Author : Seema Sirohi

Published on Dec 24, 2020 Updated 0 Hours ago

अमेरिकी राष्ट्र की नींव रखने वालों ने ऐसी स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी कि जब कोई राष्ट्रपति चुनाव परिणाम को स्वीकार करने से ही मना कर दे- ऐसी परिस्थिति में क्या किया जाए इसको लेकर अमेरिकी संविधान में कोई व्यवस्था भी नहीं है.

एक विभाजित अमेरिका और विश्व

नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एक ऐसे एकजुट अमेरिका का वादा किया है जिसमें अमेरिकी नक्शे में डेमोक्रेटिक पार्टी के नीले और रिपब्लिकन पार्टी के लाल रंग से रंगे राज्यों में कोई भेद न हो और जिसमें सबके ‘घावों पर मरहम’ लगाने की नीति हो. जो बाइडेन एक ऐसे अमेरिका का नेतृत्व करने जा रहे हैं जो इस समय पश्चिमी जगत का शायद सबसे ज़्यादा ध्रुवीकरण का मारा प्रजातंत्र है ऐसे में उनके शब्द ख्याली भी लगते हैं और उदासी से भरे हुए भी.

विभाजित अमेरिका

हालांकि, लगता ऐसा ही है कि बाइडेन को अपने कार्यकाल के दौरान रिपब्लिकन पार्टी के नियंत्रण वाले सीनेट में मुसीबतों का बोझ उठाना पड़ेगा और वो डेमोक्रेटिक पार्टी के नीले रंग से रंगे अमेरिका के करीब आधे राज्यों में ही सही मायनों में शासन चला सकेंगे. रिपब्लिकन पार्टी की सत्ता वाले राज्य बाइडेन के पांव में बेड़ियां डालने की भरपूर कोशिशें करेंगे और उनपर देश को गलत दिशा में ले जाने का आरोप मढ़ते रहेंगे. लगता ऐसा ही है कि नए राष्ट्रपति अमेरिकी संसद से अपने मनमुताबिक क़ानून पास करवाने की बजाए ज़्यादातर कार्यपालक आदेशों से ही शासन चला सकेंगे.

इस वक्त घरेलू मोर्चे पर अमेरिकी बुरी तरह से बंटे हुए हैं और उनमें खटास शायद इतिहास में सबसे ज़्यादा है…ऐसे में अपने पहले वैश्विक पहल के रूप में दुनिया के प्रजातांत्रिक देशों का सम्मेलन बुलाने का बाइडेन का प्रयास थोड़ा अटपटा जान पड़ता है. 

अमेरिकी समाज में आंतरिक रूप से बंटवारे की स्थिति विदेशों में भी अमेरिका के हाथों को कमज़ोर करती है. इस साल गर्मियों में जब अमेरिकी समाज में ध्रुवीकरण चरम पर था और हर ओर असंतोष का वातावरण था तो अमेरिका के दोस्त और दुश्मनों ने इसपर अपनी पैनी नज़र रखी हुई थी. इस वक्त घरेलू मोर्चे पर अमेरिकी बुरी तरह से बंटे हुए हैं और उनमें खटास शायद इतिहास में सबसे ज़्यादा है…ऐसे में अपने पहले वैश्विक पहल के रूप में दुनिया के प्रजातांत्रिक देशों का सम्मेलन बुलाने का बाइडेन का प्रयास थोड़ा अटपटा जान पड़ता है.

इन मायनों में अमेरिका प्रजातंत्र इस समय वैसे ही तेज़ चाल चल रहा है जैसा कि भारत. चूंकि चीन अभी भी सोवियत संघ जैसा नहीं शक्तिशाली नहीं बन सका है और न ही अभी शीत युद्ध जैसे हालात हैं- ऐसे में अमेरिकी समाज को एकजुट होने की प्रेरणा देने वाला कोई बाहरी ख़तरा भी मौजूद नहीं है.

ज़िम्मेदार कौन

2020 के राष्ट्रपति चुनावों ने विभाजन को और पुख्ता ही किया है. राष्ट्रपति ट्रंप का प्रदर्शन चुनाव विश्लेषकों और राजनीतिक पंडितों के अनुमानों से कहीं बेहतर रहा है जो इस बात की ओर इशारा करता है कि राजनीतिक तौर पर आज का अमेरिका किस हद तक विभाजित है.

