भारत में सामाजिक कल्याण योजनाओं को जारी रखने का एक लंबा इतिहास रहा है जिसके तहत देश की ग़रीब और कमज़ोर आबादी को मेटिरियल गुड्स वितरित किया जाता है, जिससे उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति को ऊपर उठाने में मदद मिलती है. हालांकि ऐसी कई कल्याणकारी वस्तुओं को अक्सर 'हैंड-आउट' या 'फ्रीबीज़' कहा जाता है, जिनका वादा किया जाता है या फिर चुनावी समीकरणों के आधार पर इसे वितरित किया जाता है; व्यापक रूप से इसे साज़िशन चालाकी के रूप में देखा जाता है, जिसका उद्देश्य केवल मतदाताओं को प्रभावित करना होता है. सभी प्रकार की कल्याणकारी वस्तुओं के बड़े पैमाने पर वितरण की लागत भी सरकारी खजाने को उठानी पड़ती है. ख़ासतौर पर लॉन्ग टर्म डेवलपमेंटल इनिशिएटिव के साथ ट्रेड-ऑफ़ के संबंध में; यह मानव एजेंसी और उद्यम को भी हतोत्साहित कर सकता है. यह आलेख फ्रीबीज़ को लेकर जारी बहस के मुख्य मुद्दों को रेखांकित करता है और भारत की कल्याणकारी योजनाएं पर पड़ने वाले प्रभावों के विश्लेषण के लिए एक ठोस रूपरेखा प्रस्तुत करता है.
एट्रीब्यूशन: निरंजन साहू, अंबर कुमार घोष व आलोक चौरसिया, “'फ्रीबीज़' और कल्याणकारी योजनाएं: भारत में बहस के लिए एक रूपरेखा का निर्माण ,” ओआरएफ़ ओकेश्नल पेपर नंबर - 389, फरवरी 2023, ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन
प्रस्तावना
16 जुलाई 2022 को प्रधान मंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के जालौन में बुंदेलखंड एक्सप्रेसवे का उद्घाटन करते हुए रेवड़ी ('फ्रीबीज़' की संस्कृति) के ख़िलाफ़ चेतावनी दी और इसे "देश के विकास के लिए ख़तरनाक" बताया. [[i]] प्रधानमंत्री के बयान के बाद, एक सत्ताधारी पार्टी के विधायक द्वारा उच्चतम न्यायालय (एससी) में एक जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की गई थी, जिसमें राजनीतिक दलों द्वारा फ्रीबीज़ देने और वादा करने की प्रथा पर सख़्त नियमों की मांग की गई थी; इसमें कहा गया कि, "पब्लिक फंड से फ्रीबीज़ का वितरण मतदाताओं को प्रभावित करता है, समान मौक़े देने को बाधित करता है, स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों को प्रभावित करता है और प्रक्रिया की शुद्धता को नकारात्मक रूप से प्रभावित करता है." [[ii]] याचिका की सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने विधायिका के मामले में हस्तक्षेप करने से पहले इंकार कर दिया और इस मामले को देखने के लिए विभिन्न हितधारकों वाली एक समिति गठित करने का प्रस्ताव दिया था. शीर्ष अदालत ने बाद में याचिका पर सुनवाई के लिए इसे एक नई तीन सदस्यीय पीठ के पास भेज दिया. [[iii]] इस लेख को लिखने तक, उस बेंच को अभी इस मामले की सुनवाई करनी है. भारत का चुनाव आयोग (ईसीआई), जो शुरू में इसे लेकर ख़ामोश रहा, उसने अक्टूबर 2022 में राजनीतिक दलों द्वारा उपयोग किए जाने वाले एक स्टैंडर्ड प्रो-फॉर्मा जारी किया, जिससे यह ख़ुलासा किया जा सके कि राजनीतिक पार्टियां अपने चुनावी वादों को कैसे पूरा करेंगी. [[iv]] ईसीआई के निर्देश ने विपक्षी दलों को इसे लेकर सख़्त प्रतिक्रिया देने को उकसाया, उनमें से कुछ ने इसे "ओवररीच" और "उनके लोकतांत्रिक अधिकारों में हस्तक्षेप" करने जैसा बताया. [[v]]
निश्चित तौर पर भारत में फ्रीबीज़ की चर्चा कोई नई नहीं है. एक दशक पहले सुप्रीम कोर्ट ने ख़ुद फ्रीबीज़ से संबंधित कई याचिकाओं की सुनवाई की थी. सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु राज्य (2013) की सुनवाई करने वाली पीठ ने फैसला सुनाया था कि हालांकि फ्रीबीज़ का वितरण लोगों को प्रभावित करता है और "स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनावों की जड़ को हिला देता है लेकिन अदालत ने कहा कि इस तरह के फ्रीबीज़ के वादे या वितरण को रिश्वतखोरी या भ्रष्टाचार नहीं माना जा सकता है और अदालत सरकार को यह नहीं बता सकती कि जनता के पैसे को कैसे ख़र्च किया जाए".[[vi]] इस फैसले के आधार पर 2014 में ईसीआई ने राजनीतिक दलों को अपने वादों के पीछे तर्क की व्याख्या करने के लिए कहा और उन्हें केवल वही वादे करने का आदेश दिया जो व्यावहारिक हों और पूरे किए जा सकते हैं.[[vii]]
इस लेख का मक़सद फ्रीबीज़ की बहस के प्रमुख पहलुओं को रेखांकित करना है, जो निश्चित तौर पर एक सवाल से शुरू होता है. यह इस तरह के कल्याणकारी शासन के पक्ष में और विशेष रूप से इसके 'लोकलुभावन' पहलुओं के साथ-साथ इन चिंताओं को दूर करने में रेग्युलेटरी इंस्टीट्यूशन की भूमिका के ख़िलाफ़ अहम तर्कों को सामने रखता है.
हालांकि, इस बार यह मुद्दा किसी और ने नहीं बल्कि प्रधानमंत्री ने स्वयं उठाया है, जिससे देश में कल्याणकारी नीतियों को लेकर एक जटिल और महत्वपूर्ण चर्चा फिर से शुरू हो गई है. साथ ही, यह भारत में कल्याणकारी राज्य की प्रकृति [A] और अंतर्निहित राजनीतिक, आर्थिक और संस्थागत संदर्भों के बारे में गहरे सवाल भी उठाता है जिसमें 'फ्रीबीज़' वितरित किए जाते हैं. हम सामाजिक कल्याण योजनाओं में अंतर कैसे करते हैं - जो भारत की 'कल्याणकारी राज्य' होने की विशेषता को ज़मीनी नीतियों में बदलने की कोशिश करती हैं - और फ्रीबीज़, जो चुनावी समीकरणों के आधार पर राजनीतिक दलों द्वारा बांटे जाते हैं ? क्या वे वास्तव में एक दूसरे से अलग हैं - और ज़रूरत होने के नाते जिसे सरकारों द्वारा मान्यता दी गई है, या फिर ये पब्लिक फंड की बर्बादी जैसा है?
इस लेख का मक़सद फ्रीबीज़ की बहस के प्रमुख पहलुओं को रेखांकित करना है, जो निश्चित तौर पर एक सवाल से शुरू होता है. यह इस तरह के कल्याणकारी शासन के पक्ष में और विशेष रूप से इसके 'लोकलुभावन' पहलुओं के साथ-साथ इन चिंताओं को दूर करने में रेग्युलेटरी इंस्टीट्यूशन की भूमिका के ख़िलाफ़ अहम तर्कों को सामने रखता है. लेख के बचे हुए भाग में विभिन्न चरणों में भारत में वेलफेयर स्टेट के विकास की पड़ताल करने की कोशिश की गई है; जो इस रिसर्च के लिए प्राथमिक सवाल निर्धारित करता है, जो संघीय और राज्य दोनों स्तरों पर भारत में पब्लिक वेलफेयर शासन की प्रकृति और गतिशीलता को लेकर सवाल करता है; और संभावित संस्थागत सुरक्षा उपायों और सुधारों पर सिफारिशें आगे बढ़ाता है, जो इसके दुरुपयोग को रोकने के लिए सामाजिक कल्याण व्यवस्था को सुव्यवस्थित कर सकते हैं.
