Author : Amrita Narlikar

Published on Oct 26, 2020 Updated 11 Days ago

अभी बहुपक्षीय व्यवस्था के हक़ में माहौल बनाने की सख़्त ज़रूरत है. इसके लिए ज़मीनी आंकड़ों और सटीक तथ्यों का सहारा लिया जाना चाहिए. जिनकी मदद से ये लोगों को ये बताया जा सके कि बहुपक्षीय व्यवस्था का पालन पोषण कितना फ़ायदेमंद हो सकता है

मल्टीलैट्रलिज़्म यानी बहुपक्षीयवाद में नई जान डालने की कोशिश? अभी कई सबक़ सीखने बाक़ी हैं.

जब कोविड-19 की महामारी ने दुनिया पर हमला बोला, तो बहुपक्षीय संस्थाओं का ठीक वही हश्र हुआ, जो इन संगठनों के सदस्य देशों का हुआ था. इस चुनौती के लिए कोई तैयार नहीं था. लेकिन, अगर हम इस चुनौती के सामने दुनिया के अधिकतर अंतरराष्ट्रीय संगठनों की प्रतिक्रिया देखें, तो वो अच्छे से हुक़ूमत चलाने वाले दुनिया के धनी देशों से क़तई बेहतर नहीं थी. और अगर इतिहास को पर्याप्त विश्लेषण के बाद लिखा जाएगा, तो वो बहुपक्षीय संगठनों के प्रति कोई नरमी नही दिखा सकेगा. [1]

जब इस महामारी ने दुनिया पर हमला बोला, तो ज़्यादातर बहुपक्षीय संगठन इस चुनौती से निपटने के लिए खड़े नहीं हो सके. जबकि इस महामारी ने पूरी दुनिया के लोगों के लिए अस्तित्व का संकट खड़ा कर दिया था. इस महामारी से मानवता ने कई सबक़ सीखे हैं. लेकिन, अभी भी कई तजुर्बे ऐसे हैं, जो सीखे जाे बाक़ी हैं. ख़ास-तौर से तब और जब हम बहुपक्षीय संगठनों में सुधार करके उन्हें नई दुनिया की चुनौती के लिए तैयार करना चाहते हैं.

पहली प्रतिक्रिया: भयंकर असफलता की कहानियां

जो लोग बहुपक्षीय संगठनों और बहुपक्षीय वाद के समर्थक हैं, उनके पास हर बात के लिए एक ही तर्क़ है.और वो ये है कि ऐसे समय में जब तमाम देशों के बीच बेहद क़रीबी संबंध हैं, विश्व का भूमंडलीकरण हो चुका है तो ऐसी बहुत सी समस्याएं हैं जिनका समाधान कोई एक देश अकेले नहीं कर सकता. ऐसे में बहुपक्षीय संगठनों पर ये ज़िम्मेदारी होती है कि वो दुनिया के तमाम देशों के लिए फ़ायदेमंद साबित होने वाले कामों को अंजाम दे सकें. जैसे कि मुक्त व्यापार और दुनिया भर की आबादी की अच्छी सेहत का ख़याल रखना. इसके अलावा बहुपक्षीय संगठनों पर ये ज़िम्मेदारी भी होती है कि वो चुनौतियों को सीमित रख सकें. जिससे कि, वो पूरी दुनिया को अपनी गिरफ़्त में न ले सकें. ऐसे में कोविड-19 जैसी एक बेहद संक्रामक बीमारी, जिसके शिकार लोगों की मृत्यु दर काफ़ी अधिक है और इससे ज़िंदा लोगों को बाद में भी काफ़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है. इस महामारी को रोकना असल में वही चुनौती है, जिससे निपटने की अपेक्षा किसी मल्टीलैटरल संगठन से की जाती है. अगर इसकी रोकथाम नाकाम रहती है, और महामारी बढ़ती जाती है. तो ऐसे विषय से संबंधित बहुपक्षीय संगठनों से ये अपेक्षा की जाती है कि वो दवाओं और ज़रूरी उपकरणों की जमाखोरी को सीमित करे. ज़रूरी सामान के अभाव का लाभ उठाने वालों को ऐसा करने से रोके. कमज़रो देशों की मुश्किल का लाभ उठाने की कोशिश करने वाले देशों को विपत्ति से भौगोलिक सामरिक फ़ायदा उठाने से रोके. लेकिन, कोविड-19 की महामारी का तजुर्बा हमें बताता है कि इसकी रोकथाम के लिए बनी वैश्विक संस्थाएं अपने शुरुआती चरण में ऐसा कुछ भी कर पाने में असफल रहीं.

