Author : Samir Saran

Published on Apr 01, 2021 Updated 0 Hours ago

ग्लासगो के जलवायु सम्मेलन (COP26) से भारत की अपेक्षाएं बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिए- भारत का सिर्फ़ एक लक्ष्य होना चाहिए कि वो दुनिया के तमाम हिस्सों से निवेश को अपने और दूसरी उभरती व्यवस्थाओं की ओर आकर्षित कर सके.

‘बहुत हुआ जलवायु परिवर्तन पर अमीर देशों का उपदेश: समय आ गया है कि इसपर न्यायसंगत कदम उठाया जाए’

भारतीय उप-महाद्वीप में बाढ़ के बीच नाव से सुरक्षित ठिकानों पर जाते लोगों की पुरानी तस्वीर (गेटी)

ब्रिटेन इन दिनों संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों के साथ जलवायु परिवर्तन पर होने वाले सम्मेलन (COP26) की मेज़बानी की तैयारी में जुटा है. ये सम्मेलन इस साल नवंबर में ग्लासगो शहर में होना है. सम्मेलन की तैयारियों के बीच ही सदस्य देशों को इस बात के लिए प्रेरित किया जा रहा है कि वो सार्वजनिक रूप से ‘शून्य कार्बन उत्सर्जन’ (नेट ज़ीरो) का न सिर्फ़ समर्थन करें, बल्कि एक नीति के तौर पर भी उसे स्वीकार कर लें. ये एक ऐसी मांग है, जिसमें लचीलापन नहीं है. ये ऐसा लक्ष्य है जिसे किसी तय समय सीमा के भीतर हासिल कर पाना लगभग असंभव है. हालांकि, इसमें कोई दो राय नहीं कि ये एक नेक मक़सद है. लेकिन, जैसा कि जलवायु से संबंधित विषयों पर अक्सर होता है, तो इस बार भी ऐसा दबाव बनाया जा रहा है, जिसमें पाखंड खुलकर दिखता है. इससे जलवायु परिवर्तन के इस मिशन में देशों की अर्थपूर्ण भागीदारी तो शायद ही सुनिश्चित हो. बल्कि, जिन देशों पर दबाव बनाया जा रहा है, वो इसका विरोध करेंगे. नतीजा ये कि बहुत नेक इरादा होने के बावजूद, इसका विरोध होने का जोख़िम ज़्यादा है.

ये एक नेक मक़सद है. लेकिन, जैसा कि जलवायु से संबंधित विषयों पर अक्सर होता है, तो इस बार भी ऐसा दबाव बनाया जा रहा है, जिसमें पाखंड खुलकर दिखता है.

तीन मार्च को संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एंटोनियो गुटेरस ने ट्वीट करके सरकारों, निजी कंपनियों और स्थानीय अधिकारियों से अपील की कि वो जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने के लिए तुरंत तीन उपाय करें: कोयले से बिजली बनाने के आने वाले सभी प्रोजेक्ट रद्द करें; कोयले से चलने वाले बिजलीघरों को वित्तीय मदद बंद करें और केवल नवीनीकरण योग्य ऊर्जा में निवेश करें; और, कार्बन से ग़ैर-कार्बन ऊर्जा संसाधनों को न्यायोचित तरीक़े से अपनाने की कोशिशें तेज़ करें.

ऊपरी तौर पर देखें, तो संयुक्त राष्ट्र महासचिव की विश्व के तमाम लोगों से ये अपील निरपवाद थी. गुटेरस ने एक महत्वपूर्ण विषय पर पूरी दुनिया से सहयोग मांगा था. लेकिन, अगर हम संयुक्त राष्ट्र महासचिव के इस बयान से शब्दों वाला ऊपरी आवरण हटा दें और ध्यान से देखें, तो पता चलता है कि ये तो बस नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाने जैसा था.

