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निरंतर बदलावों से भरे मौजूदा दौर में अगर दोनों देश सामरिक रूप से अहम भू-क्षेत्रों में अपनी आकांक्षाओं और लक्ष्यों में तालमेल बनाकर आगे नहीं बढ़ेंगे तो आने वाला वक़्त दोनों के बीच के रिश्तों में और ज़्यादा उतार-चढ़ाव भरा साबित हो सकता है.
भारत के विदेश सचिव ने इस साल के शुरुआत में रूस का दौरा किया था. 2021 में ये उनकी पहली विदेश यात्रा थी. ये दौरा कई मायनों में अहम था. इस यात्रा से भारत-रूस वार्षिक शिखर सम्मेलन के पहले द्विपक्षीय व्यवस्थाओं को गति दिए जाने के संकेत मिलने लगे. इसके बाद अप्रैल 2021 में रूस के विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने भारत का दौरा किया. फ़िलहाल भारत ब्रिक्स देशों की अध्यक्षता कर रहा है. इस साल ब्रिक्स नेताओं का शिखर सम्मेलन भारत में आयोजित होना है. इसी मौके पर भारत और रूस के बीच द्विपक्षीय शिखर सम्मेलन होने की भी संभावना है.
पिछले साल पुतिन और मोदी के बीच की शिखर वार्ता टल गई थी. इसके चलते भारतीय मीडिया और विशेषज्ञों के बीच भारत-रूस संबंधों में कथित तनातनी को लेकर ज़बरदस्त बहस छिड़ गई. हालांकि, रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन के व्यक्तिगत तौर पर दिल्ली नहीं आने को लेकर किसी को ताज्जुब नहीं होना चाहिए था. कोविड-19 महामारी के चलते जनवरी 2020 से ही उन्होंने अपने सारे विदेशी दौरे रद्द कर दिए थे. हालांकि, इसके बावजूद दो सवालों के ज़वाब नहीं मिल पाए. पहला ये कि वर्चुअल माध्यमों के ज़रिए शिखर वार्ताओं का आयोजन क्यों नहीं किया गया? और दूसरा, रूस के वरिष्ठ अधिकारियों ने भारत का दौरा क्यों नहीं किया. वो भी तब जब तमाम दूसरे देशों के अधिकारी महामारी के बावजूद भारतीय अधिकारियों के साथ आमने-सामने की बातचीत जारी रखे हुए थे?
भारत मौजूदा वैश्विक हालात पर अपने विचार न सिर्फ़ रूसी सरकार बल्कि वहां की सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों के साथ भी साझा करना चाहता है. भले ही सिविल सोसाइटी के विचारों को रूस के नीति-निर्माता अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं फिर भी जनमत के निर्माण में उनकी बड़ी भूमिका होती है.
ये बात ख़ासतौर से प्रासंगिक है. दरअसल भारत और रूस के रिश्तों में निर्णय-प्रक्रिया की दिशा ‘ऊपर से नीचे की ओर’ है. कई मायनों में इससे कई तरह की समस्याएं भी खड़ी होती हैं. एक बार सालाना शिखर सम्मेलन के रद्द होने पर प्राथमिक तौर पर हुई तमाम प्रगतियों की रफ़्तार सुस्त पड़ जाती है. नतीजतन द्विपक्षीय सहयोग की गर्माहट कम होने लगती है. भारत-रूस रिश्तों की इस खामी को समझने के लिए एक उदाहरण लेते हैं. भारत ने रूस के सुदूर पूर्वी क्षेत्र के लिए सितंबर 2019 में एक अरब डॉलर के लाइन ऑफ़ क्रेडिट की घोषणा की थी. हक़ीक़त ये है कि अब तक इसका उपयोग नहीं किया जा सका है. इस समस्या की एक और मिसाल है रेसिप्रोकल लॉजिस्टिक्स सपोर्ट एग्रीमेंट में हो रही देरी. इस समझौते को अंतिम रूप देने की प्रक्रिया लंबी खिंचती जा रही है.