भारतीय लोकतंत्र और कल्याणवाद
कल्याणवाद मानव सभ्यता जितना ही पुराना है. [बी] इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा है जब देशों को वित्तीय असुरक्षा, आर्थिक या आय की कमी, और आजीविका की अनिश्चितता की साझा चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. मौज़ूदा समय में, तेजी से औद्योगीकरण, आर्थिक आधुनिकीकरण और वैश्वीकरण ने इन अनिश्चितताओं को और बढ़ा दिया है, क्योंकि लगभग सभी देशों के लिए नॉन निगोसिएबल रूप में सामाजिक सुरक्षा और कल्याणकारी उपायों की आवश्यकता होती है. 19वीं शताब्दी के अंत में, कई लोकतांत्रिक देशों ने विशेष रूप से विकसित यूरोप में अपनी आबादी की सामाजिक कल्याण आवश्यकताओं से निपटने के लिए व्यवस्थित और फॉर्मल विधायी पहल विकसित करके बाज़ार की विफलताओं का जवाब दिया. केन्सियन आर्थिक नीतियों के रूप में युद्ध के बीच की अवधि के दौरान सामाजिक सुरक्षा पर अधिक ध्यान दिया गया, जिसका प्राथमिक उद्देश्य एक प्रोडक्टिव और हेल्दी वर्कफोर्स को मदद करना था. [[viii]]
पश्चिमी देशों में युद्ध के बाद की अवधि में, लेसेज-फेयर नीति के कमज़ोर होने के परिणामस्वरूप कल्याणकारी नीतियों ने जोर पकड़ना शुरू किया. बाज़ार की विफलताओं और असमानताओं को कम करने के लिए, मकान, भोजन, शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार जैसी बुनियादी आवश्यकताएं प्रदान करने के लिए कई देश की सरकारों ने लोगों के दैनिक जीवन में तेजी से हस्तक्षेप करना शुरू किया.[[ix]] लेकिन इस व्यवस्था को आगे बढ़ाने में साम्यवादी क्रांति का बड़ा हाथ रहा जिसने रूस (1922) और चीन (1949) में सरकारी हस्तक्षेप के आधार पर कम्युनिस्ट या समाजवादी शासन की स्थापना की और जिसके तहत आय के वितरण की व्यवस्था को बदलने का वादा किया गया और समाज को पूंजीवाद के तहत मौज़ूद विकल्प के मुक़ाबले ज़्यादा न्यायसंगत बनाने का वादा किया गया. [[x]]
ग्लोबल साउथ में कल्याणवाद की ट्राजेक्ट्री काफी अलग रही है, क्योंकि यहां मज़बूत औपनिवेशिक विरासत को देखते हुए कमज़ोर राजनीतिक व्यवस्था और व्यापक ग़रीबी के संदर्भ में इसका असर देखा गया है. औपनिवेशिक शोषण से मुक्त होने और अर्थव्यवस्था के मुख्य आधार के रूप में कृषि से दूर होने की वज़ह से, नए राष्ट्रों के पास पुनर्वितरण पहल के लिए मुश्किल से ही किसी तरह का सरप्लस बचा था. पश्चिम में, पुनर्वितरण नीतियां संपन्नता से प्रेरित थीं; लिहाज़ा विकासशील देशों के लिए, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा के लक्ष्यों को पूरा करते हुए ग़रीब देशों को मदद करना पड़ा. इस तरह से ग्लोबल साउथ में कल्याणकारी नीतियां इन देशों में अलग होती हैं और अक्सर सामाजिक और राजनीतिक बदलावों के साथ उनकी पहचान हो पाती है. [[xi]]
इसका मतलब यह नहीं है कि औपनिवेशिक काल के बाद कई राष्ट्रों ने पश्चिमी कल्याणकारी राष्ट्र की अवधारणा की कई विशेषताओं को नहीं अपनाया है. ग़रीब और समाज के हासिये पर खड़े लोगों की बड़ी आबादी की मौज़ूदगी ने एक हस्तक्षेपवादी सरकार की ज़रूरत को रेखांकित किया. [[xii]] दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोकतांत्रिक राष्ट्रों के उदय ने वेलफेयर स्टेट की आवश्यकता को और मज़बूत किया, क्योंकि सरकार का गठन बहुमत के समर्थन पर निर्भर हो गया था–और अधिकांश क्षेत्रों में बहुमत में ग़रीब आबादी ही शामिल थी. [][xiii]
इस विश्लेषण में टी.एच. मार्शल की टाइपोलॉजी उपयोगी है. मार्शल दुनिया भर के उदार लोकतंत्रों में राजनीतिक और नागरिक अधिकारों के साथ-साथ "शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल, बेरोज़गारी बीमा और सामाजिक सुरक्षा के क्षेत्रों में सामाजिक नीतियों के माध्यम से सामाजिक अधिकारों" की ज़रूरत को रेखांकित करते हैं.[[xiv]] जैसा कि मुक्त बाज़ार की नवउदारवादी ताक़तों ने विश्व स्तरीय वैश्विक व्यवस्था को जन्म दिया, तो इसके कारण विकास के साथ-साथ असमानताएं भी बढ़ी हैं, जिसकी वज़ह से वेलफेयर स्टेट के लिए चुनौतियां बढ़ रही हैं. [[xv]] इसमें दो राय नहीं कि विकसित और विकासशील देशों में तमाम चुनौतियों के बीच [[xvi]] वेलफेयर स्टेट प्रासंगिक बना हुआ है. 2020 में कोरोना महामारी ने केवल वेलफेयर स्टेट की महत्वपूर्ण और अपरिहार्य भूमिका को रेखांकित किया है, क्योंकि एक बड़ी आबादी ने तब अपनी आजीविका का साधन खो दिया था और आर्थिक गिरावट दुनिया के सभी हिस्सों तक दस्तक देने लगी थी. महामारी द्वारा लाए गए संकट को कम करने के लिए दुनिया भर की सरकारों द्वारा कल्याणकारी उपाय और सामाजिक सुरक्षा पहल की शुरुआत तब की गई थी. [[xvii]]
भारत के प्रथम प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने 1958 में कहा था : “भारत में जब तक हमारी राष्ट्रीय आय बहुत अधिक नहीं बढ़ जाती है, तब तक हम भारत को दुनिया भर के तमाम समाजवाद या साम्यवाद की अवधारणाओं के साथ एक वेलफेयर स्टेट नहीं बना सकते हैं. भारत में आपके पास विभाजित करने के लिए कोई मौज़ूदा संपत्ति नहीं है; विभाजित करने के लिए केवल ग़रीबी है.
भारत में कल्याणवाद:
एक संक्षिप्त इतिहास
एक वेलफेयर स्टेट के रूप में भारत की ट्रैजेक्ट्री विभिन्न चरणों में विकसित हुई है, [[xviii]] जो मूल रूप से इसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य में हुए बदलावों द्वारा बड़े पैमाने पर साकार हो पाई है. भारत में केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों ने भी बड़ी आबादी को सामाजिक सुरक्षा लाभ प्रदान करने की बात को स्वीकार किया है. [[xix]] औपनिवेशिक शासन और बाद में विभाजन ने भारत को एक ग़रीब और कमजोर राष्ट्र बना दिया था लेकिन देश के नीति निर्माताओं ने संविधान में सामाजिक सुरक्षा को नहीं जोड़ा था. भारत के प्रथम प्रधानमंत्री, जवाहरलाल नेहरू ने 1958 में कहा था : “भारत में जब तक हमारी राष्ट्रीय आय बहुत अधिक नहीं बढ़ जाती है, तब तक हम भारत को दुनिया भर के तमाम समाजवाद या साम्यवाद की अवधारणाओं के साथ एक वेलफेयर स्टेट नहीं बना सकते हैं. भारत में आपके पास विभाजित करने के लिए कोई मौज़ूदा संपत्ति नहीं है; विभाजित करने के लिए केवल ग़रीबी है… हमें धन कमाना चाहिए और फिर इसे समान रूप से वितरित करना चाहिए.” [[xx]] संविधान में जहां कल्याणवाद का उल्लेख किया गया है वो सर्वोच्च कानून के भाग IV में राज्य नीति के गैर-प्रवर्तनीय निर्देशक सिद्धांतों में है.[[xxi]] निर्देशक सिद्धांत अपने नागरिकों के लिए आजीविका के पर्याप्त साधन, समान विकास और संसाधनों का वितरण, बच्चों, महिलाओं, कमजोर और कमजोर वर्गों को विशेष सुरक्षा, उचित स्वास्थ्य देखभाल, और अन्य प्रकार की सहायता सुनिश्चित करने के साथ गरीमापूर्ण बुनियादी जीवन की सुविधाओं को देने के लिए भारतीय सरकार को जवाबदेह बनाती हैं. [[xxii]]
सामाजिक कल्याण पर संवैधानिक रूप से अनिवार्य प्रावधानों की गैरमौज़ूदगी के बावजूद, नेहरू सरकार ने भारत में विकास के समाजवादी मॉडल के लक्ष्यों को साकार करने के लिए 1950 के दशक की शुरुआत में ही पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से कल्याण पर जोर दिया. उदाहरण के लिए, पंचवर्षीय योजना ने महिलाओं और बच्चों के स्वास्थ्य पर ध्यान केंद्रित किया, जिसके चलते 1953 में केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड की स्थापना भी की गई. हालांकि, मेटिरियल गुड्स के वितरण के संदर्भ में कल्याणकारी योजनाओं पर बहुत कम ध्यान दिया गया क्योंकि उम्मीद थी कि आर्थिक विकास का ग़रीबी को कम करने पर सीधा और सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा. सामाजिक कल्याण योजनाओं पर भरोसा करने के बजाय नेहरू सरकार ने औद्योगीकरण पर अपना दांव लगाया. यह कृषि उत्पादन में बढ़ोतरी पर निर्भर था और ग्रामीण क्षेत्रों को बदलने के लिए सामुदायिक विकास कार्यक्रमों और सहकारी समितियों पर आश्रित था. हालांकि, नेहरू की उम्मीदों पर तब पानी फिर गया जब विकास का लाभ समाज के सबसे ग़रीब तबके तक नहीं पहुंचा. [[xxiii]]
हालांकि एक सब नेशनल लेवल पर एक विपरीत ट्रेंड देखा गया. कई राज्यों ने ग़रीबों के लिए अपनी-अपनी सामाजिक योजनाएं शुरू कीं. उदाहरण के लिए, तत्कालीन मुख्यमंत्री के. कामराज [[xxiv]] के समय तमिलनाडु सरकार ने छात्रों के लिए एक महत्वाकांक्षी मिड-डे मील योजना की शुरुआत की. इस कार्यक्रम के परिणामस्वरूप स्कूलों में जाने वाले बच्चों की संख्या में उल्लेखनीय वृद्धि हुई और इस मॉडल को कई भारतीय राज्यों में पसंद किया गया. बाद में दूसरे राज्य भी इसी तरह की योजनाएं शुरू की जैसा कि 1984 में केरल ने किया. (इस पर अगले खंड में विस्तार से चर्चा की जाएगी.)
