Author : Kabir Taneja

Expert Speak Raisina Debates
Published on Mar 21, 2023 Updated 0 Hours ago

वैश्विक समुदाय को आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई में तालिबान के साथ संलग्न होने से पहले इस बात को महसूस करने की आवश्यकता है कि उनके इस क़दम की राजनीतिक सीमाएं भी होगीं और इसके दुष्परिणाम भी होंगे.

अफ़ग़ानिस्तान: सुरक्षा देने वालों के रूप में तालिबान से मदद की क़ीमत और चिंताएं!

वैश्विक स्तर पर आतंकवाद विरोधी विचार-विमर्शों और चर्चा-परिचर्चाओं का एक वर्ग अब राजनीतिक और सैन्य उद्देश्यों के बीच बंटता हुआ नज़र आ रहा है. जहां तक अफ़ग़ानिस्तान की बात है, तो  अधिकांश देश वहां की परिस्थितियों की वजह से राजनीतिक असमंजस की हालात में पहुंच चुके हैं और तालिबानी शासन वाले काबुल की नई वास्तविकता में किस प्रकार से आगे बढ़ा जाए, इसको लेकर उनकी नीतियां भी स्पष्ट नहीं हैं. दूसरी ओर, सेनाएं जिनपर आतंकवाद पर लगाम लगाने की ज़िम्मेदारी है, उन्हें आगे बढ़ने के लिए और ख़तरों का पता लगाकर उन पर निशाना साधने एवं उनको समाप्त करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है, भले ही उन्हें इसके लिए तालिबान जैसे संगठन से मदद लेने के स्तर पर ही क्यों न जाना पड़े.

कई रिपोर्टें ऐसी भी सामने आई हैं, जिनमें बताया गया है कि जिस परिसर में अल-ज़वाहिरी को मारा गया था वह हक़्क़ानी नेटवर्क से संबंधित था. ज़ाहिर है कि इनमें से किसी भी साज़िश के सच (या इनके बीच कहीं सच्चाई होने की) होने की पूरी संभावना है.

पूर्व ब्रिटिश राजनयिक एडमंड फिटन-ब्राउन ने एक लेख में हाल ही में सवाल पूछा था कि 'क्या आतंकवादी आतंकवाद विरोधी बन सकते हैं?' उन्होंने अपने इस लेख में इस्लामिक स्टेट-ख़ुरासान प्रांत (ISKP) द्वारा उत्पन्न ख़तरे को संभावित रूप से नज़रअंदाज़ करते हुए सुरक्षा प्रदाता के रूप में तालिबान की भूमिका की ओर इशारा करते हुए यह सवाल उठाया था. संयुक्त राज्य अमेरिका (US) की अफ़ग़ानिस्तान से वापसी के 10 महीने बाद एक ड्रोन हमले के ऑपरेशन में क़ाबुल में अल क़ायदा प्रमुख अयमान अल-ज़वाहिरी की हत्या इस बारे में सवाल उठाती है कि क्या अमेरिका और तालिबान के बीच ऐसे साझा ख़तरों की वजह से कुछ सहयोग था और यह सहयोग अब भी है. ISKP के विचारक अबू साद अल-ख़ुरासानी की हत्या को लेकर भी इसी तरह के आरोप लगाए गए थे. इस हत्या की ज़िम्मेदारी तालिबान के जनरल डायरेक्टरेट ऑफ इंटेलिजेंस (GDI) ने ली थी. शुरुआत में सोशल मीडिया में जो अटकलें चल रही थीं, उनमें यह संभावना जताई गई थी कि काबुल के बाहर एक ड्रोन हमले में अबू साद अल-ख़ुरासानी को मार गिराया गया था.

अल-ज़वाहिरी की मौत

हालांकि अल-ज़वाहिरी की मौत को लेकर लोगों की राय बंटी हुई है. कुछ विश्लेषकों का कहना है कि अल-ज़वाहिरी की हत्या के पीछे अमेरिका और तालिबान के बीच कोई सहयोग (जैसे कि ख़ुफ़िया जानकारी साझा करना) नहीं था, जबकि कई अन्य विश्लेषकों ने सवाला उठाया कि अगर ऐसा नहीं था, तो फिर उसे किस प्रकार से निशाना बनाया गया. कई रिपोर्टें ऐसी भी सामने आई हैं, जिनमें बताया गया है कि जिस परिसर में अल-ज़वाहिरी को मारा गया था वह हक़्क़ानी नेटवर्क से संबंधित था. ज़ाहिर है कि इनमें से किसी भी साज़िश के सच (या इनके बीच कहीं सच्चाई होने की) होने की पूरी संभावना है. ISKP ने खुले तौर पर तालिबान के विरुद्ध युद्ध छेड़ा हुआ है, हालांकि इसे 'आतंकवाद विरोधी' लड़ाई के रूप में देखना ग़लत होगा. जहां तक तालिबान की बात है, तो यह राजनीतिक रूप से उसके अस्तित्व की लड़ाई है, जैसी कि काबुल में पिछली सरकारों के लिए थी. ISKP दो दशकों से अधिक समय से तालिबान के ख़िलाफ़ ही लड़ रहा है. ज़ाहिर है कि तालिबान वैसा हश्र नहीं चाहते हैं, जैसा कि रिपब्लिक  यानी पिछली सरकार का हुआ था.