ऐसा इसलिए, क्योंकि, एंटोनियो गुटेरस ने बिना किसी देरी के जिस ‘परिवर्तन’ की मांग की थी, उसमें कुछ भी ‘न्यायोचित’ नहीं था. गुटेरस की अपील में जो बात दबी छुपी थी, वो ये कि उन्होंने एक निहायत अनैतिक प्रस्ताव रखा था. जिसमें उन्होंने अमीर और ग़रीब देशों के बीच के अंतर जैसे कि ग़रीबी, निराशा और विकास में बड़े फ़ासले की अनदेखी करते हुए सबको एक बराबरी पर खड़ा कर दिया था. इस दृष्टिकोण में जो असल बात छुपी है, वो ये है कि तमाम वैश्विक संगठन एक ऐसी व्यवस्था को बढ़ावा देना चाहते हैं, जिसमें ग़रीब और विकासशील देश, जलवायु परिवर्तन के बुरे प्रभावों की रोकथाम के लिए विकसित देशों के हिस्से का भी बोझ उठाएं. जलवायु परिवर्तन पर ऐसे उपदेश देने वालों को ये समझना होगा कि दुनिया के सबसे ग़रीब तबक़े के लोगों को उनकी अपेक्षाओं से वंचित रखकर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटना कभी भी ‘न्यायपूर्ण’ नहीं माना जा सकता. हां, ये अमीर देशों के लिए सुविधाजनक भले हो सकता है, और शायद यही वजह है कि गुटेरस की इस अपील को दुनिया में बहुत से लोग पसंद कर रहे हैं.

एक वैकल्पिक रास्ता

दुनिया को प्रवचन देने के शौक़ीन लोगों को हम एक ऐसी स्पष्ट नीति अपनाने का सुझाव देंगे, जिस पर अमल करने से कम कार्बन उत्सर्जन की दिशा में तेज़ी से बढ़ पाना संभव होगा, और ये सभी देशों के लिए न्यायोचित भी होगी. इसके लिए तीन बातों पर ध्यान देना होगा.

पहला क़दम उन लोगों से भावुक अपील करना होगा, जिनके नियंत्रण में दुनिया भर में पूंजी के संसाधन हैं-जैसे कि पेंशन, बीमा और दूसरे फंड के मैनेजर-इससे ये सुनिश्चित किया जा सकेगा कि जिन देशों में ये धन कमाया जा रहा है, वहां से इसका प्रवाह उन देशों की ओर हो, जिनके पास भविष्य के लिए टिकाऊ और जलवायु परिवर्तन को झेल सकने वाले मूलभूत ढांचे के निर्माण के लिए धन नहीं है. क्लाईमेट पॉलिसी इनिशिएटिव का आकलन है कि जलवायु परिवर्तन से संबंधित एक चौथाई पूंजी को ही किसी एक देश से ले जाकर दूसरे देश में निवेश किया जाता है; दूसरे शब्दों में कहें, तो जलवायु परिवर्तन से निपटने के नाम पर जो पूंजी जुटाई जाती है, उसमें से तीन चौथाई हिस्सा संबंधित देश में ही किसी न किसी प्रोजेक्ट में इस्तेमाल हो जाता है. जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने के लिए जिन देशों से ज़्यादा काम करने की अपेक्षा की जाती है, उनमें से अधिकतर एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में स्थित हैं. लेकिन, इन देशों में जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए चलाए जा रहे प्रोजेक्ट के पास पर्याप्त पूंजी नहीं होती. यहां धन जुटाने में इतनी लागत आती है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ठोस क़दम उठाना मुश्किल हो जाता है. ऐसे हालात में ये समझना ज़रूरी है कि जिन देशों पर जलवायु परिवर्तन से निपटने की सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी है, उनको पर्याप्त मात्रा में धन उपलब्ध कराए बिना ये लड़ाई लड़ने की उम्मीद करना बेमानी है. जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ ठोस प्रयास करने के लिए इन देशों को पूंजी का उचित प्रवाह सुनिश्चित करना होगा. उनकी कोशिशों की उचित क़ीमत मुहैया करानी होगी.

जिन देशों पर जलवायु परिवर्तन से निपटने की सबसे ज़्यादा ज़िम्मेदारी है, उनको पर्याप्त मात्रा में धन उपलब्ध कराए बिना ये लड़ाई लड़ने की उम्मीद करना बेमानी है.