मानसिक तौर पर अमेरिकी समाज कितना बंटा हुआ है इसको समझना पड़ेगा. दोनों पक्षों के लिए अमेरिका के ‘मुद्दे’ और समस्याएं अलग हैं और उनकी नज़रों में इन समस्याओं के समाधान तो और भी जुदा-जुदा हैं.

अपने चार सालों के निराशाजनक कार्यकाल के साथ चुनावों का सामना कर रहे ट्रंप को 2016 के मुकाबले 2020 में करीब 10 मिलियन ज़्यादा वोट मिले (कुल 73 मिलियन) जबकि बाइडेन को कुल 78.5 मिलियन वोट हासिल हुए. दोनों उम्मीदवारों ने अपने-अपने स्तर पर कीर्तिमान स्थापित किए. आसान शब्दों में कहें तो करीब-करीब आधे अमेरिकियों का मानना रहा कि ट्रंप को 4 साल का एक और कार्यकाल मिलना चाहिए.

यह भी सिद्ध हुआ कि 2016 में ट्रंप की विजय कोई ऐतिहासिक दुर्घटना नहीं थी. और यह बिल्कुल संभव है कि एक इंसान के तौर पर उन्हें नापसंद करने वाले भी उनकी नीतियों को पसंद करते रहे.

निश्चित तौर पर लगातार दो बार ट्रंप अमेरिका की नब्ज़ पकड़कर उसे अपने हित में इस्तेमाल कर राजनीतिक लाभ लेने में कामयाब रहे. मीडिया द्वारा विदेशियों से घृणा करने वाले, नस्लवादी और इतिहास के सबसे महिला-विरोधी राष्ट्रपति के खिताबों से नवाज़े जाने के बावजूद ट्रंप लैटिन अमेरिकियों, अफ्रीकी-अमेरिकी समुदाय और अमेरिकी-भारतीय समुदाय के बीच अपना समर्थन बढ़ाने में कामयाब रहे.

ट्रंप के प्रचारकों ने अल्पसंख्यकों को लुभाने वाले सांस्कृतिक और राजनीतिक मुद्दों की डेमोक्रेट प्रचारकों के मुकाबले बेहतर पहचान की. अप्रवास और धर्म से जुड़े मुद्दे अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मायने रखते हैं. जैसे- लैटिन अमेरिकी मूल के लोग ठेठ ईसाई हैं और धार्मिक मुद्दों पर डेमोक्रेटिक पार्टी के रुख का वो पूरी तरह समर्थन नहीं करते. इसी तरह अश्वेत मूल के सभी लोग खुले दिल वाले अप्रवासी नीतियों का समर्थन नहीं करते भले ही अमेरिका को अप्रवासियों का देश बताने वाली बात कितनी भी ज़ोरशोर से की जाती रहे.

ट्रंप भले ही राष्ट्रपति चुनाव नहीं जीत सके लेकिन उनकी नीतियों और प्रचार ने रिपब्लिकन पार्टी को हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में ज़्यादा सीटें जीतने और सीनेट का नियंत्रण कर पाने की स्थिति में लाकर खड़ा ज़रूर कर दिया है.

अब जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी चुनावों में अपने प्रदर्शन की गहन समीक्षा कर रही है तो पार्टी के अंदर ही प्रगतिवादी और उदारवादी गुटों के बीच एक किस्म के गृह युद्ध जैसे हालात हैं और इस बात पर बहस जारी है कि हाउस और सीनेट में पार्टी की अपेक्षा से कम प्रदर्शन के लिए कौन ज़िम्मेदार है.

चाहे वो ‘पुलिस के अधिकार कम करने’ का लेफ्ट का नारा हो या ट्रंप की ओर से लगाया गया ‘समाजवाद’ का ठप्पा हो या इस साल गर्मियों में बड़े शहरों में छिड़ी हिंसा की घटनाएं हो जिसका ठीकरा ट्रंप लगातार ‘अतिवादी वामपंथी तत्वों’ पर फोड़ते रहे- इनमें से किस मुद्दे ने डेमोक्रेटिक पार्टी को नुकसान पहुंचाया. चुनाव नतीजों के अब तक के इस विश्लेषण में चिकनी चुपड़ी बातों के लिए कोई स्थान नहीं है.

