Published on Jul 30, 2023 Updated 0 Hours ago

दशकों से अफ़्रीका के सियासी तजुर्बे में बार-बार तख़्तापलट की घटनाओं का रुझान देखा गया है. औपनिवेशिक दौर के बाद के कालखंड में अफ़्रीकी महादेश के कई हिस्सों में सैन्य तख़्तापलटों की एक झड़ी सी दिखाई दी

अफ़्रीका में तख़्तापलट की झड़ी: आख़िर क्यों बढ़ रही है सत्ता हथियाने की कोशिश में फ़ौज की दख़लंदाज़ी?
अफ़्रीका में तख़्तापलट की झड़ी: आख़िर क्यों बढ़ रही है सत्ता हथियाने की कोशिश में फ़ौज की दख़लंदाज़ी?

अफ़्रीका में सैन्य तख़्तापलट की घटनाएं और ग़ैर-संवैधानिक तरीक़ों से सत्ता हथियाने की कोशिशें एक बार फिर ज़ोर पकड़ने लगी हैं. पिछले कुछ सालों में पश्चिम और मध्य अफ़्रीका में माली, चाड, गिनी, बुर्किना फ़ासो, गिनी बिसाऊ और सूडान जैसे देशों में कामयाबी से तख़्तापलट और जबरन सत्ता हथियाने के कई वाक़ये देखने को मिले हैं. संयुक्त राष्ट्र (UN), पश्चिमी अफ़्रीकी देशों के आर्थिक समुदाय (ECOWAS) और अफ़्रीकी संघ (AU) जैसे अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगठन ज़ोर ज़बरदस्ती से सत्ता हथियाने वालों के ख़िलाफ़ कठोर प्रावधान करते रहे हैं. हालांकि, तमाम पाबंदियों, सदस्यता से निलंबनों और ऐसे चिंताजनक रुझान की चौतरफ़ा आलोचनाओं के बावजूद अफ़्रीका में सैन्य तख़्तापलट की घटनाओं पर लगाम नहीं लग सकी है. पिछले 18 महीनों में पश्चिमी अफ़्रीकी क्षेत्र में सैन्य तख़्तापलट की चार घटनाएं इस बढ़ती हुई चुनौती के प्रमाण हैं. 

इस प्रवृत्ति के सामने आने की एक वजह कुछ अफ़्रीकी देशों में लोकतंत्र की स्थापना से जुड़ी क़वायद में ही छिपी है. दरअसल राजनेताओं और सत्तारूढ़ तबके की इच्छाओं के मुताबिक लोकतंत्र के अलग-अलग मायने गढ़ने और उनको लागू करने के तौर-तरीक़ों से जनता के मन में भारी असंतोष समा गया है. 

दशकों से अफ़्रीका के सियासी तजुर्बे में बार-बार तख़्तापलट की घटनाओं का रुझान देखा गया है. औपनिवेशिक दौर के बाद के कालखंड में अफ़्रीकी महादेश के कई हिस्सों में सैन्य तख़्तापलटों की एक झड़ी सी दिखाई दी. पूरब से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण तमाम इलाक़ों में ऐसी घटनाएं देखने को मिलीं. ख़ासतौर से 1960 के दशक के मध्य से 1980 के दशक के आख़िर तक एक के बाद एक कई जगह तख़्तापलट की घटनाएं देखने को मिलीं. ग़रीबी, कुप्रबंधन और बेहिसाब भ्रष्टाचार से जुड़े आरोपों को बुनियादी तौर पर  तख़्तापलटों के पीछे की जायज़ वजहों के तौर पर पेश किया जाता रहा. हालांकि, 2000 के दशक तक लोकतंत्र की लहर आने और दोबारा बहुदलीय राजनीति की शुरुआत से ऐसी धारणा बनी कि अफ़्रीका में फ़ौज अब राजनीतिक मामलों में अपना दबदबा कम कर रही है. भले ही इस मोर्चे पर तरक़्क़ी हुई है, लेकिन सैन्य तख़्तापलट और जबरन सत्ता हथियाने की घटनाएं अफ़्रीका में अमन और स्थिरता बरकरार रखने के रास्ते में बड़ी चुनौती बन गई हैं.  

