Author : Harsh V. Pant

Published on Mar 10, 2022 Updated 0 Hours ago
रूस-यूक्रेन संघर्ष के बीच ये ज़रूरी है कि, भारत रूस के साथ अपने संबंधों की नयी रुपरेखा गढ़ने के बारे में सोचे

जिस प्रकार रूसी आक्रमण यूक्रेन में नाटकीय तत्परता के साथ परत दर परत उधड़ रही है, उसे देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि अधिकांश भारतीय रूस की नहीं, बल्कि पश्चिम की निंदा में एकजुट होते दिख रहे हैं. हाल के दिनों में, किसी राज्य की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का खुलेआम उल्लंघन देखने को मिल हैं, भारतीय बुद्धिजीवी ख़ुद को एक गांठ में बांध रहे है, ताकि उसका बचाव किया जा सके जो खुलेआम दोषी नज़र आ रहा है. ये जानते हुए की इस केस में हमलावर कौन हैं, हम पश्चिम, उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन (नेटो) को निशाना बनाना जारी रखे हुए हैं और इससे भी बदतर, यहां तक ​​कि पीड़ित को दोषी भी ठहरा रहे हैं.  कुछ रणनीतिकारों का मानना है कि वो यूक्रेन ही है जो ख़ुद को एक संप्रभु राष्ट्र बनाए जाने के लिए अतिरेकवश ज़रूरत से ज़्यादा चेष्टा कर रहा है क्योंकि उसे सिर्फ़ अपना फायदा नज़र आ रहा है. उनके मुताबिक अगर यूक्रेन ने समझौता कर लिया होता, तो कुछ भी नहीं हुआ होता. ये यूक्रेन ही है जिसे इस क्षेत्रीय अनुक्रम में अपने स्थान के बारे में सोचना चाहिए था. और बजाय की एक स्वतंत्र राष्ट्र के सपने देखने के, उन्हे रूस के साथ ही रहना चाहिए था. 

कुछ रणनीतिकारों का मानना है कि वो यूक्रेन ही है जो ख़ुद को एक संप्रभु राष्ट्र बनाए जाने के लिए अतिरेकवश ज़रूरत से ज़्यादा चेष्टा कर रहा है क्योंकि उसे सिर्फ़ अपना फायदा नज़र आ रहा है. उनके मुताबिक अगर यूक्रेन ने समझौता कर लिया होता

और उसके बाद, जाहिर तौर पर, यहाँ पश्चिमी देश भी हैं जो लोकतंत्र, और स्वायत्ता जैसी लुभावनी बातों से राष्ट्रों को लुभा रहे हैं और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यूरोप में, संभवतः सबसे बड़े संकट के लिए वे भी ज़िम्मेदार हैं. इस राजनैतिक स्पेक्ट्रम के इर्द-गिर्द, रूस की इस बेफ़िज़ूल की शक्ति प्रदर्शन को लेकर की जाने वाली आलोचना को लेकर भारत में एक अद्वितीय माहौल है. अगर किसी दूसरे राष्ट्र पर इस तरह से आलोचनात्मक आक्रमण, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका (यूएस) की तरफ से हुआ होता तो, हमारे राजनीतिक बिरादरी का एक धड़ा भी सड़कों पर आ चुका होता, ये मांग करने को कि भारत को अमेरिका के साथ अपने सभी संबंध तोड़ लेने चाहिए और हर बड़ी-छोटी संस्था, अमेरिकी झंडे को जला रहे होते. पर इन हाल के वर्षों में, ये गंभीर उल्लंघन होते देखने के बावजूद भारत ने गंभीर चुप्पी साध रखी हैं. बल्कि हम पूरी कोशिश कर रहे हैं कि रूस के इस हालिया कृत्य को किसी तरह से भी सही ठहरा सके. 

