Published on Jan 20, 2017 Updated 0 Hours ago
अफगानिस्तान में ‘बड़े खेल’ की वापसी

2005 की वसंत ऋतु के दौरान तालिबान लड़ाको की तलाश करता अमेरिकी नौसेना का एक जवान।

मीडिया में यह एक छोटी सी रिपोर्ट थी, लेकिन संभवतः अफगानिस्तान के लिए यह एक ‘गेम चेंजर’ साबित हो सकती है। रूस, चीन एवं पाकिस्तान ने पिछले सप्ताह मास्को में आयोजित एक बैठक में कुछ चुने हुए तालिबानी नेताओं को संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंधित सूची से हटाने पर सहमति जताई। रूस के विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता, मारिया सखारोवा के अनुसार तीनों देशों ने “काबुल एवं तालिबान आंदोलन के बीच एक शांतिपूर्ण बातचीत को बढ़ावा देने के लिए कुछ विशेष व्यक्तियों को संयुक्त राष्ट्र की प्रतिबंधित सूची से हटाने के लिए एक लचीला दृष्टिकोण अपनाने पर सहमति जताई।”

जाहिर तौर पर एक सामान्य से दिखने वाले इस वक्तव्य में अफगानिस्तान पर वर्चस्व को लेकर एक ‘बड़े खेल’ की शुरूआत छुपी हो सकती है। खासकर, यह देखते हुए कि इस ‘शांतिपूर्ण बातचीत’ में एक महत्वपूर्ण पक्ष अर्थात अफगान सरकार से इसके लिए पूछा तक नहीं गया। इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं कि अफगानिस्तान को यह बात नागवार गुजरी; हालांकि इस समूह ने अपनी अगली बैठक में अफगानिस्तान को बुलाने को लेकर जरूर अपनी इच्छा जताई। अफगानिस्तान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अहमद शाकिब ने कहा “बिना अफगानों की भागीदारी के अफगानिस्तान के हालात को लेकर चर्चा बहुत मददगार साबित नही होगी और ऐसी बैठकों के उद्देश्य पर गंभीर सवाल खड़े करती है, भले ही उनकी अच्छी-खासी सार्थकता हो।” यह आशंका जताने वाले वह एकमात्र व्यक्ति नहीं थे। भारत के लिए भी, जिसने पिछले कुछ वर्षो में अफगानिस्तान में अपनी भागीदारी बढ़ाई है, यह एक बुरी खबर है कि उसके पुराने मित्र रूस ने काबुल में इस्लामी उग्रवादियों को सत्ता में वापस लाने के मसले पर भारत से मशवरे की जरूरत भी नहीं समझी।

इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि तालिबान ने इस तिकड़ी के सुझावों का स्वागत किया है। रूस, चीन और पाकिस्तान यह मानते हैं कि ‘तालिबान एक राजनीतिक और सैन्य बल है।’ उग्रवादी इस्लामी समूह के एक आधिकारिक बयान में कहा गया है “यह प्रस्ताव अफगानिस्तान में शांति एवं सुरक्षा की दिशा में एक सकारात्मक कदम है।”

इन विशिष्ट देशों के त्रिस्तरीय कार्य समूह की बैठक तीन बार पहले ही हो चुकी है और उनके इस सुझाव का मुख्य कारण यह बताया गया कि इस्लामिक स्टेट (आईएस को अफगानिस्तान में डायेश के नाम से भी जाना जाता है) की अफगान शाखा के बीच उग्रवादी समूहों की गतिविधियों में तेजी आ गई है। यह इरादा पूरी तरह अनुचित भी नहीं है, लेकिन कई सुरक्षा विशेषज्ञों को इसमें संदेह है कि इस्लामिक स्टेट की गतिविधियां वास्तव में अफगानिस्तान में बढ़ी हैं।

नकारात्मक रूप से इसकी व्याख्या करने से यह संदेह पैदा हो सकता है कि रूस, जो क्रीमिया पर आक्रमण करने एवं सीरिया में असाद-शासन को समर्थन करने के द्वारा सफलता पूर्वक अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहुंच को विस्तारित करने का प्रयास करता रहा है, अमेरिकी सैनिकों की वापसी से उपजी शक्ति रिक्तता एवं अफगानिस्तान में अमेरिका की भविष्य की नीति को लेकर संशय का इस्तेमाल एक बार फिर से अपना प्रभाव बढ़ाने में कर रहा है।

