Published on Jan 16, 2021 Updated 0 Hours ago

पिछले हफ़्ते की हिंसा के बाद ये कहना आसान है कि अमेरिका को एकजुट होने की ज़रूरत है लेकिन बुनियादी दरार को देखते हुए ऐसा कैसे होगा ये बताना मुश्किल है.

कमज़ोर संस्थान और भीड़तंत्र से अमेरिका की भेंट

अमेरिका ग़ुस्से में है. राजनीति अनैतिक होती जा रही है और हर रोज़ अमेरिका ज़्यादा ग़ुस्सैल बनता जा रहा है. हम जो देख रहे हैं वो सिर्फ़ बाहरी हिस्सा है, रिपब्लिकन और डेमोक्रेट्स की छल-कपट है. डेमोक्रेट्स का इरादा ये दिखाना है कि अब बॉस कौन है जबकि  रिपब्लिकन अभी भी प्रतिष्ठा के आख़िरी निशान से चिपक रहे हैं, उन्हें उम्मीद है कि उनका ब्रांड ट्रंप के हमले को झेल लेगा. लेकिन इस राजनीतिक संघर्ष के नीचे छिपा हुआ है सामाजिक-सांस्कृतिक बंटवारा जो न सिर्फ़ और चौड़ा होता जा रहा है बल्कि इसे पाटने के लिए जो राजनीतिक प्रक्रिया बनाई गई थी, उसका असर ज़्यादा से ज़्यादा ख़त्म होता जा रहा है. पिछले हफ़्ते कैपिटल हिल पर हमला चरम बिंदु नहीं बल्कि दुनिया के सामने प्रकट हो रही एक प्रक्रिया की शुरुआत भर है- ऐसी प्रक्रिया जो बता रही है कि आज अमेरिकी लोकतंत्र की संस्थागत संरचना उस बुनियादी मूल्य से नहीं जुड़ी है जो संस्थानों को संभालती है यानी भरोसा. 

पिछले हफ़्ते कैपिटल हिल पर हमला चरम बिंदु नहीं बल्कि दुनिया के सामने प्रकट हो रही एक प्रक्रिया की शुरुआत भर है- ऐसी प्रक्रिया जो बता रही है कि आज अमेरिकी लोकतंत्र की संस्थागत संरचना उस बुनियादी मूल्य से नहीं जुड़ी है जो संस्थानों को संभालती है यानी भरोसा. 

डेमोक्रेट्स ने ट्रंप पर ये आरोप लगाया कि उन्होंने अपने समर्थकों को पिछले हफ़्ते कैपिटल बिल्डिंग पर हमले के लिए उकसाया जिसमें पांच लोगों की जान चली गई. संसद पर हमले में राष्ट्रपति की भूमिका के आधार पर डेमोक्रेट्स ने अमेरिकी प्रतिनिधि सभा में ट्रंप के ख़िलाफ़ महाभियोग प्रस्ताव पर वोटिंग कराने की मांग की. रिपब्लिकन पार्टी के कई सदस्यों ने भी राष्ट्रपति के ख़िलाफ़ विद्रोह को उकसावा देने के आरोप को लेकर डेमोक्रेट्स का साथ दिया. नतीजतन, ट्रंप अमेरिका के पहले ऐसे राष्ट्रपति बन गए हैं जिनके ख़िलाफ़ दो बार महाभियोग की प्रक्रिया चलेगी. सीनेट में ट्रायल के दौरान ट्रंप को दोषी ठहराने के लिए दो-तिहाई बहुमत की ज़रूरत होगी और ऐसी ख़बरें हैं कि कई रिपब्लिकन भी ट्रंप के ख़िलाफ़ वोट करने के लिए तैयार हैं. हालांकि सीनेट में संभावित ट्रायल ट्रंप के राष्ट्रपति पद छोड़ने के बाद ही मुमकिन लगता है. 

ट्रंप 20 जनवरी को राष्ट्रपति का पद छोड़ेंगे और उसी दिन निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन का कार्यकाल शुरू होगा. बाइडेन ने इच्छा जताई है कि वो सभी अमेरिकियों का राष्ट्रपति बनना चाहते हैं. जीत के फ़ौरन बाद बाइडेन ने कहा था: “मैं सभी अमेरिकियों का राष्ट्रपति रहूंगा- चाहे आपने मुझे वोट दिया हो या नहीं. मैं उस भरोसे को बनाए रखूंगा जो आपने मुझमें जताया है.” लेकिन इस वक़्त अमेरिका में भरोसा सबसे दुर्लभ चीज़ बन गई है और भरोसे और विश्वास के बिना संस्थान ज़्यादा समय तक टिके नहीं रह सकते.

मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली दांव पर

दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र विश्वास के अभूतपूर्व संकट के दौर से गुज़र रहा है. सैकड़ों वर्षों में जिन संस्थानों को बनाया गया, उनको पाला-पोसा गया अब वो इस ज़माने की चुनौतियों का जवाब देने में असमर्थ लग रहे हैं. संस्थान सहज रूप से कोमल होते हैं और उन पर लगातार नज़र रखने की ज़रूरत है. राजनीतिक लोकतंत्र सबसे कठोर संस्थागत ढांचा है जो हूबहू बचा हुआ है क्योंकि इसे भावनात्मक जुड़ाव की ज़रूरत होती है. तानाशाही लोगों से जुदा होती है और इसलिए उसकी देखभाल के लिए अक्सर एक यांत्रिक नौकरशाही काफ़ी होती है. चीन की कम्युनिस्ट पार्टी एक ऐसी नौकरशाही है जो पिछले कुछ दशकों में बहुत अधिक कार्यकुशल हो गई है और अस्तव्यस्त लोकतांत्रिक दुनिया में कई लोग इस सिस्टम की कार्यकुशलता से आकर्षित होते हैं. लेकिन लोकतंत्र और उसके संस्थान मेहनत का नतीजा होते हैं. उन्हें भरोसा, विश्वास और ज़िम्मेदारी जैसे मानवीय मूल्यों के साथ पालने-पोसने की ज़रूरत है. 

दुनिया का सबसे पुराना लोकतंत्र विश्वास के अभूतपूर्व संकट के दौर से गुज़र रहा है. सैकड़ों वर्षों में जिन संस्थानों को बनाया गया, उनको पाला-पोसा गया अब वो इस ज़माने की चुनौतियों का जवाब देने में असमर्थ लग रहे हैं. संस्थान सहज रूप से कोमल होते हैं और उन पर लगातार नज़र रखने की ज़रूरत है.

राजनीतिक तौर पर विशिष्ट वर्ग और अमेरिका के आंतरिक इलाक़ों में रहने वाले लोगों के बीच दूरी कई दशकों से बढ़ रही है. लाल और नीले रंग का बंटवारा सबसे पहले सांस्कृतिक संबंधों में दिखा और फिर राजनीतिक संबंधों में. आंतरिक इलाक़ों में रहने वाले लोग ध्यान बंटाने की भरपूर कोशिश में लगे थे लेकिन मुख्यधारा के राजनीतिक संस्थानों के पास उनकी शिकायतों को समझने के लिए समय ही नहीं था. डोनाल्ड ट्रंप इस खाली जगह में दाखिल हुए और अपने ग़ुस्सैल आरोपों और ग़ैर-ज़िम्मेदार राजनीति से इसे भर दिया. दूसरे पक्ष ने भी उसी तरह के मुखर एजेंडे के साथ जवाब दिया. इस एजेंडे का एकमात्र मक़सद था हर वक़्त ट्रंप के राष्ट्रपति पद के कार्यकाल की बदनामी करना. इन्होंने ट्रंप के समर्थकों की भावनाओं को समझने की कोशिश नहीं की. 

इसलिए जब ट्रंप के समर्थकों से कहा गया कि 2020 के चुनाव निष्पक्ष हैं तो उन्होंने इसका जवाब 2016 के चुनाव को लेकर पूछकर दिया जिसके बारे में उन्हें कहा गया था कि ट्रंप रूस के दखल की वजह से जीते थे. ट्रंप के समर्थकों ने पूछा, अगर दूसरा पक्ष 2016 में धोखाधड़ी को लेकर इतना पक्का था तो इस बार की चुनाव प्रक्रिया की निष्पक्षता को लेकर उन्हें इतना विश्वास क्यों है. ट्रंप का व्यक्तिगत एजेंडा इस विस्फोटक हालात से पूरी तरह मेल खा रहा था और उन्होंने इसका इस्तेमाल किया. ट्रंप ने भीड़ को उकसाया और भीड़ ने आग लगा दी जिसकी वजह से अमेरिकी लोकतंत्र की जो प्रतिष्ठा सदियों में बनी थी वो पल में ध्वस्त हो गई. 

