Author : Samir Saran

Published on Aug 01, 2020 Updated 0 Hours ago

बड़ी ताक़त बनने की इच्छा रखने वाला भारत इकलौता ऐसा राष्ट्र है, जिसने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की रणनीति घोषित नहीं की है. हम जिसे ‘सामरिक स्वायत्तता’ कहकर उसका ढोल बजाते हैं, उसकी कई तरह से व्याख्य़ा की जा सकती है.

रफ़ाल विमानों के आने के जश्न बीच हो भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा पर नए सिरे से विचार!

जब फ्रांस की कंपनी दसॉ के बनाए पांच रफ़ाल फाइटर जेट अंबाला एयरफ़ोर्स बेस पर उतरे, तो ज़ाहिर है भारत के आम नागरिकों और सेना की वर्दी पहनने वालों के बीच ज़बरदस्त उत्साह और जश्न का माहौल दिखा. ये माहौल वाजिब भी था, कई दशकों बाद भारत ने इतना बड़ा रक्षा सौदा किया है. हां, अमेरिका से हमला करने वाले हेलीकॉप्टर के सौदे को इसमें अपवाद कहा जा सकता है. भारत ने फ्रांस से चार साल पहले 36 रफ़ाल मल्टीरोल लड़ाकू विमानों का सौदा किया था. उनमें से पांच विमानों की ये पहली खेप है, जो भारत पहुंची.

अब भारत के सामने एक साथ दो मोर्चों पर जंग लड़ने की चुनौती हक़ीक़त बनती जा रही है. ऐसे में सवाल ये है कि क्या भारत अपनी झिझक को छोड़कर अमेरिका के साथ ऐसा समझौता करेगा, जिससे अमेरिका के नौसैनिक जहाज़ बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में गश्त लगा सकें?

लेकिन, इन विमानों के भारत आने के जश्न से वो स्याह सच्चाई नहीं छुप सकती कि भारत की रक्षा ख़रीद की प्रक्रिया किस क़दर निष्क्रिय और धीमी है. भारत की वायुसेना अपने लगातार घटते विमानों के बेड़े और अपनी उम्र पूरी होने के बावजूद उसके बेड़े का हिस्सा अब तक बने विमानों से लंबे अर्से से परेशान है. वायुसेना ने पहली बार 126 मध्यम मल्टीरोल लड़ाकू विमानों (MMRCA) को ख़रीदने की इच्छा रक्षा मंत्रालय से साल 2000 में ज़ाहिर की थी. और अब दो दशकों के बाद  उसे 29 जुलाई को पांच रफ़ाल लड़ाकू विमानों की पहली खेप मिली है. इस दौरान, देश में अब तक तीन प्रधानमंत्री बदल चुके हैं. चार बार सरकारें आ और जा चुकी हैं. इस दौरान वायुसेना की ज़रूरत के विमानों को ख़रीदने की प्रक्रिया डगमगाते हुए चलती रही. इसमें उतार चढ़ाव आते रहे. झटकों के चलते कई बार विमान ख़रीदने की ये प्रक्रिया अटक भी गई.

मौक़ापरस्त मीडिया ने इन विमानों के भारत आने पर ख़ूब शोर शराबा किया. मगर, ये मौक़ा असल में ठंडे दिमाग़ से आत्मनिरीक्षण करने का है. हमारे देश ने दो दशक पहले 126 लड़ाकू विमान ख़रीदने का लक्ष्य निर्धारित किया था. और अब जाकर वायुसेना को बस पांच लड़ाकू विमान मिले हैं. वो भी तब जब इस ख़रीद को अटकाने, लटकाने और भटकाने का ज़रिया बन चुकी फ़ाइलों के ढेर को परे धकेल दिया गया. ये एक नाक़ाबिल ‘सिस्टम’ वाले राष्ट्र की दुखद दास्तान है.

