Author : Harsh V. Pant

Published on Feb 28, 2024 Commentaries 20 Hours ago

स्थायी शांति का कोई भी प्रस्ताव तभी कारगर हो सकता है जब वह संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करे और संयुक्त राष्ट्र चार्टर में निहित सिद्धांतों पर आधारित हो.

पश्चिम की मदद के बिना कैसे लड़ेगा यूक्रेन

रूस-यूक्रेन युद्ध के दो साल पूरे होने जा रहे हैं. इस युद्ध की वजह से दोनों पक्षों को और दुनिया के कई देशों को भारी नुकसान हो रहा है, लेकिन युद्ध का अंत दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा. रूसी सेना ने पिछले दिनों एक बड़ी कामयाबी हासिल की. उसने यूक्रेन के पूर्वी शहर अवदीवका पर कब्जा कर लिया, जहां महीनों से भयंकर लड़ाई चल रही थी. रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पूतिन ने इसे ‘अहम जीत’ बताया, जबकि यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की ने हार का दोष पश्चिमी हथियारों की आपूर्ति में कमी पर मढ़ा है.

अमेरिका का पहलू : अमेरिका में घरेलू राजनीतिक विभाजन यूक्रेन को महत्वपूर्ण सैन्य सहायता जारी रखने के प्रयासों को विफल कर रहा है. महीनों के खींचतान के बाद अमेरिकी सीनेट ने पिछले महीने यूक्रेन के लिए $60 अरब की सहायता को मंजूरी दी, लेकिन प्रतिनिधि सभा में अभी भी इसे लेकर अनिश्चितता बनी हुई है. नैटो के महासचिव जेन्स स्टोलटेनबर्ग ने भी माना है कि अमेरिकी सहायता में देरी से यूक्रेन को युद्ध में नुकसान हो रहा है.

इस युद्ध की वजह से दोनों पक्षों को और दुनिया के कई देशों को भारी नुकसान हो रहा है, लेकिन युद्ध का अंत दूर-दूर तक नजर नहीं आ रहा.

यूरोप का रुख : यूक्रेन के समर्थन में यूरोपीय देशों की ओर से बयानबाजी तो खूब हुई है, लेकिन उसे ठोस मदद बहुत कम दी गई है. नतीजा यह कि जहां पश्चिम समर्थित यूक्रेन को अपने तोपखाने के गोले संभलकर दागने पड़ रहे हैं, वहीं रूस में वॉर इकॉनमी फल-फूल रही है. आलम यह है कि अपनी GDP का 2 प्रतिशत रक्षा पर खर्च करने का सीमित लक्ष्य नैटो के 31 सदस्य देशों में से केवल 11 देश ही हासिल कर सके हैं. ऐसे में हैरत की बात नहीं कि यूरोप मार्च तक यूक्रेन को 155 मिलीमीटर तोपखाने के 10 लाख गोले पहुंचाने का अपना वादा पूरा करने की स्थिति में भी नहीं दिख रहा.

ट्रंप का धमाका : अमेरिका में नवंबर में राष्ट्रपति चुनाव होंगे. इसके लिए रिपब्लिकन पार्टी की ओर से प्रत्याशी की दौड़ में ट्रंप आगे चल रहे हैं. इससे यूरोप की नींद खुल गई है. ट्रंप ने एक चुनावी रैली में यह कहकर यूरोपीय देशों की धड़कन बढ़ा दी कि वह रूस को उस देश के खिलाफ ‘जो मर्जी करने के लिए प्रोत्साहित’ करेंगे, जो अपने रक्षा बजट पर खर्च के वादे पर खरा नहीं उतरता. यह बयान नैटो अलायंस की बुनियाद को ही चुनौती देता है.

अमेरिका के भरोसे : ट्रंप का यह चौंकाने वाला बयान यूरोपीय देशों को इस सचाई का अहसास करा रहा है कि यूक्रेनी चुनौती के बावजूद, वे खुद को हालात का सामना करने लायक नहीं बना पाए हैं. आलम यह है कि अगर नैटो के सभी सदस्य देश अपने रक्षा खर्च के लक्ष्य को पूरा कर लेते हैं, तो भी यूरोप को अमेरिकी समर्थन के बिना खुद का बचाव करने में एक दशक लग जाएगा.