एक ओर राष्ट्रीय स्तर पर ज़बरदस्त ध्रुवीकरण का माहौल रहा है, डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर भी एक किस्म की दूरी बनती जा रही है. एक तरफ हैं वो अपेक्षाकृत युवा तबका जो ‘सामाजिक न्याय’ की भाषा बोलता-समझता है तो वहीं दूसरी और वो मध्यमार्गी वोटर हैं जो ट्विटर पर नहीं बल्कि दूरदराज के और मिश्रित आबादी वाले मोहल्लों में रहते हैं. रिपब्लिकन पार्टी के साथ तनाव कम करने वाली पहल करने की बात तो छोड़िए, अभी तो डेमोक्रेटिक पार्टी के इन अलग-अलग गुटों के बीच ही बातचीत का कोई रास्ता निकलता नहीं दिख रहा है.

हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि रिपब्लिकन पार्टी से जुड़े लोग ही कोई दोस्ती का हाथ बढ़ाने को तैयार बैठे हैं. किसी ज़माने में लिंकन की पार्टी धीरे-धीरे ट्रंप की पार्टी बनती जा रही है, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर काम करने की पुरानी भावना समाप्त होती जा रही है और मौका मिलते ही डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति को नीचा दिखाने वालों की वाहवाही होने लगी है. और तो और हालात ऐसे हो गए हैं कि ट्रंप चाहे जितनी भी निंदाजनक कार्य करें उनकी आलोचना करने पर वोटों के नुकसान होने का ख़तरा बना रहता है.

2016 में लोकतांत्रिक तरीके से हासिल ट्रंप की जीत पर सवाल उठाने वाले डेमोक्रेट्स को रिपब्लिकंस ने अब तक माफ नहीं किया है. उस समय चुनावों में रूसी साठगांठ या फेसबुक पोस्ट को लेकर संदेह जताए गए थे हालांकि, बाद में पता चला था कि उनसे कुछ सौ वोटों पर ही प्रभाव पड़ा था. लेकिन इन संदेहों का परिणाम ये रहा कि राष्ट्रपति ट्रंप के खिलाफ 2017 में आयोजित रैलियों में ‘ट्रंप हमारे राष्ट्रपति नहीं’ के नारे ज़ोरशोर से सुनाई देते थे. अब ट्रंप की बारी है और वो भी अपने समर्थकों के दिलोदिमाग में बाइडेन की जीत पर संदेह के बीज बोने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते.

अमेरिकी समाज में जो विभाजन दिख रहे हैं वो गहरे और असली हैं और इनकी वजहें पुरानी भी हैं और कई सारी भी. समाज में सांस्कृतिक, नस्लीय, आर्थिक और भौगोलिक तौर पर जो विभाजन हैं वो अब और पक्के हो गए हैं और यहीं से किसी दल-विशेष के लिए समर्थन का आधार तैयार होता है चाहे इस समर्थन से अपने आर्थिक हितों का नुकसान भी क्यों न होता हो. ट्रंप के समर्थकों का मानना है कि भले ही ओबामाकेयर से उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं हासिल होती हों लेकिन इससे मनमाफिक डॉक्टर चुनने की उनकी आज़ादी छिनती है.

जब ट्रंप पर्ची पर लिखी जाने वाली दवाइयों की कीमतें कम करने की कोशिश करते हैं तो मुख्यधारा वाला मीडिया उन्हें संदेह भरी नज़रों से देखता है. बजाए इसपर बात होने के कि आम आदमी को इस फैसले से कितना फायदा होगा मीडिया में विमर्श का मुद्दा ये बनाया जाता है कि देखिए ट्रंप अपने कार्यकाल के अंतिम हफ्तों में ऐसा कर रहे हैं और ऐसा करके वो कितना गलत कर रहे हैं.

ट्रंप के समर्थकों का मानना है कि भले ही ओबामाकेयर से उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं हासिल होती हों लेकिन इससे मनमाफिक डॉक्टर चुनने की उनकी आज़ादी छिनती है.

परंपरागत और सोशल मीडिया दोनों ही इस विभाजन को और चौड़ा करते जाते हैं. अब चाहे वो ‘निष्पक्ष’ पत्रकारिता के किसी झूठे मानक से प्रेरित होकर ऐसा कर रहे हों या दवाओं की कीमतें कम होने पर कॉरपोरेट जगत के लाभ कम होने की चिंता से ग्रस्त होकर.