दूसरी बात, जोखिम का मूल्यांकन करने वालों पर ध्यान देने की है. इनमें अड़ियल क्रेडिट रेटिंग एजेंसियां, प्रचुर पूंजी वाले केंद्रीय बैंक और न्यूयॉर्क, लंदन व पेरिस के धनी निवेशक शामिल हैं. ये वो लोग हैं जो ये तय करते हैं कि किस देश की ओर कितनी पूंजी का प्रवाह होना चाहिए. इन सबको समझाना होगा कि वो जोख़िम का आकलन करने के अपने तौर-तरीक़ों में बदलाव लाएं. हमें बिना किसी लाग-लपेट के ये बात कहनी चाहिए कि आज ‘जलवायु परिवर्तन का जोख़िम’ उस ‘राजनीतिक जोख़िम’ से कहीं ज़्यादा है, जिसे आधार बनाकर कई देशों को पूंजी का प्रवाह रोका जाता है. उन्हें निवेश से वंचित रखा जाता है. ऐसे जोख़िमों का आकलन निरपेक्ष भाव से करना होगा. जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक जलवायु परिवर्तन को लेकर दिखावे की चिंता जताना और तमाम देशों को उपदेश देना बस औपचारिकता बना रहेगा. जलवायु परिवर्तन से जूझ रहे देश, ऐसे प्रवचनों को क़तई गंभीरता से नहीं लेंगे.

तीसरा, और जो शायद सबसे न्यायोचित प्रस्ताव संयुक्त राष्ट्र महासचिव पेश कर सकते थे, ये होता कि वो सभी पश्चिमी देशों से कहते कि वो अपने यहां के कोयले और तेल से चलने वाले सभी बिजलीघर और दूसरे उद्योगों को फ़ौरन बंद करें, और कार्बन उत्सर्जन वाली ऊर्जा का इस्तेमाल किसी भी मक़सद से न करें. आख़िरकार, हरित ऊर्जा के संसाधनों को भी तो विकसित होने के लिए जगह और समय की ज़रूरत है. OECD के सदस्य देशों को ये क़दम युद्ध-स्तर पर उठाना चाहिए. ये एक मज़ाक़ ही है कि हम उन देशों को तो कोयले पर आधारित बिजलीघर न बनाने दें, जो अभी भी विकास की पायदान पर चढ़ने का संघर्ष कर रहे हैं. उनसे मांग करें कि वो कार्बन उत्सर्जन को न्यूनतम स्तर पर ले आएं. वहीं, उन अमीर देशों को इस बात की छूट दिए रहें कि उनके घरों में हर दिन, हज़ारों यूनिट बिजली की खपत होती रहे. उनके उद्योग कोयले पर आधारित बिजली से चलते रहें और जलवायु परिवर्तन को बढ़ाते रहें. जो बात अमीरों के लिए अच्छी है, वो ग़रीबों के लिए ख़राब कैसे हो सकती है?

अमीर देश जीवाश्म ईंधन से होने वाले कार्बन उत्सर्जन में अपने हिस्से की कमी करने में असफल रहे हैं. CSEP के राहुल टोंगिया ने आकलन किया है कि प्रति व्यक्ति उत्सर्जन के पैमाने पर सबसे ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन करने वाले देश (जो उत्सर्जन के वैश्विक औसत से अधिक हैं) अभी भी दुनिया के 80 प्रतिशत कार्बन डाई ऑक्साइड उत्सर्जन के लिए ज़िम्मेदार हैं. वो आगे बताते हैं कि अगर हम 2019 को भी आधार बनाएं, तो इन देशों का कार्बन उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है. यानी, अमीर देशों ने धरती पर अपने वाजिब हक़ से ज़्यादा संसाधन पहले भी लिए और अब भी वो ऐसा किए जा रहे हैं. ऐसे में किसी भी ‘न्यायोचित परिवर्तन’ के लिए उन देशों को सबसे ज़्यादा योगदान देने का दबाव बनाना चाहिए, जो कई दशकों से सबसे ज़्यादा कार्बन उत्सर्जन किए जा रहे हैं और जिससे अन्य देशों के हितों को चोट पहुंच रही है. कार्बन उत्सर्जन के मामले में सिर्फ़ ग़रीब देशों से क़ुर्बानी की अपेक्षा करना, ‘न्याय’ तो नहीं कहा जा सकता; ये तो आज भी संसाधनों के दोहन और व्यापार को अपने हित में मोड़ने का वही कारोबारी मॉडल है, जो सदियों पुराना है.

