Author : Khalid Shah

Published on Oct 23, 2020 Updated 0 Hours ago

अगर गुपकार घोषणापत्र नाकाम होता है तो ये जम्मू-कश्मीर की मुख्यधारा की सामूहिक नाकामी होगी और किसी भी चुनावी कसरत को बेमतलब कर देगी

‘जम्मू-कश्मीर: केंद्र की मोदी सरकार के लिए ज़रूरी है कि वो हर हाल में गुपकार घोषणापत्र को गंभीरता से ले’

अगस्त महीने में जम्मू और कश्मीर (J&K) की राजनीतिक पार्टियों ने मोदी सरकार और खुफ़िया एजेंसियों को परेशान कर दिया. 22 अगस्त को छह बड़ी राजनीतिक पार्टियों ने गुपकार घोषणापत्र 2.0 जारी किया जिसमें जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा वापस लेने और राज्य के विभाजन को एक “दुर्भावनापूर्ण, अदूरदर्शी और असंवैधानिक क़दम” बताया गया. बीजेपी और उसकी सहयोगी अपनी पार्टी को छोड़कर बाक़ी राजनीतिक पार्टियों के दस्तख़त वाले साझा बयान में 5 अगस्त 2019 को केंद्र सरकार द्वारा लिए गए फ़ैसलों के ख़िलाफ़ एक साझा मोर्चा बनाने का वादा किया गया. इसमें जम्मू-कश्मीर के लोगों की तरफ़ से ये घोषणा की गई: “हमारे लिए कुछ भी हमारे बिना नहीं.”

जिस तेज़ी से बयान जारी किया गया उससे हर कोई हैरान रह गया. जिन पार्टियों के नेताओं ने बयान पर दस्तख़त किए, उनके बीच संवाद इतने गुप्त थे कि सरकार में किसी को इसकी भनक तक नहीं लगी कि क्या हो रहा है. फिर से नज़रबंदी और जवाबी कार्रवाई के डर से दस्तख़त करने वालों ने आनन-फानन में घोषणापत्र जारी कर दिया. ये ऐसा वादा है जिससे किसी भी पार्टी का पीछे हटना क़रीब-क़रीब नामुमकिन हो गया है. सुरक्षा की योजना बनाने वालों ने कश्मीर के नेताओं पर जो सबसे बड़ा एहसान किया वो है उन्हें एक छत के नीचे नज़रबंद करना. नज़रबंदी के दौरान सभी नेताओं ने पार्टी लाइन से ऊपर उठकर आपस में व्यक्तिगत संबंध बनाए जो अंतत: उनकी एकता की वजह बना. इससे भी बढ़कर, नज़रबंद नेताओं को लेकर कुछ नौकरशाहों और पुलिस अधिकारियों का विरोधी बर्ताव उनके बीच ज़्यादा ख़ुशमिज़ाजी की वजह बना.

सुरक्षा की योजना बनाने वालों ने कश्मीर के नेताओं पर जो सबसे बड़ा एहसान किया वो है उन्हें एक छत के नीचे नज़रबंद करना. नज़रबंदी के दौरान सभी नेताओं ने पार्टी लाइन से ऊपर उठकर आपस में व्यक्तिगत संबंध बनाए जो अंतत: उनकी एकता की वजह बना. 

दूसरे गुपकार घोषणापत्र की तात्कालिक वजह जम्मू और कश्मीर के मुख्य सचिव का बयान बना जिसमें उन्होंने कहा कि राजनीतिक नेताओं की नज़रबंदी पर किसी के आंसू नहीं निकले. इस बयान से राजनीतिक नेताओं को संकेत मिला कि नज़रबंदी ख़त्म होने का ये मतलब नहीं है कि उनके ख़िलाफ़ बदले की कार्रवाई बंद हो जाएगी. जिस जोश के साथ घोषणापत्र पर दस्तख़त करने वालों ने आपसी विवाद दूर किए हैं उससे ऐसा लगता है कि आने वाले दिनों में एक साझा राजनीतिक संगठन बनने वाला है. जम्मू-कश्मीर का सबसे वरिष्ठ नेता होने की वजह से फ़ारुक़ अब्दुल्ला ने साझा मोर्चे के नेतृत्व की भूमिका संभाली है और उनकी मुहिम में महबूबा मुफ़्ती और सज्जाद लोन सबसे आगे होंगे.

जम्मू और कश्मीर के इतिहास में शायद ये पहला मौक़ा है जब अलग-अलग राजनीतिक हिस्सेदारों ने अपने वैचारिक और राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर एक “साझा मक़सद” के लिए हाथ मिलाया है. कई लोगों को ग़लतफ़हमी हुई कि घोषणापत्र एक चुनावी गठबंधन है लेकिन ये उससे काफ़ी बढ़कर है. घोषणापत्र का मतलब है कि 5 अगस्त को जो हुआ उसे सामान्य नहीं कहा जा सकता और इस तरह वो ये संकेत दे रहे हैं कि जो हुआ वो मंज़ूर नहीं है और विशेष प्रावधानों को फिर से बहाल किया जाए. इसने छह पार्टियों के गुट को केंद्र सरकार और भारतीय जनता पार्टी के सामने लाकर खड़ा कर दिया है.