बाइडेन प्रशासन के सामने चुनौती

ये मान लेना कि बाइडेन प्रशासन इस विषाक्त कुचक्र को ख़त्म कर देगा, अपने आपको भुलावे में रखने जैसा है. हालांकि, वो इस गरमागरमी भरे वातावरण को ठंडा करने की कोशिश में हैं लेकिन ट्रंप हालिया चुनाव नतीजों को ‘चुराया हुआ’ करार देकर तनाव से भरी मौजूदा परिस्थितियों को और गरमाने की फिराक में हैं.

अमेरिकी राष्ट्र की नींव रखने वालों ने ऐसी स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी कि जब कोई राष्ट्रपति चुनाव परिणाम को स्वीकार करने से ही मना कर दे- ऐसी परिस्थिति में क्या किया जाए इसको लेकर अमेरिकी संविधान में कोई निर्देश भी नहीं है. हालांकि, संविधान में एक मौजूदा राष्ट्रपति के लिए हार स्वीकार कर विदाई भाषण देने की ज़रूरत नहीं बताई गई है परंतु चुनाव नतीजों के आधिकारिक सत्यापन और ऐलान के बाद उनका कार्यकाल पूरा माना जाता रहा है.

नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एक ऐसे एकजुट अमेरिका का वादा किया है जिसमें अमेरिकी नक्शे में डेमोक्रेटिक पार्टी के नीले और रिपब्लिकन पार्टी के लाल रंग से रंगे राज्यों में कोई भेद न हो और जिसमें सबके ‘घावों पर मरहम’ लगाने की नीति हो. जो बाइडेन एक ऐसे अमेरिका का नेतृत्व करने जा रहे हैं जो इस समय पश्चिमी जगत का शायद सबसे ज़्यादा ध्रुवीकरण का मारा प्रजातंत्र है ऐसे में उनके शब्द ख्याली भी लगते हैं और उदासी से भरे हुए भी.

विभाजित अमेरिका

हालांकि, लगता ऐसा ही है कि बाइडेन को अपने कार्यकाल के दौरान रिपब्लिकन पार्टी के नियंत्रण वाले सीनेट में मुसीबतों का बोझ उठाना पड़ेगा और वो डेमोक्रेटिक पार्टी के नीले रंग से रंगे अमेरिका के करीब आधे राज्यों में ही सही मायनों में शासन चला सकेंगे. रिपब्लिकन पार्टी की सत्ता वाले राज्य बाइडेन के पांव में बेड़ियां डालने की भरपूर कोशिशें करेंगे और उनपर देश को गलत दिशा में ले जाने का आरोप मढ़ते रहेंगे. लगता ऐसा ही है कि नए राष्ट्रपति अमेरिकी संसद से अपने मनमुताबिक क़ानून पास करवाने की बजाए ज़्यादातर कार्यपालक आदेशों से ही शासन चला सकेंगे.

इस वक्त घरेलू मोर्चे पर अमेरिकी बुरी तरह से बंटे हुए हैं और उनमें खटास शायद इतिहास में सबसे ज़्यादा है…ऐसे में अपने पहले वैश्विक पहल के रूप में दुनिया के प्रजातांत्रिक देशों का सम्मेलन बुलाने का बाइडेन का प्रयास थोड़ा अटपटा जान पड़ता है. 

अमेरिकी समाज में आंतरिक रूप से बंटवारे की स्थिति विदेशों में भी अमेरिका के हाथों को कमज़ोर करती है. इस साल गर्मियों में जब अमेरिकी समाज में ध्रुवीकरण चरम पर था और हर ओर असंतोष का वातावरण था तो अमेरिका के दोस्त और दुश्मनों ने इसपर अपनी पैनी नज़र रखी हुई थी. इस वक्त घरेलू मोर्चे पर अमेरिकी बुरी तरह से बंटे हुए हैं और उनमें खटास शायद इतिहास में सबसे ज़्यादा है…ऐसे में अपने पहले वैश्विक पहल के रूप में दुनिया के प्रजातांत्रिक देशों का सम्मेलन बुलाने का बाइडेन का प्रयास थोड़ा अटपटा जान पड़ता है.

