Published on Aug 10, 2022 Updated 26 Days ago

अगर नई व्यवस्था अपनाई गई तो ये द्विपक्षीय व्यापार को रूस की कंपनियों के ख़िलाफ़ लगाई गई आर्थिक पाबंदियों से बचाने का काम कर सकती है.

भारत-रूस व्यापार: आगे का रास्ता

भूमिका

अप्रैल 2022 से रूस से भारत का तेल आयात कुल कच्चे तेल के आयात के 0.2 प्रतिशत से बढ़कर 10 प्रतिशत हो गया है. 2022 की शुरुआत में जहां प्रतिदिन 25,000 बैरल कच्चे तेल का आयात होता था, वहीं मई-जून तक ये बढ़कर 6,00,000 बैरल प्रतिदिन हो गया. रूस से कच्चे तेल के आयात में बढ़ोतरी इसलिए हुई क्योंकि रूस ने दाम में छूट की पेशकश की. ऐसा करके रूस अपने ग्राहकों में बदलाव करना चाहता था क्योंकि यूक्रेन पर रूस के हमले के विरोध में यूरोप की कंपनियों ने वहां से कच्चा तेल ख़रीदना बंद कर दिया.

2017 में अमेरिका के द्वारा काटसा क़ानून को अपनाने के बाद रूस के रक्षा संस्थानों के साथ ‘महत्वपूर्ण लेन-देन’ में रुकावट आ गई. वहीं 2018 में जेसीपीओए से अमेरिका के अलग होने का ये संकेत मिला कि ईरान के तेल के आयात पर पाबंदी लग गई है. इन दोनों घटनाओं ने अलग-अलग किरदारों के द्वारा अमेरिकी डॉलर में लेन-देन का विकल्प तैयार करने की कोशिशों को काफ़ी तेज़ कर दिया.

लेकिन चूंकि आर्थिक पाबंदियों की वजह से रूस के बड़े बैंक भुगतान के स्विफ्ट सिस्टम से अलग-थलग हो गए हैं, ऐसे में रूस से बढ़ते आयात ने रूस को भुगतान करने पर सवाल खड़े कर दिए हैं. यूक्रेन युद्ध से पहले तक रूस को भुगतान डॉलर में किया जाता था.

पहले के उदाहरण

वैसे तो ऐतिहासिक रूप से रूस और भारत के बीच राष्ट्रीय मुद्राओं में व्यापार की योजनाओं का सफल अनुभव रहा है लेकिन आज की वास्तविकताएं बिल्कुल अलग हैं. वैश्वीकरण का अर्थ ये हुआ है कि दोनों देश वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ गए हैं. लेकिन 2014 से रूस उस रास्ते की तलाश में लगा हुआ है जिससे उसकी अर्थव्यवस्था और विदेशी व्यापार को डॉलर से अलग किया जा सके. पहले तो रूस की ये कोशिशें बेकार लगीं क्योंकि रूस की कंपनियां और उनके विदेशी साझेदार काफ़ी हद तक उम्मीद के मुताबिक़ रहने वाले अमेरिकी डॉलर से हटकर किसी दूसरी मुद्रा में व्यापार करने के लिए तैयार नहीं थे.