इस बैठक से तुरंत पहले, संयुक्त राष्ट्र संघ में रूस के स्थाई प्रतिनिधि विताली चरकिन ने जोर देकर कहा था कि पाकिस्तान में गर्मियों के दौरान अमेरिकी ड्रोन हमले के जरिए “तालिबानी नेता मुल्ला मैसुर के खात्मे ने परस्पर विरोधी उग्रवादियों के प्रभाव को मजबूत करने के द्वारा अफगानिस्तान में हालात बदतर कर दिए हैं।”

चरकिन ने अफगानिस्तान में नाटो सेना के कमांडर अमेरिकी जेनरल जॉन निकोलसन के इस बयान को भी उद्धृत किया कि आतंकी संगठन आईएस “उजबेकिस्तान के इस्लामी अंदोलन” के लड़ाकों का उपयोग करने के द्वारा क्षेत्र में खोरासान के नाम पर एक खलीफाई शासन की स्थापना करने का भी प्रयास कर रहा है।

जाहिर तौर पर रूस भी हस्ब-ए-इस्लामी नेता गुलबुद्दीन हिकमतयार को संयुक्त राष्ट्र के प्रतिबंधितों की सूची से हटाए जाने को रोकना चाहता है। अफगान सरकार ने सितम्बर 2016 में उसके के साथ एक शांति समझौते पर हस्ताक्षर किए थे और कारगर तरीके से हस्ब-ए-इस्लामी के अराजकतापूर्ण वर्षों को समाप्त करने में सफलता पाई थी। इस समझौते की एक शर्तों में हिकमतयार का नाम संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिबंधितों की सूची से हटाना भी था।

रूस को अभी भी 1979 में यूएसएसआर (सोवियत संघ) द्वारा अफगानिस्तान पर दुर्भाग्यपूर्ण हमले और उसके बाद के गृहयुद्ध की याद ताजा है और पिछले कुछ दशकों के दौरान उसने वहां के हालातों में फिर से संलिप्त होने के प्रति बहुत कम दिलचस्पी प्रदर्शित की है। लेकिन हो सकता है, उसका यह दृष्टिकोण अब काफी बदल गया हो। भारतीय पत्रकार एवं सुरक्षा विश्लेषक सुहासिनी हैदर लिखती हैं कि “रूस एक बार फिर से अपने आस-पास के क्षेत्र में अमेरिकी मौजूदगी पर सवाल उठाने लगा है।”

इसलिए मास्को से हुई घोषणा पर काबुल में जोरदार प्रतिक्रिया देखने में आईं। राष्ट्रीय सुरक्षा निदेशालय (एनडीएस) के पूर्व प्रमुख अमरूल्ला सालेह ने कहा, “इस तथ्य पर विचार करते हुए कि वे नैतिक, राजनीतिक एवं मानवीय रूप से हमारे ऋणी हैं और इस तथ्य पर भी गौर करते हुए कि अफगानिस्तान के विनाश की वजह पूर्व सोवियत संघ की गलत नीतियां रही हैं, हम उम्मीद करते हैं कि रूस को अन्य अनर्थकारी घटना और संकट का कारण बनने के बजाए उस मानवीय त्रासदी की भरपाई करनी चाहिएं।”

इन जोरदार शब्दों से स्पष्ट रूप से प्रदर्शित होता है कि भारत के लिए इसका क्या दांव पर है। अफगान सरकार ऐसे देश पर भरोसा करती है जो बार-बार और जोर देकर कहता रहा है कि वह अफगानिस्तान को अकेला नहीं छोड़ेगा। लेकिन नैतिक समर्थन और वित्तीय सहायता स्पष्ट रूप से अब अधिक नहीं रह गई है। इसलिए यह सवाल उठता है कि भारत वास्तव में क्या कर सकता है।

स्पष्ट है कि पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय रूप से अलग-अलग करने की भारत की कोशिश न केवल विफल रही है बल्कि इसका उलटा नुकसान ही हुआ हैं। यह साफ है कि जहां पाकिस्तान अफगानिस्तान में एक ऐसी सरकार के गठन का पक्षधर है जिसमें तालिबान का मजबूत प्रतिनिधित्व हो, वहीं न तो रूस और चीन और न ही ईरान तालिबान को पसंद करते हैं। उनके लिए उग्रवादी-इस्लामी समूह के साथ कोई भी गठबंधन अपने समीपवर्ती देश में स्थिरता बहाल करने के एक तुच्छ कदम के रूप में देखा जाएगा।

