि चीनी मदद से बना नया बंदरगाह चीन के हाथों में जा सकता है।

ये भी अटल सच है कि मौजूदा समय में शेख़ हसीना की सरकार कूटनीतिक स्थिति को ख़राब करना नहीं चाहती है क्योंकि भारत और बीजिंग के साथ रिश्तों को लेकर इसकी नीतियां चिंतित हैं। ढाका अपनी कूटनीति में किसी बड़े बदलाव मूड में नहीं है और साफ़ तौर पर दोनों देशों से व्यवहार में संतुलन रखने की इच्छुक है। हालांकि, यह मानने की कोई वजह नहीं है कि बांग्लादेश ने चीन और भारत के प्रति अपनी धारणाओं में तटस्थता बनाई है। इसके विपरीत, अपने प्रबुद्ध राष्ट्रीय हित में व्यापार और रक्षा सौदों को लेकर अब तक इसने भारत और चीन से व्यवहार के हर संकेत दिए हैं। अतिश्योक्ति (बढ़ा-चढ़ा कर) लगने के जोखिम साथ कोई ये टिप्पणी भी कर सकता है कि बांग्लादेश भारत और चीन को डील करने में स्मार्ट डिप्लोमेसी खेल रहा है। पाकिस्तान, श्रीलंका, मालदीव में जो कुछ हो रहा है, उसके मुक़ाबले यह स्थिति साफ़ तौर पर अलग है। इन देशों ने चीन से आसान तात्कालिक आर्थिक संतुष्टि के लिए राष्ट्रीय हितों को स्पष्ट रूप से त्याग दिया है।


बांग्लादेश के लिए, जहां चुनाव कुछ ही महीने दूर हैं, मौजूदा हालात से छेड़छाड़ के लिए बहुत कम वजहें हैं। अर्थव्यवस्था और देश की सामाजिक संरचना के लिए रोहिंग्या मुद्दे जैसे संकट ख़तरा बने हुए हैं, वोटिंग के लिए तैयार शेख़ हसीना सरकार इस संकट की स्थिति से अच्छी तरह वाक़िफ़ है।


यह सच है कि रोहिंग्याओं को लेकर भारत, चीन और रूस की सरकारों के रुख़ ने बांग्लादेश को निराश किया है, क्योंकि बांग्लादेश को उम्मीद थी कि म्यांमार सरकार पर इन तीन देशों के दबाव ने आंग सान सू की और उनके जनरलों को समझौते के लिए मजबूर कर दिया होता। वो हुआ नहीं। बावजूद इसके, ढाका ने कभी भी सार्वजनिक तौर पर अपनी निराशा को ज़ाहिर नहीं होने दिया, जो कि हालात को और जटिल बनाने और इस प्रकार राजनीतिक विपक्ष को रोहिंग्या नीति को कूटनीतिक विफलता के रूप में निंदा करने का मौक़ा देने की सरकार की अनिच्छा का बड़ा संकेत है। सरकार ऐसा कुछ भी करने में सतर्कता बरत रही है, जिससे दिल्ली, मॉस्को और बीजिंग निराश हों और रोहिंग्या कूटनीति पर विपक्ष को सार्थक तरीक़े से फटकारने का ज़रिया मिल जाए।

अंतिम विश्लेषण में, बांग्लादेश के लिए दिल्ली के नीति निर्माताओं के दिमाग़ में झांकना बहुत ज़रूरी है। एक निश्चित स्तर पर स्थानीय राजनीति की विरासत के साथ दिल्ली को लेकर राजनीतिक दलों के दृष्टिकोण के बारे में पर्यवेक्षकों के लिए ये स्वाभाविक है कि पहले के चुनावों में बांग्लादेश का उन पड़ोसियों के प्रति रुझान का अध्ययन करें जिनके साथ उत्तर, पूर्व और पश्चिम में सीमाएं लगती हैं।

ऐतिहासिक और व्यापक रूप से 1971 में पाकिस्तान से अलग होने के बंगाली संघर्ष में सहयोग की भारत की बड़ी भूमिका की वजह से सत्तारूढ़ आवामी लीग ने भारत के साथ नज़दीकी रिश्ते निभाए हैं और वास्तव में इसे भारत के प्रति मित्रवत रूप में चित्रित किया गया है।