लेकिन 2017 में अमेरिका के द्वारा काटसा क़ानून (काउंटरिंग अमेरिकाज़ एडवर्सरीज़ थ्रू सैंक्शंस एक्ट) को अपनाने के बाद रूस के रक्षा संस्थानों के साथ ‘महत्वपूर्ण लेन-देन’ में रुकावट आ गई. वहीं 2018 में जेसीपीओए (ज्वाइंट कम्प्रीहेंसिव प्लान ऑफ एक्शन) से अमेरिका के अलग होने का ये संकेत मिला कि ईरान के तेल के आयात पर पाबंदी लग गई है. इन दोनों घटनाओं ने अलग-अलग किरदारों के द्वारा अमेरिकी डॉलर में लेन-देन का विकल्प तैयार करने की कोशिशों को काफ़ी तेज़ कर दिया. उदाहरण के लिए, भारत के मामले में काटसा के तहत आर्थिक प्रतिबंध के ख़तरे ने हाल के वर्षों में रूस के रूबल के इस्तेमाल में काफ़ी बढ़ोतरी के लिए मजबूर कर दिया है. 2019 से पहले रूस के सामानों और सेवाओं के लिए आधे से ज़्यादा भुगतान अमेरिकी डॉलर में किया जाता था लेकिन एस-400 के लिए भुगतान की शुरुआत के बाद डॉलर के मुक़ाबले रूबल में भुगतान काफ़ी बढ़ गया है. 2021 में भारत के द्वारा रूस को किए गए सभी भुगतानों में 53.4 प्रतिशत हिस्सा रूबल का था जबकि 38.3 प्रतिशत भुगतान डॉलर में किया गया. रूस की मुद्रा के इस्तेमाल के मामले में भारत अग्रणी देश के रूप में उभरा. केवल बेलारूस और कज़ाकिस्तान, जो कि यूरेशियन आर्थिक संघ के सदस्य और रूस के नज़दीकी पड़ोसी हैं, ने भारत के मुक़ाबले रूबल में ज़्यादा लेन-देन किया. ब्रिक्स के दूसरे साझेदार भी रूस की मुद्रा के इस्तेमाल के मामले में झिझकते रहे हैं. यहां तक कि चीन भी काफ़ी हद तक डॉलर (36 प्रतिशत) और यूरो (48 प्रतिशत) में भुगतान करता था.

वैसे तो रुपये में व्यापार को लेकर भारत की तरफ़ से जो घोषणा की गई है, उसमें विशेष रूप से रूस का ज़िक्र नहीं किया गया है लेकिन जानकारों का मानना है कि इस समय आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहे रूस और ईरान जैसे देश भारतीय रुपये में व्यापार का निपटारा करने में सबसे ज़्यादा दिलचस्पी रखेंगे. 

रूस की तरफ़ से देखें तो जिस एकमात्र ‘वैकल्पिक’ मुद्रा का इस्तेमाल भुगतान में काफ़ी हद तक हुआ वो युआन है. 2021 के आख़िर तक चीन को रूस के कुल भुगतान में युआन का हिस्सा बढ़कर एक-तिहाई हो गया था. इसके विपरीत भारत को रूस के भुगतान में 70 प्रतिशत हिस्सा डॉलर का था.

जैसा कि आंकड़ों से साफ़ है, यूक्रेन में युद्ध से पहले डॉलर, यूरो और दूसरी मुद्राओं का विदेशी साझेदारों के साथ रूस के व्यापार में बड़ा हिस्सा होता था. वहीं डॉलर को भुगतान से हटाने की बात सिर्फ़ कही जाती थी, उस पर कोई कार्रवाई नहीं की जाती थी. लेकिन पश्चिमी देशों, जापान, दक्षिण कोरिया एवं सिंगापुर की तरफ़ से लगाई गई आर्थिक पाबंदियों और स्विफ्ट के सिस्टम से रूस के बड़े बैंकों को अलग करने की वजह से विदेशी व्यापार के लिए वैकल्पिक व्यवस्था तैयार करना रूस की अर्थव्यवस्था के अस्तित्व से जुड़ा मामला हो गया है.

नया समाधान

भुगतान की नई व्यवस्था के लिए तलाश करने और सोवियत युग की रुपया-रूबल व्यवस्था को फिर से ज़िंदा करने को लेकर काफ़ी अटकलों के बाद भारत ने 11 जुलाई को भारतीय रुपये (आईएनआर) में अंतर्राष्ट्रीय व्यापार भुगतान करने का एलान किया. इस नई व्यवस्था के तहत बिल बनाने, भुगतान और आयात/निर्यात का निपटारा डॉलर- जो कि दो देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार की आम तौर पर मुद्रा है- की जगह रुपये में करने की मंज़ूरी होगी. भुगतान करने के लिए भारत में अधिकृत बैंकों को किसी साझेदार व्यापारिक देश के एक विदेशी बैंक की तरफ़ से रुपया वोस्ट्रो खाता खोलने की इज़ाजत होगी. भारतीय आयातक इन खातों में रुपये में भुगतान करेंगे और इस रक़म का इस्तेमाल भारतीय निर्यातकों को भुगतान करने में किया जाएगा. इस तरह की भुगतान की प्रणाली की ज़रूरत उस वक़्त पड़ी जब ऐसी ख़बरें आईं कि रूस के साथ भुगतान निपटारे के लिए भारतीय कंपनियां दिरहम और युआन का इस्तेमाल कर रही हैं.

