Author : Manoj Joshi

Published on Feb 25, 2021 Updated 0 Hours ago

चीन से दोस्ती की कोशिश में तिब्बत के प्रतिरोध आंदोलन को पीछे धकेलने के कई दशक के बाद लगता है कि अमेरिका को पछतावा हो रहा है लेकिन वास्तविकता में जो घटना हुई है उससे भू-राजनीतिक दुनिया पूरी तरह से बदल गई है.

दलाई लामा के ‘अवतार’ लेने के सवाल साथ ही, तिब्बत एक बार फिर बना अमेरिका-चीन विवाद का मुख्य मुद्दा!

चीन पर लगातार अमेरिकी दबाव के तहत अमेरिकी संसद ने तिब्बत को समर्थन बढ़ाने के लिए एक विधेयक पारित किया है. तिब्बती नीति और समर्थन अधिनियम (टीपीएसए) को अमेरिकी संसद के दोनों सदनों ने 1.4 ट्रिलियन डॉलर के सरकारी खर्च विधेयक और 900 अरब डॉलर के कोविड-19 राहत पैकेज के संशोधन के तौर पर पास किया है. ये अधिनियम चीन के उन अधिकारियों पर आर्थिक और वीज़ा प्रतिबंध लगाएगा जो दलाई लामा के उत्तराधिकार के मामले में हस्तक्षेप करेंगे. साथ ही इस अधिनियम के तहत चीन के लिए ज़रूरी होगा कि वो अमेरिका में कोई भी नया कोंसुलेट खोलने से पहले ल्हासा में अमेरिका को कोंसुलेट स्थापित करने की मंज़ूरी दे. अमेरिका के इस क़दम से धर्मशाला आधारित केंद्रीय तिब्बती प्रशासन बेहद ख़ुश है. प्रशासन के राष्ट्रपति लोबसांग सांगे ने इसे “तिब्बत के लोगों के लिए ऐतिहासिक घटना” घोषित किया.

हार्वर्ड यूनिवर्सिटी में पढ़ाई करने वाले और अमेरिकी नागरिक सांगे को हाल में व्हाइट हाउस में न्योता दिया गया जहां उन्होंने तिब्बती मामलों पर नये-नवेले नियुक्त अमेरिका के विशेष संयोजक रॉबर्ट डेस्ट्रो से मुलाक़ात की. चीन से दोस्ती की कोशिश में तिब्बत के प्रतिरोध आंदोलन को पीछे धकेलने के कई दशक के बाद लगता है कि अमेरिका को पछतावा हो रहा है, लेकिन वास्तविकता में जो घटना हुई है उससे भू-राजनीतिक दुनिया पूरी तरह से बदल गई है.

आधुनिक राजनीति को असल में लामा के अवतार जैसे मुद्दों पर चिंतित नहीं होना चाहिए. लेकिन दलाई लामा एक अलग तरह की शख़्सियत हैं. जब से उन्होंने चीन से भागकर भारत में पनाह ली तब से वो चीन के दमन के ख़िलाफ़ तिब्बती संघर्ष के प्रतीक बन गए हैं

आधुनिक राजनीति को असल में लामा के अवतार जैसे मुद्दों पर चिंतित नहीं होना चाहिए. लेकिन दलाई लामा एक अलग तरह की शख़्सियत हैं. जब से उन्होंने चीन से भागकर भारत में पनाह ली तब से वो चीन के दमन के ख़िलाफ़ तिब्बती संघर्ष के प्रतीक बन गए हैं. उनका व्यक्तित्व और संदेश पूरी दुनिया में गूंजता है और चीन की तरफ़ से ज़ोरदार कोशिश के बावजूद उन्हें अभी भी पूरी दुनिया में सम्मान मिलता है और उनको मानने वाले उनसे काफ़ी प्यार करते हैं.

दलाई लामा ख़ुद अहिंसक तरीक़े से तिब्बती संघर्ष को जारी रखने की ज़रूरत को लेकर स्पष्ट दृष्टिकोण रखते हैं. उन्होंने बार-बार साफ़ किया है कि वो चीन से स्वतंत्रता की जगह ज़्यादा स्वायत्तता चाहते हैं. लेकिन चीन को इस पर भरोसा नहीं हैं और वो उन्हें “बांटने वाला” बताता है.