और इस मामले में सबसे अधिक निकम्मा साबित हुआ विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO). क्योंकि इसी संगठन पर दुनिया भर के लोगों की सेहत का ख़याल रखने की ज़िम्मेदारी है. महामारी के शुरुआती दौर में जब इसे रोकना और संक्रमण को व्यापक रूप से फैलने से बचाना बेहद ज़रूरी था, तो विश्व स्वास्थ्य संगठन बुरी तरह नाकाम साबित हुआ. विश्व स्वास्थ्य संगठन की इस नाकामी की पूरी दुनिया को भारी क़ीमत चुकानी पड़ी. जो बीमारी चीन के वुहान शहर से शुरू हुई थी, वो पूरी दुनिया के लिए संकट बन गई.

अमेरिकी पत्रकार और इतिहासकार एनी एपलबॉम ने विश्व स्वास्थ्य संगठन के पापों को संक्षेप में कुछ इस तरह बयां किया है:

‘नए कोरोना वायरस से पैदा हुए वैश्विक स्वास्थ्य के संकट के शुरुआती दौर में विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कई मायनों में दुनिया की उम्मीदों को तोड़ा. ये तय है कि WHO ने महामारी के शुरुआती दौर में चीन के दावों पर कुछ ज़्यादा ही यक़ीन किया. जबकि चीन की सरकार ने पहले इस महामारी की विकरालता और संक्रमण की रफ़्तार को छुपाने की पुरज़ोर कोशिश की थी. हालत ये थी कि 14 जनवरी 2020 तक विश्व स्वास्थ्य संगठन ने ताइवान द्वारा दिए गए सबूतों की भी अनदेखी की. जबकि चीन के दबाव के चलते, ताइवान तो WHO का सदस्य भी नहीं है. जबकि ताइवान ने चेतावनी दे दी थी कि ये कोरोना वायरस एक इंसान से दूसरे में तेज़ी से फैलता है…बात यहीं तक सीमित नहीं रही. विश्व स्वास्थ्य संगठन ने क़दम दर क़दम ग़लतियां कीं: जैसे कि, शुरुआत में WHO ने कहा कि मास्क ज़रूरी नहीं हैं. जबकि तमाम सबूतों से ये ज़ाहिर हो रहा था कि मास्क लगाने से वायरस का संक्रमण काफ़ी हद तक रोका जा सकता है. इसके बाद विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को महामारी घोषित करने में भी इतनी देर लगाई. और जब WHO ने 11 मार्च को इसे महामारी घोषित किया तो ये पहले ही बहुत से देशों में फैल चुकी थी. विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा चीन की हां में हां मिलाना और चीन की ग़लतियों को नज़रअंदाज़ करना भी बड़ा विचित्र था.’ [2]