2014 में दिल्ली में भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद भी यह रुख़ नहीं बदला। वास्तव में, शेख़ हसीना और नरेंद्र मोदी ने हद से आगे बढ़कर दोनों देशों के बीच दोस्ती के पारंपरिक बंधन को फिर से साबित किया है। लैंड बाउंड्री एग्रीमेंट दोनों देशो के संबंधों को प्रोत्साहन देनेवाला था। इसके अलावा, हाल ही में शांति निकेतन में दोनों नेताओं की उपस्थिति और बिम्सटेक जैसे शिखर सम्मेलनों के दौरान अलग से द्विपक्षीय मुलाक़ात ने ढाका और दिल्ली के बीच संबंधों को मज़बूत किया है।


बांग्लादेश में सरकार की बखिया उधेड़ने की ख़ातिर राजनीतिक विपक्ष के लिए ये सही उत्प्रेरक (उकसाने वाला) होने चाहिए थे। आश्चर्य की बात है, ऐसा नहीं हुआ।


हक़ीक़त, रहस्यपूर्ण और उत्सानहजनक है कि जेल में बंद पूर्व प्रधानमंत्री जिया ख़ालिद की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और पूर्व सैन्य शासक हुसैन मोहम्मद इरशाद की जातियो पार्टी दोनों ही बांग्लादेश में चुनाव को लेकर दिल्ली के क़रीब आने की कोशिश कर रही हैं। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी जो कि ऐतिहासिक रूप से अपने भारत विरोधी रुख़ और अपनी संप्रभुता भारत के क़दमों में रखने के लिए अवामी लीग की निंदा के लिए जाना जाता रहा है, ऐसा लगता है कि अब इस विचार के आस-पास पहुंचा है कि भारत को लेकर इसका पारंपरिक नज़रिया अब अप्रासंगिक हो गया है और अब भारतीय व्यवस्था के साथ इसके रिश्तों के मरम्मत की ज़रूरत है। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) का एक प्रतिनिधिमंडल हाल ही में दिल्ली आया था — और वो भी सत्तारुढ़ अवामी लीग की टीम के भारत की राजधानी के दौरे के तुरंत बाद ही। इस दौरे में भारतीयों को ये यक़ीन दिलाने की कोशिश की गई कि पार्टी ने विदेश नीति पर अपने रुख़ को बदला है, ख़ास कर भारत के लिए। जातियो पार्टी के प्रमुख इरशाद भी दिल्ली आए थे। उनका ये क़दम सत्तारुढ़ अवामी लीग के साथ उनके मौजूदा गठबंधन पर भारतीय व्यवस्था की भावना को समझने के लिए हो सकता है। उनकी पार्टी संसद में आधिकारिक विपक्ष की भूमिका में भी रही और सरकार का हिस्सा बनकर भी, जहां इसके कुछ मंत्री भी हैं; हालांकि दोनों ही स्थितियों में असहज रही है।


इस तरह इस समय बांग्लादेश की चुनावी राजनीति में भारत कनेक्शन एक बड़ा आकर्षण है।पिछले दशक में अवामी लीग सरकार ने अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में बेहतर किया है, लेकिन भ्रष्टाचार और बढ़ती निरंकुशता को इसकी तेज़ी से बढ़ती कमज़ोरी के तौर पर देखा जा रहा है।


2006 से सत्ता से और 2014 से संसद से बाहर बांग्लादेश नेशनिस्ट पार्टी (BNP) पार्टी प्रमुख के आपराधिक दोषी साबित होने और उनके शक्तिशाली बेटे के निर्वासन के बावजूद दोबारा सत्ता में आने को लेकर बेक़रार है। जातियो पार्टी अपने घर में ही बंटी हुई है और भविष्य को लेकर उलझन में है। इरशाद के नेतृत्व को निरंतर अपनी पत्नी रोशन और उनके वफ़ादारों से चुनौती मिलती रहती है।

उत्सुकता की एक डोर जो इन तीनों पार्टियों को इस चुनावी मौसम में समानता के एक मक़सद में पिरोती है वो है उनकी ये जानने की इच्छा कि दिल्ली में हवा किस ओर बह रही है, जहां भारत और बांग्लादेश के भविष्य के संबंधों की बात है। नरेंद्र मोदी सरकार के साथ मज़बूत संबंध बनाने के बाद शेख़ हसीना की नज़र अब रिश्तों को इस मुक़ाम तक पहुंचाने की है जो ढाका या दिल्ली में सत्ता में किसी भी तरह के बदलाव से बेअसर रहे। बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी और जातियो पार्टी को पता है कि अतीत में भारत को लेकर उन्होंने जो ग़लतफ़हमियां पालीं वो अब कहीं नहीं टिकतीं। दिल्ली के साथ कूटनीति में पुनर्गठन ही समय की ज़रूरत है।

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