Published on Jun 13, 2020 Updated 0 Hours ago

यह दुनिया सेठ साहूकारों की दुनिया है. यहां लोग पैसा मोक्ष प्राप्ति के लिए नहीं लगाते हैं बल्कि फायदा कमाने के लिए लगाते हैं. अगर उन्हें प्रॉफिट्स की संभावना कम दिखती है और जोख़िम ज्यादा दिखता है तो वे वहां पर पैसा नहीं लगाएंगे.

‘कोविड-19 की आँच में लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था ने खोली ताक़तवर देशों की कलई’

अमेरिका की सड़कों पर नस्लीय हिंसा पेट्रोल की तरह फैल रही है. ब्लैक लाइव्स मैटर के नारे अमेरिका की गलियों से होते हुए अटलांटिक और यूरोप तक पहुंच चुकी है. इस मामले में डोनाल्ड ट्रंप की बहुत आलोचना हो रही है. इन आलोचनाओं में यह भी कहा जा रहा है कि यह ट्रंप के वोटर को भी इकट्ठा करने में सहायक होगा. इस लेख के माध्यम से हम यह समझने का प्रयास करेंगे कि यह जो सियासी घटनाएं घट रही है इसका अमेरिका और अमेरिकी आधारित विश्व व्यवस्था पर क्या प्रभाव पड़ेगा.

विपत्ति के समय किसी भी समाज या संस्थान की मूलभूत ख़ामियां उभरकर के सामने आती हैं. अक्सर ऐसी स्थितियां महामारी या युद्ध के समय देखी जाता है. इसका सबसे उपयुक्त उदाहरण दक्षिण अफ्रीका में हुए रंगभेद से जाना जा सकता है जिसकी जड़ें 1901 के बुबोनिक प्लेग से जुड़ी हुई थी.

अंतर्मुखी होते देश

विपत्ति के समय किसी भी समाज या संस्थान की मूलभूत ख़ामियां उभरकर के सामने आती हैं. अक्सर ऐसी स्थितियां महामारी या युद्ध के समय देखी जाता है. इसका सबसे उपयुक्त उदाहरण दक्षिण अफ्रीका में हुए रंगभेद से जाना जा सकता है जिसकी जड़ें 1901 के बुबोनिक प्लेग से जुड़ी हुई थी. और इसे रोकने के लिए दक्षिण अफ्रीका में गोरों व कालों के बीच में जिस तरह के नीतियों का सहारा लिया गया वही आगे चलकर रंगभेद की नीतियों में परिवर्तित हो गया जिसपर काबू पाने में कई दशकों तक संघर्ष करना पड़ा.

कुछ ऐसी ही स्थिति आज हम अमेरिका में देख रहे हैं. हालांकि, अमेरिका में उनके संविधान के तहत कई बार लीपापोती भी की जा चुकी है. वहां के इंस्टिट्यूशन काफी सालों से इस बारे में लड़ते-झगड़ते आ रहे हैं. लेकिन वहां पर आज भी मूलभूत पूर्वधारणा (prejudice) बरकरार है. और जब भी उनका इंप्लीमेंटेशन होता है तो वह लोगों में रोष बनकर सामने आता हैं. ऐसा सोचना कि इतने सालों तक अमेरिका जैसे देश में जहां संविधान बराबरी की गारंटी देता है, वहां पर अभी भी इस तरह की चीजें बनी हुई हैं. इसके लिए कोरोना वायरस भी एक तरह से ज़िम्मेदार है क्योंकि इससे सबसे ज्य़ादा प्रभावित वही लोग हुए हैं जो समाज के हाशिए पर रहे हैं. और इसमें ब्लैक कम्युनिटी के लोगों की संख्या सबसे ज्य़ादा हैं. जिस तरह से लोगों के मन में गुस्सा उभर करके सामने आ रहा है उससे दुनिया की सरकारों को सावधान होने की ज़रूरत है. सरकार का यह दायित्व होता है कि वह संभल कर इसका सामना करें नहीं तो इससे समाज तहस-नहस हो सकते हैं.

रिफ़ॉर्म और कोविड-19

सरकार के द्वारा जो रिफ़ॉर्म किए जा रहे है चाहे वो एपीएमसी एक्ट में हो या एमएसएमई हो ये दोनों ही बहुत अच्छे कदम हैं लेकिन इस तरह के कदम कुछ साल पहले उठा लिए जाते तो यह और भी बेहतर होता. यह तो यही बात हुई कि आग लगने पर हम कुंआ खोदेंगे और कुएं में से पानी निकालकर आग बुझायेंगे. इसमें बुद्धिमानी नही है.