अगर हम 2019 को भी आधार बनाएं, तो इन देशों का कार्बन उत्सर्जन लगातार बढ़ रहा है. यानी, अमीर देशों ने धरती पर अपने वाजिब हक़ से ज़्यादा संसाधन पहले भी लिए और अब भी वो ऐसा किए जा रहे हैं.

ग्लासगो में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP26) से पहले हम वही पुराना नाटक देख रहे हैं, जिसमें कुछ देश आने वाले कुछ दशकों में ‘शून्य कार्बन उत्सर्जन’ (नेट ज़ीरो) अपनाने की भावुक अपीलें करते फिर रहे हैं. इस जज़्बाती नाटक की कहानी उस पुराने तरीक़े की याद दिला रही है, जिसमें ‘जलवायु परिवर्तन के आपातकाल’ का हवाला देकर लोगों से अपनी बात मनवाने की कोशिश की जाती रही है. ये पूरा नाटक ऐसा है, जिसमें शक्तिहीन लोगों की आवाज़ बनने का हक़ हथियाकर अपनी बातों को वाजिब ठहराया जा रहा है. धनी-मानी लोगों की ज़ुबान से ऐसे क़िस्से गढ़वाए जा रहे हैं, जिससे जलवायु परिवर्तन के क्षेत्र में अपनी बात मनवाने का दबाव बनाया जा सके. कुल मिलाकर, हम जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों पर तमाम किरदारों को पर्दे से पीछे से सक्रिय भूमिका निभाते देख सकते हैं. ये किरदार आपको ऊपरी तौर पर भले ही अलग दिखें, लेकिन इनका मक़सद एक ही है-जलवायु परिवर्तन से निपटने का बोझ ग़रीब देशों पर डालना.

इन भावुक अपीलों से अलग, कुछ तथ्य ऐसे भी हैं, जिनसे इनकार नहीं किया जा सकता है. पिछला दशक मानवता के दर्ज इतिहास का सबसे गर्म दशक था. हम सब इसका असर देख सकते हैं. इस साल फरवरी में जमे हुए अंटार्कटिका से न्यूयॉर्क शहर के बराबर का एक हिमखंड टूटकर अलग हो गया. हो सकता है कि ये हिमखंड आगे आने वाली तबाही का संकेत मात्र हो. अब हम इस आशंका से इनकार नहीं कर सकते कि आर्कटिक के बर्फ़ीले समंदर में आगे चलकर जहाज़ चलने लगें. अब कोई मूर्ख ही ये दावा कर सकता है कि हम अपने मौजूदा तौर-तरीक़ों और नीतियों के बल पर, ग्लोबल वार्मिंग और इसके असर से निपट लेंगे. पर, भले ही आज इस बात पर दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन और इसके असर को लेकर आम सहमति हो. फिर भी, बहुत से लोग इसके असर से निपटने के लिए उठाई जाने वाली ज़िम्मेदारियों के प्रस्तावित बंटवारे से असहमत होंगे. आज जब पूरी दुनिया मिलकर इस संकट से निपटने की बात कर रही है, तो ज़िम्मेदारियों के इस असमान वितरण के विरोध में आवाज़ उठनी भी चाहिए.

भारत के लिए अनिवार्यता

आने वाले दशक में जलवायु परिवर्तन का भारत पर भी काफ़ी असर पड़ने वाला है. भारत पहले ही इसकी चुनौती का सामना कर रहा है. वो अपने पहाड़ी इलाक़ों से लेकर समुद्र तटों तक जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से जूझ रहा है. आज भारत के सामने मौसम के चक्र में परिवर्तन से लेकर आब-ओ-हवा में बदलाव तक की मुश्किलें खड़ी हैं. ऐसे में भारत को जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए ऐसी स्पष्ट नीतियों की ज़रूरत है, जिन्हें मज़बूत राजनीतिक इच्छाशक्ति का समर्थन प्राप्त हो. ये वो सबसे महत्वपूर्ण विषय है, जो भारत की प्रगति, इसकी स्थिरता और इसकी भौगोलिक अखंडता पर असर डालेगा, क्योंकि भारत में कई तरह के मौसम और भौगोलिक बनावट देखने को मिलते हैं.

