ब्रिटेन की महारानी एलिजाबेथ द्वितीय का 96 साल की उम्र में निधन हो गया. यह अपने आप में काफी ऐतिहासिक बात है. ऐतिहासिक इसलिए क्योंकि वह ब्रिटिश सत्ता में सबसे लंबे वक़्त तक रही मोनार्क थीं. 70 बरसों तक उन्होंने हेड ऑफ द स्टेट का कार्यभार संभाला. कितनी ही पीढ़ियों को उन्होंने आते देखा-जाते देखा. मॉर्डन ब्रिटेन का जो इतिहास है, एक तरह से वह उसका केंद्र रही हैं. ब्रिटेन के काफी सारे लोग हैं, जिन्होंने क्वीन के अलावा किसी और को पहचाना ही नहीं. ब्रिटेन कभी एक बहुत बड़े साम्राज्य के रूप में था. धीरे-धीरे उसका विघटन हुआ. साम्राज्यवाद ख़त्म होने के बाद जब ब्रिटेन एक देश बना तो उसमें बहुत सारे अंदरूनी बदलाव आए. उन सब बदलावों के बीच जो एक संस्था स्थिरता दे पायी, वह थी ब्रिटिश मोनार्की और क्वीन. क्वीन के पास पॉलिटिकल पॉवर तो नहीं थी, लेकिन सॉफ्ट पावर बहुत थी. वह ये दिखा पाती थीं कि दुनिया बदलती रहेगी. लेकिन, ब्रिटिश मोनार्की का जो इंस्टीट्यूशन है, क्वीन के रहते हुए वह स्थिरता, गंभीरता और परंपरा से एक ऐसा जुड़ाव ब्रिटेन के लोगों को देगा, जो किसी भी सांस्कृतिक संदर्भ में बड़ा महत्वपूर्ण होता है.
क्वीन के पास पॉलिटिकल पॉवर तो नहीं थी, लेकिन सॉफ्ट पावर बहुत थी. वह ये दिखा पाती थीं कि दुनिया बदलती रहेगी. लेकिन, ब्रिटिश मोनार्की का जो इंस्टीट्यूशन है, क्वीन के रहते हुए वह स्थिरता, गंभीरता और परंपरा से एक ऐसा जुड़ाव ब्रिटेन के लोगों को देगा, जो किसी भी सांस्कृतिक संदर्भ में बड़ा महत्वपूर्ण होता है.
इसे देखते हुए क्वीन ने अपना कार्यभार निभाया. वह अच्छी तरह से जानती थीं कि उनके पास पॉलिटिकल पॉवर नहीं है, क्योंकि ब्रिटेन एक कांस्टीट्यूशनल मोनार्की रहा, तो सारी ताकत चुनी हुई सरकार के पास ही थी. इसमें क्वीन की पॉवर यह थी कि वह डेमोक्रेटिक सरकार की आधिकारिक नीतियों को सैंक्शन करती थीं. उन्होंने इस पॉवर को बेहतरीन तरीके से समझा. कभी भी वह अपनी संवैधानिक मर्यादा से बाहर नहीं गईं. उन्होंने कभी भी ऐसा कोई विवाद नहीं पैदा किया कि सरकार या ब्रिटेन के लोगों को शर्मिंदा होना पड़े. जो राजशाही की संस्था उनके अंडर में रही, उसे उन्होंने ब्रिटेन को दुनियाभर में बहुत गरिमा दी. कॉमनवेल्थ देश जो कभी ब्रिटिश साम्राज्य से जुड़े थे, बल्कि और भी देशों में क्वीन के लिए जो सम्मान और इमोशन आज दिख रहा है, तो उसका बड़ा कारण क्वीन की अपनी शख़्सियत रही है. अपने आप में बहुत कम बोलने वाली, अपने आपको कहीं पर बहुत कम प्रोजेक्ट करने वाली, लेकिन फिर भी एक बहुत अथॉरिटेटिव फिगर. बड़े-बड़े नेताओं ने उनसे मुलाकात की. उनके बारे में उन नेताओं का संस्मरण सुनें, तो उसमें यही बात आती है कि सब-कुछ जानते हुए भी क्वीन को यह बात बहुत अच्छे से पता थी कि कहां उनको अपनी संवैधानिक मर्यादा का पालन करना है, कहां पर उनको किस तरह से व्यवहार करना है.