हालांकि, ISKP के विस्तार का संभावित ख़तरा बहुत बड़ा है, जबकि कुछ लोगों का मानना है कि इसके ख़तरे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया गया है. सच्चाई यह है कि इस क्षेत्र के देश, विशेष रूप से अफ़ग़ानिस्तान के साथ सीमाएं साझा करने वाले देश हालात को लेकर सतर्क हैं. उदाहरण के तौर पर किर्गिस्तान की सुरक्षा एजेंसियों का अनुमान है कि इस गर्मी तक अफ़ग़ानिस्तान के उत्तरी हिस्सों में 7,000 तक ISKP आतंकवादी जमा हो सकते हैं. इसके साथ ही मध्य एशिया के देश विशेष रूप से जनजातीय फॉल्ट लाइन्स को लेकर चिंतित रहते हैं, क्योंकि तालिबान के पश्तून-केंद्रित सत्ता ढांचे को देखते हुए ISKP यहां अपना जमावड़ा कर सकता है.

तालिबान के साथ मिलकर आतंकवाद का सामना करने की उपरोक्त चिंताओं की राजनीतिक सीमाएं और दुष्परिणाम दोनों हैं. सबसे पहले यह तालिबान को एक महत्वपूर्ण स्तर की वैधता प्रदान करता है, वो भी ऐसे समय में जब अफ़ग़ानिस्तान में सबसे अधिक दिखाई देने वाली मुख्य विदेशी ताक़तें यानी रूस और चीन भी इस बात पर संदेह जताते हैं कि तालिबान अपने राजनीतिक ढांचे का निर्माण किस प्रकार से कर रहा है. अफ़ग़ानिस्तान में मास्को के प्रमुख व्यक्ति ज़मीर काबुलोव ने हाल ही में एक बार फिर इस बात पर प्रकाश डाला है कि अफ़ग़ानिस्तान में नेतृत्व समावेशी नहीं है यानी सभी को साथ लेकर कार्य नहीं कर रहा है. इसके बावज़ूद, ISKP के ख़िलाफ़ तालिबान के प्रयासों को महत्व दिया जाता है, जबकि तालिबान दूसरे आतंकवादी संगठनों जैसे कि लश्कर-ए-तैयबा, जैश-ए-मोहम्मद, ईस्ट तुर्केस्तान इस्लामिक मूवमेंट (ETIM) आदि पर नियंत्रण करने में दुविधा की स्थिति रहता है. इससे यह लगता है कि तालिबान खुद की एक सीमित या फिर कहा जाए कि रणनीतिक लिहाज़ से इस्तेमाल की अनुमति देता है, और उसका यह क़दम भरोसा पैदा करता है. ज़ाहिर है कि तालिबान की इस प्रकार की सामरिक उपयोगिता को लेकर अलग-अलग देशों द्वारा अपने संकुचित या कहें कि छोट-छोटे हितों के आधार पर उससे संपर्क स्थापित किया जाता है, न कि व्यापक और अधिक बुनियादी आतंकवाद रोधी कार्रवाईयों के आधार पर.

तालिबान की जीत ने अन्य आतंकी समूहों में जोश भरने और उन्हें प्रेरित करने का काम किया है, जो अब मज़बूती के साथ अपनी रणनीतिक ताक़त को सफलता के साधन के रूप में देखते हैं.

हालांकि, इस सबके परिणामस्वरूप तालिबान के इस तर्क को सहारा देने का काम किया है कि उसका नया इस्लामिक अमीरात, ISKP आतंकी संकठन के ख़िलाफ़ कार्रवाई में मदद करने के लिए एक बेहतर और अनुकूल विकल्प है. ज़ाहिर है कि यह एक खुला सवाल छोड़ देता है कि यदि यह एक क़ानूनी रणनीतिक पॉलिसी बन जाती है, तो फिर रेड लाइन कहां मौज़ूद है? तालिबान की जीत ने अन्य आतंकी समूहों में जोश भरने और उन्हें प्रेरित करने का काम किया है, जो अब मज़बूती के साथ अपनी रणनीतिक ताक़त को सफलता के साधन के रूप में देखते हैं. क़तर में अप्रैल के महीने में तालिबान के प्रतिनिधि ने हमास के नेता इस्माइल हनिया से मुलाक़ात की थी. उल्लेखनीय है कि हमास एक घोषित विदेशी आतंकवादी समूह है और जो अमेरिका को हराने के बाद तालिबान को बधाई देने वालों में सबसे आगे था. अन्य आतंकी गुटों की बात करें, तो मिडिल ईस्ट में हिज़्बुल्लाह से लेकर वर्तमान में पश्चिम अफ्रीका के साहेल इलाक़े में सरकारों को गिराने का इरादा रखने वाले तमाम इस्लामी आतंकी समूह यह अच्छी तरह से जानते हैं कि वे अपने मकसद में क़ामयाब हो सकते हैं.

