Author : Harsh V. Pant

Originally Published जागरण Published on May 19, 2023 Commentaries 0 Hours ago

अब हिमालयी क्षेत्र में चीन के लगातार बढ़ते दुस्साहस को देखते हुए भारत में कुछ सामरिक विश्लेषक मानने लगे हैं कि देश को ‘नो फर्स्ट यूज’ वाली नीति का परित्याग करना चाहिए.

'परमाणु नीति पर पुन:विचार की दरकार'

भारत 25 वर्ष पहले एक परमाणु शक्तिसंपन्न देश के रूप में स्थापित हुआ. भले ही थार रेगिस्तान में हुए उन परमाणु परीक्षणों के 25 वर्ष बीते हों, लेकिन असल में भारतीय परमाणु कार्यक्रम की शुरुआत स्वतंत्रता के तुरंत बाद हो गई थी. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 1948 में होमी जहांगीर भाभा के नेतृत्व में भारत के परमाणु अभियान को हरी झंडी दिखाई. प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मई 1974 में शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण कराए. इसके बावजूद परमाणु हथियारों तक पहुंचने में भारत को करीब पांच दशक लग गए. परमाणु युग के इतिहास में किसी अन्य देश ने इसके लिए इतना समय नहीं लिया.

हालांकि, परमाणु विकल्प को लेकर भारत के ईमानदारी से अपनाए गए धैर्य का कोई भौतिक या कूटनीतिक लाभ नहीं मिला. अमेरिका के नेतृत्व वाले पश्चिमी देश, जो खुद को वैश्विक परमाणु ढांचे का संरक्षक समझते आए हैं, उन्हें भारत के परमाणु इरादों को लेकर संदेह रहा. इसका परिणाम भारतीय परमाणु और रक्षा उद्योग पर भारी तकनीकी प्रतिबंधों के रूप में पड़ा. जबकि वे अपने विरोधियों के परमाणु कार्यक्रमों पर अंकुश लगाने में नाकाम रहे. पिछली सदी के सातवें दशक में न केवल चीन ने परमाणु बम बनाने में सफलता हासिल की, बल्कि बाद में पाकिस्तान को इस मामले में मदद भी पहुंचाई.

अब हिमालयी क्षेत्र में चीन के लगातार बढ़ते दुस्साहस को देखते हुए भारत में कुछ सामरिक विश्लेषक मानने लगे हैं कि देश को ‘नो फर्स्ट यूज’ वाली नीति का परित्याग करना चाहिए.

वर्ष 1989 में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी दबाव के कारण परमाणु हथियार बनाने की दिशा में आगे बढ़े. परमाणु नि:शस्त्रीकरण को लेकर अपनी पुरानी नीति के चलते भारत तब भी इसके लिए पूरी तरह तैयार नहीं था. कतिपय कारणों से हिचक बनी रही. अंतत:, 1998 के परमाणु परीक्षणों ने भारत को अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों के आदर्शवाद से मुक्त किया. परमाणु हथियारों को लेकर भारत की आत्मस्वीकृति ने विदेश नीति आदर्शवाद की जड़ता दूर करने में मदद करने के साथ ही गुप्त परमाणु कार्यक्रम को लेकर जुड़ी मनोवैज्ञानिक बाधाओं से भी मुक्ति दिलाई. तब भले ही विश्व भारत को परमाणु शक्तिसंपन्न देश की मान्यता देने के लिए तैयार न हो, लेकिन भारत स्वयं अपनी यह पहचान घोषित करने को तैयार था.

भारत-अमेरिका संबंधों की दृष्टि से परमाणु परीक्षण मुश्किल में एक वरदान सिद्ध हुए. यदि भारत की परमाणु अनिश्चितता से वाशिंगटन की ऐसी उम्मीदें बंधी हुई थीं कि आखिरकार नई दिल्ली परमाणु अप्रसार के उसके एजेंडे पर सहमत हो जाएगी तो नई दिल्ली ने अमेरिका की परमाणु अप्रसार की वकालत को वैश्विक ढांचे में उसके उभार की राह में एक बाधा के रूप में देखा. परीक्षणों ने भारत की इस ग्रंथि को दूर किया और अमेरिका को अपने परमाणु अप्रसार का एजेंडा छोड़कर आगे बढ़ना पड़ा.