विश्व स्वास्थ्य संगठन, इस महामारी को पूरी दुनिया में तेज़ी से फैलने से नहीं रोक सका और इसके चलते दुनिया के तमाम लोगों को अपनी जान देकर WHO की असफलता की क़ीमत चुकानी पड़ी. अब तक ये वायरस पूरी दुनिया में लगभग साढ़े ग्यारह लाख लोगों की जान ले चुका है. जैसे-जैसे कोविड-19 की महामारी से लोगों की मौत का आंकड़ा बढ़ता गया, वैसे-वैसे बहुत से देशों ने अपने चारों ओर दीवारें खड़ी करनी शुरू कर दीं. सबको अपनी जनता की फ़िक्र थी. नतीजा ये कि बहुत से देशों ने अपने यहां दवाओं और निजी सुरक्षा उपकरणों की जमाखोरी शुरू कर दी. इसका मक़सद, इन ज़रूरी सामानों को केवल अपने लिए या अपने सहयोगी देशों के लिए बचाकर रखना था. यहां तक कि यूरोपीय संघ [3] जो अपनी सॉफ्ट पावर और मूल्यों जैसे कि मानव अधिकारों, श्रमिकों के अधिकारों और मानकों, पर्यावरण के मानकों को लेकर अपनी प्रतिबद्धता का दम भरता है, उसके सदस्य देशों ने भी अपने यहां से आवश्यक वस्तुओं के निर्यात पर आपातकालीन प्रतिबंध लगा दिया. जिसके चलते यूरोपीय संघ से बाहर के देशों को दवाएं और अन्य ज़रूरी संसाधन नहीं भेजे जा सकते थे. यूरोपीय संघ के इस फ़ैसले से तीसरी दुनिया के बहुत से देशों में तबाही जैसे हालात बनने का ख़तरा पैदा हो गया. इसके अलावा मेडिकल उपकरणों की आपूर्ति श्रृंखला में भी बाधा पड़ने से ख़ुद यूरोपीय संघ के देशों में ज़रूरी सामान की कमी हो गई. यूरोपीय संघ के पड़ोसियों के साथ भी विवाद खड़ा हो गया. जैसे कि, याद कीजिए कि सर्बिया के राष्ट्रपति ने मेडिकल उपकरणों के निर्यात पर यूरोपीय संघ द्वारा प्रतिबंध लगाने पर बेहद कड़वाहट भरी भाषा में प्रतिक्रिया दी थी. सर्बिया के राष्ट्रपति ने कहा था कि, ‘यूरोपीय एकता जैसी कोई चीज़ दुनिया में नहीं है. ये बस काग़ज़ पर उकेरी गई परियों वाली कहानी थी.’ इसके बाद सर्बिया के राष्ट्रपति ने एलान किया था कि वो अब चीन से मदद लेंगे. [4] बाद में हुए कई सर्वे में ये बात सामने आई थी की यूरोपीय संघ के सदस्य देशों में भी संगठन को लेकर भयंकर नाराज़गी थी. [a],[5]

दुनिया भर की आपूर्ति श्रृंखला में जिस समय ये बाधाएं उत्पन्न हो रही थीं, तब जिस संगठन को आगे आकर वैश्विक व्यापार को हो रहे नुक़सान को रोकना चाहिए था, वो है विश्व व्यापार संगठन (WTO). लेकिन, विश्व स्वास्थ्य संगठन तो पहले से ही बुरी स्थिति में था. फिर चाहे वो व्यापार वार्ताएं हों, निगरानी हो या विवादों के निपटारे की व्यवस्था. विश्व व्यापार संगठन इस हालत में ही नहीं था कि वो व्यापार की राह में आ रही इन बाधाओं को दूर करने के लिए कुछ कर सके. [6] और यदि WTO इन समस्याओं का शिकार नहीं भी होता, तो भी इसके नियमों में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं थी कि वो अपने सदस्य देशों द्वारा निर्यात की राह में लगाए जा रहे ब्रेक को हटाने को कह सकता. न ही वो सदस्य देशों को व्यापार को हथियार बनाकर अपना प्रभाव बढ़ाने से रोकने में सक्षम था. ऐसे में हुआ ये कि विश्व व्यापार का संकट जैसे जैसे गहराता गया, तो विश्व व्यापार संगठन एक किनारे ख़ामोश खड़े होकर बर्बादी का ये मंज़र देखता रहा.