यूरोप की नींद खुल गई है. ट्रंप ने एक चुनावी रैली में यह कहकर यूरोपीय देशों की धड़कन बढ़ा दी कि वह रूस को उस देश के खिलाफ ‘जो मर्जी करने के लिए प्रोत्साहित’ करेंगे, जो अपने रक्षा बजट पर खर्च के वादे पर खरा नहीं उतरता. यह बयान नैटो अलायंस की बुनियाद को ही चुनौती देता है.

वॉशिंगटन में असंतोष : पूर्वी यूरोप और बाल्टिक देशों में, रूसी खतरों के मद्देनजर रक्षा क्षमताओं के निर्माण पर खासा जोर है. लेकिन यूरोप का केंद्र माने जाने वाले देश मजबूत डिफेंस इंडस्ट्री के बावजूद महाद्वीप की बदलती जरूरतों के मुताबिक अपनी क्षमता का विस्तार नहीं कर पाए हैं. ट्रंप के बयान ने सबका ध्यान जरूर खींचा है, लेकिन यह सिर्फ ट्रंप से जुड़ी बात नहीं है. जॉर्ज डब्लू बुश के दिनों से वॉशिंगटन में इस मसले पर यूरोप के रुख को लेकर असंतोष रहा है. अपनी तेजी से घटती रक्षा क्षमताओं से उपजी चुनौतियों को पहचानने में यूरोप ने सचमुच काफी देर कर दी है.

जिम्मेदारी यूरोप पर : अगर यूक्रेन की सीमा पर रूस फिर से हमलावर हो रहा है तो उसके पीछे यह बात भी है कि उसने नैटो के भीतर के असंतोष और यूरोप की कमजोरियों को भांप लिया है. यूक्रेन पर ट्रंप के विचारों को रिपब्लिकन हलकों में ठोस समर्थन हासिल है और वह राष्ट्रपति चुनाव नहीं जीत पाते हैं, तब भी ऐसी संभावना नहीं है कि यूक्रेन की मदद को लेकर अमेरिका में उत्साह का माहौल बन जाएगा. इसलिए जिम्मेदारी अब यूरोप पर है. उसे अपने रक्षा उद्योग में सुधार करते हुए जल्द से जल्द इसका पुनर्निर्माण करना होगा. वरना आने वाले समय में उसे सीमा क्षेत्रों में रूसी दखलंदाजी का सामना करते रहना पड़ेगा.

अंतहीन युद्ध : मौजूदा गतिरोध को देखते हुए युद्ध का कोई सैनिक समाधान निकलने के आसार नहीं दिख रहे. दोनों पक्ष अलग-अलग तरह की आक्रामक और रक्षात्मक रणनीतियां अपना कर देख चुके हैं. कोई भी उन्हें निर्णायक जीत के करीब नहीं ले जा पाई. स्थायी शांति का कोई भी प्रस्ताव तभी कारगर हो सकता है जब वह संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करे और संयुक्त राष्ट्र चार्टर में निहित सिद्धांतों पर आधारित हो. फिलहाल दोनों पक्षों में इसके लिए आवश्यक स्वीकार्यता नहीं दिख रही है.

समझौते का दबाव : हालांकि युद्ध ग्लोबल इकॉनमी को तो प्रभावित कर ही रहा है, दुनिया पर इससे उपजे दूसरे दबाव भी बढ़ते जा रहे हैं. ग्लोबल साउथ की मांग है कि जल्द से जल्द समझौते की कोई राह निकाली जाए. लेकिन कोई भी टिकाऊ हल निकालने के लिए यह देखना जरूरी है कि इस युद्ध ने छोटे-छोटे और गरीब मुल्कों को किन-किन स्तरों पर और कितना नुकसान पहुंचाया है. इन देशों के नजरिए से भी इनकी प्राथमिकताओं और इनके विकास अजेंडे पर आगे बढ़ने के लिए एक दीर्घकालिक हल महत्वपूर्ण है.

युद्ध हल नहीं : जैसा कि भारत भी दोहराता रहा है कि युद्ध कोई हल नहीं है, बातचीत और कूटनीति के रास्ते ही कोई समाधान मिल सकता है. लेकिन जब तक इस क्षेत्र के लिए नए सुरक्षा तर्क और नजरिए से लैस ऐसी जीवन शैली नहीं ढूंढी जाती जो दोनों पक्षों की आकांक्षाओं और आशंकाओं के बीच संतुलन बना सके, तब तक इस संघर्ष का स्थायी इलाज मिलना मुश्किल है.

 


यह लेख नवभारत टाइम्स में प्रकाशित हो चुका है

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