Author : Shubh Soni

Published on Nov 13, 2017 Updated 0 Hours ago

भारत-चीन संबंधों में मौजूद विरोधाभास — एक ओर दोनों देशों के सैनिकों का दो महीने तक एक-दूसरे के सामने मुस्तैदी से डटे रहना तथा दूसरी ओर विश्व व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं में बदलाव लाने को लेकर दोनों पक्षों के बीच सहमति बनना — का जन्म इस सिद्धांत से हुआ है कि दोनों राष्ट्रों द्वारा अपनी अर्थव्यवस्थाओं और समाज के बीच समन्वय बैठाने का सिलसिला जारी रखा जाए और आपसी मतभेदों का निपटारा बाद में किया जाए।

भारत-चीन संबंधों में द्विध्रुवीय विशेषताओं की झलक

पिछले साल भारत-चीन संबंधों में गंभीर द्विध्रुव्रीय या बाइपोलर प्रवृत्तियां देखने को मिलीं। साल की शुरूआत में चीन ने परमाणु आपूर्तिकर्ता देशों के समूह (एनएसजी) में भारत के प्रवेश का समर्थन करने से इंकार दिया। चीन ने भारत को इस समूह की सदस्यता दिए जाने का विरोध करते हुए कहा, “यह ऐसा नहीं है, जिसे दो देशों के बीच निजी तौर पर विदाई के तोहफे के तौर पर भेंट कर दिया जाए।” — चीन का इशारा निवर्तमान ओबामा प्रशासन द्वारा किए जा रहे भारत के पुरजोर समर्थन की ओर था।

एनएसजी में भारत की सदस्यता को जब चीन ने वीटो कर दिया, तो उसके बाद भारत ने भी मई में चीन की पहल पर आयोजित किए गए बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई) शिखर सम्मेलन का बहिष्कार किया। इस सम्मेलन में 29 शीर्ष नेताओं सहित 120 देशों के भाग लेने के बावजूद भारत ने इसमें गैर हाजिर रहकर समूचे विश्व का ध्यान अपनी ओर खींचा। इसकी वजह यह है कि बीआरआई का प्रमुख संघटक चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) उसकी सम्प्रभुता को कमजोर करता है।

कुछ समय के लिए पेंडुलम दूसरी दिशा में घूम गया, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जून में अस्ताना में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ)के 17वें लीडरशिप शिखर सम्मेलन में भाग लिया। इस दौरान भारत को पूर्ण सदस्य के तौर पर इस संगठन में औपचारिक प्रवेश दिलाया गया। इतना ही नहीं चीन के राष्ट्रपति शी और भारतीय प्रधानमंत्री मोदी के बीच संक्षिप्त बैठक को एनएसजी में भारत के प्रवेश के विरोध से उपजी पिछले महीनों की कड़ुवाहट कम करने के प्रयासों के तौर पर देखा गया।


पेंडुलम दूसरी दिशा में घूम गया, क्योंकि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जून में अस्ताना में आयोजित शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ)के 17वें लीडरशिप शिखर सम्मेलन में भाग लिया।


रिश्तों के बेहतर होने की आशा ज्यादा दिन कायम नहीं रह सकी, क्योंकि दोनों देशों के बीच डोकलाम पठार — भूटान, चीन और भारत को अलग करने वाले त्रिजंक्शन — पर सैन्य गतिरोध उत्पन्न हो गया। 16 जून से 28 अगस्त तक, दोनों परमाणु ताकतों — दुनिया की सबसे ज्यादा आबादी और दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी वाले देशों की सेनाएं डोकलाम पर एक-दूसरे के सामने डटी रहीं। जहां चीन का कहना था कि वह सरहद पर अपनी जमीन पर सड़क बनवा रहा है, वहीं भारत की दलील थी कि सड़क निर्माण जमीनी स्तर पर तथ्यों को बदलने का प्रयास था।