1990 का दशक - मोटे तौर पर कांग्रेस के बाद का समय जिसमें गठबंधन सरकारों में क्षेत्रीय दलों का वर्चस्व था – इसने भारत में आर्थिक उदारीकरण नीतियों के दौर को देखा जिसके तहत शानदार विकास दर दर्ज़ की गई. इस दशक में केंद्र की कल्याणकारी नीतियों में मात्रात्मक और गुणात्मक दोनों परिवर्तन देखे गए, क्योंकि इस दौरान फोकस कल्याण के लिए आवश्यकता-आधारित दृष्टिकोण की ओर शिफ्ट कर गया. इसे आठवीं पंचवर्षीय योजना (1992-1997) में देखा जा सकता है, जिसने 'मानव विकास' को सरकारी नीति के बुनियादी लक्ष्य के रूप में बढ़ाने पर जोर दिया. नौवीं पंचवर्षीय योजना (1997-2002) ने इसके बाद 'सामाजिक न्याय के साथ विकास' की रणनीति बनाई. [[xxv]] इसके बाद केंद्र ने 1990 के दशक के मध्य से शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल जैसी आवश्यक सेवाओं तक ग़रीबों की पहुंच बनाने पर ध्यान केंद्रित करते हुए कई सामाजिक योजनाएं शुरू कीं.
सामान्य रूप से कहा जाए तो कल्याणकारी नीतियों को 2000 के दशक में ज़्यादा स्वीकृति मिली क्योंकि देश की उल्लेखनीय आर्थिक विकास दर [सी] ने व्यापक असमानताओं के परिणामस्वरूप कई लोगों को पीछे छोड़ दिया था. अगले दो दशकों में, केंद्र और राज्य सरकारों ने कई कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत की.
इस संबंध में पहला उल्लेखनीय पहल 1995 का नेशनल सोशल असिस्टेंस प्रोग्राम (एनएसएपी) था, जिसने बुजुर्गों, विधवाओं और विकलांग लोगों के लिए पेंशन के साथ-साथ मातृत्व लाभ जैसे फायदों का समर्थन किया. 1960 के दशक में पहली बार लागू की गई फ्लैगशिप पब्लिक डिस्ट्रीब्यूशन सिस्टम (पीडीएस) यानी जन वितरण प्रणाली को केंद्र से ज्यादा महत्व मिला, क्योंकि टारगेटेड पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम (टीपीडीएस) 1997 में लॉन्च की गई थी. पीडीएस के तहत लाभ दिला सकने वाली क़ीमतों पर किसानों से खाद्यान्न ख़रीदा जाता है, फिर उन्हें इकट्ठा किया जाता है, जिसके बाद इसे तय सरकारी राशन की दुकानों को बांट दिया जाता है और उन्हें सस्ती क़ीमतों पर बेचा जाता है. पीडीएस आपात स्थिति को लेकर खाद्य भंडार भी अपने साथ रखता है. यह संघीय सरकार और राज्यों के बीच एक संयुक्त उद्यम के रूप में काम करता है. [[xxvi]] टीपीडीएस ने आय के आधार पर लोगों के विभिन्न वर्गों की पहचान करके इस प्रणाली को संशोधित किया और नई श्रेणियां बनाईं जहां आबादी को 'ग़रीबी रेखा से ऊपर' (एपीएल) और 'ग़रीबी रेखा से नीचे' (बीपीएल) के बीच विभाजित किया गया था, जो योजना आय़ोग द्वारा निर्धारित श्रेणियों के आधार पर था. अंत्योदय अन्न योजना (एएवाई) के तहत बाद में 2000 में एक अन्य श्रेणी की पहचान की गई, जिसमें बीपीएल श्रेणी के सबसे ग़रीब लोग शामिल थे. [[xxvii]]
प्रारंभिक शिक्षा के सार्वभौमीकरण के उद्देश्य से पूर्ण साक्षरता मिशन, जिसे बाद में सर्व शिक्षा अभियान कहा गया, की शुरुआत के साथ सरकार ने शिक्षा कार्यक्रमों पर भी अधिक गंभीरता से ध्यान दिया. सामान्य रूप से कहा जाए तो कल्याणकारी नीतियों को 2000 के दशक में ज़्यादा स्वीकृति मिली क्योंकि देश की उल्लेखनीय आर्थिक विकास दर [सी] ने व्यापक असमानताओं के परिणामस्वरूप कई लोगों को पीछे छोड़ दिया था. अगले दो दशकों में, केंद्र और राज्य सरकारों ने कई कल्याणकारी योजनाओं की शुरुआत की. [[xxviii]]
भारत के विभिन्न सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के पूरे इतिहास में, सबसे महत्वपूर्ण कार्यक्रम खाद्य सुरक्षा के क्षेत्र में रहे हैं. 1995 में तमिलनाडु में मिड-डे मील स्कीम यानी मध्यान्ह भोजन योजना की सफलता के बाद केंद्र सरकार ने प्राथमिक शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए नेशनल प्रोग्राम ऑफ न्यूट्रिशनल सपोर्ट (एनपी-एनएसपीई) शुरू किया. योजना का मुख्य उद्देश्य प्राथमिक विद्यालय के बच्चों के पोषण की स्थिति में सुधार करते हुए छात्रों के स्कूल में नामांकन की संख्या मे बढ़ोतरी करना था. हालांकि, यह योजना पूरे देश में 2,408 ब्लॉकों तक सीमित थी लेकिन इसकी उपयोगिता को देखते हुए, [[xxix]] सुप्रीम कोर्ट ने - एनजीओ पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज द्वारा दायर एक जनहित याचिका के आधार पर - 2001 में केंद्र सरकार को देश के सभी सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त प्राथमिक स्कूलों में ड्राय राशन के बजाय पका हुआ भोजन उपलब्ध कराने का निर्देश दिया. [[xxx]]
2013 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) सरकार ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम पारित किया, जिसने मिड-डे मील या मध्यान्ह भोजन, पीडीएस और बाल विकास सेवाओं जैसी प्रमुख कल्याणकारी योजनाओं को कानूनी अधिकार दिए. इस कानून के लाभार्थी देश की ग्रामीण आबादी का 75 प्रतिशत और शहरी आबादी का 50 प्रतिशत थे - या कुल मिलाकर करीब 800 मिलियन लोग इसके तहत आते हैं; हालांकि योजना की कवरेज क्षमता में अतिरिक्त 10.58 मिलियन लोगों के लिए भी जगह है. [[xxxi]] भाजपा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने बाद में सितंबर 2021 में मिड डे मिल योजना का नाम बदलकर पीएम-पोषण (प्रधानमंत्री पोषण शक्ति निर्माण) कर दिया.
'फ्रीबी' एक उपहार हो सकता है जिसके लिए कोई भुगतान नहीं किया जाता है लेकिन कुछ आवश्यक कल्याणकारी सामान जो लाभार्थी वहन नहीं कर सकता है और जो जीवन की बुनियादी गरिमा - स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा - को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, को 'फ्रीबीज़' के रूप में नहीं पहचाना जा सकता है.
देश में एक अन्य क्षेत्र जिस पर ध्यान दिया गया है वह है बेरोज़गारी, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में. 2006 में यूपीए सरकार ने महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी अधिनियम (मनरेगा) को लागू किया, जो 1972 में महाराष्ट्र में रोज़गार गारंटी योजना (ईजीएस) के साथ शुरू किए गए 'प्रयोग' की परिणति थी. [डी] ईजीएस अपनी कमियों के बावज़ूद, "ग्रामीण क्षेत्रों में रोज़गार सृजन का सबसे लंबा निरंतर प्रयास" के तौर पर देखा जाता है. [[xxxii]] मनरेगा को व्यापक रूप से एक सफलता की कहानी के रूप में देखा जाता है, [[xxxiii]] भले ही योजना को लेकर भ्रष्टाचार, धन के दुरुपयोग और भुगतान में देरी के आरोप लगाए जाते हों. [[xxxiv]] इसने ब्लू-कॉलर वर्कफोर्स ख़ास कर महिलाओं के लिए रोज़गार के अवसरों में सुधार किया है. केंद्र सरकार के पास कई अन्य कल्याणकारी योजनाएं हैं, जिनका उद्देश्य आश्रय और आवास (आवास योजना), बच्चों के कल्याण (सर्व शिक्षा अभियान), किसानों की आय (किसान सम्मान निधि) और स्वास्थ्य देखभाल (आयुष्मान भारत योजना) जैसे मुद्दों को ठीक करना है.
