Published on Sep 09, 2018 Updated 0 Hours ago

बांग्लादेश की मौजूदा सरकार जिन चुनौतियों से घिरी है, क्या वह उससे उबर पाएगी?

संघर्षों में घिरी बांग्लादेश सरकार

बांग्लादेश में प्रधानमंत्री शेख हसीना के नेतृत्व वाली सरकार के लिए ये परीक्षा की घड़ी है। शेख हसीना जिस सरकार का नेतृत्व कर रही हैं वो हाल के हफ्तों में संघर्षों में घिरी रही है। इस दौरान छात्र गड़बड़ियों को ठीक करने मांग को लेकर दो बार सड़कों पर उतरे। स्पष्ट तौर पर इन घटनाओं से सत्ता दबाव में है क्योंकि ये चुनावी वर्ष है। नयी संसद के लिए दिसंबर अंत तक चुनाव होने हैं। बहुत विलंब हुआ तो अगले साल के शुरूआत में चुनाव होना तय है।

सरकार संकट को टालने की कोशिश जिस तरीके से कर रही है उससे जाहिर होता है कि सरकार चुनाव के पहले इसे लेकर कितनी चिंता में है।

पिछले कुछ हफ्तों में सरकार को जिन मुश्किलों से दो चार होना पड़ा वो दो चरणों में आईं जैसा कि पहले भी बताया गया है। पहले चरण में सरकार को उस समय शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा जब सरकारी नौकरियों को लेकर छात्रों का असंतोष फूट पड़ा। छात्रों की मांग थी कि सरकारी सेवाओं में रोजगार के लिए लागू आरक्षण व्यवस्था में संशोधन किया जाये। इस बात से कोई इंकार नहीं कर सकता कि छात्रों की मांग न्यायसंगत थी क्योंकि सरकारी नौकरियों के 57 प्रतिशत पदों को विभिन्न श्रेणियों में आरक्षण के आधार पर भरने की व्यवस्था है। प्रशासनिक सेवाओं के लिए हर साल इम्तहान होते हैं और सरकारी नौकरियों का 30 प्रतिशत का एक बड़ा हिस्सा जो पाकिस्तान से अलग होने के लिए लड़ाई लड़ने वाले स्वतंत्रता सेनानियों और छापामार लड़ाकों के लिए पहले आरक्षित था उसमें बाद में स्वतंत्रता सेनानियों के बच्चों को भी शामिल कर लिया गया था।

ये भी संभवत: समस्या नहीं होती क्योंकि बांग्लादेश ने स्वतंत्रता सेनानियों और उनके परिवारों को पूरा मान दिया है। समस्या तब खड़ी हुई जब सरकार ने ये जानकारी दी कि 30 प्रतिशत आरक्षण का लाभ स्वतंत्रता सेनानियों के पोते-पोतियों को भी मिलेगा। इसके अलावा मूलवासी, महिलाओं और अन्य वर्गों के लिए आरक्षण की वजह से सामान्य श्रेणी के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को प्रशासनिक सेवा परीक्षा में बेहतर प्रदर्शन के बावजूद सरकारी नौकिरियां मिल पाना बेहद मुश्किल हो गया है। ये विद्यार्थी आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं और ये आरक्षण प्रणाली को एक ऐसी व्यवस्था के रूप में देखते हैं जो आजादी के 47 वर्ष बाद निरर्थक हो चुकी है।

इन विद्यार्थियों में से ज्यादातर राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों के हैं और इनके आंदोलन को जनता का स्पष्ट समर्थन है।

आंदोलन के बीच में एक अवसर ऐसा आया जब प्रधानमंत्री शेख हसीना ने संसद में आरक्षण व्यवस्था को खत्म करने का ऐलान कर दिया। लेकिन ऐसा प्रतीत हुआ कि ये समस्या पर गंभीर चिंतन किये बगैर उनका गुस्से में दिया गया बयान है। इसके बावजूद विद्यार्थियों ने उनके बयान का स्वागत किया जिन्हें उम्मीद थी कि सरकार जल्द ही अपेक्षित सुधारों की ओर बढ़ेगी। सरकारी अधिकारियों ने भी देश को भरोसा दिलाया कि अपेक्षित सुधारों को लागू किया जायेगा। इसी बीच प्रधानमंत्री ने संसद को बताया कि वो अपना वादा पूरा नहीं कर सकतीं क्योंकि ये मामला अब अदालत में चला गया है।