बहरहाल यहां ये दलील दी जा सकती है कि पर्याप्त तैयारियों के अभाव में शीर्ष नेताओं के बीच परिचर्चा का एजेंडा अस्पष्ट रहता और शिखर सम्मेलन को शायद इसी वजह से टालना पड़ा. बहरहाल, भविष्य में ऐसी परिस्थितियों से बचने का एक संभावित उपाय मंत्रियों के स्तर पर नियमित तौर पर होने वाली साझा बैठकों का हो सकता है. ये बैठकें ‘2+2’ वार्ताओं के प्रारूप में हो सकती हैं. भारत और रूस दोनों में ऐसी व्यवस्था मौजूद है. दोनों ही देशों ने दुनिया के अलग-अलग देशों के साथ विदेश और रक्षा मंत्रियों के स्तर पर इस तरह की वार्ताओं की व्यवस्था बना रखी है. अप्रैल 2021 में टेलीफ़ोन पर हुई बातचीत के दौरान राष्ट्रपति पुतिन और प्रधानमंत्री मोदी ‘2+2’ वार्ताओं की प्रक्रिया शुरू करने पर रज़ामंद हुए थे. इस प्रारूप में विश्व पटल पर भूराजनीतिक तौर पर उभरने वाले बड़े मसलों से निपटने की संभावनाएं मौजूद होती हैं. द्विपक्षीय मसलों पर चर्चाओं के लिए भी इसके ज़रिए और अधिक गतिशीलता लाई जा सकती है. क्या भारत-रूस ‘सामरिक और विशेषाधिकार प्राप्त भागीदारी’ में और क़रीबी से बातचीत वाला रिश्ता कायम करने की ज़रूरत है? क्या ‘2+2’ वार्ताओं से रिश्तों को आगे बढ़ाने और हासिल किए जा सकने वाले लक्ष्यों की प्राप्ति में मदद मिलेगी? ये कुछ ऐसे सवाल हैं जिनके जवाब फ़िलहाल स्पष्ट नहीं हैं.
अपनी रूस यात्रा में विदेश सचिव श्रृंगला ने रूसी अधिकारियों से मुलाकात के साथ-साथ रशियन डिप्लोमेटिक एकेडमी में जाने-माने प्रोफ़ेसरों और उभरते राजनयिकों के साथ परिचर्चा की थी. सामरिक मामलों के रूसी विशेषज्ञों के साथ भी उन्होंने अलग से एक बैठक में हिस्सा लिया था. इससे पता चलता है कि भारत मौजूदा वैश्विक हालात पर अपने विचार न सिर्फ़ रूसी सरकार बल्कि वहां की सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों के साथ भी साझा करना चाहता है. भले ही सिविल सोसाइटी के विचारों को रूस के नीति-निर्माता अक्सर नज़रअंदाज़ कर देते हैं फिर भी जनमत के निर्माण में उनकी बड़ी भूमिका होती है.
डिप्लोमेटिक एकेडमी में अपना विचार प्रकट करते हुए भारतीय विदेश सचिव श्रृंगला ने दो टूक कहा कि “हिंद-प्रशांत क्षेत्र के ज़िक्र के बिना भूराजनीति पर होने वाली कोई भी चर्चा पूरी नहीं हो सकती.” इसके साथ ही उन्होंने इस इलाक़े को लेकर भारत के दृष्टिकोण को विस्तार से स्पष्ट किया. उन्होंने आशा जताई कि भारत और रूस के बीच सामरिक रूप से महत्वपूर्ण तीन भौगोलिक क्षेत्रों- “यूरेशिया, हिंद-प्रशांत और रूसी सुदूर पूर्व और आर्कटिक” में “सामरिक दशादिशा, अंतर्निहित और आवश्यक बहुध्रुवीय व्यवस्था और सुरक्षा व समृद्धि से जुड़े मसलों पर असहमतियों से ज़्यादा सहमतियां देखने को मिलेंगी”
दिसंबर 2020 में रूस के विदेश मंत्री लावरोव ने एक बार फिर अमेरिका की “हिंद-प्रशांत रणनीतियों” और “चीन-विरोधी पैंतरों” की घोर निंदा की थी. उनका मानना था कि रक्षा सहयोग के मोर्चे पर अमेरिका के “कठोरतापूर्ण दबाव” का भारत एक पात्र बन रहा है. बहरहाल महीने भर बाद ही लावरोव ने इन टिप्पणियों से हुए नुकसान की भरपाई करने की कोशिश की.