इस समय देश भर में 65 केंद्र प्रायोजित योजनाएं हैं, जिनमें से 26 [[xxxv]] पिछले आठ वर्षों में नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा शुरू की गई हैं. [[xxxvi]]
तालिका-1: भारत में केंद्र और राज्यों द्वारा शुरू की गई प्रमुख कल्याणकारी योजनाएं
स्रोत: लेखक का अपना
राज्यों की पहल
सब नेशनल लेवल पर जनकल्याणवाद की शुरुआत करने में दक्षिणी राज्यों को श्रेय जाता है. तत्कालीन मुख्यमंत्री के कामराज ने 1957 की शुरुआत में तमिलनाडु में मिड डे मिल यानी मध्यान्ह भोजन योजना शुरू की थी. कुछ साल बाद 1970 और 1980 के दशक की शुरुआत में सीएन अन्नादुराई, एम.जी. रामचंद्रन या एमजीआर और एम. करुणानिधि और बाद में तमिलनाडु में जे. जयललिता और तत्कालीन अविभाजित आंध्र प्रदेश में एनटी रामाराव ने खाद्यान्न, नकदी, सोने के सिक्के, इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स, और घरेलू सामान जैसे मुफ्त मेटिरियल गुड्स बांटने के लिए लोकप्रिय योजनाओं को शुरू करके अपने और अपनी पार्टी के लिए मज़बूत चुनावी आधार तैयार किया. [[xxxvii]] दशकों से क्षेत्रीय नेताओं द्वारा वेलफेयर गुड्स के वितरण के इस तरह के मॉडल को कई बार दोहराया गया है. [[xxxviii]]
ऐसे उल्लेखनीय उदाहरणों में शामिल हैं: ओडिशा में नवीन पटनायक की 1 रुपये/किग्रा चावल योजना और बीजू स्वास्थ्य कल्याण जॉयना (स्वास्थ्य कार्ड)[[xxxix]]; बिहार में स्कूल जाने वाली लड़कियों के लिए नीतीश कुमार की मुफ्त साइकिल योजना; जयललिता द्वारा तमिलनाडु में अन्य योजनाओं के साथ-साथ दुल्हनों के लिए आठ ग्राम सोने का वितरण; पश्चिम बंगाल में ममता बैनर्जी की लड़कियों के लिए नकद प्रोत्साहन योजना के साथ-साथ स्वास्थ्य बीमा योजना; यूपी में योगी आदित्यनाथ द्वारा सब्सिडी वाला अनाज; और दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार की मुफ़्त बिजली और पानी स्कीम. [[xl]] इनमें से कुछ राज्य के नेताओं, जैसे ओडिशा में पटनायक और बिहार में नीतीश कुमार ने केंद्रीय कल्याणकारी योजनाओं की रीपैकेजिंग और अपने स्तर पर कई आकर्षक योजनाओं को शुरू कर ज़बर्दस्त राजनीतिक लाभ हासिल किया है.[[xli]] अन्य राज्यों के मुख्यमंत्रियों ने भी इन उदाहरणों का चुनाव जीतने के लिए बहुत ही प्रभावी तरीक़े से इसका अनुसरण किया है.
यह स्पष्ट है कि कल्याणकारी योजनाओं का भारत में समय के साथ विस्तार हुआ है और अब ऐसी योजनाएं केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर सर्वव्यापी हैं. कई विश्लेषक [[xlii]] इनमें से कई योजनाओं को खैरात या ‘फ्रीबीज़’ कहते हैं. जबकि राजनीतिक अभिजात वर्ग के दूसरे वर्ग के लोग, नीति निर्माताओं, विशेषज्ञों और गैर सरकारी संगठनों ने बार-बार कहा है कि ये योजनाएं देश की सामाजिक-आर्थिक रूप से कमज़ोर आबादी के लिए बेहद ज़रूरी हैं. [[xliii]] इसलिए बहस का मुद्दा यह है कि क्या ग़रीब आबादी को सपोर्ट करने में कल्याणकारी योजनाओं की उपयोगिता इस तर्क से प्रभावित है कि वे लंबे समय में आर्थिक रूप से अविवेकपूर्ण और अनुत्पादक हैं.
कल्याणकारी योजनाएं बनाम फ्रीबीज़: प्रमुख मुद्दे
पिछले कुछ समय से कल्याणकारी योजनाओं की वित्तीय व्यवहार्यता और सामाजिक प्रासंगिकता पर बहस चल रही है. न्यायिक हस्तक्षेपों के बावज़ूद (यानी 2013 के सुब्रमण्यम बालाजी के फैसले पर इस लेख में पहले चर्चा की गई थी) और चुनाव आयोग से पार्टियों को निर्देश दिए जाने के बावज़ूद फ्रीबीज़ से जुड़े मुद्दे अनसुलझे हैं.
परिभाषाओं में अस्पष्टता
शब्दकोश में 'फ्रीबी' का अर्थ ऐसी चीज़ है जो मुफ़्त में दी या उपलब्ध कराई जाती है. भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) ने जून 2022 में एक बुलेटिन में 'फ्रीबीज़' को "एक सार्वजनिक कल्याणकारी उपाय जो मुफ़्त प्रदान किया जाता है" के रूप में परिभाषित किया है. [[xliv]] आरबीआई कहता है कि फ्रीबीज़ को सार्वजनिक या मेरिट गुड्स जैसे कि शिक्षा और स्वास्थ्य देखभाल, और अन्य राज्य व्यय जिनके व्यापक और दीर्घकालिक लाभ हैं, उनसे अलग किया जा सकता है. हालांकि कल्याणकारी या तथाकथित 'मेरिट' गुड्स को फ्रीबीज़ या 'नॉन-मेरिट' गुड्स से अलग करना बेहद मुश्किल है. [[xlv]] विश्लेषकों ने [[xlvi]] इस बात पर जोर दिया है कि मुफ़्त या रियायती भोजन, शिक्षा, आश्रय और स्वास्थ्य देखभाल जैसे गुण मानव विकास को गति देने के लिए महत्वपूर्ण हैं और बदले में देश के विकास में योगदान देते हैं. हालांकि नॉन मेरिट गुड्स जैसे मिक्सर ग्राइंडर, लैपटॉप, टेलीविजन, या सोने के गहनों का बड़े पैमाने पर वितरण सरकारी राजस्व पर बोझ डाल सकता है और उसे कम कर सकता है. [[xlvii]]
हालांकि दूसरे विश्लेषक भी हैं [[xlviii]] जिनका मानना है कि मिक्सर-ग्राइंडर जैसे 'मुफ़्त या गैर-योग्य सामान' भी घरों के जीवन को बेहतर बनाने में मदद करते हैं; ये चीजें लड़कियों को कुछ खाली समय बिताने में मदद कर सकते हैं, जिनसे सामाजिक मानदंडों के अनुसार रसोई के अधिकांश काम करने की अपेक्षा की जाती है, जिससे उन्हें पढ़ाई जैसी अन्य गतिविधियों के लिए अधिक समय मिल सकता है. [[xlix]] साइकिलों के प्रावधान की वज़ह से ग्रामीण क्षेत्रों में लड़कियों की स्कूल में उपस्थिति में भी सुधार हुआ है. मोबाइल फोन, टैबलेट और लैपटॉप जैसे गैजेट दिए जाने के बाद बच्चों में शिक्षा, सूचना और सीखने के तरीक़ों तक बेहतर पहुंच के समान नतीजे देखे गए हैं. [[l]]
चूंकि कुछ मटेरियल गुड्स को आम तौर पर 'फ्रीबीज़' के रूप में माना जाता है लेकिन उनके अप्रत्यक्ष सामाजिक-आर्थिक लाभ भी होते हैं, इससे वेलफेयर गुड्स को फ्रीबीज़ से अलग करने का काम एक नीतिगत चुनौती बन जाता है. [[li]] वांछनीय और अवांछनीय कल्याणकारी वस्तुओं की परिभाषा के बारे में ऐसी अस्पष्टता इस बहस को और जटिल बनाती है, जिसे चार महत्वपूर्ण पहलुओं द्वारा तैयार किया गया है: ए) भारत में सामाजिक कल्याण योजनाओं की आवश्यकता, व्यापक ग़रीबी और उनके सकारात्मक परिणामों को देखते हुए; ख) कल्याणकारी वस्तुओं के वितरण के पीछे राजनीतिक मंशा; ग) ऐसी योजनाओं के कार्यान्वयन में चुनौतियां और उनका दुरूपयोग; और घ) इन योजनाओं की वित्तीय बोझ का सवाल.