जैसे-जैसे ब्रिक्स शिखर सम्मेलन की तारीख नजदीक आती गई, दोनों पक्षों पर दबाव बढ़ता चला गया (खासतौर पर चीन पर, क्योंकि वह इस शिखर सम्मेलन की मेजबानी कर रहा था और वह बीआरआई शिखर सम्मेलन वाली स्थितियां दोहराना नहीं चाहता था) और उनमें इस बात पर सहमति बनी कि निर्माण से पहले वाली स्थिति बरकरार रखी जाए।

ब्रिक्स शिखर सम्मेलन में दोनों देशों के बीच अनेक बिंदुओं पर सामंजस्य रहा। ब्राजील, रूस और दक्षिण अफ्रीका के साथ भारत और चीन ने वैश्विक संचालन संबंधी कदमों और प्रक्रियाओं में सुधार लाने की दिशा में अहम कदम उठाए। उदाहरण के तौर पर, पांचों देशों ने विश्व व्यापार में बढ़ते संरक्षणवाद का कड़ा विरोध किया है और ब्रिक्स के भीतर व्यापार को बेहतर बनाने के लिए ठोस उपाय किये हैं। ब्रिक्स लोकल करंसी बॉन्ड मार्केट (एलसीबीएम) को प्रोत्साहन और ब्रिक्स ई-पोर्ट नेटवर्क के गठन के साथ-साथ ब्रिक्स लोकल करंसी बॉन्ड फंड (एलसीबीएमएफ)की स्थापना से लेकर पांच देशों के बीच वित्तीय बाजार समावेशन या फाइनेंशियल मार्केट इंटीग्रैशन को आगे बढ़ाना ब्रिक्स सहयोग की दिशा में महत्वपूर्ण बदलाव लाने वाला कदम है।

भारत-चीन संबंधों में मौजूद विरोधाभास — एक ओर दोनों देशों के सैनिकों का दो महीने तक एक-दूसरे के सामने मुस्तैदी से डटे रहना तथा दूसरी ओर विश्व व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं में बदलाव लाने को लेकर दोनों पक्षों के बीच सहमति बनना — का जन्म इस सिद्धांत से हुआ है कि दोनों राष्ट्रों द्वारा अपनी अर्थव्यवस्थाओं और समाज के बीच समन्वय बैठाने का सिलसिला जारी रखा जाए और आपसी मतभेदों का निपटारा बाद में किया जाए। प्रधानमंत्री राजीव गांधी की 1988 की ऐतिहासिक बीजिंग यात्रा के बाद से, इस सिद्धांत को दोनों देशों के बीच सही मायनों में स्वस्थ रिश्ते कायम करने के आदर्श तरीके के तौर पर देखा गया। दोनों देशों को अपनी-अपनी आर्थिक समृद्धि के लिए स्थिर कार्यनीतियों और सुरक्षित वातावरण के साथ एक-दूसरे के बाजार और लोगों की जरूरत है। इस सिद्धांत का अनुसरण करना जारी रखा गया, क्योंकि भारत और चीन ने यह फैसला किया कि वे आपसी मतभेदों को एक तरफ रखते हुए वैश्विक व्यवस्था में योगदान दे सकते हैं।

बीते साल ने शायद यही दर्शाया कि आपसी मतभेदों को नजरंदाज करके किए गए आर्थिक और भौगोलिक समन्वयन की मामूली उपयोगिता कम हो रही है। दोनों देशों द्वारा आर्थिक मोर्चे या अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में किए गए किसी भी साझा प्रयास को सीमा विवाद और सैन्य गतिरोध बुरी तरह खोखला कर देते हैं। यह बदली हुई व्यवस्था दोनों देशों की आर्थिक वास्तविकताओं पर आधारित है — 1988 में जब राजीव गांधी ने चीन का दौरा किया था, उस समय चीन और भारत की अर्थव्यवस्थाएं लगभग समान स्तर पर थीं, चीन का सकल घरेलू उत्पाद-जीडीपी 312 बिलियन डॉलर था, जबकि भारत का 292 बिलियन डॉलर था। इस समय चीन का जीडीपी 11.2 ट्रिलियन डॉलर है, जो भारत से लगभग पांच गुना अधिक है।