अवतार और नया रूप

हिंदुओं की तरह तिब्बती बौद्ध भी विश्वास करते हैं कि हर व्यक्ति पुनर्जन्म के चक्र से गुज़रता है जिसका निर्धारण आपके कर्मों से होता है. लेकिन बड़े लामा या तुल्कू, जिनमें बोधिसत्व अवलोकितेश्वर के अवतार दलाई लामा सबसे वरिष्ठ हैं, ये तय कर सकते हैं कि उनका पुनर्जन्म कब और कहां होगा. आमतौर पर बड़े लामा अपने अवतार के बारे में विस्तृत जानकारी कुछ चुनिंदा सहायकों को गुप्त रूप से बताते हैं जिसके बाद वो सहायक उनकी तलाश करते हैं.

उम्र बढ़ने के साथ मौजूदा दलाई लामा ने इस मुद्दे के बारे में बहुत विचार किया. वो इस बात को लेकर चिंतित हैं कि पुनर्जन्म की प्रक्रिया को राजनीति के द्वारा अपने काबू में किया जा सकता है. एक तरफ़ उन्होंने ऐसा कहा है कि- क्या उन्हें पुनर्जन्म लेना ही नहीं चाहिए. दूसरी तरफ़ उन्होंने स्पष्ट दिशा-निर्देश जारी करने में भी दिलचस्पी दिखाई है ताकि ये सुनिश्चित किया जा सके कि इस प्रक्रिया में “संदेह या धोखे की ज़रा भी गुंजाइश न हो”. इसका मक़सद चीन है जो क़रीब-क़रीब निश्चित तौर पर मौजूदा दलाई लामा के गुज़रने के बाद अपने हिसाब से उत्तराधिकारी को चुनेगा.

यही बात दलाई लामा को चिंतित करती है. दलाई लामा पर चीन का “कब्ज़ा” होने से इस पद की प्रतिष्ठा गिरेगी. जैसा कि दलाई लामा ने अपने बयान में कहा, तुल्कू की धारणा को तो छोड़िए चीन के कम्युनिस्ट “जो स्पष्ट रूप से अतीत और भविष्य के जीवन के विचार को ठुकराते हैं”, उन्हें इन क्षेत्रों में हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए. चीन मानता है कि किसी बड़े लामा को नियुक्त करने के मामले में आख़िरी अधिकार उसके पास है और इसकी मंज़ूरी इतिहास और परंपरा देती है. 2007 में चीन के धार्मिक मामलों के प्रशासन ने फ़ैसला दिया था कि पुनर्जन्म को निश्चित रूप से सरकार से मंज़ूरी मिली होनी चाहिए नहीं तो उसे अवैध घोषित कर दिया जाएगा.

चीन मानता है कि किसी बड़े लामा को नियुक्त करने के मामले में आख़िरी अधिकार उसके पास है और इसकी मंज़ूरी इतिहास और परंपरा देती है

इससे पहले 1995 में चीन ने चिंग राजवंश की एक रीति को फिर से बहाल किया था जिसके तहत प्रमुख़ तिब्बती भिक्षुओं की पहचान एक स्वर्ण कलश से निकाले गए ड्रॉ के ज़रिए होती थी. उस साल मई में चीन की सरकार ने दलाई लामा के द्वारा चुने गए छह साल के गेधुन चोएक्यी नियिमा को 10वें पंचेन लामा का अवतार मानने से इनकार कर दिया था. उनकी जगह चीन ने गाइनचेन नोरबू को 10वें पंचेन लामा का अवतार घोषित किया. नियिमा और उनके परिवार को उसके बाद फिर कभी नहीं देखा गया. परंपरागत तौर पर दलाई लामा और पंचेन लामा ने एक-दूसरे के गुरु की भूमिका निभाई है और दलाई लामा की पसंद तिब्बती परंपरा के सिद्धांतों पर आधारित थी.

लेकिन चीन तिब्बती बौद्धों के रिमपोचे, लामा और दूसरे प्रमुख लोगों की नियुक्ति में मांचु सम्राट के द्वारा 18वीं शताब्दी के आख़िर में शुरू प्रक्रिया पर लौट आया. ये नियम उस वक़्त बने जब चिंग की सेना ने सातवें दलाई लामा को फिर से अपना अधिकार स्थापित करने में मदद की और इसके अलावा 1788-89 में नेपाल पर चीन के अधिकार का विस्तार करने में भी मदद की. मांचु क़ानून के मुताबिक़ दलाई और पंचेन समेत बड़े लामा के उम्मीदवार का नाम ल्हासा और बीजिंग में कलश के भीतर रखा जाता था और ड्रॉ के आधार पर फ़ैसला होता था कि लामा कौन बनेगा. ये प्रथा अनियमित ढंग से लागू की गई थी लेकिन चीन अब दावा करता है कि तिब्बत के बौद्धों की यही परंपरा है.