विकास के वाहक के रूप में कल्याणकारी योजनाएं
मिड डे मील, पीडीएस, मनरेगा, स्वास्थ्य बीमा योजनाओं जैसी कल्याणकारी योजनाओं ने देश में ग्रामीण और शहरी दोनों जगह के ग़रीबों के जीवन में सुधार लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है - जो अक्सर, सच में , उनके अस्तित्व को साकार करती है. पीएमजीकेएवाई योजना के तहत खाद्यान्न का वितरण, [[lii]] उदाहरण के लिए, जब 2021 में कोरोना संकट अपने चरम पर था तब बड़ी आबादी के बीच बड़े स्तर पर भुखमरी को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. [55] स्वास्थ्य योजनाओं ने भी न्यूनतम लागत पर कोरोना रोगियों के उपचार में मदद की. एमजीएनआरईजीए, जिसकी अक्सर एक व्यर्थ योजना के रूप में आलोचना [[liii]] की जाती है, इससे ना केवल ग्रामीण ग़रीबों को काम हासिल हो सका बल्कि वर्कफोर्स में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने के लिए भी इसी योजना को श्रेय दिया जाता है. [[liv]] इतना ही नहीं बीज पर सब्सिडी के साथ-साथ कर्ज़ माफी ने देश भर में कर्ज़ में डूबे छोटे किसानों की मदद की है. मध्यान्ह भोजन के परिणामस्वरूप अधिक बच्चे नियमित रूप से स्कूल जाने लगे हैं और उनके पोषण में सुधार देखा गया है. घोर सामाजिक असमानता से पीड़ित समाज में, इसलिए ऐसी योजनाएं महत्वपूर्ण हस्तक्षेप के रूप में चिह्नित होती हैं जो ग़रीबी और अवसर की कमी को दूर करती हैं. [[lv]]
हालांकि इसके वर्गीकरण में कुछ अंतर अहम हैं. 'फ्रीबी' एक उपहार हो सकता है जिसके लिए कोई भुगतान नहीं किया जाता है लेकिन कुछ आवश्यक कल्याणकारी सामान जो लाभार्थी वहन नहीं कर सकता है और जो जीवन की बुनियादी गरिमा - स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा - को बनाए रखने के लिए आवश्यक है, को 'फ्रीबीज़' के रूप में नहीं पहचाना जा सकता है. ये कल्याणकारी वस्तुएं विकास को बाधित करने वाले फैक्टर्स जैसे ख़राब शिक्षा, उचित पोषण की कमी, ज्यादा बीमारी और प्रारंभिक मृत्यु दर के प्रभावों को कम करती हैं - इस प्रकार ये वो लागत हैं जो राज्य ग़रीबों के उत्थान के लिए वहन करता है, जो बदले में सकारात्मक आर्थिक विकास के लिए योगदान देता है. [ई]
इन वेलफेयर गुड्स द्वारा लाई गई बेहतर रहने की स्थिति ग़रीबों को मदद करती है, जिससे उन्हें ख़ुद की बेहतर समझ और नागरिकों के रूप में राष्ट्र के भीतर अपनी स्थिति का पता चलता है. इसी तरह, उर्वरक, भोजन, किफायती घर, या एलपीजी कनेक्शन के लिए सब्सिडी कमज़ोर वर्ग के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के लिए महत्वपूर्ण नीतिगत हस्तक्षेप हैं और इसे 'फ्रीबीज़ ' की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता है. यहां तक कि व्यापार सब्सिडी, पारदर्शिता के साथ और एक मज़बूत रेग्युलेटरी फ्रेमवर्क के भीतर, निवेश और औद्योगिक विकास को आकर्षित करने के लिए यह एक ज़रूरी चीज है. हालांकि इस तरह की सब्सिडी को बेहतर ढंग से लक्षित करने और निर्धारित सीमित अवधि के भीतर और वहन करने योग्य राजकोषीय ढांचे के तहत वितरित करने की आवश्यकता है.
जनकल्याण को लेकर राजनीति
भारत में कल्याणकारी योजनाओं के प्रसार और समेकन (कॉनसोलिडेशन) को मुख्य रूप से क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर राजनीतिक नेताओं के लिए चुनावी फायदा हासिल करने में उनकी भूमिका के लिए पहचाना जा सकता है. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि पिछले कुछ दशकों में कल्याणकारी योजनाओं के प्रावधान ने सत्ताधारी राजनीतिक पार्टी के पक्ष में चुनावी परिणामों को बदलने में मदद की है. [[lvi]] इसके कई उदाहरण हैं कि, भारत और अन्य देशों में, कल्याणकारी लाभों के वितरण को संरक्षण या ग्राहकवादी राजनीति के तहत नीतियों में शामिल किया गया है - मतलब, वोटों के बदले लोगों को लाभ प्रदान किया जाता है. समय के साथ, महिलाओं, किसानों और युवाओं जैसे विशिष्ट निर्वाचन क्षेत्रों का समर्थन जुटाने के लिए सार्वभौमिक और साथ ही टारगेटेड योजनाएं शुरू की गई हैं. [[lvii]] दीर्घकालिक और प्रोडक्टिव असेट बिल्डिंग डेवलपमेंट पॉलिसी इनिशिएटिव के अभाव में, [[lviii]] राजनीतिक अभिजात वर्ग इन मूर्त निजी मैटेरियल गुड्स का उपयोग करते हैं जो सीधे और तुरंत मतदाताओं के जीवन को छूते हैं और इस प्रकार सुनिश्चित राजनीतिक लाभ उन्हें पहुंचाते हैं. [[lix]] इस तरह की कल्याणकारी योजनाओं को अक्सर नेता के नाम पर लोकप्रिय बनाया जाता है, क्योंकि यह मतदाताओं को उपकृत करने के लिए पैतृक अनुदान के रूप में नेता की चुनावी स्वीकार्यता को बढ़ाने में मदद करता है. भारत की राजनीतिक संस्कृति में चली आ रही इस प्रथा की अक्सर चुनावी जीत के लिए प्रलोभन के तौर पर आलोचना की जाती है. [[lx]]
दुरुपयोग की व्यापक गुंजाइश
कई कल्याणकारी योजनाओं के सकारात्मक प्रभावों के बावज़ूद उनका कार्यान्वयन भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद में डूबा हुआ है, जिससे राज्य संसाधनों का ज़बर्दस्त दुरुपयोग होता है. [[lxi]] उदाहरण के लिए, पीडीएस योजना में व्याप्त भ्रष्टाचार और अक्षमता के लिए आलोचना की जाती है - सरकार द्वारा ख़र्च किए गए प्रत्येक 3.65 रुपये के लिए बीपीएल परिवारों में से हर एक तक केवल एक रुपया पहुंचा. [[lxii]] कई योजनाएं जो सार्वभौमिक हैं, अधिक विशेषाधिकार प्राप्त वर्गों के लिए ही सीमित हो जाती हैं जिन्हें सब्सिडी वाले सामान या फ्रीबीज़ की आवश्यकता नहीं होती है. [[lxiii]] इस तरह के वेलफेयर बेनिफिट का टारगेटेड या मीन्स टेस्टेड (साधन-परीक्षण) वितरण, अक्सर उन्हें छोड़ देता है, जो सबसे ग़रीब परिवारों को कल्याणकारी योजनाओं के दायरे से बाहर कर देता है जैसा कि कोरोना महामारी के प्रारंभिक चरण के दौरान पीडीएस योजना में देखा गया. [[lxiv]] विशेषज्ञों ने यह भी बताया है कि मीन्स टेस्टेड वितरण को सावधानी के साथ लागू किया जाना चाहिए क्योंकि इससे और अधिक अक्षमता बढ़ सकती है अगर "मीन्स टेस्टिंग की आर्थिक लागत कार्यक्रम को सार्वभौमिक बनाने की लागत से अधिक हो जाती है". [[lxv]]
ऐसे कई प्राइवेट गुड्स हैं जैसे कि कृषि उपयोगिताओं पर सब्सिडी जैसे उर्वरक, या किसानों को मुफ़्त बिजली, जो ख़ास तौर पर पंजाब में देखा जाता है, [[lxvi]] जो ना केवल राज्य के ख़र्च को बढ़ाते हैं बल्कि मिट्टी के उपजाऊपन को भी नुकसान पहुंचाते हैं और मिट्टी की गुणवत्ता इससे और कमज़ोर होती जाती है. [[lxvii]] हाल के दिनों में, आंध्र प्रदेश में कल्याणकारी योजनाओं का प्रसार व्यर्थ साबित हुआ है और राज्य सरकार के लिए वित्तीय कठिनाइयों का कारण बना है, जिससे जनता में आक्रोश फैल गया. [[lxviii]] जुलाई 2022 भारतीय रिज़र्व बैंक के बुलेटिन के अनुसार [[lxix]] कई अन्य भारतीय राज्य आंशिक रूप से अस्थिर सब्सिडी के कारण वित्तीय संकट से जूझ रहे हैं. [[lxx]]
जवाबदेही तय करना
फ्रीबीज़ को लेकर बहस का मौज़ूदा दौर केंद्र द्वारा शुरू किया गया था, जो चुनाव जीतने के लिए फ्रीबीज़ या सब्सिडी को जारी रखने के लिए राज्यों पर दोष मढ़ रहे हैं. फिर भी, केंद्र और राज्य दोनों ही मुफ्तखोरी की बेतहाशा बढ़ती ट्रेंड के लिए जवाबदेह हैं. दोनों ने वर्षों से अपनी कल्याणकारी योजनाओं के लिए बेहिसाब सार्वजनिक धन आवंटित किया है. [[lxxi]]