आज भारत ऐसे समय में इस चुनौती का सामना कर रहा है, जब देश कम आमदनी वाले दर्जे से ऊपर उठकर मध्यम आमदनी वाला देश बनने की दिशा में बढ़ रहा है. भारत का तीन ख़रब डॉलर से दस ख़रब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सफर, दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ चल रहे अभियान के साथ-साथ चलेगा. इस दौरान जलवायु परिवर्तन से प्रभावित अर्थव्यवस्थाओं और इस परिचर्चा का ध्रुवीकरण होना भी तय है. भारत, न तो अपने आपको इस कड़वी सच्चाई से दूर कर सकता है, और न ही वो इस समय अपने विकल्पों को दुनिया को बताने में संकोच या ख़ामोशी से काम ले सकता है. भारत कहीं और लिए जाने वाले फ़ैसलों को लागू करने वाला देश नहीं बन सकता; भारत को ऐसी परिचर्चाओं का हिस्सा बनना ही होगा. उसे अपने भविष्य से जुड़े ये फ़ैसले लेने में बराबर की भूमिका अदा करनी होगी.

भारत का तीन ख़रब डॉलर से दस ख़रब डॉलर की अर्थव्यवस्था बनने का सफर, दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ चल रहे अभियान के साथ-साथ चलेगा.

ये मुश्किल भरा समय भारत के लिए तीन अवसर लेकर आया है. पहला तो ये कि, भारत को अपनी नीतियों, राजनीति और घरेलू समीकरणों के माध्यम से, इस सबसे बड़े वैश्विक अवसर हथियाना होगा. जिससे कि वो भविष्य में कार्बन उत्सर्जन कम करने में अग्रणी भूमिका निभा सके. अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA) ने अपनी इंडिया एनर्जी आउटलुक 2021 की रिपोर्ट में अनुमान लगाया है कि वर्ष 2040 तक भारत के कार्बन उत्सर्जन में पचास प्रतिशत तक की बढ़ोत्तरी हो सकती है. ये दुनिया के तमाम देशों में सबसे अधिक है. ऐसा हुआ तो कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन के मामले में भारत केवल चीन से पीछे रह जाएगा. ऐसा होने से रोकने की ज़रूरत है. इस चुनौती से निपटना भारत और बाक़ी दुनिया के लिए भी एक बड़ा अवसर है.

भारत को भविष्य में कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए सही निवेश, तकनीक के इस्तेमाल और वैश्विक साझेदारी के माध्यम से इस मौक़े का लाभ उठाने में तुरंत जुट जाना चाहिए. विकसित देशों को भी भारत की इन कोशिशों को पूरा सहयोग देना चाहिए; जैसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद मार्शल प्लान के तहत यूरोप और ख़ासतौर से जर्मनी के पुनर्निर्माण में भारी निवेश किया गया था. ठीक उसी तरह, जलवायु परिवर्तन से निपटने के नए युग वाले मार्शल प्लान के केंद्र में भारत को रखा जाना चाहिए. भारत को इस अवसर के लिए न केवल ख़ुद को तैयार करना चाहिए, बल्कि दुनिया के सामने अपने आपको कार्बन उत्सर्जन कम करने और हरित निवेश के सबसे बड़े केंद्र के रूप में पेश करना चाहिए.

दूसरी बात ये है कि, न तो दुनिया को और न ही भारत को जलवायु परिवर्तन के संदर्भ में वो कहावत भूलनी चाहिए कि भारत की सफलता पूरे विश्व की कामयाबी है. भारत, कार्बन उत्सर्जन कम करने के लिए जैसे प्रयोग करता है और जिन उपायों को सफलतापूर्वक लागू करता है, उन्हें भारत जैसी भौगोलिक और आर्थिक रूप से संवेदनशील परिस्थितियों वाले अन्य विकासशील देशों में भी लागू किया जा सकता है. जलवायु परिवर्तन के ख़िलाफ़ इस लड़ाई में ऐसे बहुत से देश पहले मोर्चे पर खड़े हैं.

