Published on Sep 15, 2020 Updated 0 Hours ago

समय 'परिवर्तनशील' है और लगातार बदल रहा है, लेकिन पाकिस्तान समय की अपनी अलग परिभाषा गढ़ कर ख़ुद ही उसमें फंसता जा रहा है.

‘बदलती भू-राजनीतिक दुनिया में भी पाकिस्तान का भारत ‘राग’ कम नहीं हो रहा’

पाकिस्तान कर्ज़ में डूबा हो सकता है, और मुमकिन है कि चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) गंभीर समस्याओं का सामना कर रहा हो, लेकिन बात जब चीन-पाकिस्तान संबंधों की हो तो बयानबाज़ी और बड़बोलापन ही मायने रखते हैं. चीनी विदेश मंत्री वांग यी और उनके पाकिस्तानी समकक्ष, शाह महमूद क़ुरैशी, पिछले हफ्ते चीन के  दक्षिणी  द्वीप प्रांत हैनान में मिले और भव्य रूप से घोषणा की कि “दोनों देशों के लोगों को अधिक लाभ पहुंचाने के लिए बेल्ट एंड रोड परियोजना के संयुक्त निर्माण का काम तेज़ किया जाना चाहिए.” ऐसे समय में जब सीपीईसी परियोजनाओं की व्यवहार्यता के बारे में गंभीर संदेह हैं, दोनों देशों के लिए यह संदेश देना महत्वपूर्ण था कि सब कुछ ठीक है और योजनानुसार काम चल रहा है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग के नेतृत्व में 62 बिलियन डॉलर की यह अग्रणी योजना, चीन-पाकिस्तान गठजोड़ को बढ़ाने और उसे लीक पर रखने के लिए ज़रूरी है, क्योंकि इसके अलावा इस गठजोड़ को मुख्यत: भारत विरोधी विदेश नीति के ढाँचे के रूप में ही देखा जा रहा है. चीन के राष्ट्रपति  शी जिनपिंग की संभावित पाकिस्तान यात्रा को, जो  इस साल के शुरुआत में स्थगित हो गई थी, इस मामले में गतिशीलता लाने के नज़रिए से देखा जा रहा है.

चीन पर इस परियोजना में और धनराशि डालने और पाकिस्तान पर और कर्ज़ लेने का दबाव इसीलिए बना है ताकि दोनों राष्ट्रों के बीच आर्थिक भागीदारी की गति को बनाए रखा जा सके. बढ़ती देरी और फंडिंग की कमी के कारण, पाकिस्तान को कई परियोजनाओं को वापस लेना पड़ा है. इस बीच चीन ने भी अपनी ओर से सुरक्षा संबंधी चिंताएं और पाकिस्तान प्रशासन की  अयोग्यता को लेकर  शिकायत की है, लेकिन इन सब मामलों और परेशानियों से परे  भारत एक ऐसा कारक है, जो दोनों देशों को सब कुछ दरकिनार कर, साथ काम करने के लिए लगातार प्रेरित करता है.

चीन पर इस परियोजना में और धनराशि डालने और पाकिस्तान पर और कर्ज़ लेने का दबाव इसीलिए बना है ताकि दोनों राष्ट्रों के बीच आर्थिक भागीदारी की गति को बनाए रखा जा सके.

इसलिए चीन और पाकिस्तान के विदेश मंत्रियों के रणनीतिक संवाद के दूसरे दौर में पाकिस्तानी पक्ष ने चीन को “जम्मू और कश्मीर की स्थिति, उससे जुड़ी चिंताओं, पाकिस्तान के रुख और वर्तमान के अत्यावश्यक मुद्दों” से अवगत कराया और चीनी पक्ष ने दोहराया कि “कश्मीर का मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच इतिहास का छोड़ा हुआ एक विवाद है, जो एक वस्तुगत तथ्य है, और इस विवाद को  शांतिपूर्ण और सही तरीके से यूएन चार्टर, सुरक्षा परिषद के प्रस्तावों और भारत व पाकिस्तान  के बीच द्विपक्षीय समझौतों के ज़रिए सुलझाया जाना चाहिए. चीन इस मामले में किसी भी एकपक्षीय कार्रवाई का विरोध करता है जो स्थिति को और जटिल बनाए.”