श्रम कल्याण, स्वास्थ्य देखभाल, शहरी विकास और जल आपूर्ति के क्षेत्रों में सामाजिक कल्याण योजनाओं पर राज्यों और केंद्र का संयुक्त ख़र्च, 2020-21 में 65.24 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 2021-22 में 71.61 लाख करोड़ रुपये हो गया - जो लगभग 10 प्रतिशत की बढ़ोतरी थी. [[lxxii]] कुल मिलाकर, 2021 में राज्यों और केंद्र का संयुक्त सामाजिक ख़र्च सकल घरेलू उत्पाद का 8.6 प्रतिशत था, जो एक साल पहले के 8.3 प्रतिशत आंकड़े से ज़्यादा है. [[lxxiii]] कोरोना महामारी के दौरान स्वास्थ्य और चिकित्सा सेवाओं पर अधिक ख़र्च के कारण राज्य सरकारों द्वारा सामाजिक कल्याण ख़र्च में काफी तेजी देखी गई. चित्र 1 देखें)। [[lxxiv]]
चित्र1: भारत में राज्यों का सामाजिक क्षेत्र व्यय
स्रोत: भारतीय रिज़र्व बैंक [[lxxv]]
राज्य सरकारों द्वारा क्षेत्र-वार ख़र्च में सभी क्षेत्रों में मामूली वृद्धि देखी गई, शहरी विकास, जल आपूर्ति और स्वच्छता को सबसे ज़्यादा आवंटन दिया गया (तालिका 2 देखें). [[lxxvi]]
तालिका 2. सामाजिक सेवाओं पर व्यय की संरचना (राजस्व और पूंजी खाते)
स्रोत: भारतीय रिज़र्व बैंक [[lxxvii]]
नोट: सामाजिक सेवाओं पर व्यय का प्रतिशत. पुन: संशोधित अनुमान; बीई- बज़ट अनुमान
भारत के नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) के आंकड़ों से पता चलता है कि 2019-20 में कम होने के बाद सब्सिडी पर राज्य सरकारों का ख़र्च 2020-21 में 12.9 प्रतिशत और 2021-22 में 11.2 प्रतिशत बढ़ा है. इसके अलावा, राज्यों के कुल राजस्व व्यय में सब्सिडी का अनुपात 2019-20 के 7.8 प्रतिशत से बढ़कर 2021-22 में 8.2 प्रतिशत हो गया. झारखंड, केरल, ओडिशा, तेलंगाना और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों ने पिछले तीन वर्षों में सब्सिडी में सबसे ज़्यादा वृद्धि देखी है. इस बीच गुजरात, पंजाब और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों ने अपने कुल राजस्व व्यय का 10 प्रतिशत से अधिक सब्सिडी पर ख़र्च किया. [[lxxviii]] आरबीआई ने जून 2022 में चेतावनी दी थी कि "जोख़िम के नए स्रोत गैर-मेरिट फ्रीबीज़ पर बढ़ते ख़र्च, आकस्मिक देनदारियों के विस्तार और डिस्कॉम के अतिदेय के रूप में सामने आए हैं."[[lxxix]]
जैसा कि सभी प्रत्यक्ष स्टेट बॉरोइंग केंद्र द्वारा अनुमोदन के अधीन हैं, तो ऐसी सामाजिक कल्याण योजनाओं पर राज्यों के राजस्व व्यय की निगरानी की जा सकती है. हालांकि, विशेषज्ञ इस बात को रेखांकित करते हैं कि राज्य बज़ट से अलग भी कर्ज़ में उलझे हुए हैं, जो "केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित राज्य की शुद्ध उधार सीमा में घोषित नहीं हैं. यह एक ऐसी स्थिति की ओर ले जाता है जहां राज्य सरकार की कुल बकाया उधारी सही ढंग से नहीं बताई जाती है."[[lxxx]]
केंद्र कई कल्याणकारी योजनाओं में भी निवेश करता है, विशेष रूप से केंद्र प्रायोजित योजनाओं (सीएसएस) के माध्यम से निवेश किया जाता है. विपक्षी राज्य के नेताओं ने केंद्र पर इन सीएसएस के बकाए का भुगतान ना करने का आरोप लगाया है. [[lxxxi]] वे यह भी कहते हैं कि केंद्र राजकोषीय नासमझी कर रहा है, यह देखते हुए कि "कोरोना महामारी तक राज्यों का औसत राजस्व घाटा 0.05% पर नगण्य रहा है, जबकि केंद्र सरकार का इसी दौरान लगभग 3.15% रहा है."[[lxxxii]] जनवरी 2022 में ब्लूमबर्ग क्विंट में प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, [[lxxxiii]] खाद्य, पेट्रोल और उर्वरक पर केंद्र सरकार का सब्सिडी बिल 2020-21 में जीडीपी का 3 प्रतिशत बताया गया, जो पिछले वर्ष में 1.1 प्रतिशत था. [[lxxxiv]] कुछ विश्लेषकों का यह भी मानना है कि केंद्र सरकार बड़े निगमों के बड़े कर्ज़ को बट्टे खाते में डालने, बैंकों को कॉर्पोरेट के डूबे कर्ज़ से उबारने और बेस कॉर्पोरेट टैक्स की दर को कम करने जैसे 'अदृश्य फ्रीबीज़' में शामिल रहती है, जैसा कि सितंबर 2019 में बेस कॉरपोरेट टैक्स को 30 प्रतिशत से 22 फ़ीसदी तक कम कर दिया गया था.[[lxxxv]], [[lxxxvi]] इसलिए, केंद्र और राज्यों की इस संबंध में बराबरी की जवाबदेही है.
आगे का रास्ता
उपरोक्त चर्चा में तीन महत्वपूर्ण मुद्दों को रेखांकित किया गया है जो भारत में 'फ्रीबीज़' पर किसी भी चर्चा को आगे बढ़ा सकते हैं. सबसे पहले, उच्च ग़रीबी दर और लगातार आर्थिक विषमताओं वाले देश के लिए, कल्याणकारी योजनाएं बड़ी आबादी के लिए एक तरह से जीवन रेखा हैं. मार्च 2021 की विश्व बैंक की रिपोर्ट में कहा गया है कि जो लोग 2005-12 के बीच भारत में ग़रीबी रेखा से बाहर आए थे, वे सिर्फ आय में कमी के एक झटके के बाद फिर से ग़रीबी रेखा के नीचे जा सकते हैं. [[lxxxvii]] वास्तव में, कोरोना महामारी ने लाखों लोगों को ग़रीबी रेखा के नीचे फिर से धकेल दिया। [[lxxxviii]] इसलिए सामाजिक सुरक्षा योजनाओं ने ग़रीबों और कमज़ोरों की कठिनाइयों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.
दूसरा, कल्याणकारी योजनाओं के व्यापक नेटवर्क के बावज़ूद अन्य विकासशील देशों की तुलना में भारत के पास अभी भी स्वास्थ्य देखभाल [[lxxxix]] और शिक्षा ख़र्च में कवर करने के लिए एक बड़ा आधार बाकी है. [[xc]] भारत बेरोज़गारी, [[xci]] भूख, [[xcii]] और समग्र मानव विकास में भी कई चुनौतियों का सामना कर रहा है. [[xciii]] कल्याणकारी योजनाएं जो भारत की सामाजिक सुरक्षा संरचना का निर्माण करती हैं, शिक्षा, स्वास्थ्य देखभाल और रोज़गार में दीर्घकालिक क्षमता निर्माण परियोजनाओं के कम इस्तेमाल के कारण विकासात्मक चुनौतियों का पर्याप्त रूप से निपटारा करने में सक्षम नहीं हैं. तीसरा, राजनेताओं द्वारा पार्टी की तर्ज़ पर और चुनावी लाभ के लिए फ्रीबीज़ देने के व्यापक चलन, सार्वजनिक वित्त को कम कर देती है जिसका उपयोग अधिक ठोस नीतिगत पहलों के लिए किया जा सकता है. वोट बैंक की मज़बूरी और इस तरह की तैयार की गई योजनाओं से संभावित चुनावी लाभ वास्तविक ज़रूरतों के आधार पर उनके पुनर्संरचना को जटिल बना देते हैं जो ओवरलैप को रोक सकते हैं और बेहतर टारगेट सुनिश्चित कर सकते हैं और तो और संसाधनों के दुरुपयोग को भी रोक सकते हैं.
निश्चित तौर पर मुफ़्तखोरी से जुड़े मुद्दे गंभीर प्रकृति के हैं. लिहाज़ा इसे लेकर न्यायिक हस्तक्षेप के ख़िलाफ़ सावधानी बरतनी चाहिए, जैसा कि इस क्षेत्र में न्यायपालिका के हस्तक्षेप के पिछले उदाहरणों में देखा गया है.[[xciv]] राजनीतिक दलों को मुफ़्त की चीजों को विनियमित करने पर चुनाव आयोग के आदेश के भी अवांछनीय परिणाम हो सकते हैं. ऐसे निर्देश उलटे भी पड़ सकते हैं क्योंकि राजनीतिक दल इसे उनके लोकतांत्रिक अधिकारों में दख़ल देने वाला मान सकते हैं. [[xcv]] इसके अलावा, चूंकि राजनीतिक दलों द्वारा अपने मतदाताओं से किए गए कल्याण के वादे लोकतंत्र में सौदेबाज़ी की प्रमुख प्रक्रिया का हिस्सा हैं - जहां मतदाता का निर्णय सर्वोपरि है - गैर-निर्वाचित संस्थानों का हस्तक्षेप, कथित या वास्तविक, लोकतंत्र की दिशा को और ख़राब कर सकता है. चुनावी लोकतंत्र; यह मतदाता की एजेंसी और निर्णय की भावना को भी कमज़ोर करता है. [[xcvi]] संसद, एक प्रतिनिधि निकाय के रूप में, इस विषय पर बहस कर सकती है और नीतियों को विधायी बना सकती है, हालांकि सभी पार्टियों को लाभ पहुंचाने वाली नीति को विनियमित करने पर राजनीतिक सहमति एक कठिन चुनौती हो सकती है. यह संसद और इंटर गर्वनमेंटल संस्थानों सहित अन्य लोकतांत्रिक मंच हैं, जिन्हें फ्रीबीज़ पर बहस करनी चाहिए और इसके रेडलाइन पर राजनीतिक सहमति बनानी चाहिए.