11.2 ट्रिलियन डॉलर जीडीपी के साथ चीन महज आर्थिक स्तर पर समन्वयन को ही अहमियत नहीं देता, बल्कि वह विश्व व्यवस्था का अकेला नियम निर्धारक या रूल मेकर बनने की इच्छा रखता है । इतना ही नहीं, चीन विकसित और विकासशील दोनों ही तरह के देशों को अपनी मर्जी के मुताबिक चलाना चाहता है। दूसरी ओर, भारत यह स्वीकार करता है कि 2.2 ट्रिलियन डॉलर वाली अर्थव्यवस्था और 1.2 बिलियन आबादी के साथ उसे वैश्विक अर्थव्यवस्था के साथ समन्वय बनाने की जरूरत है और उसे सभी प्रमुख देशों के साथ आर्थिक साझेदारियां करनी होंगी। भारत यह भी स्वीकार करता है कि वह अकेला व्यवस्था के नियम निर्धारित नहीं कर सकता, लेकिन कोई भी एक या एक से ज्यादा देश अगर ऐसा करने का प्रयास करते हैं, तो उन्हें उसकी चिंताएं ध्यान में रखनी होंगी।


11.2 ट्रिलियन डॉलर जीडीपी के साथ चीन महज आर्थिक स्तर पर समन्वयन को ही अहमियत नहीं देता, बल्कि वह विश्व व्यवस्था का अकेला नियम निर्धारक या रूल मेकर बनने की इच्छा रखता है । इतना ही नहीं, चीन विकसित और विकासशील दोनों ही तरह के देशों को अपनी मर्जी के मुताबिक चलाना चाहता है।


यह तो स्पष्ट हो चुका है कि बकाया और लम्बित विवादों को हल करने और भारत-चीन संबंधों को पटरी पर लाने की जिम्मेदारी उस देश पर है, जो शीत युद्ध खत्म होने के बाद से पहली सुपरपॉवर बनने की तैयारी कर रहा है। बड़ी अर्थव्यवस्था एक पूरी पीढ़ी की आर्थिक समृद्धि को निर्धारित करने की जद्दोजहद कर रही है, ऐसे में चीन को समान उद्देश्यों की खोज में अन्य देशों को साथ लेने का तरीके तलाशने होंगे। पिछले साल भर एनएसजी से लेकर डोकलाम तक भारत के साथ लगातार चला टकराव चीन जैसे महत्वाकांक्षाएं रखने वाले देश पर बुरा प्रभाव डालता है और उसे महज एक क्षेत्रीय ताकत तक सीमित कर देता है, जो अपने पड़ोसी देश भारत के साथ अपने मतभेद दूर करने में भी सक्षम नहीं हो सका है।

1988 और 2017 के दौरान दोनों देशों के बीच बने संबंध साझेदारी की मजबूत नींव प्रदान करते हैं, जिन्हें अगले स्तर पर ले जाए जाने की जरूरत है। कोई भी देश, दूसरे के बगैर आर्थिक वृद्धि हासिल नहीं कर सकता। यही बात दोनों देशों के तरक्की पाने के उद्देश्यों के संबंध में भी फिट बैठती है। छोटी अर्थव्यवस्था वाला देश होने के नाते भारत संबंध की शर्ते तय नहीं कर सकता — वह केवल अपनी राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को सामने रख सकता है। संघर्ष की स्थिति में, वह केवल चीन के प्रभाव के दावे को रोक या टाल सकता है। चीन प्रमुख एशियाई देश के रूप में उभरकर सामने आया है, इसलिए उसे ज्यादा समृद्ध क्षेत्रीय और अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था के लिए हर हाल में भारत के साथ संपर्क साधना चाहिए और काफी अर्से से लम्बित विवादों को सुलझाना चाहिए।

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