वैसे तो रुपये में व्यापार को लेकर भारत की तरफ़ से जो घोषणा की गई है, उसमें विशेष रूप से रूस का ज़िक्र नहीं किया गया है लेकिन जानकारों का मानना है कि इस समय आर्थिक प्रतिबंधों का सामना कर रहे रूस और ईरान जैसे देश भारतीय रुपये में व्यापार का निपटारा करने में सबसे ज़्यादा दिलचस्पी रखेंगे. दूसरे निर्यातक देश, जिन पर किसी तरह का आर्थिक प्रतिबंध नहीं है, डॉलर/यूरो/येन जैसी पूरी तरह से परिवर्तनीय मुद्रा में भुगतान हासिल करने को प्राथमिकता देंगे ताकि अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अपने आयात का भुगतान करने में उन्हें मदद मिले. युआन के मामले में ये पहले ही देखा जा चुका है जिसका अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में हिस्सा बढ़ गया है लेकिन अभी भी वैश्विक भुगतान में युआन का योगदान सिर्फ़ 3.2 प्रतिशत है. डॉलर और यूरो का अभी भी बाज़ार में दबदबा है.

विनिमय दर का निर्धारण

रुपये में व्यापार के निपटारे के लिए भारत और रूस को अभी विनिमय दर पर फ़ैसला लेने की ज़रूरत है. आरबीआई का सर्कुलर कहता है कि विनिमय दर का निर्धारण बाज़ार करेगा लेकिन किसी पक्ष ने अभी तक निर्णय की घोषणा नहीं की है. दोनों देशों की मुद्रा इस वक़्त दबाव का सामना कर रही हैं और भारतीय रुपये की क़ीमत में काफ़ी कमी आई है- जुलाई में तो रुपये ने एक डॉलर के मुक़ाबले 80 की दर को छू लिया था. दूसरी तरफ़ मज़बूत प्रदर्शन के बावजूद रूबल की वास्तविक विनिमय दर को निर्धारित नहीं किया जा सकता है क्योंकि इसका व्यापार नहीं होता है और ये सख़्त पूंजी नियंत्रण के तहत है. इन कारणों की वजह से दो मुद्राओं के बीच बाज़ार में विनिमय दर का निर्धारण ख़ास तौर पर कठिन हो जाता है. मतभेद पहले ही सामने आ चुके हैं जिनकी वजह से केंद्रीय बैंकों के द्वारा हस्तक्षेप की नौबत आ गई है.

चूंकि भारत रूस को निर्यात के मुक़ाबले उससे काफ़ी ज़्यादा आयात करता है, ऐसे में वोस्ट्रो खाते में रूस के लिए काफ़ी रुपया जमा हो जाएगा. इससे ये सवाल खड़ा होगा कि भारतीय निर्यात के लिए भुगतान करने के बाद रूस बाक़ी बचे भारतीय रुपये को कहां खर्च करेगा.

