टास्क फोर्स 7 टूवर्ड्स रिफॉर्म्ड मल्टीलैटरलिज़्म: ट्रांसफ़ॉर्मिंग ग्लोबल इंस्टीट्यूशंस एंड फ्रेमवर्क्स
सार
इस पॉलिसी ब्रीफ का लक्ष्य अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) में कोटा प्रणाली की भूमिका की पड़ताल करना है. इस सिलसिले में IMF के साथ भारत के उभरते रिश्तों पर दृष्टिकोण केंद्रित किया गया है. दरअसल, IMF की स्थापना के बाद से ही कोटा (या आरक्षित स्थान) उसका केंद्रीय तत्व रहे हैं. नियत किया गया कोटा किसी देश की स्पेशल ड्रॉइंग राइट्स यानी विशेष आहरण अधिकार का स्तर दर्शाता है. IMF की स्थापना करने वाले शुरुआती दौर के 44 सदस्यों को ये अधिकार दिए गए थे. ऐसे कोटा का मक़सद द्वितीय विश्व युद्ध के बाद की आर्थिक और सियासी व्यवस्था का सटीक रूप से प्रतिनिधित्व करना था.
फ़िलहाल IMF में भारत का कोटा 2.75 प्रतिशत है. इसकी तुलना में चीन और अमेरिका का कोटा क्रमश: 6.4 प्रतिशत औऱ 17.43 प्रतिशत है. इन आंकड़ों से मौजूदा वैश्विक वित्तीय संस्थानों की श्रेणीबद्ध (hierarchical) सत्ता संरचना रेखांकित होती है.
कोटे की 16वीं सामान्य समीक्षा के सफल समापन के ज़रिए और वैश्विक अर्थव्यवस्था में असंतुलनों का निपटारा करके भारत किस प्रकार IMF के भीतर अपनी यथार्थवादी स्थिति मज़बूत कर सकता है, इसी की पड़ताल इस ब्रीफ में की गई है. इसमें भारत जैसी उभरती शक्तियों के संदर्भ में कोटा समीक्षाओं और सिफ़ारिशों का भी परीक्षण किया गया है. साथ ही IMF के भीतर संस्थागत सुधारों को आगे बढ़ाने में विकासशील देशों के लिए गुंजाइश का आकलन प्रस्तुत किया गया है.
चुनौती
दरअसल, वैश्विक स्तर पर सत्ता और शक्ति का संतुलन अटलांटिक से छिटककर प्रशांत क्षेत्र की ओर बढ़ता जा रहा है. आंशिक रूप से चीन के दबदबे की वजह से ये बदलाव हो रहा है, हालांकि एशियाई और एशिया-प्रशांत के देशों में जनसंख्या, उत्पादन और संसाधनों की वृद्धि ने भी ऐसे परिवर्तनों का बड़ा कारण रहे हैं. इस तरह उभरती अर्थव्यवस्थाएं और उत्पादन के अड्डे वैश्विक आपूर्ति श्रृंखला के लिए रणनीतिक रूप से अहम बन गए हैं. G20 जैसे अनौपचारिक प्रारूप के ज़रिए वैश्विक निर्णय प्रक्रिया में इन देशों का दख़ल बढ़ गया है, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) जैसे औपचारिक वित्तीय संस्थानों में विश्व स्तर पर आया ये बदलाव पर्याप्त रूप से प्रदर्शित नहीं हो पाया है. वैश्विक प्रशासन के औपचारिक और अनौपचारिक घटकों में तालमेल की ये गड़बड़ी व्यापक ढांचागत सुधारों की ज़रूरत को रेखांकित करती है.