आज भारत आने वाले दशक के लिए बिल्कुल तैयार नहीं दिखता. जबकि आने वाले समय में दुनिया में ज़बरदस्त उठा-पटक होने का अंदेशा साफ़ दिख रहा है. ये ऐसा दौर होगा जब देश को अपने संसाधनों के एक महत्वपूर्ण भाग और मानवीय पूंजी का एक बड़ा हिस्सा हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा की ज़रूरतें पूरी करने के लिए लगाना होगा. बाइबिल में जिन चार घुड़सवारों का ज़िक्र है, उन्हें लंबे समय से क़यामत का प्रतीक माना जाता रहा है. अगर हम भारत की राष्ट्रीय सुरक्षा की तैयारियों का ईमानदारी से विश्लेषण करें, तो उन्हें प्रलय के इन चार प्रतीकात्मक घुड़सवारों के माध्यम से समझा जा सकता है, जिनकी आमद का अर्थ क़यामत का आना माना जाता है.

पहला तो ये कि जैसा कि MMRCA की ख़रीद का अंतहीन क़िस्सा बताता है, भारत की सबसे बड़ी और संस्थागत कमी ये है कि हम फ़ौरी तौर पर किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पाते. इसके बाद आती है, किसी फ़ैसले को फुर्ती से लागू कर पाने की हमारी अक्षमता.

रफ़ाल की ख़रीद का क़िस्सा भारत की प्रशासनिक व्यवस्था की बेहद कमज़ोर और अक्षम स्थिति को उजागर कर देता है. हमारे यहां बजट की दिक़्क़तें हैं. इसके अलावा भारत की अफ़सरशाही अयोग्य भी है और ख़ुदग़र्ज़ भी. उन्हें सिर्फ़ अपने ही हितों का ख़याल रहता हैं. भारत की रक्षा व्यवस्था ज़ंग खा रही है और लंबे समय से आपसी खींचतान की शिकार है. और आख़िर में हिंदुस्तान का राजनीतिक वर्ग बिल्कुल ही नाक़ाबिल है. क्योंकि, भारत के राजनेता देश की रक्षा जैसे महत्वपूर्ण मसले पर भी अपनी पार्टी हितों से ऊपर उठ कर नहीं सोच पाते हैं.

भारत की रक्षा व्यवस्था की ज़िम्मेदारी उठाने वाले इन सभी साझेदारों को ये याद दिलाना होगा कि उन्हें इतिहास का सबक़ कभी नहीं भूलना चाहिए. आज तक दुनिया में कोई भी देश अपनी पूरी सामर्थ्य का इस्तेमाल तब तक नहीं कर सका है, जब तक उसने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की ज़रूरतें पूरी करने वाली औद्योगिक ढांचे को मज़बूत नहीं किया. हाल के वर्षों में भारत ने अपनी रक्षा ज़रूरतें पूरी करने के लिए विदेशी ताक़तों का सहारा लिया है. इसके बावजूद, अफ़सरशाही और नेताओं की टाल मटोल की आदत के चलते, विदेशों से भी रक्षा ज़रूरतें पूरी करने की राह में अड़ंगे डाले गए हैं.

हमारी दूसरी सबसे बड़ी कमी ये है कि हम ख़ुद के प्रति ईमानदारी नहीं दिखा पाए हैं. इसी कारण से हम इतिहास के सबक़ को सही तरीक़े से नहीं समझ पाते और भारत के असली दुश्मनों को पहचान पाने में असफल रहे हैं. 1962 में चीन के हाथों हार से भारत को जो सबक़ लेना चाहिए था, वो उसने नहीं सीखा. उस जंग में हार के बावजूद हम चीन को ख़ुश करने में ही जुटे रह गए. जबकि चीन की महत्वाकांक्षाओं को पूरा करना असंभव है. लेकिन, हमारी ख़ुशामद का नतीजा ये हुआ कि चीन के हौसले और मांग बढ़ते ही चले गए. इसी दोषपूर्ण नीति का नतीजा ये हुआ कि भारत के नीति नियंता, इस सच का ज़ोर-शोर से प्रचार करने से बचते रहे कि पिछली सदी में हमने कम से कम दो मौक़ों पर चीन को तगड़ा सबक़ सिखाया और उसे चोट पहुंचाई. इसी सोच का नतीजा है कि इस साल जून में भी चीन को भारी नुक़सान होने के बावजूद हम चीन पर दबाव नहीं बना सके.