अगर आंदोलन ने हिंसात्मक रूख नहीं अख्तियार किया होता तो संभवतया स्थितियां ज्यादा आसान होतीं। सत्तारूढ़ दल से संबंधित विद्यार्थियों के संगठन छात्र लीग ने देश की राजधानी और अन्य इलाकों में कई जगहों पर आरक्षण व्यवस्था में सुधार की मांग करने वालों को निशाना बनाया। छात्र लीग के सदस्यों ने कई बार विश्वविद्यालयों के वरिष्ठ शिक्षकों के साथ भी हाथापाई की जब उन्हें छात्रों पर हमला करने से रोकने की कोशिश की गयी। साफ नजर आ रहा था कि सरकार ने रहस्यमयी चुप्पी ओढ़ रखी है और इससे हालात और बदतर हुए।

आरक्षण आंदोलन ज्योंही समाप्त हुआ या दबा दिया गया उसी समय ढाका में एक नया आंदोलन शुरू हो गया। ये आंदोलन ढाका की बदनाम ट्रैफिक व्यवस्था की वजह से शुरू हआ।

सड़क पर दो तेज गति वाली बसों के रेस लगाने के कारण दो युवा छात्रों की बस से कुचलकर मौत हो गयी थी जबकि कई अन्य घायल हो गये। हालात उस समय काबू से बाहर हो गये जब शेख हसीना मंत्रिमंडल के मंत्री शाहजहां खान ने इस दुर्घटना को भारत के महाराष्ट्र में हुई सड़क दुर्घटना से तुलना करके मामूली साबित करने की कोशिश की जिसमें 33 लोगों की जान चली गयी थी। शाहजहां खान के लहजे को टेलीविजन पर लोगों ने देखा तो वे भड़क गये जिसमें स्कूल और कॉलेज जाने वाले विद्यार्थी भी बड़ी संख्या में थे। शाहजहां खान के तेवर इसलिए भी लोगों को ज्यादा चुभे क्योंकि वो जहाजरानी मंत्रालय का पदभार संभालने के साथ साथ बंगलादेश बस मालिक महासंघ के अध्यक्ष भी हैं और उन्होंने सड़कों पर खतरनाक ड्राइविंग करने वालों का हाल के वर्षों में बचाव भी किया है।

मंत्री के रवैये को देखते हुए उनके इस्तीफे की मांग उठने लगी। छात्र सड़क पर उतर आये और एक सप्ताह तक शहर की ट्रैफिक व्यवस्था संचालित करने का कार्य अपने हाथ में ले लिया। छात्रों ने शहर की ट्रैफिक व्यवस्था को इस तरह से अनुशासित कर दिया जिसकी मांग नागरिक करते थे लेकिन वो मांग कभी पूरी नहीं हो पाई थी। छात्रों ने नौ सूत्री मांग की थी जिसमें से अधिकतर को सरकार ने तत्काल स्वीकार कर लिया। लेकिन जहाजरानी मंत्री के इस्तीफे या उन्हें बर्खास्त करने की युवा वर्ग की एक बड़ी मांग पूरी नहीं हो पाई। अंतत: छात्रों ने सड़कों से हटने से इंकार कर दिया और इस बीच सरकार समर्थक तत्वों के कथित अत्याचारों को लेकर अफवाहें सोशल मीडिया पर फैलने लगीं और तब पुलिस हरकत में आई। यह पुलिस की ओर से क्रूर कार्रवाई थी लेकिन ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि सत्तारूढ़ अवामी लीग के हथियारबंद युवा समर्थक उन हरकतों में शामिल थे। लेकिन इस वजह से छात्र काबू में आ गये।

इन घटनाओं ने आम चुनावों के ठीक पहले अवामी लीग के प्रदर्शन को लेकर स्पष्ट तौर पर कई सवाल खड़े कर दिये हैं। ये सरकार 2009 से सत्ता में है और इस बार उसकी लगातार तीसरी जीत होगी। ये इस बात पर निर्भर करता है कि पार्टी के उम्मीदवार चुनावी माहौल बनने के पहले तक कितना डैमेज कंट्रोल कर पाते हैं।

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