दरअसल, IMF में हर देश के लिए एक कोटा नियत किया गया है, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था में उस राष्ट्र के सापेक्षिक आकार को प्रदर्शित करता है. कोटे का ये आकार कोष में सदस्यों के वित्तीय योगदान और उनकी मतदान शक्ति का निर्धारण करता है; ज़्यादा कोटे वाले किरदार IMF के भीतर निम्न और मध्यम आय वाले देशों पर औपचारिक और अनौपचारिक तौर पर ज़्यादा प्रभाव डालते हैं. इससे नीतिगत उद्देश्यों और ख़र्च किए गए कोष को लेकर सदस्यों के बीच सत्ता और शक्ति के असमान समीकरण बन जाते हैं.[i]
इस विषमता के निपटारे के लिए भारत जैसी उभरती शक्तियां कोटा आवंटन और स्पेशल ड्रॉइंग राइट्स (SDRs) की व्यवस्था में सुधार किए जाने पर ज़ोर दे रहे हैं.[ii] हालांकि इसके लिए 85 प्रतिशत बहुमत की दरकार होगी, और अमेरिका की वीटो शक्ति को देखते हुए इस क़वायद को आगे बढ़ाना होगा. दरअसल अमेरिका, G7 के तमाम अन्य सदस्यa और यूरोपीय संघ के पास फ़िलहाल वोटिंग का बहुमत मौजूद है, जिससे इस मसले के निपटारे के लिए बहुपक्षीय प्रयासों की अहमियत रेखांकित होती है. IMF की कोटा आवंटन प्रक्रिया में सुधार लाया जाना आवश्यक है ताकि वो मौजूदा वैश्विक आर्थिक बहुध्रुवीय व्यवस्था को ठीक ढंग से प्रदर्शित कर सके. साथ ही मुद्रा कोष की वैधानिकता बढ़ाने के लिए नई उभरती ताक़तों के जुड़ाव पर प्रभावी रूप से बल भी दिया जा सके.
इस पॉलिसी ब्रीफ में दलील दी गई है कि एक उभरती ताक़त और G20 के मौजूदा अध्यक्ष के रूप में भारत को अपनी हैसियत का निश्चित रूप से फ़ायदा उठाना चाहिए. इस कड़ी में वैश्विक वित्तीय प्रशासन में सुधारों पर ज़ोर दिया जाना चाहिए ताकि सभी देशों के बीच वित्तीय संसाधनों का पहले से अधिक न्यायसंगत रूप से वितरण हो सके. IMF में सबसे बड़े शेयरहोल्डर के रूप में अमेरिका इस समीकरण में एक अहम भूमिका निभाता है और उसके पास कोष के सभी फ़ैसलों पर वीटो का अधिकार मौजूद है. विकसित और उभरती अर्थव्यवस्थाओं के बीच सत्ता के बदलते समीकरणों से जुड़ी संवेदनशीलताओं (ख़ासतौर से चीन के उभार के मद्देनज़र) को देखते हुए हाल के वर्षों में अमेरिका IMF कोटे में सुधार का समर्थन करने को लेकर आनाकानी करता रहा है.[iii]
सत्ता का संतुलन उभरती अर्थव्यवस्थाओं की ओर मुड़ रहा है, ऐसे में ये ज़रूरी है कि IMF इस नई हक़ीक़त को ठीक ढंग से प्रदर्शित करे. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में कोटे के नए सिरे से आवंटन के लिए वार्ताओं को प्रोत्साहित करने की दिशा में दुनिया की तमाम उभरती शक्तियों को मिलकर काम करना चाहिए. साथ ही तरलता संकट से जूझ रहे देशों के लिए कोष के न्यायसंगत और न्यायपूर्ण आवंटन की क़वायद को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए. G20 में भारत के रुतबे का इस्तेमाल करके वार्ताओं की ऐसी व्यवस्था तैयार की जा सकती है. ज़ाहिर है भारत, IMF को पहले से ज़्यादा न्यायसंगत और प्रतिनिधित्वकारी बनाने की दिशा में बढ़ने की अगुवाई कर सकता है.