ये चीन के साथ गलबहियां डालने की भारत की नीति का ही नतीजा था कि हमने ब्रिक्स (BRICS) और एशियाई इन्फ्रास्ट्रक्चर, इन्वेस्टमेंट बैंक (AIIB) में चीन के साथ सहयोगी की भूमिका निभाई. भारत को ये उम्मीद थी कि वो चीन के साथ मिलकर इक्कीसवीं सदी को एशिया की शताब्दी बनाने का स्वप्न पूरा कर सकेगा. हमें ये कोशिश 2017 में डोकलाम की घटना के साथ ही ख़त्म कर देनी चाहिए थी. क्योंकि, भारत के साथ एशियाई सदी की इबारत लिखने का वादा ऐसा वचन था जिसे निभाने का चीन का कभी इरादा ही नहीं था. या यूं कहें कि उसने ऐसा कोई वचन भारत को कभी दिया ही नहीं था.

हमने 1962 और उसके बाद के चीन के बर्ताव को हमेशा सबसे छुपा कर रखा. और हम अब भी चीन के असली बर्ताव और करनी को छुपाने में जुटे हैं. 2013 के बाद से चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग लगातार ये इशारा करते आ रहे हैं कि उन्हें एशिया में बहुध्रुवीय व्यवस्था में क़तई दिलचस्पी नहीं है. डोकलाम में अतिक्रमण के माध्यम से शी जिनपिंग ने पूरी दुनिया को ये संदेश बड़ी ऊंची आवाज़ में दिया था. लेकिन, चीन की चापलूसी करने के समर्थकों ने न तो तब चीन की ये गुस्ताख़ धमकी सुनी और न ही वो अब इसे लेकर फ़िक्रमंद हैं.

चीन के साथ अच्छे संबंध बनाए रखने के समर्थक इस बात का आकलन करने में नाकाम रहे हैं कि चीन असल में ऐसा पड़ोसी देश है, जिसे किसी भी क़ीमत पर ख़ुश नहीं किया जा सकता. क्योंकि, शी जिनपिंग की सत्ता और ज़मीन की भूख की कोई सीमा ही नहीं है. हम चीन की चापलूसी करते रहने के इस तथ्य की अनदेखी कर देते हैं कि चीन एक ऐसा देश है, जो भारत को अपनी सभ्यता के शुरुआती दौर से शत्रु के तौर पर देखता आया है. और, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी अपने पड़ोसी देश की राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था को क्षति पहुंचाने के लिए सदैव तत्पर रहती है. इसके बजाय, चीन समर्थक ये ‘विशेषज्ञ’ चीन के साथ बेहतर संबंधों की वक़ालत के लिए बड़े बड़े मंचों और मीडिया का सहारा लेते हैं. वो भारत को लगातार ये समझाते रहते हैं कि चीन की बुरी हरकतें असल में भारत की घरेलू राजनीति, संप्रभु फ़ैसलों और अमेरिका के साथ बढ़ती नज़दीकी का नतीजा हैं.

भारत को ये समझ पैदा करने के लिए क्या क़ीमत चुकानी होगी कि चीन लंबी अवधि के लिए उसका भौगोलिक सामरिक दुश्मन प्रतिद्वंदी है और भारत के अस्तित्व के लिए ख़तरा है. चीन की इस असलियत का ख़ाका हमारे सामने है. इसे देखते हुए ही भारत ने चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) को ख़ारिज किया था. और हाल ही में बीआरआई के डिजिटल अवतार को अपनाने से भी भारत ने इनकार कर दिया. लेकिन, सवाल ये है कि ये फ़ौरी क़दम क्या चीन को लेकर हमारी दूरगामी नीति की बुनियाद बन सकते हैं? या फिर, हम चीन के इस स्वरूप की अनदेखी नहीं कर सकते तो हमारे विशेषज्ञ वुहान 2.0 जैसी कोई नई नीति अपनाने पर काम शुरू कर दें. ये वही विशेषज्ञ हैं जिनकी चीन को लेकर दशकों की अंधभक्ति का ही नतीजा है कि आज हम चीन के प्रति अपनी नीति को लेकर दोराहे पर खड़े हैं.