भारत द्वारा कश्मीर में धारा 370 को निरस्त किए जाने के बाद, चीन पिछले साल अगस्त से ही पाकिस्तान के इशारे पर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में कश्मीर के मुद्दे को उठाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन अन्य शक्तियों द्वारा उसे बार-बार हताशा ही हाथ लगी है. फिर भी, चीन ने अपनी कोशिशें नहीं छोड़ी हैं, केवल इस्लामाबाद को यह दिखाने के लिए कि वह पाकिस्तान के साथ अपने संबंधों को लेकर कितना गंभीर और प्रतिबद्ध है. अपने संयुक्त बयान में चीन ने एक बार फिर से  यह रेखांकित किया कि पाकिस्तान “इस क्षेत्र में उसका कट्टर साझेदार” है और वह पाकिस्तान की क्षेत्रीय अखंडता, संप्रभुता, स्वतंत्रता और सुरक्षा बनाए रखने के लिए,  उसका दृढ़ता से समर्थन” करेगा. साथ ही चीन “बाहरी सुरक्षा वातावरण बनाए रखने के लिए भी हर संभव कोशिश करेगा.”

पाकिस्तान की विदेश नीति में चीन की बढ़ती पैठ को सऊदी-पाकिस्तान संबंधों में आई हालिया गिरावट के ज़रिए भी देखा और समझा जा सकता है. इस महीने की शुरुआत में, पाकिस्तान ने चीन से कर्ज़ लेकर, एक अरब डॉलर का सऊदी ऋण चुकाया. इस्लामाबाद द्वारा कश्मीर के मुद्दे पर इस्लामिक दुनिया को जुटाने के लिए सऊदी अरब पर दबाव बनाने की कोशिश के बाद सऊदी अरब ने पाकिस्तान को आड़े हाथों लिया था. रियाद ने साल 2018  में एक गंभीर आर्थिक संकट से निपटने के लिए 6.2 बिलियन डॉलर का पैकेज देकर इस्लामाबाद की आर्थिक मदद की थी, लेकिन कश्मीर को लेकर पाकिस्तान के जुनून के चलते दोनों देशों के बीच एक गंभीर असहमति पैदा हुई, जब सऊदी अरब ने कश्मीर मुद्दे पर इस्लामिक सहयोग संगठन (OIC) के एक विशेष सत्र को बुलाने के लिए इस्लामाबाद के आह्वान को अस्वीकार कर दिया।

पाकिस्तान की विदेश नीति में चीन की बढ़ती पैठ को सऊदी-पाकिस्तान संबंधों में आई हालिया गिरावट के ज़रिए भी देखा और समझा जा सकता है. इस महीने की शुरुआत में, पाकिस्तान ने चीन से कर्ज़ लेकर, एक अरब डॉलर का सऊदी ऋण चुकाया.

इसके बाद अगस्त 2020  में कश्मीर में धारा 370 निरस्त किए जाने की पहली वर्षगांठ की पृष्ठभूमि पर, शाह महमूद कुरैशी ने रियाद को सार्वजनिक रूप से चुनौती देते हुए कहा, “आज, मैं ओआईसी को, विदेश मंत्रियों की परिषद की बैठक बुलाने के लिए कह रहा हूं. अगर वे ऐसा नहीं कर सकते हैं,  तो मैं प्रधानमंत्री [इमरान खान] से इस्लामिक देशों [ईरान, तुर्की और मलेशिया] की एक बैठक बुलाने के लिए कहने को मज़बूर हो जाऊंगा, जो कश्मीर के मुद्दे पर हमारे साथ खड़े होने के लिए तैयार हैं.” ऐसे समय में जब इस्लामिक दुनिया में फाड़  पैदा हो रही हैं और तुर्की के राष्ट्रपति रेसेप तईप एर्दोगन इस्लामिक दुनिया के पैरोकार के रूप में सऊदी अरब की स्थिति को चुनौती देने की कोशिश कर रहे हैं, इस हुंकार ने रियाद को निश्चित रूप से भड़काया.