नई दिल्ली की प्रमुख चिंता

भारतीय सरकार की प्रतिक्रिया काफी हद तक समझी जा सकती हैं. रूसी राष्ट्रपति को संबोधित करते हुए भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी नें हिंसा की तत्काल समाप्ति की अपील की हैं, और सम्मिलित प्रयास के जरिए कूटनीतिक वार्ता और समझौते पर आने का आह्वान किया. नई दिल्ली की प्रमुख चिंता यूक्रेन में रह रहे भारतीयों की बचाव और सुरक्षा और अभी अभी कोविड 19 महामारी के बाद बड़ी मुश्किल से वापस पटरी पर आ रही अर्थव्यवस्था की पुनः वैश्विक आर्थिक संकट से घिरने की संभावना हैं. कूटनीतिक तौर पर भारत को पश्चिमी देशों से अपने संबंध और रूस के साथ के संबंधों में उचित बैलेंस बना कर रखना हैं. बाद वाले तो भारत के सुरक्षा के क्षेत्र में हमारे प्रमुख साझेदार हैं और ख़ासकर ऐसे समय में  जब भारतीय सैनिक कई एक दफे वास्तविक लाइन ऑफ कंट्रोल (एलएसी) में अपने चीनी विरोधियों बिल्कुल आमने सामने रहती हैं, उस स्थिति में रूस का विरोध किसी प्रकार का कोई विकल्प नहीं हैं. इस वजह से नई दिल्ली को, फूँक-फूँक कर अपने कदम रखने चाहिए और शायद वो इस वक्त यही कर रही हैं.   

जब भारतीय सैनिक कई एक दफे वास्तविक लाइन ऑफ कंट्रोल (एलएसी) में अपने चीनी विरोधियों बिल्कुल आमने सामने रहती हैं, उस स्थिति में रूस का विरोध किसी प्रकार का कोई विकल्प नहीं हैं. इस वजह से नई दिल्ली को, फूँक-फूँक कर अपने कदम रखने चाहिए और शायद वो इस वक्त यही कर रही हैं.   

परंतु ये तो भारत में गैर राजकीय प्रतिक्रिया है जो कम से कम कुछ कहने से कतरा रहे हैं. यूक्रेन तो बेवजह विशाल राजनैतिक शक्तियों की बलिवेदी पर चढ़ गया हैं और इसके बावजूद उनके प्रति थोड़ी भी संवेदना दिखाई नहीं पड़ती. इस संबंध में ऐसे कई नायक हैं जिनके सिर पर इन सब का दोष मढ़ा जा सकता हैं – जिस प्रकार से शीत युद्ध के बाद से नेटो ने बग़ैर रूसी संवेदना और उसके दूरगामी प्रभाव के बारे में सोचे बिना ख़ुद को विस्तारित किया है; जिस प्रकार से यूक्रेन को वर्षों से कुप्रबंधित किया गया और उनकी विदेश नीति दिशाहीन रही है; जिस प्रकार से बाइडेन प्रशासन ने अपनी प्राथमिकतायें तय की हैं; और यूरोपियन यूनियन के भीतर, यूक्रेन में रूस के शक्ति प्रदर्शन के बीच यूरोपीय संघ के भविष्य के कोर्स ऑफ़ एक्शन को लेकर दो फांक दिखायी दिया. परंतु इन सबसे मूल वास्तविकता को बदला नहीं जा सकता है, कि यूक्रेन के ऊपर रूस के आक्रमण को सही नहीं ठहराया जा सकता है. 

रूस द्वारा यूक्रेन की संप्रभुता का हनन भारत के लिए एक सिद्धांत का मुद्दा होना चाहिए, जिसने वैश्विक स्तर पर संप्रभुता के मानदंड का समर्थन किया है. नई दिल्ली अगर इंडो-पेसिफिक क्षेत्र से बाहर, अपने इस सिद्धांत पर अमल करने से परहेज़ रखना चाहता है तो, फिर उसके लिए “नियम-आधारित” श्रृंखला में बात करना काफ़ी मुश्किल रहेगा. ये सच्चाई कि पश्चिमी देश इस सिद्धांत को वैश्विक स्तर पर लागू करने को लेकर कम भावुक थे, इस मुद्दे को भारत के लिए कम सार्थक नहीं बनाते हैं. हालांकि, इस बात पर जिरह की जा सकती है, और सही भी है, क्योंकि सत्ता की राजनीति के इस ऊबड़-खाबड़ दुनिया में, सिद्धांतों के लिए कोई जगह नहीं हैं. इसलिए, रणनैतिक तौर पर भारत को चाहिए की वो अपनी विदेश नीति के परिप्रेक्ष्य में यूक्रेन संकट के प्रभाव का पुनर्मूल्यांकन शुरू करे.     