गिनी, सूडान, माली, चाड, बुर्किना फ़ासो और गिनी बिसाऊ में हाल ही में तख़्तापलट की घटनाएं देखने को मिलीं. इनसे नागरिक सत्ता में फ़ौज की दखलंदाज़ी की पुरानी यादें ताज़ा हो गईं. ये एक अजीब विडंबना है कि इस प्रवृति के सामने आने की एक वजह कुछ अफ़्रीकी देशों में लोकतंत्र की स्थापना से जुड़ी क़वायद में ही छिपी है. दरअसल राजनेताओं और सत्तारूढ़ तबके की इच्छाओं के मुताबिक लोकतंत्र के अलग-अलग मायने गढ़ने और उनको लागू करने के तौर-तरीक़ों से जनता के मन में भारी असंतोष समा गया है. कई मामलों में सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक वातावरण में आई गिरावट को तख़्तापलट की घटनाओं के लिए ज़िम्मेदार ठहराया जाता है. कई बार शक्तिशाली तबकों के बीच सत्ता का संघर्ष भी इसके पीछे की एक वजह रहती है. 1950 के बाद से अफ़्रीका में कामयाबी से तख़्तापलट और जबरन सत्ता हथियाने की 200 से ज़्यादा घटनाएं हो चुकी हैं. ये आंकड़ा ही सबसे बड़ा सबूत है कि सैन्य तख़्तापलट से स्थिरता बहाल नहीं हो सकती, और न ही इनसे सामाजिक-आर्थिक चिंताओं का निपटारा किया जा सकता है. हालांकि, तख़्तापलट के अलग-अलग वाक़यों के पीछे अलग-अलग वजह रही है, लेकिन इस सिलसिले में बाहरी कारकों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. 

सैनिक तख़्तापलटों की बढ़ती घटनाओं के पीछे यथास्थिति बदलने का कोई भाव नहीं होता. दरअसल, जब फ़ौज की निहित सत्ता और विशेषाधिकार को ख़तरा पैदा होता है तो वो इस तरह के हथकंडे अपनाती है. लिहाज़ा तख़्तापलट के पीछे मौजूदा तौर-तरीक़ों के बचाव की फ़ौजी फ़ितरत को ही ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. 

अफ़्रीका में तख़्तापलट की झड़ी

माली (अगस्त 2020): माली में हुए संसदीय चुनावों में पूर्व राष्ट्रपति इब्राहिम बाउबकर कीता को अपनी कुर्सी गंवानी पड़ी थी. इसके बाद वहां विवादों और अशांति का दौर छिड़ गया. इसी बीच माली की फ़ौज ने सत्ता पर क़ब्ज़ा जमाकर सेना की अगुवाई वाली सरकार स्थापित कर ली. विद्रोही गतिविधियों पर क़ाबू पाने में नाकामी, कथित सरकारी भ्रष्टाचार, कोविड-19 महामारी की मार और खस्ताहाल अर्थव्यवस्था तख़्तापलट के पीछे की मुख्य वजहें रही. 

चाड (अप्रैल 2021): उत्तरी चाड में विद्रोही गुट फ़्रंट फ़ॉर चेंज एंड कॉन्कॉर्ड से जूझ रही सैनिक टुकड़ी का हाल-चाल जानने गए पूर्व राष्ट्रपति इदरीश डेबी की हत्या कर दी गई थी. खुले तौर पर संविधान के ख़िलाफ़ जाकर सत्ता हथियाने की क़वायद के तहत उनके बेटे फ़ौजी जनरल महम्मत इदरीश डेबी को तत्काल उनकी जगह राष्ट्रपति पद पर बिठा दिया गया.

गिनी (सितंबर 2021): अमेरिका में प्रशिक्षण हासिल कर चुके स्पेशल फ़ोर्सेज़ के कमांडर ममाडी दोउमबोइया ने पूर्व राष्ट्रपति अल्फ़ा कोंडे के ख़िलाफ़ तख़्तापलट की अगुवाई की. दरअसल, गिनी सालों से ग़रीबी और बेहिसाब भ्रष्टाचार की मार झेलता आ रहा था. इसके अलावा संविधान में विवादित ढंग से किए गए संशोधन के ज़रिए अल्फ़ा कोंडे को तीसरे कार्यकाल के लिए चुनाव लड़ने की मंज़ूरी दे दी गई. इन तमाम हालातों के बीच सत्ता हथियाने की अपनी क़वायद को ममाडी ने सार्वजनिक हित की दुहाई देकर जायज़ ठहराया. 

सूडान (सितंबर 2021): पूर्व प्रधानमंत्री अब्दल्ला हमदोक के साथ सत्ता की साझेदारी से जुड़े सौदे को ठेंगा दिखाकर जनरल अब्दल फ़तह अल-बुरहान की अगुवाई में सूडान की फ़ौज ने देश की हुकूमत पर क़ब्ज़ा जमा लिया. सौदे का मकसद कई दशकों बाद सूडान में पहली बार निष्पक्ष चुनावों के लिए रास्ता साफ़ करना था.