इन मायनों में अमेरिका प्रजातंत्र इस समय वैसे ही तेज़ चाल चल रहा है जैसा कि भारत. चूंकि चीन अभी भी सोवियत संघ जैसा नहीं शक्तिशाली नहीं बन सका है और न ही अभी शीत युद्ध जैसे हालात हैं- ऐसे में अमेरिकी समाज को एकजुट होने की प्रेरणा देने वाला कोई बाहरी ख़तरा भी मौजूद नहीं है.

ज़िम्मेदार कौन

2020 के राष्ट्रपति चुनावों ने विभाजन को और पुख्ता ही किया है. राष्ट्रपति ट्रंप का प्रदर्शन चुनाव विश्लेषकों और राजनीतिक पंडितों के अनुमानों से कहीं बेहतर रहा है जो इस बात की ओर इशारा करता है कि राजनीतिक तौर पर आज का अमेरिका किस हद तक विभाजित है.

मानसिक तौर पर अमेरिकी समाज कितना बंटा हुआ है इसको समझना पड़ेगा. दोनों पक्षों के लिए अमेरिका के ‘मुद्दे’ और समस्याएं अलग हैं और उनकी नज़रों में इन समस्याओं के समाधान तो और भी जुदा-जुदा हैं.

चूंकि चीन अभी भी सोवियत संघ जैसा नहीं शक्तिशाली नहीं बन सका है और न ही अभी शीत युद्ध जैसे हालात हैं- ऐसे में अमेरिकी समाज को एकजुट होने की प्रेरणा देने वाला कोई बाहरी ख़तरा भी मौजूद नहीं है.  

अपने चार सालों के निराशाजनक कार्यकाल के साथ चुनावों का सामना कर रहे ट्रंप को 2016 के मुकाबले 2020 में करीब 10 मिलियन ज़्यादा वोट मिले (कुल 73 मिलियन) जबकि बाइडेन को कुल 78.5 मिलियन वोट हासिल हुए. दोनों उम्मीदवारों ने अपने-अपने स्तर पर कीर्तिमान स्थापित किए. आसान शब्दों में कहें तो करीब-करीब आधे अमेरिकियों का मानना रहा कि ट्रंप को 4 साल का एक और कार्यकाल मिलना चाहिए.

यह भी सिद्ध हुआ कि 2016 में ट्रंप की विजय कोई ऐतिहासिक दुर्घटना नहीं थी. और यह बिल्कुल संभव है कि एक इंसान के तौर पर उन्हें नापसंद करने वाले भी उनकी नीतियों को पसंद करते रहे.

निश्चित तौर पर लगातार दो बार ट्रंप अमेरिका की नब्ज़ पकड़कर उसे अपने हित में इस्तेमाल कर राजनीतिक लाभ लेने में कामयाब रहे. मीडिया द्वारा विदेशियों से घृणा करने वाले, नस्लवादी और इतिहास के सबसे महिला-विरोधी राष्ट्रपति के खिताबों से नवाज़े जाने के बावजूद ट्रंप लैटिन अमेरिकियों, अफ्रीकी-अमेरिकी समुदाय और अमेरिकी-भारतीय समुदाय के बीच अपना समर्थन बढ़ाने में कामयाब रहे.

ट्रंप भले ही राष्ट्रपति चुनाव नहीं जीत सके लेकिन उनकी नीतियों और प्रचार ने रिपब्लिकन पार्टी को हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में ज़्यादा सीटें जीतने और सीनेट का नियंत्रण कर पाने की स्थिति में लाकर खड़ा ज़रूर कर दिया है.

ट्रंप के प्रचारकों ने अल्पसंख्यकों को लुभाने वाले सांस्कृतिक और राजनीतिक मुद्दों की डेमोक्रेट प्रचारकों के मुकाबले बेहतर पहचान की. अप्रवास और धर्म से जुड़े मुद्दे अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मायने रखते हैं. जैसे- लैटिन अमेरिकी मूल के लोग ठेठ ईसाई हैं और धार्मिक मुद्दों पर डेमोक्रेटिक पार्टी के रुख का वो पूरी तरह समर्थन नहीं करते. इसी तरह अश्वेत मूल के सभी लोग खुले दिल वाले अप्रवासी नीतियों का समर्थन नहीं करते भले ही अमेरिका को अप्रवासियों का देश बताने वाली बात कितनी भी ज़ोरशोर से की जाती रहे.