2019 में ख़त्म हुई कोटे की 15वीं सामान्य समीक्षा में IMF के प्रशासकीय ढांचे में उभरते बाज़ारों और विकासशील देशों के कम प्रतिनिधित्व से जुड़े मसले के निपटारे का लक्ष्य रखा गया था. बहरहाल, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में दबदबा रखने वाले कुछ बड़े स्टेकहोल्डर्स (जिसमें अमेरिका सबसे उल्लेखनीय है) की ओर से समर्थन के अभाव के चलते इस दिशा में कोई ख़ास सफलता नहीं मिल पाई.[iv]
यही वजह है कि आने वाले समय में होने वाली कोटे की 16वीं सामान्य समीक्षा भारत के लिए एक बड़ा अवसर प्रस्तुत कर रही है. 2023 में प्रस्तावित ये मंथन IMF के भीतर बढ़े हुए कोटे और पहले से ज़्यादा न्यायसंगत वोटिंग अधिकार के लिए मांग उठाने का मौक़ा दे रहा है. ऐसी पहल करके भारत, उभरती शक्तियों की अगुवाई करने वाले किरदार के रूप में अपने क़दम आगे बढ़ा सकता है.
G20 की भूमिका
उभरते और विकसित देशों के मंच के रूप में G20 के पास अनौपचारिक स्वरूप, बेबाकी भरा अंदाज़, पारदर्शिता और खुलेपन के गुण मौजूद हैं. औपचारिक बहुपक्षीय संस्थानों के विपरीत G20 के भीतर की कार्यवाहियां और परिचर्चाएं अफ़सरशाही की सुस्ती से मुक्त हैं. सत्ता और शक्ति के तत्व की वजह से IMF के सुधार से जुड़ी प्रक्रिया का ज़बरदस्त राजनीतिकरण हो गया है. IMF में सुधारों की दिशा में किसी भी प्रकार की प्रगति के लिए ‘संवाद का दायरा’ तैयार किए जाने की दरकार है, ये क़वायद इतनी खुली होनी चाहिए कि विभिन्न राष्ट्र-राज्यों की संवेदनशीलताओं को पर्याप्त रूप से समझा जा सके; यानी इस सिलसिले में G20 जैसी समझ विकसित किए जाने की ज़रूरत पड़ेगी.
पिछले वर्षों में G20 ने कठिन मसलों पर अपने सदस्यो के बीच सर्वसम्मति बनाने की दिशा में कुछ सफलताएं प्राप्त की हैं. मिसाल के तौर पर 2019 में ओसाका शिखर सम्मेलन के दौरान अमेरिका और चीन, व्यापार शुल्क के पेचीदा मसले पर परिचर्चा के लिए रज़ामंद हो गए थे. इससे पहले 2016 के हांगझाउ शिखर सम्मेलन में समूह के तौर पर G20 ने अमेरिका पर पेरिस जलवायु समझौते पर दस्तख़त करने को लेकर दबाव बनाने में बुनियादी भूमिका अदा की थी.[v] भले ही कोटे पर 15वीं सामान्य समीक्षा बदलाव लाने में विफल रही हो, लेकिन नाज़ुक और अहम कामयाबियां हासिल करने में G20 जैसे अनौपचारिक समूह की विरासत उल्लेखनीय है, और इसे बाक़ी जगहों में भी दोहराया जा सकता है.
समकालीन वैश्विक प्रशासकीय प्रक्रिया में G20 एक प्रमुख हैसियत रखता है. G20 के शिखर सम्मेलनों की विज्ञप्तियां और साझा घोषणापत्र अधिकार-युक्त शब्दावलियां होती हैं, जो अन्य वैश्विक संस्थानों का मार्गदर्शन करती हैं.[vi] G20 में पहले से तैयार सियासी सर्वसम्मति (जो विज्ञप्तियों में प्रदर्शित होती है) IMF के भीतर कोटा आवंटन से जुड़ी परिचर्चाओं पर ठोस प्रभाव डाल सकते हैं.