तीसरी बात ये है कि हम न तो अवसरों को पहचान पाते हैं और न ही उनका लाभ ले पाते हैं. बहुत से देशों को ये एहसास हो चुका है, या धीरे धीरे हो रहा है कि उन्होंने एशिया में चीन पर अपना दांव लगाकर एक ग़लत फ़ैसला लिया था. उनके इरादे चीन को बाक़ी दुनिया के साथ जोड़ने के थे. ताकि, चीन को नियम आधारित विश्व व्यवस्था के अनुसार चलने के लिए राज़ी किया जा सके. लेकिन, वो अपने मिशन में बुरी तरह असफल रहे हैं. अब उनके सामने साम्राज्यवादी चीन भस्मासुर के तौर पर मुंह बाये खड़ा है. क्या भारत अपने सामने खड़े इस अवसर को भुना सकता है?

1972 में चीन ने सोवियत संघ के बरक्स एक साम्यवादी मुल्क से दोस्ती की ज़रूरत को भांप लिया था. और चीन के नेतृत्व ने इस अवसर का फ़ुर्ती से लाभ उठाते हुए, सोवियत संघ का दामन छोड़ कर अमेरिका का साथ पकड़ लिया था. चीन और अमेरिका की इस नज़दीकी के पीछे हेनरी किसिंजर का हाथ कम था. असल में ये माओ की कामयाबी ज़्यादा थी कि उन्होंने सामने खड़े इस अवसर का लाभ उठाया. जब फ़रवरी 1972 में अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन चीन के दौरे पर गए, तो अमेरिकी अख़बार वॉशिंगटन पोस्ट ने माओ और निक्सन की मुलाक़ात की एक तस्वीर छापी थी. इसमें निक्सन के चेहरे पर मुस्कान बिखरी थी जबकि चीन के सर्वोच्च नेता माओ त्से तुंग के चेहरे के पीछे छुपे रहस्य को पढ़ पाना बेहद मुश्किल था. चीन और अमेरिका के साथ आने को किसका मास्टरस्ट्रोक माना जाए, ये इस तस्वीर से एकदम साफ़ था.

माओ के नेतृत्व में तब चीन ने आगे की सोची थी, और झट से अमेरिका का हाथ थाम लिया था. वहीं, अमेरिका इस मुग़ालते में रहा कि उसने तो चीन को अपने पाले में कर लिया और सोवियत संघ के नेतृत्व वाले वामपंथी विश्व को पटखनी दे दी. न तो निक्सन और न ही हेनरी किसिंजर अपने फ़ौरी सियासी मक़सद से आगे सोच सके. लेकिन, चीन ने भविष्य का आकलन किया और उसने तभी आने वाली सदी के बारे में अंदाज़ा लगा लिया था.

चीन के इस एक क़दम से भारत के लिए बड़ा सबक़ ये है कि उसे अतीत के साए से बाहर आना चाहिए और नई विश्व व्यवस्था के बारे में सोचना चाहिए. 1971 में जब भारत, पाकिस्तान से युद्ध में उलझा हुआ था, तब रिचर्ड निक्सन ने अमेरिका के सातवें बेड़े यानी टास्क फ़ोर्स 74 को बंगाल की खाड़ी में जाने का आदेश जारी किया था. अमेरिकी राष्ट्रपति के इस फ़रमान का मक़सद, पाकिस्तान के हक़ में खड़े होना और भारत-सोवियत संघ के बीच समझौते के प्रति विरोध जताना था.