तालिबान को मदद

वे देश और लोग, जो तालिबान शासन के राजनयिक और राजनीतिक सामान्यीकरण की तलाश करने में जुटे हुए हैं, उनके द्वारा इनमें से कई बुनियादी सवालों को संबोधित नहीं किया गया है. हालांकि ऐसा करने से पश्चिमी देशों में राजनीतिक प्रक्रियाओं और स्थिरता पर सीधे तौर पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ सकता है, लेकिन यह निश्चित रूप से अफ़ग़ानिस्तान के पड़ोसी देशों को अवश्य प्रभावित करेगा. तालिबान शासन के साथ संबंध स्थापित करने और वैद्यता प्रदान करने के ज़रिए उसे मान्यता देने की प्रवृत्ति लगातार बढ़ती दिख रही है और यह प्रवृत्ति दो प्रमुख मोर्चों से स्पष्ट दिखाई दे रही है. पहला, मोर्चा उम्मीद जगाकर उसे हथियार के रूप में इस्तेमाल करना है (या वैकल्पिक रूप से " फॉस्टियन सौदेबाज़ी " के रूप में पेश किया गया), यानि कि तालिबान ने शर्त रखी थी कि अगर उसको आधिकारिक तौर पर मान्यता मिल जाती है, तो वह अन्य चीज़ों के अलावा लड़कियों की शिक्षा और महिलाओं के काम करने के अधिकार जैसे मुद्दों पर अपने रुख़ को नरम कर देगा. हालांकि तालिबान शासन की यह बात अब बहुत पुरानी हो चुकी है और अब तक ज़मीनी स्तर पर इस संबंध में कुछ भी दिखाई नहीं दिया है. दूसरा मोर्चा, तालिबान के भीतर एक अधिक स्वीकार्य वर्ग को संभावित रूप से सशक्त बनाने का एक प्रयास है, जिसमें बेहद कुख्यात हक़्क़ानी नेटवर्क का नेतृत्व शामिल है, जो कभी अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका के आतंकवाद विरोधी अभियानों के केंद्र में था. ज़ाहिर है कि अगर ऐसा होता है, तो इसका रणनीतिक मतलब यह होगा कि पूरे आंदोलन को ही एक हिसाब से समाप्त करने की दिशा में क़दम बढ़ाना. साथ ही इसका मतलब यह भी होगा कि आंदोलन के भीतर मौज़ूद उन लोगों से निपटना, जो ऐसा करना चाहते हैं और ऐसा करने में सक्षम भी हैं. इसके साथ ही उन्हें ऐसी उम्मीद है कि अगर संगठन के भीतर कोई शक्ति संघर्ष होता है, तो वे खुद व खुद सबसे ऊपर आ जाते.

आदर्श रूप से देखा जाए तो आतंकवाद का मुक़ाबला करने के दौरान कूटनीति और सेना के साइलोस के तहत दो अलग-अलग नीतियों से बचा जाना चाहिए. इस तरह के विभाजन खाई पैदा करने का काम करते हैं, जिनका कि गैर-सरकारी आतंकी किरदार लाभ उठा सकते हैं.

हालांकि, यह सब राजनीतिक तौर पर एक चुनौती है, जिसके जवाब कम होते जा रहे हैं. आतंकी संगठन ISKP के विरुद्ध तालिबान को किसी भी प्रकार की मदद देने जैसे सामरिक हस्तक्षेप के अल्पकालिक लाभ ज़रूर हो सकते हैं, लेकिन इस समय ऐसा करके जिस कूटनीति की कल्पना की जा रही है, लंबी अवधि में इसे राजनीतिक रूप से किस प्रकार से देखा जाता है, उसके लिए यह नुक़सानदायक हो सकता है. यह भ्रम की स्थिति लगातार बढ़ती जा रही है और हाल ही में क़तर में हुए संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में भी दिखाई दी, जिसमें इस "नए" अफ़ग़ानिस्तान से निपटने के तरीक़े पर चर्चा हुई थी. इस कॉन्फ्रेंस में कुछ ख़ास हासिल नहीं हुआ, हालांकि, दोहा के नेतृत्व ने तालिबान के इकलौते सर्वोच्च नेता हिबतुल्लाह अख़ुंदज़ादा के साथ कथित तौर पर कंधार में सफल बातचीत ज़रूर की है.

आदर्श रूप से देखा जाए तो आतंकवाद का मुक़ाबला करने के दौरान कूटनीति और सेना के साइलोस के तहत दो अलग-अलग नीतियों से बचा जाना चाहिए. इस तरह के विभाजन खाई पैदा करने का काम करते हैं, जिनका कि गैर-सरकारी आतंकी किरदार लाभ उठा सकते हैं और लाभ उठाएंगे. ऐसा इसलिए है, क्योंकि ऐसी सरकारों के साथ बातचीत करना और समझौते करना एक हद तक सामान्य सी बात हो गई है.


कबीर तनेजा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के स्ट्रेटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम में फेलो हैं.

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Kabir Taneja

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Kabir Taneja is a Deputy Director and Fellow, Middle East, with the Strategic Studies programme. His research focuses on India’s relations with the Middle East ...

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