यानी ठीक जिस समय दुनिया को बहुपक्षीय संस्थाओं की सख़्त ज़रूरत थी, उसी समय उन्होंने दुनिया को धोखा दे दिया. विश्व को इसकी भारी मानवीय और आर्थिक क़ीमत चुकानी पड़ी. [b]

जो सबक़ सीखे जाने चाहिए

इस महामारी ने हमें तो सख़्त सबक़ सिखाए हैं. पर ये सवाल अभी भी बना हुआ है कि बहुपक्षीय व्यवस्थाओं को पक्षधर और संरक्षक ये पाठ पढ़ने को तैयार हैं या नहीं. इन लोगों में नेक नीयत विश्व नेता हैं, अंतरराष्ट्रीय ब्यूरोक्रेट हैं, नागरिक संगठनों के सदस्य हैं और वो अन्य लोग हैं, जिन्हें लगता है कि तमाम देशों के बीच बहुपक्षीय सहयोग बढ़ाना अभी भी फ़ायदे का सौदा है.

इस महामारी से जो पहला सबक़ मिला है, वो ये है कि एक दूसरे पर निर्भरता का हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाना. यहां ध्यान देने वाली बात ये है कि निर्भरता का शस्त्र के तौर पर इस्तेमाल किया जाना, कोविड-19 के साथ नहीं शुरू हुआ. मगर, इस महामारी ने ये ज़रूर दिखाया है कि जब कोई देश, दूसरे देश पर निर्भर हो, तो किस तरह वो उसका दुरुपयोग कर सकता है. दूसरे विश्व युद्ध के बाद जो बहुपक्षीय व्यवस्था विकसित की गई. उसकी बुनियाद ये थी कि शांति और स्थिरता ऐसी बातें हैं, जिनसे हर देश की समृद्धि जुड़ी हुई है. उदारवादी आर्थिक व्यवस्था से व्यापार, तरक़्क़ी, विकास को बढ़ावा मिलेगा और अंतत: इससे विश्व में शांति की स्थापना होगी. जब शीत युद्ध समाप्त हुआ, तो मानो उदारवादी व्यवस्था से शांति का लक्ष्य प्राप्त किए जाने की तस्दीक़ हो गई. लोगों को ये लगा कि एक ज़माने में दुश्मन रहे देशों को एक आर्थिक एकीकरण के माध्यम से एक दूसरे के क़रीब लाया जा सकता है. एक दूसरे पर निर्भर बनाया जा सकता है. लेकिन, ये बहुपक्षीय व्यवस्था ऐसी परिस्थिति के लिए नहीं बनाई गई थी, जहां जिन आपसी संबंधों के माध्यम से दो देशों को जोड़ने की अपेक्षा की गई थी, उन्हीं संबंधों को एक दूसरे के ख़िलाफ़ अस्त्र के तौर पर इस्तेमाल किया जाने लगा. और भले ही हमने पिछले कई वर्षों के दौरान आपसी निर्भरता को हथियार के तौर पर इस्तेमाल किए जाते हुए देखा है. मगर, कोरोना वायरस की महामारी ने ये बात बिल्कुल साफ़ कर दी है कि कोई देश अपने ऊपर निर्भर किसी देश के ख़िलाफ़ कैसे उस निर्भरता को ही हथियार बना सकता है. इसके माध्यम से आपूर्ति श्रृंखलाओं का दुरुपयोग करके लाभ कमा सकता है. फिर चाहे जीवन और मौत का मामला ही क्यों न हो. ऐसे मुश्किल वक़्त में जब दुनिया भर के नेता दूसरे देशों को अपनी सीमाएं न बंद करने, वैश्विक वैल्यू चेन को न बाधित करने और बहुपक्षीय व्यवस्था को मज़बूत करने की बातें करते हैं, तो ये बातें खोखली लगती हैं. ख़ास-तौर से उन लोगों को, जिन्होंने दोस्तों और परिवारों को सीधे तौर पर महामारी का शिकार होते देखा है. अगर बहुपक्षीय व्यवस्था को सफलता प्राप्त करनी है, तो इन चिंताओं को सीधे तौर पर दूर करने की ज़रूरत होगी.