गुपकार घोषणापत्र में शामिल कुछ पार्टियों ख़ासतौर पर नेशनल कॉन्फ़्रेंस को अपनी पार्टी के भीतर और बाहर कड़े विरोध का सामना करना पड़ा कि उसके नेताओं ने बीजेपी और केंद्र सरकार के प्रति अपेक्षाकृत नरम रवैया अपना रखा है. पिछले कुछ महीनों के दौरान नेशनल कॉन्फ्रेंस के बड़े नेताओं ने केंद्र और बीजेपी के ख़िलाफ़ कड़ा रुख़ अपनाते हुए महबूबा मुफ़्ती और सज्जाद लोन का साथ थाम लिया. कश्मीर और चेनाब घाटी के ज़्यादातर इलाक़ों में बीजेपी का आक्रमक विरोध, ख़ासतौर पर 5 अगस्त 2019 के फ़ैसले का, एकमात्र स्वीकार्य चीज़ है. इससे भी बढ़कर, राजनीतिक पार्टियों की एकजुटता ने कश्मीर में मुख्यधारा के लिए कुछ हद तक उम्मीद जगाई है. ऐसा कहने के बावजूद मुख्य़धारा की वापसी लंबा और कठिन संघर्ष है क्योंकि कश्मीर में अलगाववादियों और दक्षिणपंथी बीजेपी ने पार्टियों और उनके नेताओं को बदनाम करने के लिए मुहिम चला रखी है. हैरानी की बात नहीं कि गुपकार घोषणापत्र के ख़िलाफ़ एकमात्र आलोचना बीजेपी और उसकी समर्थक पार्टियों की तरफ़ से आई है या फिर ग़ुलाम नबी फाई जैसे लोगों से जो श्रीनगर से वॉशिंगटन डीसी तक अलगाववादी माहौल बनाते हैं.

राजनीतिक पार्टियों की एकजुटता ने कश्मीर में मुख्यधारा के लिए कुछ हद तक उम्मीद जगाई है. ऐसा कहने के बावजूद मुख्य़धारा की वापसी लंबा और कठिन संघर्ष है क्योंकि कश्मीर में अलगाववादियों और दक्षिणपंथी बीजेपी ने पार्टियों और उनके नेताओं को बदनाम करने के लिए मुहिम चला रखी है. 

बीजेपी अभी तक घोषणापत्र के ख़िलाफ़ ठोस दलील पेश नहीं कर सकी है. राष्ट्रीय पार्टी के नेता ग़लत दलीलें पेश करने पर उतर आए हैं. ग्रेटर कश्मीर में लिखते हुए बीजेपी के महासचिव राम माधव ने गुपकार घोषणापत्र का जवाब देते हुए इसे “आज राज्य की राजनीति में ख़तरनाक इस्लामिक संवाद घोलने” की कोशिश बताया है. एक और बीजेपी नेता ने इसे “राष्ट्र विरोधी, अलगाववाद समर्थक, गुमराह करने वाला और धोखे में डालने वाला” बताया है. छह पार्टियों द्वारा जारी साझा घोषणापत्र पर सरसरी निगाह डालें तो पता चलता है कि इसमें “इस्लाम”, “मुस्लिम” जैसे शब्द कहीं नहीं हैं. अगर घोषणापत्र में कुछ है तो ये पूरी तरह संवैधानिकता में डूबा हुआ है और कहीं भी लाल निशान को पार नहीं करता है. यहां तक कि ये किसी भी तरह की पहचान वाली राजनीति पर भी ज़ोर नहीं देता है. गुपकार घोषणापत्र का निष्कर्ष समावेशी है क्योंकि धर्म, जातीयता या भाषा के नाम पर कोई भी मतभेद इसको ख़त्म कर देगा.