बुर्किना फ़ासो (जनवरी 2022): सैन्य नेता पॉल-हेनरी सानडाओगो डामिबा के नेतृत्व में देश की फ़ौज ने पूर्व राष्ट्रपति रॉच काबोरे को सत्ता से हटाकर उनकी हुकूमत को भंग कर दिया. फ़ौज ने रॉच को बंदी बना लिया. पूर्व राष्ट्रपति काबोरे पर नागरिकों की चिंताओं का निपटारा करने में विफल रहने का आरोप लगाया गया. उन्हें बढ़ते इस्लामिक विद्रोह पर क़ाबू पाने में नाकाम करार दिया गया. इन्हीं वजहों को आधार बनाकर तख़्तापलट को जायज़ ठहराया गया. बाग़ी सैनिकों ने लड़ाकों से जंग के लिए बेहतर संसाधनों और मदद के साथ-साथ सैन्य प्रमुखों को पद से हटाने की भी मांग की. पिछले साल जून में हथियारबंद गुटों ने याघा प्रांत के दूरदराज़ के गांव सोल्हान में हमला कर तक़रीबन 130 नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया था. इससे काबोरे के नेतृत्व और उनकी वैधानिकता को झटका लगा था. सैनिकों द्वारा बुर्किना फ़ासो की सत्ता हथियाए जाने के बाद राजधानी ऊगाडुगु के निवासियों ने सड़कों पर उतरकर तख़्तापलट का जश्न मनाया और फ़्रांस के झंडे जलाए. इसके बाद ECOWAS और अफ़्रीकी संघ ने बुर्किना फ़ासो की सदस्यता निलंबित कर दी.

गिनी बिसाऊ (फरवरी 2022): पश्चिमी अफ़्रीका के तटीय देश गिनी बिसाऊ में तख़्तापलट की नाकाम कोशिश हुई. अफ़्रीकी महादेश के सबसे छोटे देशों में से एक गिनी बिसाऊ ड्रग्स और नारकोटिक्स के व्यापार का बड़ा अड्डा बन गया है. नतीजतन यहां बेहिसाब भ्रष्टाचार का बोलबाला है. देश में एक लंबे अर्से से राजनीतिक अस्थिरता का वातावरण है. गिनी बिसाऊ लैटिन अमेरिका में पैदा होने वाले कोकीन की बाक़ी दुनिया में सप्लाई का मुख्य केंद्र बनकर उभरा है. यहां से आगे यूरोप की ओर कोकीन की सप्लाई की जाती है. राष्ट्रपति उमारो सिसोको एम्बालो ने तख़्तापलट की कोशिश को “लोकतंत्र के ख़िलाफ़ नाकाम हमला” करार देते हुए ड्रग तस्करी के साथ इसके संभावित संपर्कों की ओर इशारा किया है. 

तख़्तापलट के पीछे के दो मुख्य कारण

एक बार फिर अफ़्रीका में तख़्तापलट की घटनाओं के सिर उठाने और बढ़ती फ़ौजी दख़लंदाज़ियों से लोकतांत्रिक मूल्यों पर सीधे तौर पर आंच आने लगी है. इसके अलावा इन घटनाओं से शांति, स्थिरता और सुरक्षा को भी ख़तरा है. तख़्तापलट की ऐसी ज़्यादातर घटनाएं उन देशों में देखने को मिल रही हैं जो दशकों तक चले निरंकुश शासन के बाद लोकतंत्र की ओर क़दम बढ़ा रहे थे. इसमें कोई शक़ नहीं है कि लोकतंत्र में फ़ौज की बेहद अहम भूमिका होती है. वो या तो जनता की भागीदारी वाले विरोध-प्रदर्शनों को कुचलने से मना कर सकती है या दमनकारी शासन को पलट सकती है. वहीं दूसरी ओर, फ़ौज निर्वाचित सरकारों को भंग कर लोकतांत्रिकरण की प्रक्रिया में रोड़े भी अटका सकती है. ख़ासतौर से जब सुधारों या मौजूदा व्यवस्थाओं में बदलाव की क़वायदों से उनके निजी हितों को ख़तरा पहुंचता हो, तो वो इस तरह के क़दम उठा सकती हैं. इस बात के प्रमाण हमारे सामने मौजूद हैं. अफ़्रीका के कई निरंकुश शासक सत्ता पर अपनी पकड़ को और मज़बूत बनाने के लिए अपनी नस्लीय सेना खड़ी करते रहे हैं. अफ़्रीका के तानाशाह फ़ौज में उन्हीं सैनिकों की भर्ती करते हैं जो उनकी ही नस्ल से ताल्लुक़ रखते हैं. वो उन्हें ही फ़ौज की अगुवाई का ज़िम्मा सौंपते हैं. साझा बिरादरी की पहचान से फ़ौजियों और तानाशाहों के बीच वफ़ादारी सुनिश्चित होती है. इन हालातों में सैनिक तख़्तापलटों की बढ़ती घटनाओं के पीछे यथास्थिति बदलने का कोई भाव नहीं होता. दरअसल, जब फ़ौज की निहित सत्ता और विशेषाधिकार को ख़तरा पैदा होता है तो वो इस तरह के हथकंडे अपनाती है. लिहाज़ा तख़्तापलट के पीछे मौजूदा तौर-तरीक़ों के बचाव की फ़ौजी फ़ितरत को ही ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है. 