हिंद-प्रशांत को लेकर श्रृंगला की टिप्पणी ख़ासतौर से अहम है. इसे समझने के लिए इसकी पृष्ठभूमि में जाना होगा. दिसंबर 2020 में रूस के विदेश मंत्री लावरोव ने एक बार फिर अमेरिका की “हिंद-प्रशांत रणनीतियों” और “चीन-विरोधी पैंतरों” की घोर निंदा की थी. उनका मानना था कि रक्षा सहयोग के मोर्चे पर अमेरिका के “कठोरतापूर्ण दबाव” का भारत एक पात्र बन रहा है. बहरहाल महीने भर बाद ही लावरोव ने इन टिप्पणियों से हुए नुकसान की भरपाई करने की कोशिश की. तब उन्होंने भारत को “अत्यंत क़रीबी, बेहद रणनीतिक और विशेषाधिकार प्राप्त सहयोगी” बताया. हालांकि, उनके ये शब्द हिंद-प्रशांत क्षेत्र को लेकर दोनों देशों के अलग-अलग विचारों को बेपर्दा होने से शायद ही रोक पाएं. ग़ौरतलब है कि इसी बयान में रूसी विदेश मंत्री ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र के प्रति भारत के समावेशी रुख़ की तुलना अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के “टकराव भरे” रवैए के साथ की थी.
रूस हिंद-प्रशांत और क्वॉड की आलोचना करते नहीं थकता. लाजिमी तौर पर भारत के लिए रूस का ये रुख़ कतई प्रिय नहीं हो सकता. इसके बावजूद भारत हिंद-प्रशांत और रूस के सुदूर पूर्व के बीच संपर्क को बढ़ावा देने की अपनी नीति और प्रयासों पर शुरू से कायम रहा है. 2019 में व्लाडिवोस्टोक में बोलते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भविष्यवाणी की थी कि “रूस का सुदूर पूर्व का इलाक़ा एक तरफ़ यूरेशियन यूनियन के संगम के तौर पर उभरेगा तो दूसरी तरफ़ खुले, उन्मुक्त और समावेशी हिंद-प्रशांत क्षेत्र के साथ जुड़ेगा.” लगता है जैसे उनका ये वक्तव्य धरातल पर उतरने भी लगा है. भारत, रूस और जापान के विशेषज्ञ रूस के सुदूर पूर्वी इलाक़े में त्रिपक्षीय सहयोग की संभावनाएं तलाशने में जुट गए हैं. इतना ही नहीं भारत और रूस ने क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने की इच्छाओं का भी इज़हार किया है. सुदूर पूर्व में साझा आर्थिक परियोजनाओं और चेन्नई-व्लाडिवोस्टोक समुद्री व्यापार मार्ग से जुड़े प्रस्तावों से ये बात ज़ाहिर होती है.
हालांकि, इसके बावजूद निकट भविष्य में हिंद-प्रशांत को लेकर रूस के विचारों में किसी तरह का बदलाव आने की संभावना ना के बराबर है. रूस हिंद-प्रशांत से जुड़ी परिकल्पना को अमेरिकी सामरिक दस्तावेज़ों में दी गई परिभाषाओं के हिसाब से देखता है. इन दस्तावेज़ों में रूस को एक ‘दुष्ट किरदार’ बताया गया है. इसके अलावा दक्षिण एशिया के बदलते हालात भारत-रूस भागीदारी की सामरिक पृष्ठभूमि को और जटिल बना रहे हैं.
अफ़ग़ानिस्तान की समस्या का अबतक निदान नहीं हो सका है. भारत और रूस दोनों ही इस युद्धरत देश के बदलते हालातों से वाक़िफ़ हैं. इसके बावजूद इस मसले पर दोनों का रुख़ अलग-अलग है. अफ़ग़ानिस्तान को लेकर एक अरसे तक निष्क्रिय रहने के बाद रूस एक बार फिर शांति बहाली के प्रयासों की अगुवाई करता दिख रहा है. रूस ने अफ़ग़ानिस्तान की आंतरिक वार्ताओं के साथ-साथ ‘प्रमुख बाहरी किरदारों’ या “विस्तृत तिकड़ी” की बैठकों के लिए अपनी सरज़मीं मुहैया कराने का प्रस्ताव रखा है. इस साल की शुरुआत में रूस ने शांति वार्ताओं के उपवार्ताकार शेर मोहम्मद अब्बास स्तानिकज़ई की अगुवाई वाले तालिबानी दल का गर्मजोशी से स्वागत किया था. उसके बाद 17 फ़रवरी को रूसी विदेश मंत्री लावरोव और भारतीय विदेश सचिव श्रृंगला के बीच हुई बातचीत में अफ़ग़ान संकट पर चर्चा हुई थी. उसके दो दिन बाद ही अफ़ग़ान मसले पर क्रेमलिन के दूत की भूमिका निभाने वाले ज़मीर काबुलोव ने इस्लामाबाद का दौरा किया था. वहां उन्होंने पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल क़मर जावेद बाजवा और विदेश मंत्री शाह महमूद क़ुरैशी से मुलाक़ात की थी.