एक अहम बात ये है कि मतदान के अधिकारों में तालमेल की गड़बड़ी को दूर करने में नाकामयाबी का सबसे गंभीर प्रभाव इस ऋणदाता एजेंसी के लिए वैधानिकता की हानि के रूप में सामने आने की आशंका रहेगी. इसका उन्नत अर्थव्यवस्थाओं के वैश्विक रसूख़ पर स्पष्ट रूप से असर दिखाई देगा, जिसके नतीजतन वित्त के वैकल्पिक स्रोतों के लिए ज़मीन तैयार हो जाएगी, जो ग़ैर-टिकाऊ शर्तों और/या शिकार बनाने वाले इरादों के साथ सामने आ सकती हैं.
2008 की वैश्विक आर्थिक मंदी के बाद से उन्नत अर्थव्यवस्थाओं ने ब्याज़ दरों के संदर्भ में उदारीकरण की नीतियां अपनाई. कोविड-19 संकट के बाद भी दुनिया की अगुवा अर्थव्यवस्थाओं ने ऐसी ही विस्तारवादी मौद्रिक नीति का रास्ता अपनाया है. नतीजतन सार्वजनिक और निजी क्षेत्रों में पहले से ज़्यादा कर्ज़दारी का माहौल तैयार हुआ. उसी कड़ी में भारी-भरकम ऋण संकट मुंह बाए खड़ा है, जो अमेरिका और चीन के बीच जारी व्यापार युद्ध के मद्देनज़र घातक साबित हो सकता है. इससे अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक प्रणाली की अहमियत रेखांकित होती है और IMF की व्यापक प्रासंगिकता उभरकर सामने आती है.[vii]
भारत G20 की अपनी अध्यक्षता के दौरान “वैश्विक अर्थव्यवस्था की वृद्धि के इंजन” के तौर पर अपनी यथार्थवादी रुतबे का भरपूर लाभ उठा सकता है. इस तरह वो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के प्रशासकीय मॉडल में उभरती अर्थव्यवस्थाओं के दर्जे पर नए सिरे से वार्ताओं की शुरुआत कर सकता है. भारत 2023 में वैश्विक आर्थिक वृद्धि में 15 प्रतिशत का योगदान देगा, वो डिजिटल बुनियादी ढांचे और जलवायु लचीलेपन से जुड़े कार्यक्रमों में दुनिया में अगुवा है. एक लोकतांत्रिक समाज के रूप में सुरक्षित, ठोस और समावेशी आर्थिक वृद्धि के मामले में वो दुनिया की सबसे बड़ी मिसाल है. ऐसे में अंतरराष्ट्रीय वित्तीय ढांचे को मज़बूत किए जाने की तात्कालिकता का निपटारा करना भारत के लिए सर्वोपरि है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रबंध निदेशक क्रिस्टालिना जॉर्जीवा ने भी ऐसे ही तर्क दिए हैं.[viii]
G20 के लिए सिफ़ारिशें
- पारस्परिक फ़ायदे तलाशने के लिए वार्ताओं का ठोस ढांचा तैयार करना
IMF के कोटे के मसले पर G20 समूह G7 के देशों और भारत के बीच समानांतर दौर की वार्ताओं की शुरुआत कर सकता है. हालांकि उभरती अर्थव्यवस्थाओं के लिए मतदान के अधिकारों को पहले से बड़ा किए जाने को लेकर अमेरिका जैसी उन्नत अर्थव्यवस्थाओं में उदासीनता व्याप्त है. ऐसा ख़ासतौर से इसलिए भी है क्योंकि सबसे ज़्यादा बेमेल स्वरूप चीन को लेकर है. मिसाल के तौर पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में चीन का वोटिंग अधिकार महज़ 6.4 प्रतिशत है, लेकिन क्रय शक्ति समानता (purchasing power parity) पर आधारित सकल घरेलू उत्पाद यानी GDP के हिसाब से उसका मतदान हिस्सा 19.3 प्रतिशत होना चाहिए. जबकि बाज़ार विनिमय दर पर आधारित GDP के हिसाब से चीन का मतदान हिस्सा 16.3 प्रतिशत होना चाहिए.[ix] इसी आर्थिक क्षमता ने चीन को दूसरे बहुपक्षीय संस्थान तैयार कर अपने एजेंडे को आगे बढ़ाने की ताक़त दी है. इन संस्थानों में न्यू डेवलपमेंट बैंक और एशियन इंफ़्रास्ट्रक्चर इनवेस्टमेंट बैंक (AIIB) शामिल हैं. ऐसा घटनाक्रम भारत और G7 के देशों (जैसे अमेरिका और जापान) के लिए पारस्परिक रूप से भारी ख़तरा पेश करता है.
