Published on Sep 11, 2018 Updated 0 Hours ago

क्या दिल्ली में ऑटोरिक्शा को भी उबर कैब सेवाओं की तर्ज पर चलाने की जरुरत है?

ऑटोरिक्शा किराए में बढ़ोत्तरी: कितनी सही, कितनी गलत

दिल्ली में मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के द्वारा हाल ही में स्वीकृत किए गए ऑटो के नए किराए के नियम के बाद ऑटो के किराए में बढ़ोत्तरी होने की आशंका है। किराए के नए स्ट्रक्चर के अनुसार ऑटो रिक्शा चालक अब पहले किलोमीटर के 25 रूपए लेंगे और उसके बाद हर किलोमीटर के 10 रूपए लेंगे। मौजूदा किराए में पहले 2 किलोमीटर के लिए 25 रूपए लिए जाते हैं और उसके बाद हर किलोमीटर के लिए 8 रूपए। अब दस किलोमीटर के सफ़र का किराया दिल्ली में ऑटो से 115 रूपए होगा, जो पहले 89 रूपए हुआ करता था, इसका मतलब हुआ 29.2 प्रतिशत तक का इजाफा।

यह आर्थिक कदम के बजाय राजनीतिक कदम अधिक प्रतीत होता है क्योंकि यह कदम न ही तो उपभोक्ताओं को और न ही चालक को कोई फायदा पहुंचाएगा। सरकार कागज़ पर एक नीति लाकर केवल ऑटो-रिक्शा वालों का तुष्टिकरण करने की कोशिश कर रही है, जो केवल ऐसा दिख रही है कि उन्हें फायदा पहुंचाएगी। और जहां पर ग्राहकों की बात है तो अब तक किसी भी मूल्य वृद्धि से उसे फायदा नहीं मिला है।

इसके दो कारण हैं, पहला तो बहुत ही कम ऐसा होता है कि दिल्ली के ऑटो रिक्शा चालक सरकार के द्वारा बताए गए मीटर सिस्टम का पालन करते हैं। साइमन ई हार्डिंग ने जनवरी 2018 में ‘ऑटो रिक्शा इन इंडियन सिटीज़: पब्लिक पर्सेप्शंस एंड ऑपरेशनल रिअलिटीज’ नामक अध्ययन किया था, जिसमें यह पाया गया था कि ऑटोरिक्शा चालकों में ज्यादा किराया लेने जैसा गैरकानूनी काम, मीटर से जाने से मना करना या उसके साथ छेड़छाड़ करना और सवारी के साथ एक तय किराए पर मोलभाव करने जैसे गैरकानूनी काम फैले हुए हैं। इसलिए आधिकारिक रूप से किराए में बढ़ोत्तरी का नतीजा ऑटो रिक्शा चालकों के द्वारा की जाने वाली मनमानी में बढ़ोत्तरी ही करेगा।

जहां तक विशेषज्ञों की बात है तो उनका भी मानना यही है “लोग या तो छोटी दूरी के लिए ऑटो करते हैं, या फिर वहां के लिए जहाँ पर जाने के और कोई साधन न हो या तो मेट्रो या फिर ओला या उबर।” स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर में परिवहन और नियोजन विभाग के प्रमुख संजय गुप्ता ने ‘इंडियन एक्सप्रेस’ को बताया कि सरकार को इन दरों को तय करने से पहले एक किराया लचीलापन मांग अध्ययन (फेयर इलास्टिीसिटी डिमांड स्टडी) करनी चाहिए और अगर इन दरों में वृद्धि होती भी है तो यह सुनिश्चित करना चाहिए कि चालक किसी भी सवारी को मना नहीं करे और वह मीटर से ही सवारी से किराया ले।”

यहाँ तक कि किराए की राजनीति भी विभाजित है। दिल्ली विधानसभा में विपक्ष के नेता विजेंदर गुप्ता ने प्रेस ट्रस्ट ऑफ इंडिया से कहा “इस समय ऑटो के किराए में थोड़ी सी भी बढ़ोत्तरी न तो चालक को और न ही सवारियों को फायदा देंगी। सरकार को किराया बढ़ाने की जगह सीएनजी और ऑटो रिक्शा को खरीदने पर छूट देनी चाहिए।”

और जब हम पिछले साल के बढे हुए किराए की तरफ देखते हैं, तो हमें नीति की विफलता का सबूत मिलता है। 2010 में हुए किराए की बढ़ोत्तरी का भी यही नतीजा मिला था, सवारियों से ज्यादा पैसे लिए जाते रहे और ये रोजाना सफ़र करने वाले ही थे, जिन्हें सबसे ज्यादा असुविधा का सामना करना पड़ा था।

हालांकि सरकार ने ज्यादा किराया लेने वाली नीति से निपटने की कोशिश की, मगर ऐसा करने के सभी तरीके अपर्याप्त थे।