राष्ट्रीय मुद्राओं में निपटारा व्यापार घाटे के मुद्दे की वजह से परंपरागत रूप से मुश्किल भी है. व्यापार घाटे के कारण एक देश के पास दूसरे देश की मुद्रा ज़रूरत से ज़्यादा हो जाती है जो अंतर्राष्ट्रीय व्यापार में उनकी दुर्लभता के लिए ज़िम्मेदार है. चूंकि भारत रूस को निर्यात के मुक़ाबले उससे काफ़ी ज़्यादा आयात करता है, ऐसे में वोस्ट्रो खाते में रूस के लिए काफ़ी रुपया जमा हो जाएगा. इससे ये सवाल खड़ा होगा कि भारतीय निर्यात के लिए भुगतान करने के बाद रूस बाक़ी बचे भारतीय रुपये को कहां खर्च करेगा. 2021-22 में रूस को भारत ने जहां 3.25 अरब अमेरिकी डॉलर का सामान निर्यात किया वहीं रूस से भारत ने 9.87 अरब अमेरिकी डॉलर का आयात किया. इस तरह भारत को 6.62 अरब अमेरिकी डॉलर का व्यापार घाटा हुआ.

आरबीआई ने सुझाव दिया है कि इस मुद्दे का समाधान परियोजनाओं और निवेश के लिए भुगतान के साथ-साथ सरकारी प्रतिभूतियों के ज़रिए किया जाए. अभी ये देखा जाना बाक़ी है कि इस तरह के प्रस्ताव को लेकर रूस कितनी दिलचस्पी रखता है. एक और प्रस्ताव में कहा गया है कि रक्षा क्षेत्र में भारत और रूस ने जो संयुक्त उपक्रम स्थापित किए है, उनमें निवेश रुपये में किया जाए. भारतीय व्यापार संगठनों ने पश्चिमी देशों की कंपनियों के रूस से बाहर जाने के बाद कारोबार के जो अवसर बने हैं, उनको लेकर भी टिप्पणियां की हैं, ख़ास तौर से फार्मा, कृषि, खाद्य उत्पाद, उपभोक्ता सामान, इलेक्ट्रॉनिक्स इत्यादि जैसे क्षेत्रों में. भारत से निर्यात में बढ़ोतरी होने से व्यापार घाटे से निपटने में मदद मिलेगी. साथ ही रूस के पास ज़रूरत से ज़्यादा रुपया होने की किसी भी आशंका को कम किया जा सकेगा. लेकिन वास्तविक फ़ायदे का आकलन तभी हो सकेगा जब भारतीय कारोबारी रूस को अपने निर्यात में काफ़ी बढ़ोतरी करते हैं.

कहने की ज़रूरत नहीं है कि भारतीय सरकार और केंद्रीय बैंक रूस पर पश्चिमी देशों के द्वारा लगाई गई आर्थिक पाबंदी को लेकर संवेदनशील बने हुए हैं और उनका उल्लंघन करने के लिए तैयार नहीं होंगे. इसके अलावा, वो आर्थिक प्रतिबंधों की दूसरी किस्त के संभावित ख़तरे को लेकर भी सावधान रहेंगे. ये पहचान करने की ज़रूरत होगी कि कौन से भारतीय बैंक वोस्ट्रो खाता स्थापित करने में सक्षम होंगे, जहां बड़े किरदार अपने अंतर्राष्ट्रीय लेन-देन से जुड़ी आर्थिक पाबंदियों के जोखिम से परहेज कर सकते हैं. रूस के अनगिनत बैंकों पर आर्थिक पाबंदी की वजह से इस मामले में सोच-समझकर फ़ैसला करने की ज़रूरत होगी.

आगे क्या?

रूस और भारत- दोनों देश आर्थिक प्रतिबंधों का उपाय तलाशने का दृढ़ संकल्प कर चुके हैं. लेकिन नये-नवेले स्थापित तौर-तरीक़ों के असर और उनके टिके रहने को लेकर कुछ उचित सवाल बने हुए हैं. दूसरे मुद्दे रूस के रूबल की असली क़ीमत और क्या भारत और रूस की कंपनियों के बीच व्यापार के निपटारे में युआन की भूमिका है या नहीं, के इर्द-गिर्द केंद्रित रहेंगे.