मगर, इतिहास का पहिया किधर घूमेगा कोई बता नहीं सकता. तब और अब में जो विरोधाभास है, वो हैरान करने वाला है. अब अमेरिका ने एक बार फिर से अपना एयरक्राफ्ट कैरियर इस इलाक़े में भेजा है. जबकि आज चीन और भारत में सीमा पर संघर्ष छिड़ा हुआ है. इस बार, अमेरिका का नौसैनिक बेड़ा भारतीय नौसेना के साथ मिलकर युद्धाभ्यास कर रहा है. और भारत-अमेरिका के बीच रिश्ते को नई ताक़त दे रहा है. ताकि दोनों देश मिलकर चीन की दादागीरी का मुक़ाबला कर सकें. और ये सुनिश्चित कर सकें कि हिंद-प्रशांत क्षेत्र मुक्त और स्वतंत्र रह सके. ज़ाहिर है ये साल 2020 का है, 1917 नहीं.

अब भारत के सामने एक साथ दो मोर्चों पर जंग लड़ने की चुनौती हक़ीक़त बनती जा रही है. ऐसे में सवाल ये है कि क्या भारत अपनी झिझक को छोड़कर अमेरिका के साथ ऐसा समझौता करेगा, जिससे अमेरिका के नौसैनिक जहाज़ बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में गश्त लगा सकें?

एशिया ने 1970 के बाद से अब तक बहुत लंबा सफ़र तय कर लिया है. क्षेत्रीय भौगोलिक सामरिक राजनीति के ख़ुदरा बाज़ार में आज भी भारत की अहमियत बनी हुई है. अब भारत के सामने एक साथ दो मोर्चों पर जंग लड़ने की चुनौती हक़ीक़त बनती जा रही है. ऐसे में सवाल ये है कि क्या भारत अपनी झिझक को छोड़कर अमेरिका के साथ ऐसा समझौता करेगा, जिससे अमेरिका के नौसैनिक जहाज़ बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में गश्त लगा सकें? अगर इस इलाक़े में अमेरिकी नौसेना एक या दो फ्रिगेट भी भेज देगी, तो पाकिस्तानी फ़ौज को इस बात का संकेत मिल जाएगा कि हिमालय की चोटियों पर चीन और भारत में युद्ध छिड़ता है तो पाकिस्तान को उसमें नहीं कूदना है. अगर भारत ऐसा कर पाता है तो मध्यम अवधि में वो हिंद महासागर क्षेत्र में चीन की बढ़ती नौसैनिक उपस्थिति से निपट पाने में भी सक्षम हो सकेगा. क्योंकि चीन का ऐसा क़दम उठाना लगभग तय है.

इस दिशा में पहला क़दम तो ये हो सकता है कि भले ही दिखावे के लिए सही, मगर भारत को चाहिए कि वो अमेरिका के साथ लॉजिस्टिक्स एक्सचेंज मेमोरैंडम ऑफ़ एग्रीमेंट (LEMOA) को लागू करे. जिससे कि भारत, अमेरिकी जहाज़ों को इस इलाक़े में युद्धाभ्यास करने और अपने संसाधनों का इस्तेमाल करने के लिए आमंत्रित कर सके. भारत और अमेरिका के बीच इस संधि का विस्तार हिंद महासागर में भी किया जा सकता है. इसके लिए भारत, मॉरीशस के साथ अपने अच्छे संबंधों का लाभ उठा कर चागोस द्वीपों के इस्तेमाल का समझौता भी कर सकता है. डिएगो गार्शिया द्वीपों पर अमेरिका की सैन्य उपस्थिति भारत के ही हित में है. ऐसा हमेशा से ही था और अब तो इसकी ज़रूरत और बढ़ गई है.