और दूसरा सबक़ भी कोई नया नहीं है. लेकिन, एक बार फिर, इस महामारी ने उस पर नए सिरे से रौशनी डाली है. इस सबक़ का ताल्लुक़ बहुपक्षीय व्यवस्था को लेकर माहौल बनाने और घरेलू राजनीति की अहमियत से है. पिछले कुछ वर्षों के दौरान हमने बहुपक्षीय व्यवस्था के ख़िलाफ़, पूरी दुनिया में बड़े ज़ोर शोर से आवाज़ उठते देखा है. इसकी बहुत बड़ी वजह ये थी कि कुछ नेताओं ने (फिर चाहे वो वामपंथी हों या दक्षिणपंथी) इस बात को हवा दी है कि भूमंडलीकरण के लाभ उनके देश की जनता को नहीं मिले हैं. इन नेताओं ने लोगों की निराशा का राजनीतिक लाभ उठाया है. अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की ‘अमेरिका फ़र्स्ट’ की नीति इसी बात की एक मिसाल है. और ट्रंप के इस नारे ने साल 2016 के राष्ट्रपति चुनाव में अमेरिकी जनता के एक बड़े तबक़े को इसका मुरीद बनाया है. क्योंकि ये नारा देकर, ट्रंप ने लोगों को भरोसा दिलाया कि उन्हें जनता की तकलीफ़ों का अच्छे से एहसास है. इसकी तुलना में जो लोग भूमंडलीकरण से हुए लाभ की बातें करते हैं, वो सटीक तथ्यों पर आधारित हैं. लेकिन, अफसरशाही की भूलभुलैया वाली भाषा में ये हक़ीक़त गुम हो गई. और यही कारण है कि पिछले कुछ वर्षों से लगातार बहुपक्षीय व्यवस्था के ख़िलाफ़ माहौल अबाध गति से बनाया जा रहा है. ये दावा किया जा रहा है कि इससे आम जनता को कोई लाभ नहीं हुआ. इसका फ़ायदा दुनिया भर के अमीरों को ही हुआ है. आज कोविड-19 की वजह से मौत के तांडव और तबाही के बीच, बहुपक्षीय व्यवस्था को मज़बूत करने की मांग ज़ोर शोर से उठाई जा रही है. लेकिन, उस पर ये इल्ज़ाम भी पूरी शिद्दत से लगाए जा रहे हैं कि ये व्यवस्था नाकाम हो चुकी है. ऐसे में इस बात की सख़्त ज़रूरत है कि माहौल बहुपक्षीय व्यवस्थाओं के पक्ष में बनाया जाए. इसके लिए डेटा और तथ्यों का इस्तेमाल किया जाए. जिनके ज़रिए लोगों को ये समझाया जा सके कि क्यों आज भी बहुपक्षीय व्यवस्था का संरक्षण ही दुनिया के लिए अधिक फ़ायदेमंद है. इस काम को अच्छे तरीक़े से करने के लिए हमें दुनिया के तमाम लोगों को ये दिखाना होगा कि किस तरह बहुपक्षीय सहयोग से हमारे समाज के हर व्यक्ति को लाभ होगा. इसके लिए स्थानीय, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय स्तर पर लोगों से संवाद बढ़ाने की ज़रूरत है. इसके अलावा एक जैसे विचार रखने वाले देशों को भी आपस में मिल-जुलकर काम करना होगा. भरोसे के लायक़ नैरेटिव गढ़ना, जैसे आज से पहले के वर्षों में एक कारगर तरीक़ा रहा है. [8] इसकी अहमियत तब और बढ़ जाती है, जब दुनिया के तमाम देशो के लोग न केवल अपनी रोज़ी रोटी के लिए बल्कि अपनी ज़िंदगी की लड़ाई भी लड़ रहे हैं.

