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रूस और चीन जैसी प्रमुख वैश्विक ताकतें और ईरान जैसी क्षेत्रीय ताकतें प्रकट रूप से तो अफगानिस्तान में शांति बहाली की खातिर, लेकिन, असल में अपने हितों की खातिर, अब तालिबान को गले लगाने को तैयार हैं।
छत्तीसगढ एक बार फिर से सुर्खियों में है, बेशक गलत कारणों से। 24 अप्रैल को पूरी तरह हथियारबंद माओवादी आतंकवादियों ने छत्तीसगढ के सुकमा में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ) के काफिले को बारूदी सुरंग से उड़ा दिया जिसमें अर्द्ध सैन्य बल के 25 जवान मारे गए तथा कई गंभीर रूप से घायल हो गए। यह नृशंस घटना उस वक्त हुई, जब 74वीं बटालियन से जुडे 100 सीआरपीएफ जवानों की एक टीम दक्षिण बस्तर से जुडी सड़क के निर्माण कार्य को सुरक्षा प्रदान करने के लिए दोरनापाल-जगारगुंडा सड़क पर गश्त कर रही थी।
कहना न होगा कि सुकमा अर्द्ध सैन्य बलों के लिए लगातार कब्रगाह बना हुआ है। इसी वर्ष मार्च में माओवादियों ने सुकमा के भेज्जी गांव में सीआरपीएफ के 12 जवानों को गोलियों से भून दिया था। लगभग दो वर्ष पहले माओवादियों ने सैन्य बल को काफी क्षति पहुंचाई थी जब उन्होंने लगभग इसी जगह सीआरपीएफ गश्ती दल के 15 सदस्यों को मार डाला था। और सोमवार को हुए हमले के स्थान से केवल कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर लातेहार स्थित है जहां माओवादियों ने 2010 में सीआरपीएफ के 76 जवानों की हत्या कर दी थी।
भारत में माओवादियों से संबंधित घटनाओं पर दी जाने वाली प्रतिक्रियाएं कभी भी बहुत तार्किक नहीं रही हैं। जो विश्लेषक अराजकता को समाप्त करने की किसी भी रणनीति को खारिज कर देते है, वे ही उस वक्त माओवादियों के खिलाफ सरकार की सफलता पर जश्न मना रहे थे जब, आंध्र-ओडिशा के सुरक्षा बलों ने अक्तूबर, 2016 में 24 दुर्दांत माओवादियों को मार गिराया था। कई विश्लेषकों और माओवादी घटनाओं पर करीबी नजर रखने वालों ने तो इससे माओवादियों और उनकी विचारधाराओं के खात्मा हो जाने तक की घोषणा कर दी थी। यह हाल के वर्षों में माओवादियों के खिलाफ सबसे सफल आतंकविरोधी कार्रवाई थी, जिसमें पूर्वी क्षेत्र का उनका सचिव अप्पा राव, उसकी पत्नी अरूणा और एओवी जोन के सैन्य प्रमुख गजराला अशोक मारे गए थे। लेकिन विश्लेषकों ने जवाबी हमला करने की बागियों की क्षमता को काफी कम करके आंकने की भूल कर दी थी।
पिछले सोमवार को सुकमा में हुए हमले समेत हाल के समय में ऐसे हमलों की लगातार घटनाएं हमें स्पष्ट रूप से याद दिलाती हैं कि माओवादी अराजकता अभी भी इतिहास की बात नहीं हुई है। उनके कैडर, शीर्ष नेताओं, संसाधनों एवं विशाल क्षेत्र पर उनके नियंत्रण में उल्लेखनीय नुकसान के बावजूद माओवादियों के अभेद्य किलों में अभी भी भारी मात्रा में आग्नेयास्त्र बचे हुए हैं। सुकमा की घटनाएं उनकी विध्वंसकारी ताकतों के स्पष्ट प्रमाण हैं।
नक्सली हिंसा के तुलनात्मक आंकडे़ (2005-2017)
वर्ष | नागरिक | सुरक्षा बल जवान | वामपंथी उग्रवादी/सीपीआई-माओवादी | योग |
2005 | 281 | 150 | 286 | 717 |
2006 | 266 | 128 | 343 | 737 |
2007 | 240 | 218 | 192 | 650 |
2008 | 220 | 214 | 214 | 648 |
2009 | 391 | 312 | 294 | 997 |
2010 | 626 | 277 | 277 | 1180 |
2011 | 275 | 128 | 199 | 602 |
2012 | 146 | 104 | 117 | 367 |
2013 | 159 | 111 | 151 | 421 |
2014 | 128 | 87 | 99 | 314 |
2015 | 93 | 57 | 101 | 251 |
2016 | 120 | 66 | 244 | 430 |
2017 (मार्च) | 10 | 1 | 44 | 23 |
योग* | 2955 | 1853 | 2561 | 7369 |
स्रोतः गृह मंत्रालय, भारत सरकार, 2016-17