[pullquote]कल्याणकारी योजनाएं जो टारगेटेड इंटरवेंशन का लक्ष्य रखती हैं, उन्हें ग़रीबों की आवश्यकताओं की पहचान करने और उन्हें पूरा करने के लिए सुव्यवस्थित किया जाना ज़रूरी है. वेलफेयर गुड्स के वितरण के दौरान भ्रष्टाचार पर भी सख़्त नीतियों के सुधार के ज़रिए नकेल कसना चाहिए. [/pullquote]
संस्थागत रूप से, कुछ नीति ऐसे टूल्स हैं जो भारत में कल्याणकारी योजनाओं के उपयोग को बेहतर बनाने में मदद कर सकते हैं. सबसे पहले, वित्तीय नियामक संस्थानों को मज़बूत किया जाना चाहिए ताकि केंद्र और राज्य सरकार दोनों के अदृश्य और बेहिसाब ख़र्च की बेहतर निगरानी की जा सके और ज़्यादा प्रोडक्टिव इस्तेमाल की ओर इसे बढ़ाया जा सके. इसके लिए संस्थागत सुधारों की परिकल्पना की जानी चाहिए ताकि ये नियामक निकाय अधिक स्वायत्तता के साथ काम कर सकें. दूसरा, कल्याणकारी योजनाएं जो टारगेटेड इंटरवेंशन का लक्ष्य रखती हैं, उन्हें ग़रीबों की आवश्यकताओं की पहचान करने और उन्हें पूरा करने के लिए सुव्यवस्थित किया जाना ज़रूरी है. वेलफेयर गुड्स के वितरण के दौरान भ्रष्टाचार पर भी सख़्त नीतियों के सुधार के ज़रिए नकेल कसना चाहिए.
उनकी उपयोगिता और प्रभाव के आधार पर 'वेलफेयर गुड्स' और 'फ्रीबीज़' को परिभाषित करने के लिए नई श्रेणियों और प्रकारों पर विचार करना भी आवश्यक है.
अंत में, उन कानूनों पर ध्यान दिया जाना चाहिए जो मौज़ूद हैं लेकिन ठीक ढंग से लागू नहीं किए जा रहे हैं. फिस्कल रिसपॉन्सिबिलिटी एंड बज़ट मैनेजमेंट (एफआरबीएम) अधिनियम 2003, उदाहरण के लिए, यह निर्देश देता है कि "राजस्व घाटे को समाप्त किया जाना चाहिए, जिसका अर्थ है कि किसी भी उधार के पैसे का उपयोग राजस्व व्यय के लिए नहीं किया जा सकता है, जिसमें फ्रीबीज़ भी शामिल हैं." फिर भी इससे ज़मीनी स्तर पर प्रत्यक्ष सुधार नहीं हो पाया है. [[xcvii]] न्यायिक हस्तक्षेप या ईसीआई द्वारा राजनीतिक दलों के लिए दिशानिर्देश जारी करने के बजाय कल्याण के दीर्घकालिक प्रोडक्टिव एजेंडे की आवश्यकता के बारे में विधायी तंत्र और जन जागरूकता लंबे समय में अधिक सहायक हो सकता है.
निष्कर्ष
लोकलुभावन 'फ्रीबीज़' संस्कृति के दीर्घकालिक नकारात्मक प्रभावों के बारे में चिंता सही है लेकिन इसके साथ ही इन्हें लेकर समाधान आसान नहीं हैं, ख़ास तौर पर ज़्यादा प्रतिस्पर्द्धी लोकतांत्रिक राष्ट्रीय व्यवस्था के तहत. यह काफी हद तक सामाजिक कल्याण योजनाओं की पोरस नेचर और मतदाताओं के बीच उनके बढ़ते आकर्षण की वज़ह से है. बड़ी ग़रीब आबादी वाले देश में, जिनके पास औपचारिक सामाजिक सुरक्षा की कमी है, वेलफेयर गुड्स – जिसमें नॉन मेरिट या फ्रीबीज़ सहित - कई ज़रूरतों को पूरा करते हैं वो शामिल हैं.
हालांकि, कल्याणकारी योजनाओं के दुरुपयोग और देश के वित्तीय स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव को रोकने के लिए केंद्र के साथ-साथ राज्य सरकारों को भी शामिल करते हुए एक राजनीतिक सहमति बनाना अनिवार्य है.
Endnotes
[i] “Freebie Culture Dangerous for Country’s Development: Modi,” Times of India, July 16, 2022.
[ii] Akshat Jain, “‘Freebies Not Bribes But Shake Root of Fair Polls’ — What SC Said in 2013 Order It Plans to Revisit,” The Print, August 26, 2022.
[iii] Utkarsh Anand, “Supreme Court Puts Off Formation of Expert Panel on Freebies Amid Debate,” Hindustan Times, October 25, 2022.
[iv] P. Vaidyanathan Iyer, “Election Commission Wants Parties to Disclose Cost of ‘Revdi’, and How It Will Be Funded,” The Indian Express, October 8, 2022.
[v] Manoj Kumar Jha, “Election Commission’s Proposal on Freebies and Election Promises Raises Questions of Institutional Overreach,” The Indian Express, October 7, 2022.
[vi] Krishnadas Rajagopal, “SC to Reconsider Judgment That Making Promises in Election Manifestos is Not ‘Corrupt Practice’,” The Hindu, August 26, 2022.
[vii] Instruction Regarding Election Manifestos, December 6, 2018.
[viii] Prakash Sarangi, “Welfare Discourses in the Global South,” Economic and Political Weekly, January 7, 2023.
[ix] Herbert Obinger, Carina Schmitt and Laura Seelkopf, “Mass Warfare and the Development of the Modern Welfare State: An Analysis of the Western World, 1914–1950,” in Frank Nullmeier, Delia González de Reufels & Herbert Obinger (eds)., International Impacts on Social Policy: Short Histories in Global Perspective, Palgrave Macmillan, 2022
[x] Klaus Petersen (2013), “The Early Cold War and the Western Welfare State,” Journal of International and Comparative Social Policy, 29:3, 226-240, DOI: 10.1080/21699763.2013.855129
[xi] Prakash Sarangi (b), “Welfare Discourses in India,” India Review, vol.22, 2023,
[xii] Scott Gates, Havard Hegre, Mark P. Jones and Havard Strand, “Democratic Waves: Global Patterns of Democratisation, 1800-2000,” 2007.
[xiii] Duane Swank, “Political Institutions and Welfare State Restructuring: The Impact of Institutions on Social Policy Change in Developed Democracies,” in Paul Pearson (eds), The New Politics of the Welfare State, Oxford University Press, 2001.
[xiv] Gabrielle Kruks-Wisner, Claiming the State: Active Citizenship and Social Welfare in Rural India, Cambridge University Press, 2018
[xv] Philipp Genschel, “Globalization and the Welfare State: A Retrospective,” Journal of European Public Policy, Volume 11, 2004-Issue 4
[xvi] Chris Renwick, “Why We Need the Welfare State More Than Ever,” The Guardian, September 21, 2017, https://www.theguardian.com/news/2017/sep/21/why-we-need-the-welfare-state-more-than-ever
[xvii] “Covid-19 Has Transformed the Welfare State. Which Changes Will Endure?,” The Economist, March 6, 2021, https://www.economist.com/briefing/2021/03/06/covid-19-has-transformed-the-welfare-state-which-changes-will-endure
[xviii] For a helpful analysis of the evolution of welfare policies in India, see Prakash Sarangi (b), “Welfare Discourses in India,” India Review, vol.22, 2023
[xix] Steven Pinch (1996), Understanding the Changing Geographies of Social Welfare (Routledge)
[xx] Jawaharlal Nehru, Jawaharlal Nehru’s Speeches, Vol. III (Delhi: Ministry of Information and Broadcasting, Government of India, 1958). P-17.
[xxi] The Constitution of India, 1950, https://legislative.gov.in/sites/default/files/COI…pdf
[xxii] MG Devasahayam, “India’s ‘Freebie Politics’: Why SC’s ‘Expert Panel’ May Be of Little Help,” The Quint, August 8, 2022,
https://www.thequint.com/voices/opinion/indias-freebie-politics-why-scs-expert-panel-may-be-of-little-help#read-more
[xxiii] Sarangi (b), “Welfare Discourses in India”, India Review, 2023.