कमज़ोर, डांवाडोल और परिवर्तनशील लोकतंत्र वाले माहौल में विद्रोही और उग्रवादी हिंसा के प्रसार ने सैनिक हस्तक्षेप के लिए ज़मीन तैयार कर दी है. यही वजह है कि अफ़्रीका के नागरिक और राजनीतिक मसलों में फ़ौज की दख़लंदाज़ी दिखाई दे रही है. 

अफ़्रीका में (ख़ासतौर से साहेलियन क्षेत्र में) तख़्तापलट की घटनाएं बार-बार देखने को मिलती हैं. फ़ौज की तंगहाली और पर्याप्त संसाधनों का अभाव भी इसके पीछे की एक बड़ी वजह रही है. अफ़्रीकी फ़ौज को बग़ैर ज़रूरी जंगी तैयारी के बढ़ती विद्रोही गतिविधियों पर लगाम लगाने की ज़िम्मेदारी दे दी जाती है. अपर्याप्त प्रशिक्षण और हथियारों, संसाधनों और फ़ंड की किल्लत से अफ़्रीका की फ़ौज पर ग़ैर-मुनासिब बोझ आ गया है. नतीजतन वहां की फ़ौज सरकार के ख़िलाफ़ दख़लंदाज़ी करने लगी है. हाल ही में माली और बुर्किना फ़ासो में ऐसा ही देखने को मिला. एक के बाद एक हमले और उनके बाद सरकारों के ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर होने वाले विरोध-प्रदर्शनों ने दोनों ही देशों में तख़्तापलट की इबारत लिख दी. कमज़ोर, डांवाडोल और परिवर्तनशील लोकतंत्र वाले माहौल में विद्रोही और उग्रवादी हिंसा के प्रसार ने सैनिक हस्तक्षेप के लिए ज़मीन तैयार कर दी है. यही वजह है कि अफ़्रीका के नागरिक और राजनीतिक मसलों में फ़ौज की दख़लंदाज़ी दिखाई दे रही है. 

अफ़्रीका में शासन-प्रशासन के स्तर पर कई तरह की नाकामियां दिखाई देती हैं. सुरक्षा और विकास के मसलों पर अफ़्रीका की क्षेत्रीय सरकारों को अनेक प्रकार की कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. साहेल और हॉर्न ऑफ़ अफ़्रीका में फ़ौज निरंतर सत्ता अपने हाथों में लेती रहती है. यहां हमेशा से ही इस बात की चिंता लगी रही है. पाबंदियों से अफ़्रीकी संघ और ECOWAS के मनमाफ़िक़ सियासी नतीजे हासिल नहीं हो सके हैं. अगस्त 2020 में माली और सितंबर 2021 में गिनी में लागू पाबंदियों के उल्टे नतीजे सामने आए. इन पाबंदियों के चलते दोनों ही देशों के सैनिक नेतृत्व को लोकप्रिय समर्थन हासिल हुआ. अफ़्रीका के कई देशों में सिविल सोसाइटी से जुड़े संगठन लगातार ECOWAS जैसे क्षेत्रीय संगठनों से पाबंदी का इस्तेमाल नहीं करने का अनुरोध करते आ रहे हैं. व्यापार पर रोक और सरहद बंद रहने से कारोबार पर भले ही बुरा असर पड़ा हो, लेकिन फ़ौजी नेताओं की सत्ता और रसूख़ बरकरार है. पश्चिमी अफ़्रीकी क्षेत्र में भविष्य में क्षेत्रीय सुरक्षा ढांचे में किसी तरह की कमज़ोरी आने से न सिर्फ़ साहेलियन देशों बल्कि पश्चिमी अफ़्रीका के तटवर्ती देशों में भी उग्रवाद के प्रसार में तेज़ी आने की आशंका है. 

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Authors

Abhishek Mishra

Abhishek Mishra

Abhishek Mishra is an Associate Fellow with the Manohar Parrikar Institute for Defence Studies and Analysis (MP-IDSA). His research focuses on India and China’s engagement ...

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Kenan Toprak

Kenan Toprak

Kenan Toprak is a Turkish analyst and writer specialising in Turkey-Africa relations with a special focus on Turkey's relations with Nigeria.

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