चीन ने तो इससे पहले ही घोषणा कर दी थी कि उसका इरादा अफगानिस्तान में अधिक मजबूती से संलिप्त होने का है क्योंकि उसे शिनजियांग प्रांत में आतंकवादी गतिविधियों में इजाफा होने का खतरा था। आईएस चीन के पश्चिमी हिस्से को जहां लगभग 20 मिलियन नागरिक मुसलमान हैं, अपने खलीफाई राज का हिस्सा मानता है। लेकिन अभी तक कुल मिलाकर यह अस्पष्ट ही रहा हैं कि आखिरकार चीन अफगानिस्तान में सही मायने में करना क्या चाहता है।

इस असुरक्षा और रणनीति की स्पष्ट कमी को देखते हुए, यह सवाल उठना लाजिमी है कि क्या मॉस्को-बीजिंग-इस्लामाबाद का यह नया ध्रुव क्षेत्र की शांति में कोई योगदान दे भी पाएगा? मॉस्को में आयोजित इस बैठक में भाग लेने वाले पाकिस्तानी प्रतिभागियों ने संकेत दिया कि रूस इस बातचीत में ईरान को शामिल करने का भी इच्छुक है। पाकिस्तान स्थित थिंक-टैंक सेंटर फॉर रिसर्च एंड सिक्यूरिटी स्टडीज (सीआरएसएस) के निदेशक इम्तियाज गुल का यह पूछना सही है कि क्या यह दो नए स्पष्ट ब्लॉक (भारत, अफगानिस्तान, अमेरिका एवं रूस, चीन, पाकिस्तान और ईरान) के उद्भव के साथ एक नए भू-राजनीतिक खेल का आगाज है?

अमेरिकी सरकार ने आधिकारिक रूप से इन घटनाक्रमों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं की है। यह भी अस्पष्ट है कि राष्ट्रपति चुने जा चुके डोनाल्ड ट्रंप अफगानिस्तान के लिए क्या रणनीति अख्तियार करेंगे। अफगानिस्तान में नाटो के प्रवक्ता अमेरिकी-ब्रिगेडियर जनरल चार्ल्स क्लीवलैंड ने अफगानी चैनल ‘टोलो टीवी’ को बताया, ”हम तालिबान के साथ रूसी संलिप्तता से चिंतित है क्योंकि यह उन्हें वैधता प्रदान करता है। हमारा मानना है कि इस क्षेत्र में हमारे प्रयासों का उद्देश्य अफगान सरकार को मजबूत बनाना होना चाहिए।” उन्होंने यह भी कहा कि उन्होंने अफगानिस्तान में इस्लामिक स्टेट (आईएस) की गतिविधियों में कोई भी बढ़ोतरी नहीं पाई है।

भारत, जो अपने पड़ोसी देश पाकिस्तान पर हमेशा यह आरोप लगाता रहा है कि वह लम्बे समय से काबुल में इस्लामाबाद की मित्र सरकार के गठन के लिए तालिबान का इस्तेमाल करता रहा है, निश्चित रूप से इन घटनाक्र्रमों से चिंतित है। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बोर्ड (एनएसएबी) के संयोजक पी. एस. राघवन थिंक टैंक अनंत के एक न्यूज लेटर में लिखते हैं, “अफगानिस्तान में तालिबान के साथ रूस की निकटता एक ऐसे क्षेत्र में द्विपक्षीय असंतोष का कारण बन सकती है जो भारत के लिए केन्द्रीय महत्व का है।”

भारत के रूस के साथ पारंपरिक रूप से अच्छे रिश्ते रहे है लेकिन उसने पिछले कई वर्षों में अमेरिका के साथ भी अपने सहयोग में बढ़ोतरी की है। इसकी वजह से दोनों देशों के बीच गर्मजोशी भरे रिश्तों में पहले से ही कुछ हद तक तो कमी आ गई है। दिल्ली स्थित ऑब्जर्बर रिसर्च फाउंडेशन (ओआरएफ) में रूसी मामलों के विशेषज्ञ नंदन उन्नीकृष्णन आगाह करते है, “भारत और रूस के बीच वर्तमान सीमित संवाद को देखते हुए रूस के बर्ताव से दोनों देशों के बीच दूरियां और भी बढ़ सकती है।”