दुनिया में कुछ गिने चुने बहुपक्षीय संगठन ही ऐसे हैं, जिन्होंने इन दोनों चुनौतियों को समझा है. फिर चाहे निर्भरता को हथियार बनाने की चुनौती हो या बहुपक्षीय व्यवस्था के नैरेटिव का मसला. ये संगठन है नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (NATO). पूरे महामारी के दौर में हमने देखा है कि नैटो ने लगातार एक दूसरे देशों पर निर्भरता को हथियार बनाए जाने के तथ्य को उजागर किया. और इसके ख़िलाफ़ बन रहे माहौल का ठोस तथ्यों से जवाब देने की कोशिश की. इस महामारी के शुरुआती दौर से ही नैटो ने अपना रुख़ स्पष्ट करना शुरू कर दिया था. संगठन ने लगातार इस दिशा में काम किया, जिससे सार्वजनिक स्वास्थ्य का ये संकट उसके सदस्य देशों के लिए सुरक्षा की चुनौती न बन जाए. नैटो ने लगातार ये संकेत दिया कि वो अपने मक़सद पूरे करने के लिए तैयार है. नैटो की सेनाओं ने महामारी से निपटने में सामान्य प्रशासन की भी मदद की. नैटो के महासचिव जनरल जेन्स स्टोल्टेनबर्ग ने कोविड-19 की महामारी से निपटने के लिए एक साथ तीन मोर्चों पर मुक़ाबले की मांग की. (इसमें ग़लत सूचनाओं के प्रसार को रोकने यानी झूठे नैरेटिव से मुक़ाबले की बात भी शामिल थी.) स्टोल्टेनबर्ग ने कहा कि दुनिया को आतंकवाद और चीन के बढ़ते प्रभुत्व की चुनौती से निपटने के लिए भी ख़ुद को तैयार रखना चाहिए. ख़ास-तौर से चीन की बढ़ती ताक़त के बारे में, जनरल स्टोल्टेनबर्ग ने सावधानी बरतते हुए कहा कि भले ही चीन, नैटो देशों का दुश्मन नहीं है. फिर भी उन्होंने कहा कि,

‘ये बात बिल्कुल स्पष्ट है कि चीन के और हमारे मूल्यों में बहुत फ़र्क़ है. लोकतंत्र हो, स्वतंत्रता हो या क़ानून का राज…चीन के व्यवहार से बिल्कुल साफ़ है कि वो घरेलू मोर्चे पर तानाशाही रवैया अपनाए हुए है, और अन्य देशों पर अपनी दादागीरी की धौंस जमाने में जुटा हुआ है. इन वैश्विक चुनौतियों का सामना करने, और हमारे समाज और लोगों को सुरक्षित रखने का सबसे अच्छा तरीक़ा ये है कि यूरोप और अमेरिका एकजुट होकर काम करते रहें. इसके साथ साथ हमें वैश्विक दृष्टि भी अपनानी चाहिए. अपने अंतरराष्ट्रीय सहयोगियों के साथ और मज़बूती से काम करना चाहिए. तभी हम दुनिया में प्रभुत्व के तेज़ हो रहे मुक़ाबले में अपने मूल्यों और हितों की रक्षा कर पाएंगे. इन नई चुनौतियों से निपटने के लिए हमें अपने नज़दीकी सहयोगी देशों जैसे कि फ़िनलैंड और स्वीडन के साथ साथ, सुदूर स्थित साथी देशों जैसे कि जापान, न्यूज़ीलैंड और दक्षिण कोरिया के साथ मिलकर काम करना होगा.’  [9]