एक और अहम बात ये है कि G7 के साथ भारत के संवादों में 20 नाज़ुक और असुरक्षित देशोंb के प्रतिनिधित्व को भी शामिल किया जाना चाहिए. इससे अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के क्रियाकलापों में सतत विकास लक्ष्यों से प्रेरित जलवायु एजेंडे को भी जोड़ा जा सकेगा. IMF के भीतर जलवायु परिवर्तन जैसे मसलों पर निर्णय लेने की शक्ति की बात करें तो इन छोटे विकासशील देशों को ना के बराबर ताक़त हासिल है. हालांकि वो लगातार जलवायु परिवर्तन का कुप्रभाव झेलते रहते हैं.[x] भारत की G20 अध्यक्षता एक बेहतरीन मौक़ा है. G7 के देशों के साथ अपने रिश्तों का इस्तेमाल करके भारत कोटा सुधार पर ज़ोर दे सकता है. इस तरह एक न्यायसंगत वैश्विक वित्तीय ढांचा तैयार करने का मक़सद पूरा हो सकेगा और एक प्रतिनिधित्वकारी संस्थान के रूप में IMF की भूमिका को नए सिरे से वैधानिक जामा भी पहनाया जा सकेगा.
क्षेत्रीय वित्तीय संस्थानों के साथ सहयोग
हाल के वर्षों में दीर्घकालिक कर्ज़दारी और आपातकालीन बेलआउट प्रावधानों, दोनों के लिए एक प्रणाली और संस्थागत ढांचे की मांग की जाती रही है; एक ऐसी प्रणाली जो एशिया की विकासशील अर्थव्यवस्थाओं की ज़रूरतों के प्रति संवेदनशील होने के साथ-साथ गतिशील भी हो. उल्लेखनीय है कि ऊपर बताए गए दोनों कार्य अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की प्रमुख ज़िम्मेदारियों में हैं. एशिया के सामाजिक-आर्थिक समीकरणों की अपर्याप्त समझ रखने के कारण अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की अक्सर आलोचना की जाती है. यूरोप और उत्तरी अमेरिका के मुक़ाबले एशिया महादेश ज़्यादा विविधताओं भरा है, यहां ज़बरदस्त दरारों वाली अर्थव्यवस्थाओं की भरमार है; जबकि पश्चिमी जगत की अर्थव्यवस्थाएं एकीकृत और औपचारिक स्वरूप वाली हैं.[xi] ऐसे परिदृश्य में IMF द्वारा क्षेत्रीय वित्तीय संस्थानों की विशेषज्ञता का पूरा-पूरा इस्तेमाल किया जाना अनिवार्य हो जाता है. इन संस्थानों में AIIB, एशियाई विकास बैंक और ब्रिक्स बैंक शामिल हैं. ऐसी क़वायद करके अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष संकट में फंसी अर्थव्यवस्थाओं के कर्ज़दाता के तौर पर अपनी प्रासंगिकता बरक़रार रख सकता है. इस बीच चीन इस क्षेत्र के आर्थिक इंजन के तौर पर उभर चुका है, जबकि अमेरिका की आर्थिक और सामरिक शक्ति में गिरावट आई है.[xii] ऐसे में चियांग मेई कार्यक्रमc की सिफ़ारिशों पर नए सिरे से विचार किया जाना अहम हो गया है. भले ही संस्थानों के बीच प्रस्तावित सहकारी ढांचा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के कोटे के सवाल का प्रत्यक्ष रूप से निपटारा नहीं करता, लेकिन फिर भी ये संस्थान की विविधता और लोकतांत्रिक गुणक (quotient) को बढ़ा देता है. इस सहभागिता का एक और फ़ायदा ये है कि इससे इलाक़े के ऋण दायरे में दबदबा क़ायम करने की चीनी क़वायदों में अड़ंगा लग जाएगा. इस तरह एशिया को आर्थिक तौर पर ‘फिनलैंड जैसा स्वरूप’ (Finlandisation) देने की क़वायद पर विराम लग जाएगा. G20 में एशिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाएं, सदस्यों के तौर पर शामिल हैं, ऐसे जमावड़े के रूप में ये समूह इन सुधारों के लिए प्रभावी मंच के तौर पर काम कर सकेगा.