इसके साथ साथ भारत को अपने दक्षिणी छोर और अंडमान निकोबार में सैन्य शक्ति का विस्तार तेज़ी से करना चाहिए, ताकि कहीं देर न हो जाए. सिर्फ़ एक एयरबेस और नौसेना के जहाज़ खड़े होने की सुविधाएं ही अब काफ़ी नहीं रहीं. अब भारत को डिएगो गार्शिया जैसे अपने सैनिक अड्डे का विकास करना चाहिए, जो उसके अपने क्षेत्र में हो और अपने इस्तेमाल में आ सके. अगर भारत अभी ऐसा नहीं कर सकता, तो तेज़ी से उठती लाल लहर भारत के सामने कोई राजनीतिक विकल्प ही नहीं छोड़ेगी. समंदर में चीन का मुक़ाबला करना तो दूर, अगर रफ़ाल सौदे को मिसाल मान लें, तो आने वाले समय में हालात ऐसे भी हो सकते हैं कि भारत के जहाज़ों को अपना तट छोड़ने के लिए भी चीन की इजाज़त लेनी पड़ने का डर है. क्योंकि, जिस रफ़्तार से हम अपने रक्षा प्रोजेक्ट को अंजाम देते हैं, उस लिहाज़ से देखें तो जिस तेज़ी से चीन अपनी नौसेना का विस्तार कर रहा है, उसके मुक़ाबले हमारा रक्षा कवच बेहद कमज़ोर हो चुका होगा. इसके साथ साथ हमारे पार ऐसी साझेदारियां भी नहीं होंगी कि हम किसी और देश के साथ मिल कर चीन का मुक़ाबला कर पाएंगे.

हालांकि, चीन को अमेरिकी नीति पर वहां की दोनों पार्टियों में आम सहमति है. लेकिन, हमें याद रखना होगा कि डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार जो बाइडेन, उस ओबामा प्रशासन में उप राष्ट्रपति थे, जो दो शक्तिशाली देशों यानी अमेरिका और चीन के नेतृत्व वाली दुनिया (G-2) का ख़्वाब देखता था. ऐसे में अगर भारत, अमेरिका को हिंद महासागर और भारत के नज़दीकी सागरीय क्षेत्रों में आमंत्रित करता है, तो अमेरिकी नीति नियंताओं के बीच G-2 वाली सोच को कमज़ोर करने में मदद मिलेगी. साथ ही साथ भारत 1971 के दौर वाली सोच से भी बाहर आ सकेगा, जो कि अभी भी बहुत से लोगों के ज़हन पर हावी है.

चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) का सैन्यीकरण कर दिया है. ऐसे में भारत को भी चाहिए कि वो हिमालय की चोटियों का सशस्त्रीकरण करे. इसके लिए वो कई देशों के साथ मिल कर प्रशिक्षण और सहयोग के कार्यक्रम संचालित कर सकता है. ये चीन के आक्रामक रवैये का उचित जवाब होगा.

समंदर से लेकर पहाड़ों तक भारत को चीन के आक्रामक रुख़ का हर संभव तरीक़े से अपने हित में इस्तेमाल करना चाहिए. इसके लिए भारत को मज़बूती और तेज़ी के साथ खुलकर अपने दांव खेलने चाहिए. उदाहरण के लिए ऑस्ट्रेलिया, जापान, अमेरिका और भारत के गठबंधन (QUAD) को समुद्री सुरक्षा से आगे बढ़ाना चाहिए. भारत को चाहिए कि वो इस गठबंधन के साथियों को अगली गर्मियों में हिमालय की गोद में युद्धाभ्यास के लिए आमंत्रित करे. चीन ने वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) का सैन्यीकरण कर दिया है. ऐसे में भारत को भी चाहिए कि वो हिमालय की चोटियों का सशस्त्रीकरण करे. इसके लिए वो कई देशों के साथ मिल कर प्रशिक्षण और सहयोग के कार्यक्रम संचालित कर सकता है. ये चीन के आक्रामक रवैये का उचित जवाब होगा.

लद्दाख में चल रहा संघर्ष हमें इस बात की याद दिलाता है कि किसी भी क्षेत्र पर दावेदारी को मज़बूत करने के लिए उस इलाक़े से संपर्क बढ़ाना होगा. वहां सेना की मोर्चेबंदी बढ़ा कर अपना नियंत्रण स्थापित करना होगा. इसके लिए हमें आने वाले वर्षों में शायद अशांत और बेहद अधिक सैनिक मोर्चेबंदी वाली वास्तविक नियंत्रण रेखा के लिए तैयार रहना चाहिए.