ट्रंप भले ही राष्ट्रपति चुनाव नहीं जीत सके लेकिन उनकी नीतियों और प्रचार ने रिपब्लिकन पार्टी को हाउस ऑफ रिप्रजेंटेटिव में ज़्यादा सीटें जीतने और सीनेट का नियंत्रण कर पाने की स्थिति में लाकर खड़ा ज़रूर कर दिया है.

अब जबकि डेमोक्रेटिक पार्टी चुनावों में अपने प्रदर्शन की गहन समीक्षा कर रही है तो पार्टी के अंदर ही प्रगतिवादी और उदारवादी गुटों के बीच एक किस्म के गृह युद्ध जैसे हालात हैं और इस बात पर बहस जारी है कि हाउस और सीनेट में पार्टी की अपेक्षा से कम प्रदर्शन के लिए कौन ज़िम्मेदार है.

चाहे वो ‘पुलिस के अधिकार कम करने’ का लेफ्ट का नारा हो या ट्रंप की ओर से लगाया गया ‘समाजवाद’ का ठप्पा हो या इस साल गर्मियों में बड़े शहरों में छिड़ी हिंसा की घटनाएं हो जिसका ठीकरा ट्रंप लगातार ‘अतिवादी वामपंथी तत्वों’ पर फोड़ते रहे- इनमें से किस मुद्दे ने डेमोक्रेटिक पार्टी को नुकसान पहुंचाया. चुनाव नतीजों के अब तक के इस विश्लेषण में चिकनी चुपड़ी बातों के लिए कोई स्थान नहीं है.

एक ओर राष्ट्रीय स्तर पर ज़बरदस्त ध्रुवीकरण का माहौल रहा है, डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर भी एक किस्म की दूरी बनती जा रही है. एक तरफ हैं वो अपेक्षाकृत युवा तबका जो ‘सामाजिक न्याय’ की भाषा बोलता-समझता है तो वहीं दूसरी और वो मध्यमार्गी वोटर हैं जो ट्विटर पर नहीं बल्कि दूरदराज के और मिश्रित आबादी वाले मोहल्लों में रहते हैं. रिपब्लिकन पार्टी के साथ तनाव कम करने वाली पहल करने की बात तो छोड़िए, अभी तो डेमोक्रेटिक पार्टी के इन अलग-अलग गुटों के बीच ही बातचीत का कोई रास्ता निकलता नहीं दिख रहा है.

हालांकि, ऐसा भी नहीं है कि रिपब्लिकन पार्टी से जुड़े लोग ही कोई दोस्ती का हाथ बढ़ाने को तैयार बैठे हैं. किसी ज़माने में लिंकन की पार्टी धीरे-धीरे ट्रंप की पार्टी बनती जा रही है, दलगत राजनीति से ऊपर उठकर काम करने की पुरानी भावना समाप्त होती जा रही है और मौका मिलते ही डेमोक्रेटिक राष्ट्रपति को नीचा दिखाने वालों की वाहवाही होने लगी है. और तो और हालात ऐसे हो गए हैं कि ट्रंप चाहे जितनी भी निंदाजनक कार्य करें उनकी आलोचना करने पर वोटों के नुकसान होने का ख़तरा बना रहता है.

अब ट्रंप की बारी है और वो भी अपने समर्थकों के दिलोदिमाग में बाइडेन की जीत पर संदेह के बीज बोने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते.

2016 में लोकतांत्रिक तरीके से हासिल ट्रंप की जीत पर सवाल उठाने वाले डेमोक्रेट्स को रिपब्लिकंस ने अब तक माफ नहीं किया है. उस समय चुनावों में रूसी साठगांठ या फेसबुक पोस्ट को लेकर संदेह जताए गए थे हालांकि, बाद में पता चला था कि उनसे कुछ सौ वोटों पर ही प्रभाव पड़ा था. लेकिन इन संदेहों का परिणाम ये रहा कि राष्ट्रपति ट्रंप के खिलाफ 2017 में आयोजित रैलियों में ‘ट्रंप हमारे राष्ट्रपति नहीं’ के नारे ज़ोरशोर से सुनाई देते थे. अब ट्रंप की बारी है और वो भी अपने समर्थकों के दिलोदिमाग में बाइडेन की जीत पर संदेह के बीज बोने में कोई कसर नहीं छोड़ना चाहते.