रुपये में व्यापार के निपटारे की नई व्यवस्था रूस की कंपनियों के ख़िलाफ़ लगाई गई आर्थिक पाबंदियों से द्विपक्षीय व्यापार को संभावित रूप से बचा सकती है. इससे इस बात की कम संभावना है कि ऊर्जा और कच्चे माल के आयात से आगे कारोबार में काफ़ी बढ़ोतरी होगी. रूस की अर्थव्यवस्था पर आर्थिक प्रतिबंध के काफ़ी असर के अलावा द्विपक्षीय व्यापार अभी भी अनसुलझे संरचनात्मक मुद्दों से जूझ रहा है जिन्होंने 21वीं सदी में आर्थिक संबंधों को प्रभावित किया है. इन मुद्दों में कनेक्टिविटी, शुल्क और ग़ैर-शुल्क से जुड़ी बधाएं, व्यापार में दिलचस्पी की कमी और दोनों ही देशों के बाज़ारों में ज़रूरत से ज़्यादा नियम-क़ानून शामिल हैं. जब तक इन मुद्दों को सुलझाया नहीं जाता तब तक दोनों देशों के बीच कारोबार, असंतुलन से जूझता रहेगा जो नये तौर-तरीक़े को लागू करना मुश्किल बना सकता है.

 भारत के निजी कारोबारी, जिनकी पहले से रूस में सीमित संख्या में मौजूदगी है, उस वक़्त तक पश्चिमी देशों की सख़्त पाबंदियों के तहत आने वाले बाज़ार में प्रवेश करने से झिझकेंगे जब तक कि उनके लिए व्यापार की आकर्षक शर्तें नहीं होंगी. 

अगर नये तौर-तरीक़ों को अल्पकालीन समाधान के मुक़ाबले ज़्यादा असरदार बनाना है तो इनका स्थायी हल तलाशने की ज़रूरत ख़ास तौर से है. पश्चिमी कंपनियों के रूस से बाहर जाने के बाद अगर रूस को भारतीय निर्यात में बढ़ोतरी के ज़रिए व्यापार घाटा कम किया जाए तो रूसी पक्ष को निपटारे की प्रणाली ज़्यादा आकर्षक लग सकती है. भारत के निजी कारोबारी, जिनकी पहले से रूस में सीमित संख्या में मौजूदगी है, उस वक़्त तक पश्चिमी देशों की सख़्त पाबंदियों के तहत आने वाले बाज़ार में प्रवेश करने से झिझकेंगे जब तक कि उनके लिए व्यापार की आकर्षक शर्तें नहीं होंगी. पश्चिमी देशों से कट चुके रूस को अब भारतीय कंपनियों, जिन्हें निवेश का एक स्रोत माना जाता है, के साथ साझेदारी विकसित करने पर ध्यान देने से फ़ायदा मिल सकता है. लंबे समय से लंबित आईएनएसटीसी (इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर) को शुरू किया जा रहा है जबकि भारतीय बाज़ार में प्रवेश करने के लिए नये रास्तों और क्षेत्रों की खोज की जा रही है.

रूस के ख़िलाफ़ आर्थिक प्रतिबंधों के भविष्य को लेकर अनिश्चितताएं, जिनमें आर्थिक प्रतिबंधों की एक और किस्त का ख़तरा शामिल है, लंबे समय में द्विपक्षीय हिस्सेदारी पर असर डालना जारी रखेंगी. भुगतान की प्रणाली को लेकर रूस का जवाब आना अभी बाक़ी है. रूस के जवाब से संकेत मिलेगा कि वो इस विचार को कैसे देखता है और क्या ये लंबे समय के लिए व्यावहारिक है. वास्तव में ये हो सकता है कि प्रस्तावित तौर-तरीक़ा रामबाण नहीं हो बल्कि एक अस्थायी उपाय हो जो कि महत्वपूर्ण सामानों के व्यापार को जारी रखने का काम सुनिश्चित कर सके.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.

Authors

Aleksei Zakharov

Aleksei Zakharov

Aleksei Zakharov is a Research Fellow at the International Laboratory on World Order Studies and the New Regionalism Faculty of World Economy and International Affairs ...

Read More +
Nivedita Kapoor

Nivedita Kapoor

Nivedita Kapoor is a Post-doctoral Fellow at the International Laboratory on World Order Studies and the New Regionalism Faculty of World Economy and International Affairs ...

Read More +