   

हिंद-प्रशांत के रंगमंच पर असर

 

ये संकट और उस पर पश्चिमी प्रतिक्रिया के इंडो-पेसिफिक क्षेत्र में, जो कि एक ऐसा रंगमंच हैं जिसके पश्चिम की तुलना में, काफी अलग रंगमंच होने का भारत दावा करता हैं, के रणनीतिक पर्यावरण पर महत्वपूर्ण असर पड़ेगा. परंतु चीन इस स्थिति को काफी ध्यानपूर्वक देख रहा हैं और इसी आधार पर अपनी रणनीति बना रहा हैं. चीन-रूस दोस्ती एक रणनीतिक साझेदारी में अपने पूर्ण रूप में खिल रही है. भारत में कईयों को शायद ये अच्छा नहीं लगेगा, परंतु यूक्रेन पर आक्रमण होने के बाद से ये हो रहा हैं, शी- जिनपिंग के समर्थन की व्लादिमीर पुतिन को कई गुना ज़रूरत पड़ेगी. भारत के रूस के साथ के ऐतिहासिक संबंधों के बावजूद, चीन की तुलना में मास्को, इंडो-पैसिफिक निर्माण और क्वॉड प्लैटफॉर्म के विरोध में ज़्यादा मुखर रहा हैं. रूस अब तो पाकिस्तान के साथ भी छेड़खानी करने लगा है.  

भारत ये कोशिश कर रहा है कि रूस के साथ वो अपने संबंध अच्छे स्वरूप में बरक़रार रखे किन्तु वैश्विक व्यवस्था की संरचनात्मक वास्तविकता ये सुनिश्चित कर रही है की भारत और रूस एक दूसरे से दूर जा रहे हैं.

भारत ये कोशिश कर रहा है कि रूस के साथ वो अपने संबंध अच्छे स्वरूप में बरक़रार रखे किन्तु वैश्विक व्यवस्था की संरचनात्मक वास्तविकता ये सुनिश्चित कर रही है की भारत और रूस एक दूसरे से दूर जा रहे हैं. इस साझेदारी की नींव दिन ब दिन कमजोर पड़ती जा रही हैं. इस लंबे संबंध की रेखा अब लगभग साफ़ दिख रही है. अतीत में, एक वक्त में भारत के लिए रूस काफी महत्वपूर्ण था और अब भी दोनों के बीच सम्मिलन के क्षेत्र खुले हैं. परंतु सम्मिलन के पाठ अब सिकुड़ रहे हैं जबकि पश्चिम के साथ की साझेदारी बढ़ रही है. आज, जब की रूस एक महान विघ्नहर्ता की भूमिका अदा कर रहा हैं, भारत को रूस के साथ के संबंध को पुनःमज़बूत करने के विषय में ग़ौर करना चाहिए. संभवतः अगर भारत अपने रक्षा उपकरणों के लिए रूस पर निर्भर नहीं होता तो, इस वर्तमान संकट के प्रति नई दिल्ली का रुख़ कुछ और ही होता.   

रूस नें मौजूदा वैश्विक व्यवस्था को बिल्कुल नैतिक आधार पर चुनौती दे रहा हैं और भारतीय विदेश नीति इसके हलचल से बचा नहीं रहेगा, हालांकि, हम कितनी भी कोशिश भले कर लें ख़ुद को ये विश्वास दिलाने में कि रूस के सिवा, बाकी सभी यूक्रेन संकट के लिए समान रूप से जिम्मेदार हैं. 


यह कमेंट्री मूल रूप से हिंदुस्तान टाइम्स में छपी थी।

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