भरोसे के अभाव में संस्थान का पतन

ये वास्तव में विडंबना की बात है कि ऊपरी तौर पर चुनाव के बाद अमेरिकी संस्थानों के बारे में लगता है कि उन्होंने अपना काम अच्छी तरह किया है. अदालतों ने नतीजे पर मुक़दमेबाज़ी की ट्रंप की कोशिशों पर ध्यान नहीं दिया, राज्यों की सरकार ने चुनाव का प्रमाणपत्र देने में नियमों का पालन किया और यहां तक कि उप राष्ट्रपति माइक पेंस ने भी इलेक्टोरल कॉलेज के वोट को प्रमाणित नहीं करने की ट्रंप की मांग को ठुकरा दिया. लेकिन ये एक भ्रांति होगी: संस्थान रातों-रात ख़त्म नहीं होते. भरोसे के अभाव में संस्थान का पतन होने लगता है, वो विकृत होने लगते हैं, अंदर से वो सड़ने लगते हैं. और एक दिन अचानक सिर्फ़ एक खोखला आवरण बचता है.  

रिपब्लिकन अपनी रूढ़िवादी विरासत से आगे बढ़ गए हैं, वो विरासत जिसमें संस्थानों की कमज़ोरी को सराहा जाता था और इसलिए उस विरासत की सभ्यता को संभाल कर रखने में यकीन किया जाता है. डेमोक्रेट्स को भी उसके अतिवादी दूसरे छोर की तरफ़ खींच रहे हैं जहां ज़्यादा अच्छाई के नाम पर हिंसा को आंख मूंद कर जायज़ ठहराया जाता है. दोनों के बीच मध्य मार्ग वाले संघर्ष कर रहे हैं. बाइडेन स्वाभाविक रूप से मध्यमार्गी हैं और उन्हें बंटे हुए जनमत के आधार पर सरकार चलाने की चुनौतियों को ज़रूर समझना चाहिए. बंटा हुआ जनमत इसलिए क्योंकि 2016 के मुक़ाबले ट्रंप को मिले वोट में 1 करोड़ से ज़्यादा की बढ़ोतरी हुई है और उनका आधार बढ़कर कुल इलेक्टोरेट के लगभग 50% के बराबर हो गया है.      

कैपिटल हिल के बलवाइयों को सज़ा दिलाई जा सकती है लेकिन ट्रंप के विशाल समर्थकों तक पहुंचने के लिए बाइडेन को कुछ बड़ा करना होगा. उन्हें पराजित तो किया जा सकता है लेकिन वो ट्रंपिज़्म को नहीं छोड़ेंगे.

कैपिटल हिल के बलवाइयों को सज़ा दिलाई जा सकती है लेकिन ट्रंप के विशाल समर्थकों तक पहुंचने के लिए बाइडेन को कुछ बड़ा करना होगा. उन्हें पराजित तो किया जा सकता है लेकिन वो ट्रंपिज़्म को नहीं छोड़ेंगे. उस ट्रंपिज़्म को जिसकी बुनियाद बढ़ती सामाजिक-आर्थिक असमानता से बनी है और जिसे विशिष्ट वर्ग की नफ़रत पाल-पोस रही है. ये लगभग उसी तरह है कि अमेरिकी व्यवस्था- राजनीतिक, मीडिया, टिप्पणीकार- अपने ही देश के एक बड़े हिस्से को सही ढंग से नहीं समझता है. 

पिछले हफ़्ते की हिंसा के बाद ये कहना आसान है कि अमेरिका को एकजुट होने की ज़रूरत है लेकिन बुनियादी दरार को देखते हुए ऐसा कैसे होगा ये बताना मुश्किल है. जो अमेरिका ख़ुद से ही लड़ रहा है वो बाक़ी दुनिया के लिए उम्मीद की रोशनी शायद ही हो सकता है. विश्व व्यवस्था के लिए ये असली चुनौती है. संस्थागत संरचना टूटने के बीच अपने आंतरिक दरार को जब तक अमेरिका ठीक करता है तब तक ग़ैर-लोकतांत्रिक शक्तियां वैश्विक एजेंडा तय करने के लिए पहले से ज़्यादा आज़ाद होंगी. मौजूदा अंतर्राष्ट्रीय प्रणाली की संस्थागत जगह भी दांव पर है. जवाब के लिए बाइडेन को महाभियोग से आगे देखना होगा. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.