लोगों के ज़हन में ये सवाल उठ सकता है कि जब दुनिया भर के तमाम बहुपक्षीय संगठन अपना कर्तव्य निभाने में असफल रहे, तो फिर नैटो जैसे मल्टीलैटरल संगठन ने कैसे पिछले कुछ महीनों के सबक़ को अच्छे से सीख लिया. इसके कई कारण गिनाए जा सकते हैं. एक तो ये कि अलग-अलग बहुपक्षीय संगठनों के काम करने का तरीक़ा अलग होता है. उनके नेतृत्व में फ़र्क़ होता है. सदस्यता का भी अपना अलग पैमाना होता है. इसके अलावा, नैटो एक संगठन के तौर पर वैश्विक संस्था नहीं है. और इसका मक़सद सिर्फ़ सुरक्षा के मामलों को देखना है. शायद यही वजह है कि नैटो ने सामरिक अर्थशास्त्र को समझते हुए मूल्यों की रक्षा के लिए आगे आने का साहस दिखाया.

अगर दुनिया के अन्य बहुपक्षीय संगठन, कोविड-19 की महामारी से मिले इन दो सबक़ों पर ध्यान नहीं देते हैं. तो, तय है कि भूमंडलीकरण के ख़िलाफ़ दुनिया में और ज़ोर शोर से आवाज़ उठेगी. फिर जोखिम इस बात का होगा कि दुनिया में बस नाम की बहुपक्षीय व्यवस्था रह जाएगी. जिसमें कोई दम नहीं होगा. बल्कि वास्तविक तौर पर हर देश आत्मनिर्भर बनने में जुट जाएगा. और ऐसा हुआ तो इससे हर देश के लिए नुक़सान का ही रास्ता खुलेगा. इससे दुनिया के ग़रीबों के लिए सबसे ज़्यादा मुश्किल खड़ी होगी. फिर चाहे वो अमीर देशों में रहते हों, या ग़रीब मुल्क में.

इन मसलों को गंभीरता से देखने के लिए शांत और गंभीर दृष्टिकोण अपनाना होगा. सबसे पहले तो ये समझना होगा कि बहुपक्षीय व्यवस्था का मक़सद क्या है. हमें बार-बार बस यही सुनने को मिलता है कि बहुपक्षीय व्यवस्था बहुत अहम है. इसमें कोई दो राय नहीं कि बहुपक्षीय व्यवस्था की अपनी अहमियत है. लेकिन, इसे बार-बार दोहराने से हमें कुछ हासिल नहीं होता. ख़ास-तौर से इस व्यवस्था में सुधार लाने और पुनर्निर्माण का काम तो बिल्कुल ही नहीं होता. अंतत; बहुपक्षीय व्यवस्था एक ऐसा औज़ार है जिसकी मदद से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सहयोग किया जाता है. न तो इससे कम और न ही कुछ ज़्यादा की दरकार है. ऐसे में ये हमें तय करना है कि हम बहुपक्षीयवाद से क्या हासिल करना चाहते हैं. किन मूल्यों की रक्षा करना चाहते हैं. इसके लिए ज़रूरत इस बात की है कि हम बहुपक्षीय व्यवस्था को नए सिरे से देखें. और शायद अब उसके लिए नई परिभाषा गढ़ने की भी ज़रूरत है. और इसके लिए हमें अपने मूल्यों पर ध्यान देने की ज़रूरत है. अपने जैसे विचार वाले लोगों को साथ लाने की ज़रूरत है. जैसा कि अब तक होता भी आया है. बहुपक्षीय व्यवस्था की नए सिरे से स्थापना करने के लिए शायद अब वक़्त आ गया है कि हम अपने सामरिक प्रतिद्वंदियों से दूरी बनाना शुरू करें. या कम से कम ऐसे प्रतिद्वंदी देशों के लिए गंभीर ख़तरे का संकेत देने लायक़ तो हो सकें. अब सिर्फ़ इस बात से काम नहीं चलेगा कि अलग-अलग सामाजिक और राजनीतिक लक्ष्य हासिल करने की दिशा में बढ़ रहे देशों को इकट्ठा करके एक संगठन बना दिया जाए. उदारवाद और विविधता भरी व्यवस्था को अपनाने वाले देश, तानाशाही व्यवस्था के साथ कैसे तालमेल कर सकते हैं. मुक्त बाज़ार व्यवस्था के पक्षधर देश, भारी सरकारी नियंत्रण वाली व्यवस्था के साथ कैसे सहयोग कर सकते हैं. अब बहुपक्षीय व्यवस्था ऐसी नहीं हो सकती कि बस दुनिया के तमाम देश एक झंडे तले आ जाएं. कुछ अस्पष्ट से नियम तय करने भर से काम नहीं चलने वाला. इससे तो हमारे बहुपक्षीय संगठन ऐसी बीमारियों के शिकार हो जाएंगे, जिनका कोई इलाज नहीं है. तब उनकी हालात और कमज़ोर हो जाएगी.