भारत, रूस और जापान के विशेषज्ञ रूस के सुदूर पूर्वी इलाक़े में त्रिपक्षीय सहयोग की संभावनाएं तलाशने में जुट गए हैं. इतना ही नहीं भारत और रूस ने क्षेत्रीय सहयोग बढ़ाने की इच्छाओं का भी इज़हार किया है. सुदूर पूर्व में साझा आर्थिक परियोजनाओं और चेन्नई-व्लाडिवोस्टोक समुद्री व्यापार मार्ग से जुड़े प्रस्तावों से ये बात ज़ाहिर होती है.
स्पूतनिक को दिए साक्षात्कार में काबुलोव ने कहा था कि रूस का मानना है कि तालिबान दोहा समझौते में किए गए वादों का “बिना किसी ग़लती के पूरी तरह से पालन कर रहा है…हालांकि, अमेरिकियों के बारे में ऐसा नहीं कहा जा सकता.” रूस तालिबान के लक्ष्यों और मांगों की अच्छी समझ होने का इज़हार करता है. रूस के बर्ताव से तालिबान के मकसदों के बारे में थोड़ा-बहुत सम्मान भी झलकता है. दूसरी ओर भारत तालिबान को अफ़ग़ानिस्तान में हो रही ज़्यादतियों का ज़िम्मेदार मानता है. भारत का मानना है कि इसी वजह से वहां शांति कायम करने में रुकावट आ रही है. मॉस्को में दिए अपने भाषण में श्रृंगला ने कहा था, “अफ़ग़ान कार्यकर्ताओं के ख़िलाफ़ हिंसक गतिविधियों में बढ़ोतरी और निशाना बनाकर की जा रही उनकी हत्याएं मौजूदा शांति प्रक्रिया के अनुकूल नहीं हैं”
यहां पाकिस्तान की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता है. पाकिस्तान के प्रति रूस के रुख़ को देखें तो भी दाल में कुछ न कुछ काला ज़रूर नज़र आता है. दोनों देशों के बीच दिन ब दिन क़रीबी रिश्ते बनते जा रहे हैं. इसकी वजह ये है कि दोनों के ही हित समान हैं. मॉस्को और इस्लामाबाद दोनों ही अफ़ग़ान मसले के हल को एक जैसे नज़रिए से देखते हैं. अफ़ग़ानिस्तान मसले के अंजाम को लेकर उनके दृष्टिकोण में अशरफ़ ग़नी और उनकी कैबिनेट के लिए कोई जगह नहीं है. दोनों ही मुल्क अफ़ग़ानी व्यवस्था में पर्याप्त संख्या में तालिबानी प्रतिनिधियों के साथ एक अंतरिम ढांचे की वक़ालत करते हैं. हालांकि, यहां एक बहुत बड़ा फ़र्क भी है. पाकिस्तान के उलट रूस का मानना है कि अफ़ग़ानिस्तान को पूरी तरह से तालिबानी प्रशासन के तहत लाने का विचार ठीक नहीं है. इसके साथ ही वो इस्लामिक अमीरात से जुड़े तालिबानी शिगूफ़ों का भी समर्थन नहीं करता.
रूस और पाकिस्तान के बीच की वार्ताओं में अफ़ग़ानिस्तान से जुड़ी पहेली को लेकर एकराय बढ़ती जा रही है. हालांकि, अफ़ग़ान मुद्दा दोनों की नज़दीकियों का केवल एक पहलू है. दोनों देशों के बीच ऊर्जा क्षेत्र से जुड़ी साझा परियोजनाओं और संभावित रक्षा सहयोग को लेकर भी नज़दीकियां बन रही है. रूसी मीडिया में पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल बाजवा के हवाले से ऐसी ख़बरें छपी हैं कि पाकिस्तान ने “रूस के साथ एंटी टैंक हथियार प्रणाली, हवाई रक्षा प्रणाली और छोटे हथियारों की सप्लाई को लेकर करार” किया है.