इस वर्ष नक्सलवादी/माओवादी अराजकता के 50 वर्ष पूरे हो गए। मई 1967 में गरीब किसानों, भूमिहीन मजदूरों एवं आदिवासियों ने भारत, बांग्लादेश (तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान) और नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र वाले एक गांव नक्सलबारी में जमींदारों के खिलाफ लाठी, धनुष तीर उठा लिए थे और उनके गोदामों पर छापे मारे थे। हालांकि पुलिस ने तेजी से कार्रवाई करते हुए नक्सलबारी विद्रोह को कुचल दिया था, लेकिन धीरे धीरे देश के अन्य क्षेत्रों में इसकी लपटें फैल गईं। बहरहाल, आंदोलन के प्रमुख नेता चारू मजुमदार की गिरफ्तारी के बाद, कई लोगों को ऐसा लगा कि नक्सलवादी आंदोलन समाप्त हो गया है। लेकिन, 1980 के दशक में नक्सलवादी आंदोलन अपने सर्वाधिक हिंसक रूप में फिर से उभर कर सामने आ गया। कोंडापल्ली सीतारमैया ने 1980 में पीपुल्स वॉर ग्रुप (पीडब्ल्यूजी) की स्थापना की। उसके बाद आंध्र प्रदेश के कई शीर्ष नेताओं की सनसनीखेज हत्याओं समेत सैकडों हिंसक वारदातें हुई। जब 1990 के दशक के प्रारंभ में सीतारमैया की गिरफ्तारी के साथ पीडब्ल्यूजी तहस नहस हो गया तो कई विश्लेषकों ने सोचा कि सशस्त्र अराजकता का दौर समाप्त हो गया। बहरहाल, 2004 में एक बार फिर से अराजकता आंदोलन ने अपना सिर उठाया, जब 40 सशस्त्र धडों ने आपस में विलय कर कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओवादी) का निर्माण किया।
संक्षेप में, सरकार की कई कार्रवाइयों के बावजूद वामपंथी अराजकता 1967 में औपचारिक रूप से वजूद में आने के बाद से लगातार किसी न किसी रूप में अपना सिर उठाती ही रही है। तुलनात्मक रूप से भारत सरकार 1970 एवं 1980 के दशकों के मुकाबले आज बहुत अधिक ताकतवर है। फिर भी, वह अराजकता को कुचल पाने में असमर्थ है जो लगातार एक विशाल भू-भाग, जहां अधिकतर गरीब आदिवासी रहते हैं, में विकास एवं प्रशासन को बाधित करती रहती है। सुरक्षा कार्रवाइयों या कानून एवं व्यवस्था के दृष्टिकोण की अपनी सीमाएं हैं। केंद्र सरकार एवं प्रभावित राज्यों दोनों को ही अराजकता के इस रूप, जो अभी भी आबादी के एक बड़े हिस्से को लगातार आकर्षित कर रहा है, से निपटने के लिए अपनी रणनीतियों एवं दृष्टिकोणों पर विचार करने की जरूरत है। हालांकि हिंसक अराजकता से निपटने में सरकार के कानून एवं व्यवस्था का कोई दूसरा विकल्प नहीं है, पर इसके साथ-साथ विद्रोहियों को संवाद के लिए आकर्षित करने के लिए भी गंभीरता से प्रयास किए जाने चाहिए।
अगर कोलंबिया सरकार विश्व के सबसे हिंसक वामपंथी अराजक संगठन एफएआरसी (रिवॉलुशनरी आर्म्ड फोर्सेज ऑफ कोलंबिया), जिसने 1964 से 220,000 लोगों की हत्याएं कीं तथा 5.7 मिलियन लोगों को विस्थापित किया है, के साथ संवाद की शुरुआत कर सकती है और एक शांतिपूर्ण समझौता कर सकती है, तो भारत सरकार को बागियों के साथ संवाद करने में आखिर क्यूं हिचकिचाहट होनी चाहिए। वास्तव में, अब पहले की तुलना में बहुत कमजोर हो जाने तथा कई प्रकार के दबावों से घिर जाने के कारण, हो सकता है माओवादी विद्रोही खुद भी अब पहले की तुलना में राजनीतिक संवाद की प्रक्रिया से जुडने के प्रति कहीं अधिक इच्छुक हों। कोलंबिया सरकार भी एफएआरसी को बातचीत के टेबल पर आने को तभी बाध्य कर पाई, जब उसने उसके शीर्ष नेताओं का खात्मा कर दिया और उनके गोला बारूद के असबाबों को कमजोर बना दिया। संक्षेप में कहें तो अभी माओवादियों के साथ बुद्धिमतापूर्ण तरीके से बातचीत करने का बहुत अनुकूल समय है। यह तय है कि केवल सशस्त्र माध्यमों से ही किसी ऐसे क्रांतिकारी आंदोलन को कुचला नहीं जा सकता जिसे विकास की कमी, अन्याय, भेदभाव और प्रशासन की कमी से उसकी खुराक मिलती है।
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Niranjan Sahoo, PhD, is a Senior Fellow with ORF’s Governance and Politics Initiative. With years of expertise in governance and public policy, he now anchors ...
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