भारत, न सिर्फ़ इस दशक में बल्कि आगे चलकर भी जलवायु परिवर्तन के मोर्चे पर अग्रणी भूमिका निभा सकता है, और उसे ऐसा ज़रूर करना चाहिए. इसके लिए, जलवायु परिवर्तन की आपूर्ति श्रृंखलाओं के ज़रिए वो अपनी सेवाएं, तकनीक और मूलभूत ढांचे को अन्य विकासशील देशों को उपलब्ध करा सकता है. अंतरराष्ट्रीय सौर ऊर्जा गठबंधन (International Solar Alliance) इस दिशा में उठा एक छोटा सा क़दम है. ये क्षेत्र में भविष्य में अपार संभावनाओं वाला है. भारत को चाहिए कि वो ऐसी वित्तीय संस्थाओं का विकास करे, जो हरित परिवर्तन को सहयोग दें, उन्हें टिकाऊ बनाएं और एक ऐसे हरित कामकाजी तबक़े का निर्माण करे, जो आने वाले दशक में काम करने के लिए उपयोगी हो.

जैसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद मार्शल प्लान के तहत यूरोप और ख़ासतौर से जर्मनी के पुनर्निर्माण में भारी निवेश किया गया था. ठीक उसी तरह, जलवायु परिवर्तन से निपटने के नए युग वाले मार्शल प्लान के केंद्र में भारत को रखा जाना चाहिए.

तीसरी बात ये कि, भारत वर्ष 2022 में अपनी आज़ादी की 75वीं वर्षगांठ मनाने जा रहा है, और 2023 में वो G20 की अध्यक्षता करेगा. यानी उसके पास ये सुनहरा अवसर है कि वो अपनी नई पहचान बनाने में पूरी ताक़त लगा दे. वर्ष 1947 में भारत, ब्रिटेन के उपनिवेश से एक स्वतंत्र देश बना था. उसके बाद वो सपेरों के देश की छवि से उबरा और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी छवि एक बड़े तकनीकी केंद्र की बनी. मौजूदा दशक में भारत के पास मौक़ा है कि पहले तो वो पांच ख़रब डॉलर और फिर दस ख़रब डॉलर की ऐसी अर्थव्यवस्था बने, जो हरित ऊर्जा और कम कार्बन उत्सर्जन को अपनी प्रगति का आधार बनाए. इससे भारत चौथी औद्योगिक क्रांति में स्वयं को पहली बड़ी हरित अर्थव्यवस्था के तौर पर पेश कर सकेगा.

ग्लासगो के जलवायु सम्मेलन (COP26) से भारत की अपेक्षाएं बिल्कुल स्पष्ट होनी चाहिए- भारत का सिर्फ़ एक लक्ष्य होना चाहिए कि वो दुनिया के तमाम हिस्सों से निवेश को अपने और दूसरी उभरती व्यवस्थाओं की ओर आकर्षित कर सके. अगर भारत वैश्विक निवेश को अपनी ओर आकर्षित करने में असफल रहता है, तो ज़ाहिर है कि जलवायु परिवर्तन के एजेंडे में वैश्विक बाज़ारों की भागीदारी नहीं होगी. इस लक्ष्य को पाने के लिए भारत को उन उपदेशकों के समर्थन की ज़रूरत पड़ेगी, जो कार्बन उत्सर्जन कम करने के प्रवचन देते फिरते हैं.

दुनिया भर में ग़रीबी और आमदनी में असमानता को बनाए रखने वाली, अमीर देशों की जलवायु परिवर्तन की रणनीति स्वीकार्य नहीं है. शून्य कार्बन उत्सर्जन की रट लगाने वालों को ये लक्ष्य नहीं निर्धारित करना चाहिए. इसके बजाय, उभरते हुए देशों को हरित तकनीक अपनाने में मदद करने से ही एक ‘न्यायोचित’ विश्व का निर्माण हो सकेगा. जिन देशों में जलवायु परिवर्तन की ये जंग लड़ी जाएगी, संयुक्त राष्ट्र के महासचिव उन देशों की ओर पूंजी का प्रवाह सुनिश्चित कर सकते हैं. ये देश भारत और अन्य उभरती अर्थव्यवस्थाएं हैं. यही कम कार्बन उत्सर्जन वाला ‘न्यायोचित’ परिवर्तन होगा और ये असरदार भी होगा.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.