अमेरिकी समाज में जो विभाजन दिख रहे हैं वो गहरे और असली हैं और इनकी वजहें पुरानी भी हैं और कई सारी भी. समाज में सांस्कृतिक, नस्लीय, आर्थिक और भौगोलिक तौर पर जो विभाजन हैं वो अब और पक्के हो गए हैं और यहीं से किसी दल-विशेष के लिए समर्थन का आधार तैयार होता है चाहे इस समर्थन से अपने आर्थिक हितों का नुकसान भी क्यों न होता हो. ट्रंप के समर्थकों का मानना है कि भले ही ओबामाकेयर से उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं हासिल होती हों लेकिन इससे मनमाफिक डॉक्टर चुनने की उनकी आज़ादी छिनती है.

जब ट्रंप पर्ची पर लिखी जाने वाली दवाइयों की कीमतें कम करने की कोशिश करते हैं तो मुख्यधारा वाला मीडिया उन्हें संदेह भरी नज़रों से देखता है. बजाए इसपर बात होने के कि आम आदमी को इस फैसले से कितना फायदा होगा मीडिया में विमर्श का मुद्दा ये बनाया जाता है कि देखिए ट्रंप अपने कार्यकाल के अंतिम हफ्तों में ऐसा कर रहे हैं और ऐसा करके वो कितना गलत कर रहे हैं.

ट्रंप के समर्थकों का मानना है कि भले ही ओबामाकेयर से उन्हें स्वास्थ्य सुविधाएं हासिल होती हों लेकिन इससे मनमाफिक डॉक्टर चुनने की उनकी आज़ादी छिनती है.

परंपरागत और सोशल मीडिया दोनों ही इस विभाजन को और चौड़ा करते जाते हैं. अब चाहे वो ‘निष्पक्ष’ पत्रकारिता के किसी झूठे मानक से प्रेरित होकर ऐसा कर रहे हों या दवाओं की कीमतें कम होने पर कॉरपोरेट जगत के लाभ कम होने की चिंता से ग्रस्त होकर.

बाइडेन प्रशासन के सामने चुनौती

ये मान लेना कि बाइडेन प्रशासन इस विषाक्त कुचक्र को ख़त्म कर देगा, अपने आपको भुलावे में रखने जैसा है. हालांकि, वो इस गरमागरमी भरे वातावरण को ठंडा करने की कोशिश में हैं लेकिन ट्रंप हालिया चुनाव नतीजों को ‘चुराया हुआ’ करार देकर तनाव से भरी मौजूदा परिस्थितियों को और गरमाने की फिराक में हैं.

अमेरिकी राष्ट्र की नींव रखने वालों ने ऐसी स्थिति की कल्पना भी नहीं की थी कि जब कोई राष्ट्रपति चुनाव परिणाम को स्वीकार करने से ही मना कर दे- ऐसी परिस्थिति में क्या किया जाए इसको लेकर अमेरिकी संविधान में कोई निर्देश भी नहीं है. हालांकि, संविधान में एक मौजूदा राष्ट्रपति के लिए हार स्वीकार कर विदाई भाषण देने की ज़रूरत नहीं बताई गई है परंतु चुनाव नतीजों के आधिकारिक सत्यापन और ऐलान के बाद उनका कार्यकाल पूरा माना जाता रहा है.

ये मान लेना कि बाइडेन प्रशासन इस विषाक्त कुचक्र को ख़त्म कर देगा, अपने आपको भुलावे में रखने जैसा है.

ट्रंप के वकीलों ने चुनावों में बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़े और वोटरों को डराने-धमकाने के आरोप लगाते हुए आधे-अधूरे मन से कई अर्ज़ियों दाखिल कीं. लेकिन सबूतों के अभाव में अदालतों ने इन्हें खारिज कर दिया. हालांकि, वकीलों ने अब भी हार नहीं मानी है क्योंकि ट्रंप अपने समर्थकों का उत्साह बनाए रखने के लिए इस मुद्दे को गरम रखना चाहते हैं. दर्जनों लोगों तक चंदे की मांग वाले ई-मेल रोज़ पहुंच रहे हैं ताकि अदालतों में केस लड़े जा सकें.