बहरहाल आधिकारिक रूप से इस बात की पुष्टि नहीं हो सकी है. हालांकि, रूसी पक्ष ने इस ख़बर का खंडन भी नहीं किया है. ग़ौरतलब है कि भारत ने रूस से ‘पाकिस्तान को हथियारों की सप्लाई न करने की नीति’ का पालन करने अनुरोध कर रखा है. इसके बावजूद रूसी पक्ष पाकिस्तान को रक्षा साजोसामान के निर्यात की जुगत में लगा है. ऐसे में पाकिस्तान द्वारा रूस से रक्षा ख़रीद से जुड़े सौदे की संभावना बन भी सकती है. हालांकि, इस सौदे का आकार पाकिस्तान की चाहत के मुक़ाबले छोटा रह सकता है.
रूस के साथ टकराव वाले तमाम मसलों में भारत के लिहाज़ से सबसे चिंताजनक है ‘रूस के साथ चीन’ का समीकरण. रूस और चीन के बीच राजनीतिक, आर्थिक और सैन्य सहयोग में बढ़ोतरी हुई है. दोनों के बीच की ये मित्रता पश्चिम के साथ उनके रिश्तों की वजह से और गहरी हुई है. दोनों ही देशों के ख़िलाफ़ अमेरिका ने “दोहरी नियंत्रण नीति” अपना रखी है.
बहरहाल, चीन के साथ क़रीबी भागीदारियों के बावजूद भारत और चीन के बीच के विवाद में रूस ने किसी का भी पक्ष लेने से इनकार कर दिया है. रूस एशिया के अपने इन दोनों साथियों के साथ अच्छे संबंध चाहता है. लिहाज़ा वो भारत और चीन के साथ अपने रिश्तों में बारीक संतुलन बनाने के लिए जीतोड़ कोशिशें करता है. भारत और चीन के बीच पूर्वी लद्दाख में हुए टकराव के दौरान रूस के रुख़ से ये बात उभरकर सामने आई थी. गलवान में हुई झड़पों के कई हफ़्तों बाद रूस से भारत को सैन्य सामग्रियों की आपूर्ति में तेज़ी आई थी. रूस ने “भारत की तमाम रक्षा ज़रूरतों को पूरा करने के लिए सकारात्मक प्रतिक्रिया जताई थी.” रूसी पक्ष का ये रुख़ उसकी नीतियों के अनुरूप है. दरअसल सीमा से जुड़े विवादों के मामलों में रूस और चीन एक-दूसरे का साथ देने से गुरेज़ करते रहे हैं. क्या भविष्य में ये रुख़ बदल भी सकता है?
ग़ौरतलब है कि भारत ने रूस से ‘पाकिस्तान को हथियारों की सप्लाई न करने की नीति’ का पालन करने अनुरोध कर रखा है. इसके बावजूद रूसी पक्ष पाकिस्तान को रक्षा साजोसामान के निर्यात की जुगत में लगा है. ऐसे में पाकिस्तान द्वारा रूस से रक्षा ख़रीद से जुड़े सौदे की संभावना बन भी सकती है.
ये बात साफ़ है कि राष्ट्रपति पुतिन के कार्यकाल तक पश्चिम के साथ रूस के रिश्तों में तल्खी बनी रहेगी. वहीं दूसरी ओर थोड़े बहुत उतार-चढ़ावों के बावजूद चीन की ओर रूस का झुकाव ऐसे ही जारी रहेगा. रूस-चीन सहयोग के ढांचे और मिज़ाज को देखते हुए ये कहा जा सकता है कि आने वाले समय में चीन पर रूस की निर्भरता और बढ़ेगी. हालांकि, इसके अपने नतीजे भी देखने को मिल सकते हैं
यूरेशिया और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में अपने विरोधाभासी हितों के बीच भारत और रूस अपना आगे का सफ़र कैसे तय करते हैं, निकट भविष्य में दोनों देशों के बीच का रिश्ता काफ़ी कुछ इसी पर निर्भर करेगा. निरंतर बदलावों से भरे मौजूदा दौर में अगर दोनों देश सामरिक रूप से अहम भूक्षेत्रों में अपनी आकांक्षाओं और लक्ष्यों में तालमेल बनाकर आगे नहीं बढ़ेंगे तो आने वाला वक़्त दोनों के बीच के रिश्तों में और ज़्यादा उतार-चढ़ाव भरा साबित हो सकता है.
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Aleksei Zakharov is a Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. His research focuses on the geopolitics and geo-economics of Eurasia and the Indo-Pacific, with particular ...
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