आज की जो स्थिति है वह बिल्कुल 1980 के दशक वाली है उस समय भी हमने रिफ़ॉर्म का रास्ता तब अपनाया था जब हमारे पास और कोई रास्ते नहीं बचे थे. अगर हम ऐसे समय में कोई रिफ़ॉर्म करते भी हैं तो इनका प्रभाव बहुत मामूली पड़ता है और उस समय भी यही देखने को मिला

रिफ़ॉर्म और कोविड-19 तो हमें अलग-अलग करके समझना होगा. सबसे पहले तो हमें यह समझना होगा कि आज हम जिस स्थिति में हैं वहां हम कैसे पहुंचे? आज की जो स्थिति है वह बिल्कुल 1980 के दशक वाली है उस समय भी हमने रिफ़ॉर्म का रास्ता तब अपनाया था जब हमारे पास और कोई रास्ते नहीं बचे थे. अगर हम ऐसे समय में कोई रिफ़ॉर्म करते भी हैं तो इनका प्रभाव बहुत मामूली पड़ता है और उस समय भी यही देखने को मिला. इस समय दुनिया का हर देश इस फिराक में लगा हुआ है कि किसी ना किसी तरह से इस महामारी से लड़ते हुए अपने अर्थव्यवस्था को पुनः खड़ा किया जाए. इसलिए दुनिया के देश किसी ना किसी तरह से पूंजी इकट्ठा करने में लगे हुए हैं. वहीं, दूसरी तरफ यह ख़बर आती है कि मू​डीज़ जैसी संस्था भारत को जंक स्टेटस से महज़ एक पायदान ही ऊपर रखी हुई है. अगर हम जंक स्टेटस के दायरे में आ जाते तो इसका अर्थ यह होता कि इस श्रेणी के देशों को न तो कोई लोन देने के लिए तैयार होता है और न ही निवेश करने को. 

आत्मनिर्भर भारत के लिए सबसे ज़रूरी क्या?

हम भले ही आत्मनिर्भर भारत की बात करें मगर इसके लिए भी हमें पूंजी की आवश्यकता हैं, निवेश की आवश्यकता है और तकनीक की आवश्यकता है. क्योंकि इन मामलों में हम अभी आत्मनिर्भर नहीं हुए है. आज सरकार पर एक बहुत बड़ा दबाव बना हुआ है — इस कोरोना महामारी से निपटने के लिए भी और अर्थव्यवस्था को फिर से पटरी पर लाने के लिए भी — इन दोनों ही मामलों में पूंजी की आवश्यकता पड़ेगी. पिछले कुछ वर्षों में भारत का डेट मार्केट लगातार गिरता ही चला गया. 2014 के बाद से लोग आशा करते रहे कि रिफ़ॉर्म आएंगे, पर वो हमारे मूलभूत रिफ़ॉर्म नहीं आये. आज जब हम जंक स्टेटस से एक अंक ऊपर हैं, जब हमारे पास पूंजी की व्यवस्था नहीं हो सकती है, जब हमारी हालत इतनी खराब हो गई हो तो ऐसे समय में हमें रिफ़ॉर्म करनी की ज़रुर आवश्यकता है.

इन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर जो सुधार की प्रक्रिया अपनाई जा रही है उसके सिवाय हमारे पास और कोई चारा भी नहीं है. यह रिफ़ॉर्म तो कई साल पहले हो जाने चाहिए थे. हाल ही में अभी सरकार की तरफ से जो नोटिफिकेशन आई है उसमें उन्होंने एग्रीकल्चर सेक्टर को फ्री किया है, कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग के लिए गुंजाईश पैदा की है. हालांकि, इसके तुरंत प्रभाव नहीं देखने को मिलेंगे. भले ही यह रिफ़ॉर्म नोटिफिकेशन के माध्यम से आया हो लेकिन इससे हम दुनिया को यह भरोसा दिला पाए हैं कि हमारी इकोनॉमी प्रगति के मार्ग पर है, हम रिफ़ॉर्म के रास्ते पर चल रहें है.

क्या कोविड संकट किसी भी आर्थिक संकट से भी बड़ा है?

जैसा कि कहा जाता है 1991 में जो आर्थिक संकट की स्थिति आई थी उस स्थिति में आज हम एक बार फिर पहुंच गए हैं. इसलिए हमें इसे मौके के रूप में देखते हुए कई सारे रिफ़ॉर्म करने की जरूरत है — चाहे वह एमएसएमई सेक्टर में हो, या कैपिटल सेक्टर में हो या फिर चाहे डेट सेक्टर में हो. इस तरह के कई रिफ़ॉर्म एक के बाद एक करते जाएं.