अफगानिस्तान में पाकिस्तान के बढ़ते प्रभाव के अतिरिक्त, भारत, चीन-पाकिस्तान-आर्थिक गलियारे (सीपीईसी) के रूप में पाकिस्तान में चीन की बढ़ती गतिविधियों को लेकर भी चिंतित है जिसे महत्वकांक्षी ‘वन-बेल्ट-वन-रोड (ओबीओआर)’ पहल के एक विस्तार के रूप में देखा जा रहा है। आर्थिक गलियारे के लिए चीन ने बुनियादी ढांचे में भारी निवेश किया है और इसका उद्देश्य चीन प्रांत शिनजियांग के काशगर नगर को पाकिस्तानी बंदरगाह ग्वादर से जोड़ना है। मास्को में हुई त्रिपक्षीय बैठक में गलियारे में रूस की भागीदारी पर भी चर्चा की गई।

भारत ईरान के छाबाहार बंदरगाह के विकास के लिए ईरान के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के जरिये पहले ही 2016 की गर्मियों में इस पहल पर अपनी प्रतिक्रिया जता चुका है जहां भारत की योजना लगभग 500 मिलियन डॉलर के निवेश की है। यह बंदरगाह मध्य एशिया में भारतीय वस्तुओं के लिए एक ट्रांजिट रास्ता उपलब्ध कराएगा, क्योंकि पाकिस्तान हमेशा ही भारत के लिए अफगानिस्तान जाने के मार्ग को अवरुद्ध करता रहा है। इससे उस रणनीति का संकेत मिल सकता है जिस पर भारत को विचार करना चाहिए।

इस क्षेत्र में रूस या चीन की सकारात्मक भागीदारी से भारत के हितों को संभवतः कोई नुकसान न पहुंचे, लेकिन पाकिस्तान की शह पर तालिबान को इसमें शामिल करने से निश्चित रूप से नुकसान हो सकता है। इसलिए भारत को तत्काल रूप से अपने राजनीतिक कार्यकलापों, खासकर, रूस एवं ईरान के साथ भी अपने संवाद को और मजबूत बनाने का प्रयास आरंभ कर देना चाहिए।

यह सच है कि ये देश अपने समीपवर्ती क्षेत्रों में अमेरिका के प्रभाव को कम करने के इच्छुक हैं। लेकिन वे एक स्थिर अफगानिस्तान के निर्माण में भी इच्छुक हैं जो इस्लामी आतंकवादियों की सुरक्षा और उनके हितों का पोषण नहीं करता। उन्हें यह विश्वास दिलाने में कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि अफगान सरकार को नजरअंदाज करने का अर्थ उस औपनिवेशिक बडे खेल का हिस्सा बन जाना होगा जिसने पहले से ही इस क्षेत्र को अराजकता में झोंक रखा है।

यह विश्वास करना कि इस्लामी आतंकवाद को खत्म करने में तालिबान एक अच्छा मित्र साबित हो सकता है, बिल्ली को दूध की रखवाली करने देने के समान घातक होगा। रूस और चीन को पाकिस्तान के उग्रवादी समूहों से संबंध रखने के घातक परिणामों से सबक लेने की जरूरत है और उन्हें अफगानिस्तान की एक पुरानी कहावत के मर्म को भी समझने की जरूरत है जिसमें कहा गया है कि ”जो अपनी आस्तीन में सांप पालते हैं, उन्हें कभी न कभी उसके डंक का सामना भी जरूर करना पड़ता है।”

जहां तालिबान के साथ कभी न कभी, किसी न किसी प्रकार की शांति व्यवस्था बहाल करने की आवश्यकता पड़ेगी ही, भारत को चाहिए कि वह रूस को याद दिलाए कि अफगानिस्तान में तालिबान को एक बार फिर से वर्चस्व कायम करने की इजाजत देना स्थिरता बहाल करने का कोई शॉर्टकट रास्ता नहीं हो सकता। उसे रूस को यह भी याद दिलाना चाहिए कि अमेरिका पहले ही इस क्षेत्र से अपना सामान बांध चुका है और इसके आसार न के बराबर हैं कि राष्ट्रपति ट्रम्प इस बारे में अपनी नीति में कोई बदलाव लाएंगे।

इसलिए, इस क्षेत्र के लिए एक बड़ी उपलब्धि यह होगी कि अफगानिस्तान के लिए एक ऐसी सुरक्षा और स्थिरता की गारंटी सुनिश्चित की जाए जो अफगानिस्तान के लोगों तथा खासकर, रूस, ईरान, चीन और भारत की इच्छा को प्रदर्शित करे। इन बड़ी ताकतों के सहयोग से अफगान के लोग खुद ही ”देश के निर्माण एवं उसके पुनरोत्थान की जिम्मेदारी का बेहतर निर्वहन कर सकते हैं।”

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