इतिहास

पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना दावा करता है कि वो “सेंट्रल एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ चाइना” का उत्तराधिकारी है जिसका इतिहास हज़ारों साल पुराना है. इससे भी आगे, चीन को इस बात में कोई विडंबना नज़र नहीं आती कि एक मार्क्सवादी-लेनिनवादी देश राजसी सीमा पर दावा कर रहा है या अपने पूर्वजों की राजसी संस्कृति पर अधिकार जता रहा है. इस तरह इस मामले में चीन ने अपना पक्ष दलाई लामा और चीन के साम्राज्य के बीच संबंधों की अपनी परिभाषा के आधार पर मज़बूत किया है. चीन का साम्राज्य दो महत्वपूर्ण मामलों में हान वंश से ताल्लुक नहीं रखता था.

तिब्बत पर सबसे पहले मंगोलों ने विजय हासिल की जिन्होंने 13वीं शताब्दी में चीन पर भी जीत हासिल की. कई मंगोल राजाओं ने तिब्बत के लामाओं को धार्मिक गुरु के तौर पर देखा. 14वीं शताब्दी में मंगोलों की जगह लेने वाले मिंग साम्राज्य ने तिब्बत को अकेला छोड़ दिया लेकिन तिब्बत के धार्मिक नेताओं का अपने दरबार में स्वागत किया.

उस वक़्त तिब्बत पर मंगोल राजाओं का वर्चस्व था जिन्होंने दलाई लामा को संरक्षण दिया और वास्तव में चौथे दलाई लामा तो एक ताक़तवर मंगोल प्रमुख अल्तान ख़ान के परिवार में अवतरित हुए. अगले दलाई लामा यानी पांचवें लामा (1617-1682) धार्मिक प्रमुख होने के साथ-साथ देश के अस्थायी शासक भी थे. इतिहासकार सैम वैन शेक ने लिखा है कि “यद्यपि चीन के कई आधुनिक इतिहासकारों ने उनकी यात्रा (साम्राज्य से मिलने के लिए बीजिंग तक) को दलाई लामा की सरकार के चीन की अधीनता को स्वीकार करना माना है लेकिन इस तरह का मतलब उस वक़्त के तिब्बती या चीन के रिकॉर्ड से शायद ही मेल खाता है.”

वास्तविकता ये है कि चीन ने 20वीं शताब्दी से पहले ख़ुद को चीन की तरह नहीं देखा. उसके अलग-अलग साम्राज्यों के दूसरे क्षेत्रों से संबंध जटिल थे और आधुनिक पद्धति से उसकी तुलना नहीं की जा सकती है. वास्तव में “आधिपत्य” की धारणा के लिए बहुत ज़्यादा दोष अंग्रेज़ों का है जो एक तरह की अर्ध-स्वायत्तता की तरह थी और जिसका मक़सद अपने साम्राज्यवादी लक्ष्य को पाने के लिए तिब्बत के ऊपर चीन के शासन को वैध साबित करना था.

भविष्य

पिछले तीन दशकों में अलग-अलग समय में चीन और तिब्बत ने मुद्दे के निपटारे के लिए कई कोशिशें की हैं. लेकिन 2008 से विश्व व्यवस्था में चीन के आगे बढ़ने के बाद उसने तिब्बत को लेकर कठोर रुख़ अपनाना शुरू कर दिया और बातचीत ख़त्म कर दी. 2013 में तिब्बत के प्रभारी और पोलित ब्यूरो की स्थायी समिति के सदस्य यू झेनशेंग ने साफ़ तौर पर ऐलान किया कि स्वायत्तता को लेकर दलाई लामा की मांग चीन के संविधान के ख़िलाफ़ है. यू ने ये भी कहा कि जब तक दलाई लामा “सार्वजनिक तौर पर ये घोषणा नहीं करते कि तिब्बत प्राचीन समय से चीन का अभिन्न हिस्सा है, ‘तिब्बत की स्वतंत्रता’ का मक़सद नहीं छोड़ते तब तक क्या चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति के साथ उनके संबंध बेहतर हो पाएंगे.”