एलिजाबेथ की जो कार्यशैली
उनकी जो कार्यशैली थी, उसने ब्रिटेन के ही नहीं बल्कि दुनियाभर के लोगों को काफी प्रभावित किया. कई बार हम देखते हैं कि और जगहों पर संवैधानिक संकट पैदा हो जाता है. लोग संस्थाओं की मर्यादा नहीं समझते. लेकिन, सत्तर साल राज करने के बाद कभी ऐसा नहीं हुआ कि ब्रिटिश क्वीन या मोनार्की के ऊपर कोई आक्षेप लगा हो. समस्याएं आईं, लेकिन दूसरों की वजह से. उनके बेटे, बहुओं और पोतों की वजह से आईं. सवाल उठे कि क्या होगा? और यही सवाल आज भी उठ रहा है कि प्रिंस चार्ल्स जो अब किंग चार्ल्स हो गए हैं, क्या वह बतौर राजा ब्रिटेन को वही स्थिरता और वही गरिमा दे पाएंगे, जो क्वीन ने दी? और बतौर एक संस्था क्या मोनार्की उनके अंडर में बनी रहेगी? क्वीन तो वह गरिमा उसे दे पाईं, क्योंकि उन्होंने बड़ी मर्यादा के साथ अपनी कार्यशैली का निर्वहन किया. ब्रिटिश पॉलिटिक्स में कितने भी बदलाव आए, संकट आया. कई ऐसी पार्टियां आईं, जो कहती थीं कि मोनार्की की क्या ज़रूरत है? युवा पीढ़ी आई, जिसने कहा कि मोनार्की को ख़त्म कर देना चाहिए, क्योंकि आज के समय में इसकी क्या ज़रूरत है? लेकिन, क्वीन को लोग इतना पसंद करते थे, इसलिए यह सवाल उस हद तक नहीं पहुंचा, जहां इस इंस्टीट्यूशन को ख़त्म कर दिया जाता. आज उनके जाने के बाद सबसे बड़ा सवाल मोनार्की के सामने यही है कि उसका भविष्य क्या होगा? यह अपने आप में बताता है कि अलग-अलग संदर्भों में क्वीन का कितना बड़ा रोल रहा है.
सत्तर साल राज करने के बाद कभी ऐसा नहीं हुआ कि ब्रिटिश क्वीन या मोनार्की के ऊपर कोई आक्षेप लगा हो. समस्याएं आईं, लेकिन दूसरों की वजह से. उनके बेटे, बहुओं और पोतों की वजह से आईं. सवाल उठे कि क्या होगा? और यही सवाल आज भी उठ रहा है कि प्रिंस चार्ल्स जो अब किंग चार्ल्स हो गए हैं, क्या वह बतौर राजा ब्रिटेन को वही स्थिरता और वही गरिमा दे पाएंगे, जो क्वीन ने दी?