हमेशा की तरह हमारे विशेषज्ञ चीन के ख़िलाफ़ कोई क़दम न उठाने की नीति की वक़ालत और अनुनय विनय करते दिखेंगे. फिर चाहे वो हिमालय की चोटियां हों या समुद्री क्षेत्र. इन चीन समर्थक विशेषज्ञों का तर्क वही होगा, जो वो पहले भी देते आए हैं –  हमें ऐसा क़दम नहीं उठाना चाहिए जिससे चीन नाराज़ हो जाए. लेकिन, हक़ीक़त ये है कि चीन का ये आक्रामक रुख़, भारत के किसी क़दम का नतीजा नहीं है. असल में चीन का ये रुख़ उसकी विस्तारवादी और प्रतिद्वंदिता वाली वैश्विक सोच का नतीजा है.

और हमारी आख़िरी मगर अहम कमज़ोरी ये है कि हम अपने देश के नागरिकों को भरोसे में ले पाने में अक्षम साबित होते रहे हैं. बड़ी ताक़त बनने की इच्छा रखने वाला भारत इकलौता ऐसा राष्ट्र है, जिसने अपनी राष्ट्रीय सुरक्षा की रणनीति घोषित नहीं की है. हम जिसे ‘सामरिक स्वायत्तता’ कहकर उसका ढोल बजाते हैं, उसकी कई तरह से व्याख्या की जा सकती है. पंचशील, गुट निरपेक्षता और विकासशील देशों के बीच सहयोग जैसे जुमलों की तरह ये भी एक जुमला है जिसे भारत के नीति नियंताओं ने अपनी आसानी के लिए गढ़ा हुआ है. सामरिक स्वायत्तता को ढाल बनाकर हमारे नीति नियंता अपनी अक्षमता और अनिर्णय को छुपाते हैं. ये त्वरित निर्णय क्षमता की मशाल नहीं है.

भारत के मतदाताओं के पास ऐसा कोई पैमाना नहीं है, जिसके आधार पर वो अपनी चुनी हुई सरकार के कामकाज की समीक्षा कर सकें. मगर, भारत के 1.3 अरब नागरिक इससे बेहतर बर्ताव के हक़दार हैं. पर चूंकि, उन्हें जागरूकता से वंचित रखा जाता है, तो वो पांच रफ़ाल विमानों के भारत आने का जश्न मनाकर ख़ुद को तसल्ली देते हैं.

मीडिया में प्राइम टाइम पर ज़ोर-शोर से होने वाली बहसों से ही हमारे देश के नागरिकों की विदेश नीति की सोच बनती है. भारत के मतदाताओं के पास ऐसा कोई पैमाना नहीं है, जिसके आधार पर वो अपनी चुनी हुई सरकार के कामकाज की समीक्षा कर सकें. मगर, भारत के 1.3 अरब नागरिक इससे बेहतर बर्ताव के हक़दार हैं. पर चूंकि, उन्हें जागरूकता से वंचित रखा जाता है, तो वो पांच रफ़ाल विमानों के भारत आने का जश्न मनाकर ख़ुद को तसल्ली देते हैं. और इसकी मदद से आने वाले 31 और फाइटर विमानों का इंतज़ार करते हैं. क्योंकि उनके आने का वक़्त तय नहीं है. फिर भले ही हमारे देश की सेनाओं को उत्तर में साम्यवादी सम्राट शी जिनपिंग की सेना का मुक़ाबला करना हो. और, पश्चिम में वो आतंकवाद का कारखाना कहे वाले देश से क्यों न मुक़ाबिल हों. सवाल ये है कि क्या हमें क़यामत का संदेश लाने वाले इन चार घुड़सवारों के संकेत की अनदेखी करते रहना चाहिए? अगर हम ऐसा करते हैं, तो हम आने वाले समय में भौगोलिक सामरिक प्रलय की ओर बढ़ते जाएंगे.

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