2012 में दिल्ली की कांग्रेस सरकार ने यह प्रस्तावित किया कि दिल्ली में सभी ऑटो रिक्शा जीपीएस प्रणाली के साथ आएँगे। दिल्ली के परिवहन विभाग को शहर के अभी ऑटो-रिक्शा की यात्राओं पर एक केन्द्रीय नियंत्रण कक्ष से निगरानी करनी थी।

नवम्बर 2016 में साइमन ई हार्डिंग एट एल ने जो अध्ययन किया, उसने साफ़ किया, नीतियाँ स्पष्ट नहीं थी, और किसी भी तरह का अध्ययन नहीं किया गया था और नियम तोड़ने वाले चालक का पता लगाने, उनका पीछा करने और उन्हें सज़ा देने के लिए कोई भी पद्धति नहीं थी। लेखक को भी यह अहसास हुआ कि इस सही दिखने वाले हल ने जो समस्याएं ज्यादा पैदा कीं। शोध पत्र में कहा गया है “ जहां जीपीएस नीति का उद्देश्य था कि चालक मीटर से चलें और सवारियों से ज्यादा किराया न लें, तो इसने हकीकत में चालक पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ रखकर ज्यादा किराया लेने की आशंका को ही पैदा कर दिया। अगर नीति निर्माताओं ने ज्यादा किराए का कारण कम आय को माना होता तो वे एक ऐसी नीति नहीं बनाते, जो और आय को कम करती और ज्यादा पैसा लेने के लिए प्रोत्साहन को बढ़ाती।”

सबक: सरकार को पर्याप्त शोध करने की जरूरत है और यह सुनिश्चित करने के लिए प्रभावित पक्षों को साथ जोड़ने की जरूरत है, (सवारियों, चालक और शहरी योजनाकर्ताओं) कि इन प्रक्रियाओं को हर चरण पर किया जाए, क्रियान्वयन से पहले, दौरान और यहाँ तक बाद में। नई नीतियों को लगातार लाना और किसी भी तरह की निगरानी का न होना केवल राजनीतिक शोर और आर्थिक नुकसान ही करेगा।

आखिर क्या तरीका है?

व्यावसायिक(कमर्शियल) वाहन उद्योग का विनिगमन (डी-रेगुलेशन) ही ऑटो-रिक्शा के उबरीकरण में मदद करेगा- इसलिए बोलना चाहिए। ‘अ नोट ऑन अ ऑटो-रिक्शा, फेयर रेगुलेशन इन इंडिया’ में पी. जे. सेकी लिखते हैं कि “सरकार के द्वारा तय किए गए मूल्यों को ईंधन के मूल्यों और अर्थव्यवस्था में महंगाई के स्तर के अनुसार होना चाहिए।।” ऑटो-रिक्शा को सम्मानित करने के लिए उबर या ओला को अनुमति देकर सरकार बाज़ार पर उसी तरह से छा सकती है, जैसा कैब सेवाओं के साथ हुआ।

साधारण परिस्थितियों में, बाज़ार कुशलता प्रदान करता है। सरकार ऑटो रिक्शा उद्योग को विनिगमित (डी-रेगुलेट) कर सकती है और ऑटो-रिक्शा को कैब के साथ प्रतिस्पर्धा करा सकती है। अगर ऐसी कोई भी प्रणाली ग्राहकों को किसी भी तरह का नुकसान पहुंचाएगी तो इससे ग्राहकों से नकारात्मक प्रतिक्रिया मिलेगी और उसके दाम नीचे आएँगे।

अगर कम्पनी सवारियों का शोषण करना जारी रखती हैं (जैसे ऑटो चालक आजकल करते हैं) और इससे बाज़ार को नुकसान होता है तो सरकार एक हस्तक्षेप प्रावधान (क्लॉज़) के माध्यम से हस्तक्षेप कर सकती है।

इस दिशा में पहले कदम दिखाई देते हैं। अप्रेल 2018 में, सरकार ने टैक्सी, तिपहिया, ई-रिक्शा और दो पहिया (फ़ूड डिलीवरी के लिए) चलाने के लिए एक कमर्शियल लाइसेंस हटाकर चालक को उनके निजी लाइसेंस के साथ गाड़ी चलाने की अनुमति दे दी है। इस प्रक्रिया ने अफसरशाही के हस्तक्षेप को कम किया है और बाज़ार को विस्तार दिया है।

यह जरूरी है कि दिल्ली को उसकी मूल्य नीति सही मिले, क्योंकि दिल्ली में अपनाया गया मॉडल दुसरे शहरों के लिए मॉडल होता है। एक तरफ है संघों के साथ लड़ाई झगड़े के साथ बढे हुए मूल्य और दूसरी तरफ उबर, तो जाहिर है कि लोग क्या चुन रहे हैं, यह स्पष्ट दिखाई दे ही रहा है। बिना जवाबदेही तय किए मीटर आधारित वाहनों के किराए में वृद्धि का समय अब समाप्त हो गया है। उपभोक्ता अपनी पसंद बदल चुके हैं। अब समय है कि सरकार भी वक्त के साथ अपने रुख में बदलाव करे।


लेखक ORF नई दिल्ली में रिसर्च इंटर्न हैं।

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