[xxiv] Padmini Swaminathan, J. Jeyaranjan, R. Sreenivasan and K. Jayashree, “Tamil Nadu’s Midday Meal Scheme: Where Assumed Benefits Score over Hard Data,” Economic and Political Weekly, Oct. 30 – Nov. 5, 2004, Vol. 39, No. 44, 2004, pp. 4811-4821
[xxv] Sarangi (b), 2023.
[xxvi] Before the 1964 Act, the PDS system was largely dependent on PL-480 food grains that were provided by the United States. However, owing to political differences it was suspended in the ‘60s. In a bid to achieve food security, the government invested heavily to encourage agricultural productivity, leading to the Green Revolution. See: Shikha Yadav & Subhash Anand, “Green Revolution and Food Security in India: A Review,” NGJI, An International Peer Reviewed Journal NGSI-BHU, ISSN: 0027-9374/2019/1715 Vol. 65, No. 3, September, 2019; Inderjit Badhwar, “Shaking off dependence, India Today, May 15, 1980 (Updated on 21 November, 2014), https://www.indiatoday.in/magazine/international/story/19800515-shaking-off-dependence-806682-2014-01-30
[xxvii] D. P. K. Pillay and T. K. Manoj Kumar (2018), “Food Security in India: Evolution, Efforts and Problems,” Strategic Analysis, 42:6, 595-611
[xxviii] “The Evolution of India’s Welfare System, 2008 to 2023,” The Wire, February 1, 2023, https://thewire.in/economy/the-evolution-of-indias-welfare-system-2008-to-2023
[xxix] “Midday Meals Leave a Long-Lasting Impact: Study,” The Hindu, July 19, 2021,
https://www.thehindu.com/news/national/midday-meals-result-in-healthier-next-generation-study/article35393273.ece
[xxx] “Midday Meal Scheme Makes a Great Difference to School Enrolment,” Business Today, January 6, 2013, https://www.businesstoday.in/magazine/cover-story/story/mid-day-meal-scheme-on-school-enrollment-34896-2012-12-15
[xxxi] “PDS Has Scope To Add 10 Million More People: Centre,” Hindustan Times, August 19, 2022, https://www.hindustantimes.com/india-news/pds-has-scope-to-add-10-million-more-people-centre-101660849360911.html
[xxxii] S. Bagchee. “Employment Guarantee Scheme in Maharashtra,” Economic and Political Weekly, vol. 19, no. 37, 1984, pp. 1633–38. JSTOR, http://www.jstor.org/stable/4373575.
[xxxiii] “NREGA Big Success Story of Recent Times in India,” LiveMint, November 6, 2020,
https://www.livemint.com/news/india/nrega-big-success-story-of-recent-times-in-india-un-official-11604659435861.html
[xxxiv] “Corruption, Pending Payments Mar Implementation of Rural Schemes: Parliamentary Panel,” The Hindu, March 16, 2022,
https://www.thehindu.com/news/national/corruption-pending-payments-mar-implementation-of-rural-schemes-parliamentary-panel/article65231823.ece
[xxxv] “Modi@8: Eight Flagship Schemes Launched by the Narendra Modi Govt Since 2014,” News18, May 24, 2022, https://www.news18.com/news/india/modi8-eight-flagship-schemes-launched-by-the-narendra-modi-govt-since-2014-5226199.html
[xxxvi] Budget Expenditure Report, 2023, Ministry of Finance, Government of India. https://www.indiabudget.gov.in/doc/eb/vol1.pdf
[xxxvii] Satya Muley, “Understanding the Freebie Politics in India,” Financial Express, October 7, 2022,
https://www.financialexpress.com/india-news/understanding-the-freebie-politics-in-india/2702839/
[xxxviii] Jos Mooij, Welfare Policies and Politics: A Study of Three Government Interventions in AP, India, Overseas Development Institute, London, 2002
[xxxix] Romita Datta, “Why Naveen Patnaik’s Health Card Scheme is a Game Changer for Women,” India Today, August 27, 2021, https://www.indiatoday.in/india-today-insight/story/why-naveen-patnaik-s-health-card-scheme-is-a-game-changer-for-women-in-odisha-1845513-2021-08-26
[xl] “8 gm Free Gold to Married Women, Crop Loan Waiver: Jaya’s Gift to TN,” News18, May 23, 2022, https://www.news18.com/news/politics/8-gm-free-gold-to-married-women-crop-loan-waiver-jayas-gift-to-tn-1246918.html; Ashok Pradhan, “Odisha Chief Minister Naveen Patnaik Hails Schemes Amid Freebie Debate,” Times of India, August 13, 2022, https://timesofindia.indiatimes.com/city/bhubaneswar/odisha-chief-minister-naveen-patnaik-hails-schemes-amid-freebie-debate/articleshow/93531921.cms; Badri Narayan, “Drawing a Bigger Circle,” The Indian Express, March 28, 2022, https://indianexpress.com/article/opinion/columns/welfare-hindutva-combination-won-the-vote-in-up-7839325/; Jayanta Basu, “West Bengal Assembly Election: Social Schemes Secured Trinamool Victory, Data Suggests,” Down to Earth, May 14, 2021, https://www.downtoearth.org.in/news/governance/west-bengal-assembly-election-social-schemes-secured-trinamool-victory-data-suggests-76923
[xli] Piyush Tripathi, “Bihar CM’s Bicycle Scheme Worked Wonders: Minister,” The Times of India, June 5, 2021, https://timesofindia.indiatimes.com/city/patna/minister-nitishs-bicycle-scheme-worked-wonders/articleshow/83213211.cms
[xlii] “Explained: What Are ‘Freebies’ and How They May Burden State Finances,” Times of India, August 03, 2022, https://timesofindia.indiatimes.com/business/india-business/explained-what-are-freebies-and-how-they-may-burden-state-finances/articleshow/93306455.cms
[xliii] “Centre’s Remarks Against Freebies Faulted,” The Hindu, August 9, 2022, https://www.thehindu.com/news/national/telangana/centres-remarks-against-freebies-faulted/article65750291.ece; Pradhan, “Odisha Chief Minister Naveen Patnaik Hails Schemes Amid Freebie Debate”
[xliv] “State Finances: A Risk Analysis,” RBI Bulletin, June 2022, https://www.rbi.org.in/Scripts/BS_ViewBulletin.aspx?Id=21070
[xlv] Indulekha Aravind and Shantanu Nandan Sharma, “The Freebies Debate: Genesis, Definition and Impact on Welfare and Economy,” The Economic Times, August 28, 2022, https://economictimes.indiatimes.com/news/india/the-freebies-debate-genesis-definition-and-impact-on-welfare-economy/articleshow/93824884.cms?from=mdr
[xlvi] Subhash C. Garg, “Welfare Or Freebies: A Good Debate Will Separate Wheat From Chaff,” Money Control, August 10, 2022, https://www.moneycontrol.com/news/opinion/welfare-or-freebies-a-good-debate-will-separate-wheat-from-chaff-2-8991201.html
[xlvii] Vishal Rambani, “Freebies’ Fiscal Cost: Punjab Doles Out ₹50-cr Daily Power Subsidy,” Hindustan Times, October 20, 2022, https://www.hindustantimes.com/cities/chandigarh-news/freebies-fiscal-cost-punjab-doles-out-rs-50-cr-daily-power-subsidy-101666288240096.html
[xlviii] Yamini Aiyar, “Freebie, Subsidy, Compensation: Let’s Reset the Terms of Debate,” The Indian Express, August 9, 2022, https://indianexpress.com/article/opinion/columns/freebie-subsidy-compensation-lets-reset-terms-debate-8078602/.
[xlix] Dipa Sinha, “Making Sense of the ‘Freebies’ Issue,” The Hindu, August 3, 2022, https://www.thehindu.com/opinion/lead/making-sense-of-the-freebies-issue/article65717382.ece
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[li] Niranjan Sahoo and Alok Chaurasia, “Freebies Are a Complex Public Policy Issue,” The Week, August 28, 2022.
[lii] Sandip Das, “No Decision Yet on Extending PMGKAY Beyond Dec: Food Subsidy to Cross Rs 3 Trillion This Fiscal,” The Financial Express, November 21, 2022.
[liii] Sevanti Ninan, “Modi Wanted to End MGNREGS. Now It’s His Only Tool to Ride Through Slowdown,” October 54, 2019.
[liv] Niranjan Sahoo, “Making MGNREGA Pandemic-Proof,” ORF Expert Speak, June 11, 2020.
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[lviii] Aiyar, “Freebie, Subsidy, Compensation: Let’s Reset the Terms of Debate”
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[lxxv] Reserve Bank of India, “Fiscal Position of the State Governments”
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[xciv] Mayuri Gupta, “Freebies Debate Highlights the Limits of Judicial Overreach,” Newsclick, October 11, 2022,; Kamalika Ghosh, “The Freebies Debate: Should Supreme Court Engage With A Subject That Falls Outside Its Purview?,” Outlook India, August 18, 2022.
[xcv] Jha, “Election Commission’s Proposal on Freebies and Election Promises Raises Questions of Institutional Overreach”
[xcvi] Devasahayam, “India’s ‘Freebie Politics’: Why SC’s ‘Expert Panel’ May Be of Little Help”
[xcvii] TM Thomas Issac, “Fiscal Federalism and Hullabaloo Around Freebies,” New Indian Express, September 20, 2022.
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