- G20 की आगामी अध्यक्षताओं में ‘एजेंडे की निरंतरता’ की तलाश करना
IMF कोटे को नए सिरे से आवंटित करने की क़वायद के पक्ष में गतिशीलता को बढ़ाने के लिए भारत G20 के आगामी अध्यक्षों (2024 में ब्राज़ील और 2025 में दक्षिण अफ्रीका) के साथ काम कर सकता है. इस प्रकार ये सुनिश्चित होगा कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में सुधारों से जुड़ा एजेंडा भारत की अध्यक्षता से परे टिकाऊ रह जाए. संस्थागत रूप से G20 का नेतृत्वकारी ढांचा यानी तिकड़ी (पिछली, मौजूदा और आगामी अध्यक्षताएं) ऐसी सहभागिता के प्रति जवाबदेह होती है. अहम बात ये है कि इससे ये सुनिश्चित होगा कि भले ही कोटे की 16वीं आम समीक्षा नाकाम हो जाए, लेकिन अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के सुधार से जुड़ा एजेंडा G20 के आगामी नेतृत्व के लिए प्राथमिकता बनी रहेगी. उल्लेखनीय है कि 2024 और 2025 में G20 की अध्यक्षता करने वाले देश- ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका, दुनिया की उभरती शक्तियों में से हैं और IMF के सुधारों का समर्थन करते हैं.
निष्कर्ष
IMF के कोटे में सुधार, ना सिर्फ़ इस संस्थान की वैधानिकता बरक़रार रखने के लिहाज़ से ज़रूरी है बल्कि समकालीन आर्थिक व्यवस्था को टिकाऊ बनाए रखने के लिए भी आवश्यक है. ये व्यवस्था, वैश्विक अर्थव्यवस्था के लिए बेहद कारगर रही है, हालांकि इससे कुछ राज्यसत्ताओं को दूसरे के मुक़ाबले असमान फ़ायदे हासिल हुए हैं. वैसे देश जिन्हें अपना एकाधिकार छिन जाने का डर है, वो IMF में सुधारों के ख़िलाफ़ हो सकते हैं. बहरहाल, बर्ताव में इस तरह का अड़ियलपन जोख़िमों को साथ लेकर आता है- वैधानिकता गंवा चुके अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से पैदा ख़ालीपन को भरने के लिए उभरने वाला विकल्प वैश्विक राजनीतिक स्तर पर अस्थिरता भरा होगा.[xiii] स्वाभाविक रूप से व्यवस्थागत कायाकल्प एक स्वस्थ घटनाक्रम है, लेकिन चीन की अगुवाई वाली सियासी-आर्थिक व्यवस्था अड़ंगे डालने वाली होगी; प्राथमिक रूप से इसलिए कि वो एकपक्षीय या सर्वाधिकारवादी परिदृश्य को सामने लाएगी, जो हितों की समानता में विश्वास नहीं करता और ना ही संप्रभुता की वेस्टफेलियन यानी पाश्चात्य परिभाषा का सम्मान करता है.