फिलहाल तिब्बत पर चीन का नियंत्रण मज़बूत है. वास्तव में राष्ट्रपति शी जिनपिंग के ताज़ा बयान के मुताबिक चीन अब तिब्बत के बौद्ध धर्म का चीनीकरण करना चाहेगा. इसका क्या मतलब है ये स्पष्ट नहीं है. लेकिन तिब्बत के भविष्य के शासन पर एक बैठक के दौरान शी ने अधिकारियों से कहा कि वहां स्थायित्व बरकरार रखने के लिए और “बंटवारे” की ताक़त के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए एक “अजेय क़िला” बनाया जाए. चीन अब तिब्बती बौद्धों को उनकी इच्छित दिशा तक धकेलने के लिए “पुनर्शिक्षा” अभियान और कार्यक्रम लेकर आ रहा है. तिब्बत के बौद्ध धर्म मानने वालों को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के विश्वास में ढालना असामान्य नहीं है. चीन, ख़ास तौर पर शी जिनपिंग के तहत, ज़िद करता है कि हर धर्म- चाहे वो बौद्ध धर्म हो या ताओवाद, ईसाई धर्म हो या इस्लाम- को चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के मूल्यों का पालन करना चाहिए. लेकिन दशकों के अत्याचार, “बंटवारे” और बौद्ध धर्म के ख़िलाफ़ अभियान के बावजूद तिब्बती अपनी संस्कृति के प्रति वफ़ादार बने हुए हैं और चीन से अपनी पहचान जोड़ने का विरोध करते हैं. साथ ही हान नस्ल को अपनी प्रमुख पहचान नहीं बताते हैं. ये शिनजियांग के हालात से बहुत ज़्यादा अलग नहीं है. लेकिन चीन की कम्युनिस्ट पार्टी सभी के विलय की कोशिश के ज़रिए “एक राष्ट्र” बनाने की ज़िद पर अड़ी हुई है.

पिछले तीन दशकों में अलग-अलग समय में चीन और तिब्बत ने मुद्दे के निपटारे के लिए कई कोशिशें की हैं. लेकिन 2008 से विश्व व्यवस्था में चीन के आगे बढ़ने के बाद उसने तिब्बत को लेकर कठोर रुख़ अपनाना शुरू कर दिया और बातचीत ख़त्म कर दी. 

काफ़ी हद तक चीन की भारत नीति तिब्बत को लेकर उसके हितों के आधार पर तैयार हुई है. चीन इस तथ्य को मानने के लिए तैयार नहीं है कि तिब्बत और भारत के बीच परंपरागत संबंध हैं जो पड़ोसियों के बीच होते हैं. हिन्दुत्व के सबसे पवित्र स्थल कैलाश और मानसरोवर तिब्बत में हैं और 1950 तक चीन और तिब्बत के बीच भी आवागमन का सबसे बड़ा ज़रिया कोलकाता (तत्कालीन कलकत्ता) बंदरगाह था.

दलाई लामा के भारत में पनाह लेने की वजह से भारत की भूमिका को लेकर चीन की बेचैनी बढ़ गई है. ये सिर्फ़ मौजूदा मामलों को लेकर ही नहीं है बल्कि दलाई लामा की भविष्य की पुनर्जन्म योजना को लेकर भी है. कुछ हद तक इसी वजह से चीन मांग करता है कि सीमा निर्धारण के लिए न्यूनतम शर्त भारत की तरफ़ से तवांग पर दावा वापस लेना होगा. तवांग वो जगह है जहां पांचवें दलाई लामा के निर्देश पर 17वीं शताब्दी में मशहूर बौद्ध विहार बना था.

चीन और अमेरिका के बीच बढ़ते तनाव के साथ तिब्बत नये शीत युद्ध की राजनीति के मुद्दे के तौर पर फिर से उभर रहा है. हाल के वर्षों में भारत ने तिब्बत का कार्ड खेलने की कोशिश की लेकिन उसे इसका असरदार इस्तेमाल करने का तरीका नहीं आता, लेकिन अमेरिका इन दोनों से हटकर थोड़ा अलग है और ये बात चीन और तिब्बत दोनों जानते हैं.

अंत में सावधानी के दो शब्द. सच ये है कि चीन और अमेरिका के बीच चल रही इस मुक़ाबले से सबसे ज़्यादा नुकसान अगर किसी को हुआ है तो वो तिब्बत के लोग हैं. और हम सिर्फ़ उम्मीद ही कर सकते हैं इस बार किस्मत उनका बेहतर साथ निभाए.

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