बीजेपी की हताशा उसके शब्दों से ज़्यादा उसके कार्यकलापों से ज़ाहिर होती है. बयान जारी होने के कुछ दिनों के बाद राम माधव राजनीतिक घटनाक्रम का जायज़ा लेने के लिए श्रीनगर पहुंचे. उन्होंने प्रमुख गुर्जर नेता मियां अल्ताफ़ के साथ मुलाक़ात की कोशिश की. लेकिन अल्ताफ़ ने सार्वजनिक रूप से उनकी अनदेखी कर दी और साथ ही साझा मोर्चे के भीतर किसी तरह के जातीय विभाजन की कोशिश को नाकाम कर दिया. दूसरी तरफ़ केंद्र के ख़िलाफ़ शिया नेता आग़ा रुहुल्लाह के कड़े रुख़ ने दूसरे शिया नेताओं का बीजेपी के प्रति किसी तरह का नरम रुख़ अपनाना मुश्किल कर दिया. इसी तरह सज्जाद लोन और महबूबा मुफ़्ती का रुख़ NC और दूसरों के लिए घोषणापत्र से पीछे हटना मुश्किल कर देगा. अपनी पार्टी, जिसे इस साल काफ़ी धूमधाम से लॉन्च किया गया था, कश्मीर की अराजकता और राजनीतिक शून्यता के माहौल में ग़ायब सी दिख रही है. इसके नेता लोगों की भावनाओं को समझ नहीं पाए जो ज़बरदस्त ढंग से बीजेपी और केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ है. वो लोगों की बेचैनी और असुरक्षा को अभिव्यक्त करने में नाकाम रही और इसके बदले केंद्र के सिखाए रास्ते पर चल पड़ी. इस पार्टी की मौजूदगी दूसरी पार्टियों के लिए एकजुटता की ख्वाहिश की वजह है और इससे उनकी थोड़ी साख बनती है

छह पार्टियों द्वारा जारी साझा घोषणापत्र पर सरसरी निगाह डालें तो पता चलता है कि इसमें “इस्लाम”, “मुस्लिम” जैसे शब्द कहीं नहीं हैं. अगर घोषणापत्र में कुछ है तो ये पूरी तरह संवैधानिकता में डूबा हुआ है और कहीं भी लाल निशान को पार नहीं करता है.

अगर गुपकार घोषणापत्र नाकाम होता है तो ये जम्मू-कश्मीर की मुख्यधारा की सामूहिक नाकामी होगी और किसी भी चुनावी कसरत को बेमतलब कर देगी. अगस्त 2019 के संवैधानिक बदलावों और प्रशासनिक कार्यवाही की वजह से जम्मू-कश्मीर में जो राजनीतिक शून्यता बनी वो काफ़ी आगे बढ़ गई है. मौजूदा हालात न सिर्फ़ अस्थिर है बल्कि उभरते भू-राजनीतिक हालात की वजह से गंभीर सुरक्षा जोख़िम भी है. ढाई मोर्चों पर युद्ध की स्थिति में एक राजनीतिक प्रणाली के बिना शत्रु आबादी त्रासदी की वजह बन सकती है. गुपकार घोषणापत्र भारत सरकार के लिए कश्मीर में चीज़ों को ठीक करने का अच्छा मौक़ा है. ये न सिर्फ़ आधे मोर्चे से निपटने का मौक़ा मुहैया कराता है बल्कि पश्चिमी मोर्चे से भी क्योंकि अगर आधा मोर्चा बंद हो जाएगा तो पश्चिमी मोर्चे की परेशानी खड़ी करने की ताक़त पर काफ़ी हद तक लगाम लग जाएगी. देश के शीर्ष नेतृत्व को तय करना होगा कि ऐसे इलाक़े में जहां से कुछ ही नुमाइंदों को संसद भेजा जाता है, वहां उसकी पार्टी का चुनावी हित ज़्यादा महत्वपूर्ण है या राष्ट्रीय सुरक्षा की समस्या. इतिहास से मोदी सरकार के लिए एक सबक़ है जहां ज़्यादा दिन नहीं हुए जब सरकार के बड़े अधिकारी हताशा में यहां से वहां दौड़ रहे थे कि कोई मिल जाए जो भारत के गृह मंत्री से बात कर ले जब वो 2016 की अशांति के वक़्त कश्मीर के दौरे पर गए थे.

गुपकार घोषणापत्र भारत सरकार के लिए कश्मीर में चीज़ों को ठीक करने का अच्छा मौक़ा है. ये न सिर्फ़ आधे मोर्चे से निपटने का मौक़ा मुहैया कराता है बल्कि पश्चिमी मोर्चे से भी क्योंकि अगर आधा मोर्चा बंद हो जाएगा तो पश्चिमी मोर्चे की परेशानी खड़ी करने की ताक़त पर काफ़ी हद तक लगाम लग जाएगी. 

गुपकार घोषणापत्र पर प्रहार करने या कश्मीर की मुख्यधारा को चुप कराने की कोशिश सेल्फ गोल की तरह है. ऐसे में ज़रूरी है कि मुख्यधारा की पार्टियों के साथ संपर्क साधा जाए और जम्मू-कश्मीर के लोगों के साथ बेहद ज़रूरी बातचीत शुरू की जाए. और अगर ऐसा होता है तो ये पूरी गंभीरता, हिम्मत और राजनीतिक इच्छा शक्ति के साथ हो. बातचीत का दिखावा करना नुक़सानदेह हो सकता है.

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