दुनिया के सबसे बड़े आर्थिक और सियासी मंचों में से एक होने के नाते G20 को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष में सुधार से जुड़ी प्रक्रिया का वाहक बनने की कोशिश करनी चाहिए. इस तरह मतदान अधिकारों का समावेशी और न्यायसंगत वितरण सुनिश्चित हो सकेगा. भारत को G20 के आगामी अध्यक्षों और G7 के साथ सहभागिता क़ायम करने की क़वायद का नेतृत्व करना चाहिए. साथ ही क्षेत्रीय वित्तीय संस्थानों के साथ तालमेल और सहयोग भी करना चाहिए. इन तमाम प्रयासों से कोटे की 16वीं सामान्य समीक्षा में बेहतर सुधारों के लिए वार्ताओं को आगे बढ़ाना संभव हो सकेगा.
एट्रीब्यूशन: उपमन्यु बासु आदि, “लीवरेजिंग इंडियाज़ G20 प्रेसिडेंसी टू एड्रेस द आईएमएफ्स कोटा एलोकेशन इश्यू,” T20 पॉलिसी ब्रीफ, मई 2023.
a G7 में दुनिया की सात सबसे बड़ी उन्नत अर्थव्यवस्थाएं शामिल हैं: कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान, यूके और अमेरिका.
b जलवायु असुरक्षित मंच के नाज़ुक और असुरक्षित समूह के 20 मंत्रियों का ज़ोर मुख्य रूप से जलवायु वित्त के मसले पर आर्थिक प्रतिक्रियाओं और सवालों पर रहता है.
c चियांग मेई कार्यक्रम मुद्रा की अदला-बदली करने वाली बहुपक्षीय व्यवस्था है, जो दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के संगठन यानी आसियान के 10 सदस्यों के बीच लागू है.
Endnotes
[i] Bretton Woods Project, “Opportunity lost? IMF approach to Special Drawing Rights Channeling risks wasting golden chance”, August 09, 2021.
[ii] Rakesh Mohan, “IMF Quota Reforms and Global Economic Governance: What does the future hold?,” CSEP Working Paper, 2020.
[iii] Michael D. Bordo and Robert N.McCauley, Triffin: Dilemma or Myth?, NBER Working Paper No 24195, Cambridge, 2018, 8-14.
[iv] International Monetary Fund, “Fifteenth and Sixteenth General Reviews of Quotas—Report of the Executive Board to the Board of Governors”, accessed March 23 , 2023.
[v] Harsh V. Pant, Indian Foreign Policy in a Unipolar World (India: Routledge, 2009), 75-123.
[vi] Hugo Dobson, The Group of ⅞ ( New York: Routledge, 2007) ,2-15.
[vii] Rakesh Mohan and Muneesh Kapur, Emerging Powers and Global Governance: Whither the IMF?, IMF Working Paper No 15/219. International Monetary Fund , 2015, 15-37.
[viii] International Monetary Fund, “IMF Managing Director Kristalina Georgieva Urges G20 Leadership to Strengthen the International Financial Architecture” accessed March 1, 2023.
[ix] Rakesh Mohan, Michael Debabrata Patra and Muneesh Kapur ,The International Monetary System: Where Are We and Where Do We Need to Go?, IMF Working Paper No 13/224. International Monetary Fund, 2012: 23-38.
[x] Lara Merling , No Voice for the Vulnerable, GEGI Working Paper, Boston University, 2022: 2-19.
[xi] International Monetary Fund, “Collaboration Between Regional Financing Arrangements and the IMF”, IMF Policy Paper, July 31, 2017.
[xii] Masahiro Kawai, “From the Chiang Mai Initiative to an Asian Monetary Fund,” ADBI Working Paper No 527, Tokyo ,2015: 9-15.
[xiii] Rakesh Mohan, Michael Debabrata Patra and Muneesh Kapur, “The International Monetary System: Where Are We and Where Do We Need to Go?,” IMF Working Paper No 13/224, International Monetary Fund, 2012: 23-38.
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