15 प्रधानमंत्रियों को आते-जाते देखा
क्वीन के साथ जो सबसे बड़ा शब्द जोड़ा जाता है, वह है ड्यूटी. अंदरूनी और बाहरी बदलावों के बावजूद वह अपनी ड्यूटी करती रहीं. निधन से महज 48 घंटे पहले वह नई प्रधानमंत्री लिज ट्रस से मिलीं, जो कि इंग्लैंड की 15वीं पीएम थीं. ब्रिटेन में जब भी कोई नया पीएम बनता है, तो वह क्वीन से मिलता है. 70 साल में उन्होंने 15 प्रधानमंत्रियों को आते-जाते देखा. लेकिन, उनकी अपनी कार्यशैली वही बनी रही. ब्रिटिश संविधान को लेकर उनकी जो प्रतिबद्धता थी, वह बनी रही. जब डायना की मौत हुई, तब उन पर सवाल उठे कि वह बहुत असंवेदनशील हैं, क्योंकि बाहर आकर अपना शोक व्यक्त नहीं कर रही थीं. उस समय काफी लोगों ने पूछा कि क्वीन कहां हैं? और क्वीन का डायना के प्रति जो बेरुख़ा व्यवहार है, उसके कारण क्या हैं? लेकिन, उस संकट के बावजूद हमने देखा कि आखिरकार लोगों को समझ में आया कि उनकी शख्सियत ही ऐसी थी. एक राजा की तरह वह अपने विचार और भावनाएं लोगों में वह बहुत कम व्यक्त करती थीं. उनका मानना था कि वह कुछ भी व्यक्त करेंगी, तो लोगों के बीच उसका ग़लत मतलब निकाला जा सकता है. इसीलिए वह खुलकर नहीं बोलती थीं. उनका जो प्रभाव है, वह एक संवैधानिक राजा का तो है ही, लेकिन एक व्यक्ति के रूप में भी है, जिसने पीढ़ी-दर-पीढ़ी अपने लोगों को ब्रिटिश होने का अहसास दिलाया. एक आम ब्रिटिश नागरिक के लिए अपने देश को लेकर गौरव का अहसास दिलाया.
एक राजा की तरह वह अपने विचार और भावनाएं लोगों में वह बहुत कम व्यक्त करती थीं. उनका मानना था कि वह कुछ भी व्यक्त करेंगी, तो लोगों के बीच उसका ग़लत मतलब निकाला जा सकता है. इसीलिए वह खुलकर नहीं बोलती थीं.
अगर हम चर्चा करें कि दुनिया में उनका क्या रोल रहा, तो वह सिर्फ़ यूके की स्टेट हेड नहीं थीं. वह कनाडा और ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों की भी स्टेट हेड थीं और कॉमनवेल्थ ग्रुप से उनको बहुत लगाव रहा. वह कॉमनवेल्थ देशों का बहुत पक्ष लेती थीं, जिनमें भारत भी शामिल है. लगाव इसलिए, क्योंकि ये सारी एक्स कॉलोनीज थीं और एक मक़सद यह भी था कि दुनिया में जो कुछ समस्याएं हैं साथ में बैठकर उनके हल खोजे जाएं. क्वीन के बाद अब कॉमनवेल्थ पर सवाल होगा कि उसका क्या होगा? जो भारत या अफ्रीकी देश उसमें शामिल हैं, क्वीन के बाद क्या उनकी रुचि बनी रहेगी? जहां तक भारत की बात है, क्वीन तीन बार आईं. उनका भारत के साथ जो लगाव था, वह भी दिखा. भारत में भी उनका गर्मजोशी से स्वागत हुआ. आखिरी विजिट में उन्होंने जलियांवाला बाग का भी ज़िक्र किया. उसको उन्होंने एक दुर्भाग्यपूर्ण घटना कहा.
निष्कर्ष
जब वह विदेश दौरों पर जातीं, ब्रिटिश क्राउन को न रिप्रेजेंट करके ब्रिटिश नेशन को रिप्रेजेंट करती थीं. राष्ट्र प्रमुख के रूप में उनकी नुमाइंदगी लोगों को हमेशा बहुत पसंद आती थी. कई बार ऐसा भी हुआ कि कई देश ब्रिटिश पॉलिसी को पसंद करें या न करें, लेकिन वे महारानी को बहुत पसंद करते थे. क्वीन की इस सॉफ्ट पावर को दुनियाभर में बहुत फायदा भी मिला है. दुनिया में जब भी ब्रिटेन की ख़ास बातें सामने आती थीं, तो उनमें सबसे ऊपर क्वीन ही रहती थीं, क्योंकि वह दुनिया की बहुत जानी-मानी हस्ती थीं. दुनिया में आप कहीं भी चले जाएं, उन्हें सब जानते हैं. ब्रिटेन का एक विश्वास था कि चाहे दुनिया में उसकी ताकत कम हो जाए, लेकिन उसकी कुछ चीज़ें ऐसी हैं, जो दुनियाभर में नायाब हैं. क्वीन एलिजाबेथ द्वितीय वही थीं.
यह लेख नवभारत टाइम्स में प्रकाश हो चुका है
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