हालांकि, इस तरह की कोशिशें समय और धन की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं हैं. चुनाव हो गए, नतीजे आ गए, फिर भी दुनिया को ज़बरदस्ती ऐसे अमेरिकी हॉरर शो देखने को मजबूर किया जा रहा है. इन्हीं संसाधनों को ट्रंप की विरासत को यादगार बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाए तो ज़्यादा बेहतर नतीजे मिल सकते हैं.

एक पक्ष चेहरे पर विनम्र मुस्कान लिए तो दूसरा पक्ष दांत पीसते हुए 20 जनवरी की प्रतीक्षा कर रहा है, यही वो तारीख है जिस दिन दोपहर को बाइडेन शपथ लेंगे और ट्रंप भूतपूर्व राष्ट्रपति बन जाएंगे.

उसके बाद बाइडेन के लिए करने को एक साथ कई काम हैं, जैसे- महामारी पर काबू पाना, देश की आर्थिक सेहत दुरुस्त करना, ट्रंप के समर्थकों से संवाद स्थापित करना, दिलों में आए दरारों को पाटना, सबको मंज़ूर होने वाली आप्रवासी नीति बनाना, पेरिस जलवायु समझौते में फिर से शामिल होना, यूरोपीय देशों से रिश्ते सुधारना, चीन के प्रति एक विश्वसनीय नीति बनाना, ईरान से संपर्क स्थापित करना, अल कायदा/आईसिस जैसे आतंकवादी संगठनों पर नकेल कसना, बड़ी तकनीकी कंपनियों पर अंकुश लगाना आदि आदि.

यहां यह याद रखना भी ज़रूरी है कि बाइडेन पद संभालने वाले सबसे बुज़ुर्ग राष्ट्रपति होंगे- वो अभी हाल ही में 78 साल के हुए हैं.

ट्रंप के वकीलों ने चुनावों में बड़े पैमाने पर फर्जीवाड़े और वोटरों को डराने-धमकाने के आरोप लगाते हुए आधे-अधूरे मन से कई अर्ज़ियों दाखिल कीं. लेकिन सबूतों के अभाव में अदालतों ने इन्हें खारिज कर दिया. हालांकि, वकीलों ने अब भी हार नहीं मानी है क्योंकि ट्रंप अपने समर्थकों का उत्साह बनाए रखने के लिए इस मुद्दे को गरम रखना चाहते हैं. दर्जनों लोगों तक चंदे की मांग वाले ई-मेल रोज़ पहुंच रहे हैं ताकि अदालतों में केस लड़े जा सकें.

हालांकि, इस तरह की कोशिशें समय और धन की बर्बादी के सिवा कुछ नहीं हैं. चुनाव हो गए, नतीजे आ गए, फिर भी दुनिया को ज़बरदस्ती ऐसे अमेरिकी हॉरर शो देखने को मजबूर किया जा रहा है. इन्हीं संसाधनों को ट्रंप की विरासत को यादगार बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाए तो ज़्यादा बेहतर नतीजे मिल सकते हैं.

एक पक्ष चेहरे पर विनम्र मुस्कान लिए तो दूसरा पक्ष दांत पीसते हुए 20 जनवरी की प्रतीक्षा कर रहा है, यही वो तारीख है जिस दिन दोपहर को बाइडेन शपथ लेंगे और ट्रंप भूतपूर्व राष्ट्रपति बन जाएंगे.

उसके बाद बाइडेन के लिए करने को एक साथ कई काम हैं, जैसे- महामारी पर काबू पाना, देश की आर्थिक सेहत दुरुस्त करना, ट्रंप के समर्थकों से संवाद स्थापित करना, दिलों में आए दरारों को पाटना, सबको मंज़ूर होने वाली आप्रवासी नीति बनाना, पेरिस जलवायु समझौते में फिर से शामिल होना, यूरोपीय देशों से रिश्ते सुधारना, चीन के प्रति एक विश्वसनीय नीति बनाना, ईरान से संपर्क स्थापित करना, अल कायदा/आईसिस जैसे आतंकवादी संगठनों पर नकेल कसना, बड़ी तकनीकी कंपनियों पर अंकुश लगाना आदि आदि.

यहां यह याद रखना भी ज़रूरी है कि बाइडेन पद संभालने वाले सबसे बुज़ुर्ग राष्ट्रपति होंगे- वो अभी हाल ही में 78 साल के हुए हैं.

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