इसके तुरंत बाद क्षति-पूर्ती के रूप में पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा ने 17 अगस्त को सऊदी अरब का दौरा करने का फैसला किया, ताकि सऊदी नेतृत्व को शांत कर उसे अपने हक़ में किया जा सके, लेकिन इस बार पाकिस्तान को और भी अधिक अपमान का सामना करना पड़ा जब पिछली दो यात्राओं के उलट जनरल क़मर जावेद बाजवा, युवराज मोहम्मद बिन सलमान से मुलाकात नहीं कर सके. यह पाकिस्तान और सऊदी अरब के बीच उस रिश्ते को लेकर एक उल्लेखनीय घटनाक्रम है, जो लंबे समय से चला आ रहा है और जिसके तहत सऊदी अरब ने पाकिस्तान जैसे असफल राज्य को बार-बार सहारा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.

रियाद पर अपनी आर्थिक निर्भरता को देखते हुए, पाकिस्तान सऊदी अरब को अलग-थलग करने का जोखिम नहीं उठा सकता. इस्लामाबाद लगातार अपने लिए चीन का समर्थन  जुटाने की होड़ में लगा है, लेकिन चीन पाकिस्तान को वो सब नहीं दे सकता जो रियाद अब तक देता रहा है. यह आश्चर्य नहीं कि पाकिस्तान ने सऊदी अरब को साधने और उसके साथ अपने संबंध एक बार फिर सुधारने के लिए, पीछे हटना शुरू कर दिया है. लेकिन यह बदलते अंतरराष्ट्रीय समीकरणों और भू-राजनीतिक वास्तविकताओं का संकेत ही है कि रियाद आज पाकिस्तान की तुलना में  भारत के साथ अपने संबंधों को लेकर अधिक तत्पर और गंभीर है. ऐसा इसलिए भी हो रहा है कि सऊदी अरब के युवराज मोहम्मद बिन सलमान, सऊदी  अर्थव्यवस्था की तेल पर निर्भरता को कम करके उसे आधुनिक बनाने की कोशिश कर रहे हैं, और ऐसे में भारत जैसे देशों के साथ उनके आर्थिक संबंध, घनिष्ठ और महत्वपूर्ण होना लाज़मी है.

रियाद पर अपनी आर्थिक निर्भरता को देखते हुए, पाकिस्तान सऊदी अरब को अलग-थलग करने का जोखिम नहीं उठा सकता. इस्लामाबाद लगातार अपने लिए चीन का समर्थन  जुटाने की होड़ में लगा है, लेकिन चीन पाकिस्तान को वो सब नहीं दे सकता जो रियाद अब तक देता रहा है.

साथ ही, यूएई-इज़रायल सौदा, जिसके चलते दोनों देशों के बीच पूर्ण राजनयिक संबंध स्थापित हुए हैं,  ने अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर मध्य पूर्व में नई संभावनाओं को जन्म दिया है. भारत अब तक अपनी आर्थिक मज़बूती का प्रभावी ढंग से लाभ उठाने में सक्षम रहा है, और इस प्रक्रिया में उसने सकारात्मक राजनयिक उपलब्धियां हासिल की हैं. हालांकि यह कहना दूर की कौड़ी होगी कि पाकिस्तान-सऊदी संबंधों में स्थायी रूप से दरार पड़ चुकी है, लेकिन यह सच्चाई की रियाद भारत के साथ अपने संबंधों को देखते हुए, पूरी तरह पाकिस्तान के कहे पर नहीं चलना चाहता,  भारत के लिए महत्वपूर्ण कूटनीतिक उपलब्धि है.

चीन पर पाकिस्तान की निर्भरता लगातार बढ़ती जा रही है और दुनिया भर के अन्य प्रमुख साझेदारों के साथ अलगाव के बीच जल्द ही बीजिंग का पाकिस्तान पर  पूरी तरह नियंत्रण होने की संभावना है. अब पाकिस्तान को यह तय करना है कि क्या वह चीन के महिमामंडित उपनिवेश के रूप में अपनी पहचान से संतुष्ट है? जैसे-जैसे दुनिया बदल रही है, पाकिस्तान के भारत के विरुद्ध जुनून का मतलब है कि उसकी विदेश नीति ज़मीनी हक़ीकत से नहीं बल्कि नई दिल्ली के प्रति उसके वैचारिक प्रतिशोध से संचालित होगी. समय ‘परिवर्तनशील’ है और लगातार बदल रहा है, लेकिन पाकिस्तान समय की अपनी अलग परिभाषा गढ़ कर ख़ुद ही उसमें फंसता जा रहा है.

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