‘नो फर्स्ट यूज’ वाली नीति का परित्याग 

परमाणु परीक्षणों के एक दशक के भीतर ही भारत ने तीन मूलभूत कूटनीतिक लक्ष्य प्राप्त किए. कारगिल युद्ध में भारत ने परमाणु मोर्चे पर जिम्मेदार एवं संयमित व्यवहार का परिचय दिया. इसने भारत-अमेरिका रणनीतिक साझेदारी की बुनियाद रखने के साथ ही अमेरिका की दक्षिण एशियाई नीति में भारत को पाकिस्तान से अलग किया. दूसरा, आर्थिक-सैन्य शक्ति के रूप में भारत के उभार ने उसे एशियाई शक्ति संतुलन में चीन के साथ खड़ा किया. आज भी हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अमेरिकी सहयोगियों-रणनीतिक साझेदारों में भारत ही इकलौती परमाणु शक्ति है. तीसरा, भारत-अमेरिका नागरिक परमाणु समझौते ने भारत को परमाणु शक्तिसंपन्न देश की मान्यता दिलाई.

परमाणु दर्जे की रजत जयंती के मौके पर हमें कुछ बड़ी चुनौतियों को अनदेखा नहीं करना चाहिए. भारत का जिम्मेदार परमाणु व्यवहार उसके परमाणु संयम की बुनियाद पर टिका है. यही संयम उसकी परमाणु रणनीति और हथियारों के विस्तार में भी दिखा. हालांकि, भारत की ओर से हमले की पहल न करने वाली रणनीति पाकिस्तान पर कोई खास असर नहीं डाल पाई, जो यदाकदा परमाणु घुड़की देता रहता है. लगातार उकसावे के मामलों ने भारत को अपने खोल में धकेल दिया. इसके चलते चाहे 2001 में संसद पर हमला हो या फिर 2008 का मुंबई आतंकी हमला, भारत पाकिस्तानी प्रपंचों को मुंहतोड़ जवाब देने में अक्षम रहा. अब हिमालयी क्षेत्र में चीन के लगातार बढ़ते दुस्साहस को देखते हुए भारत में कुछ सामरिक विश्लेषक मानने लगे हैं कि देश को ‘नो फर्स्ट यूज’ वाली नीति का परित्याग करना चाहिए.

जब तक भारत अपनी अंतर महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों के निशाने पर समूचे चीनी क्षेत्र को निशाना बनाने में सक्षम नहीं होगा तब तक उसकी क्षमताओं पर सवाल उठेंगे.

भले ही परमाणु तकनीक के मामले में भारत ने भारी प्रगति की हो, लेकिन चीन के मुकाबले में दूसरे आघात की क्षमता में वह कुछ पीछे रह गया. ऐसे में केवल पहली बार हमला करने की नीति से परहेज करना ही पाकिस्तान और चीन के विरुद्ध भारत की चिंताएं दूर नहीं कर पाएगा. चीन के साथ टकराव की स्थिति में परमाणु विकल्प नीतिगत या सामरिक रूप से प्रभावी नहीं होगा. हिमालयी क्षेत्र में परमाणु हथियारों का प्रयोग न केवल भारत के लिए भौगोलिक रूप से विध्वंसक सिद्ध होगा, बल्कि चीन के जवाबी हमले से यहां स्थिति और विकराल हो सकती है. ऐसे में, भारत-चीन सैन्य टकराव मुख्यत: सीमित युद्ध या क्षेत्र विशेष तक ही सिमटा रहेगा. भारत के लिए सीमा पर पारंपरिक सैन्य बल को सशक्त करना ही श्रेयस्कर होगा, जिसके चलते चीन को किसी भी दुस्साहस की भारी कीमत चुकानी पड़े.

चीन व पाकिस्तान के मामले में 

पाकिस्तान के मामले में भी भारत को पारंपरिक सैन्य विकल्प सशक्त करते हुए उसकी परमाणु हेकड़ी निकालने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. सर्जिकल स्ट्राइक और बालाकोट स्ट्राइक से यह सिद्ध हुआ कि दक्षिण एशिया में सैन्य तनातनी बढ़ने के बावजूद परमाणु युद्ध छिड़ने से रहा. भारत को चीनी चुनौती से निपटने पर ही विशेष ध्यान देना होगा. जब तक भारत अपनी अंतर महाद्वीपीय बैलिस्टिक मिसाइलों के निशाने पर समूचे चीनी क्षेत्र को निशाना बनाने में सक्षम नहीं होगा तब तक उसकी क्षमताओं पर सवाल उठेंगे.

कूटनीतिक बढ़त

बहरहाल, यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं कि 1991 के आर्थिक सुधारों के साथ ही 1998 के परमाणु परीक्षणों ने भी वैश्विक मंच पर भारत के उभार की राह खोलने में अहम भूमिका निभाई. इससे भारत को भारी कूटनीतिक बढ़त मिली है. हालांकि, अपनी सैन्य रणनीति में परमाणु क्रांति के समावेश की आवश्यकता को पूरा किया जाना अभी भी शेष है.


यह लेख जागरण में प्रकाशित हो चुका है. 

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