रिफ़ॉर्म का प्रभाव धीरे-धीरे पड़ता हैं. तत्काल असर सिर्फ़ उसी का होता है जिसमें पैसे से सहायता की जाए. जो लोग सरकार की आलोचना करते रहते हैं कि सभी सरकारों की तरह लोन उनके हाथ में डाल करके डिमांड रिवाइव नहीं की. यह कहना तो बड़ा आसान है पर वास्तव में क्या सरकार के पास इतनी क्षमता थी की वो इस प्रकार से बड़े पैकेज लेकर के आए. हालांकि, 20 लाख करोड़ की घोषणा तो की गई है. इस बारे में भूतपूर्व फाइनेंस सेक्रेट्री सुभाष मुखर्जी का भी कहना था कि 20 लाख करोड़ का कंस्ट्रक्शन जिस तरह से बनाया गया है वह इस प्रकार से बनाया गया है कि हींग लगे न फिटकरी रंग चोखा का चोखा. कहने का मतलब यह है कि सरकार की जेब से कुछ नहीं जाएगा लेकिन 20 लाख करोड़ का फिगर बनकर के सामने आ जाएगा. यह मजबूरी इसलिए हैं क्योंकि सरकार के हाथ में वास्तव में इस समय कैश अवेलेबिलिटी नहीं है.

2008 के आर्थिक संकट हो या इस समय का कोरोना संकट हो जब भी इस तरह की समस्याएं आती हैं तो विकासशील देशों से सारी की सारी पूंजी निकलकर के विकसित देशों की तरफ चली जाती है. क्योंकि निवेशकों को पिछड़ी एवं विकासशील देशों की अपेक्षा विकसित देशों में पूंजी लगाने में ज्य़ादा फायदा दिखता है. हालांकि, समस्या वहां भी है, झगड़े वहां भी है, इकोनॉमी वहां की भी डांवाडोल है. इन सब के बावजूद जब हम एक प्रतिस्पर्धात्मक दुनिया को देखते हैं तो ऐसे इन देशों में लोगों को निवेश करने में ज्य़ादा भरोसा है. यही कारण है कि गिरते हुए इंटरेस्ट रेट को देखते हुए भी, निगेटिव इंटरेस्ट रेट होते हुए भी लोग वहां पैसा लगाना ज्यादा पसंद करते हैं. ऐसे में होता यह है कि एक तरफ इन देशों में पूंजी आनी बंद हो जाती हैं, वहीं, दूसरी तरफ इन देशों का पैसा भी इनकी तरफ चला जाता है.

रेटिंग किसी देश के लिए तब मायने रखते है जब उन्हें बाहर से निवेशकों को प्रभावित करना होता है. यह दुनिया सेठ साहुकारों की दुनिया है. यहां लोग पैसा मोक्ष प्राप्ति के लिए नहीं लगाते हैं बल्कि फायदा कमाने के लिए लगाते हैं. अगर उन्हें प्रॉफिट्स की संभावना कम दिखती है और जोख़िम ज्य़ादा दिखता है तो वे वहां पर पैसा नहीं लगाएंगे. और यह सब रेटिंग पर निर्भर करता है. यही चिंता इस समय सरकार के सामने बनी हुई है क्योंकि दिन-ब-दिन रेटिंग गिरती जा रहे हैं और निवेश की संभावनाएं कम होती जा रही है.

आत्मनिर्भर का मतलब यह है कि हम अपने कोर आइटम्स का निर्माण ख़ुद कर सके. इसका मतलब ये नहीं कि हम नॉन-कॉम्पिटेटिव रहकर निर्माण करें. हमें पूरी दुनिया से प्रतिस्पर्धा करके उसी स्तर का उसी कीमत पर सामान बनाना पड़ेगा तभी हम वास्तव में जा करके आत्मनिर्भर होंगे

प्रोसेस रिफ़ॉर्म करना क्यों जरूरी?

सबसे बड़ी आत्मनिर्भरता पूँजी से होती है और वह बाहर से आएगा. और उस पूंजी को लाने के लिए हमें कई सारे और भी रिफ़ॉर्म करने आवश्यक हो जाते हैं जो कि पहले किए जाने चाहिए थे. आत्मनिर्भर का मतलब यह है कि हम अपने कोर आइटम्स का निर्माण ख़ुद कर सके. इसका मतलब ये नहीं कि हम नॉन-कॉम्पिटेटिव रहकर निर्माण करें. हमें पूरी दुनिया से प्रतिस्पर्धा करके उसी स्तर का उसी कीमत पर सामान बनाना पड़ेगा तभी हम वास्तव में जा करके आत्मनिर्भर होंगे. यदि इस संदर्भ में देखा जाए तो आत्मनिर्भर और ओपन इकॉनमी में बहुत ज्य़ादा विरोधाभास नहीं है. दोनों एक दूसरे के साथ चल सकती हैं. इन सारे रिफ़ॉर्म के साथ-साथ एक प्रोसेस रिफ़ॉर्म भी जरूरी है. इस देश में प्रोसेस और प्रोसीजर का रिफ़ॉर्म बहुत ही धीमी गति से चलता आ रहा है. जब तक हम इन सारे रिफ़ॉर्म पर ध्यान नहीं देंगे तब तक इनका ज़मीनी स्तर पर लाभ अर्जित पर पाना मुश्किल दिखता है. इस प्रकार इन सब के साथ प्रोसेस रिफ़ॉर्म करना बहुत जरूरी हो जाता है.

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