यह निबंध मूल रूप से रिबूटिंग  वर्ल्ड में प्रकाशित हो चूका हैं. 


[a] It is worth noting that under the leadership of French President Emmanuel Macron and German Chancellor Angela Merkel, the EU came up with a package worth €750 billion in July 2020 to facilitate economic recovery, which many have hailed as a “Hamiltonian” moment for Europe. It is still too early, however, to see how lasting the effects will be, both for the economies of affected member countries as well as for the common European project.

[b] A common line of defence that one hears against such critique is that multilateral institutions only work as well as their members allow them. There is some truth to this claim, but it is rather a trite truth. The reason why we choose to institutionalise multilateral cooperation in the first place is precisely because we believe that it affords all members greater certainty and predictability than bilateral arrangements.

[1] Amrita Narlikar, “First World Problems: Choosing between Life and Lifestyle,” ORF Health Express (Delhi: Observer Research Foundation), August 4, 2020.

[2] Anne Applebaum, “When the World Stumbled: COVID-19 and the Failure of the International System,” in Hals Brand and Francis Gavin (eds.), COVID-19 and World Order: The Future of Conflict, Competition and Cooperation (Baltimore: Johns Hopkins Press), 2020. p. 226; Samir Saran, “#COVID19: Dr Who gets Prescription Wrong,” ORF Health Express (Delhi: Observer Research Foundation), March 25, 2020.

[3] Chad Bown, “EU Limits on Medical Gear Exports puts poor countries and Europeans at risk,” Trade and Investment Policy Watch, Peterson Institute for International Economics, March 19, 2020.

[4] Shaun Walker, “Coronavirus Diplomacy: How Russia, China and EU vie to win over Serbia,” The Guardian, April 13, 2020.

[5] Katherine Butler, “Coronavirus: Europeans say EU was ‘Irrelevant’ during Pandemic,” The Guardian, June 24, 2020.

[6] Amrita Narlikar, “A Grand Bargain to Revive the WTO,” in Modernizing the WTO: An Essay Series (Waterloo: CIGI), 2020 .

[7] Henry Farrell and Abraham Newman, “Weaponized Interdependence: How global economic networks shape state coercion,” International Security 44, No. 1 (Summer 2019): 42-79.

[8] Amrita Narlikar, Poverty Narratives and Power Paradoxes in International Trade Negotiations and Beyond, Cambridge: Cambridge University Press, 2020.

[9] Jens Stoltenberg, “Geopolitical Implications of COVID-19” Speech by NATO Secretary General Jens Stoltenberg at the German Institute for Global and Area Studies (GIGA), June 30, 2020.

[10] Amrita Narlikar, “Germany in the United Nations Security Council: Reforming Multilateralism,” GIGA Focus Global, March 2, 2020.

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