मुंबई में 26/11 को हुए आतंकी हमले की आठवीं सालगिरह देश की तटीय सुरक्षा की स्थिति की समीक्षा करने का एक उपयुक्त समय है। मुंबई में 26/11 को हुए आतंकी हमले की आठवीं सालगिरह देश की तटीय सुरक्षा की स्थिति की समीक्षा करने का एक उपयुक्त समय है। 2008 में मुंबई और पूरे देश के लिए दुर्भाग्यशाली साबित हुए इस दिन को पाकिस्तान के 10 आतंकी समुद्र के रास्ते मुंबई में दाखिल हुए थे। उन्होंने बड़े सार्वजनिक एवं व्यावसायिक केंद्रों पर हमले किए, 150 से अधिक लोगों की जानें ले लीं और भारत की राजनीतिक और सुरक्षा व्यवस्था को हिला कर रख दिया।
इन हमलों के बाद देश के तटीय रक्षा ढांचे में आमूल चूल परिवर्तन किया गया। एक तीन स्तरीय सुरक्षा व्यवस्था तैयार की गई और भारतीय नौसेना, तटीय सुरक्षा (कोस्टगार्ड) और समुद्री पुलिस पर संयुक्त रूप से भारत के समुदी क्षेत्र की सुरक्षा करने का उत्तरदायित्व सौंप दिया गया। एक प्रमुख एजेंसी के रूप में भारतीय नौसेना ने सबसे बाहरी स्तर की सुरक्षा करने का जिम्मा लिया। कोस्ट गार्ड को क्षेत्रीय समुद्र की 12 नॉटिकल मील तक की सीमा तक मध्यम स्तर की सुरक्षा पर नजर रखने को कहा गया जबकि समुद्री पुलिस को छिछले तटों एवं अंतःस्थलीय जलीय हिस्से वाले सबसे भीतरी हिस्से की सुरक्षा करने का दायित्व दिया गया।
वर्तमान तटीय सुरक्षा योजना (2005 में गठित) को और विस्तारित कर अधिक तटीय पुलिस स्टेशनों एवं निगरानी ढांचे का निर्माण करने की योजनाएं उसमें शामिल कर दी गईं। तटीय सुरक्षा के बजट में उल्लेखनीय बढोतरी की गई और अतिरिक्त श्रम बल, जहाजों, निगरानी केंद्रों और इंटरसेप्टर नौकाओं के लिए अधिक धनराशि जारी की गई। तटरक्षक एवं समुद्री पुलिस को मजबूत बनाने के अतिरिक्त, तटीय रेखा के साथ साथ राडार स्टेशनों की स्थापना की गई और स्वचालित पहचान प्रणालियां (आॅटोमैटिक आईडेंटिफिकेशन सिस्टम्स) स्थापित की गईं। संयुक्त संचालन केंद्रों (जेओसी) ने निकट के समुद्री क्षेत्रों में मैरीटाइम गतिविधियों की निगरानी आरंभ कर दी और तटीय समुद्र में किसी भी प्रकार की हरकत के संकेत का पता लगाने के लिए खुफिया नेटवर्कों का निर्माण किया गया। इसके अतिरिक्त, मछुआरों को भी भारत के तटीय स्थानों को सुरक्षित रखने के प्रयासों में सह-भागीदार बनने को कहा गया।
बहरहाल, अपनी शुरुआत के आठ वर्षों के बाद भी तटीय सुरक्षा परियोजना का काम लंबित ही पड़ा हुआ है। कुछ प्रमुख क्षेत्रों में सफलता के बावजूद, सुरक्षा तंत्र में बहुत सारी खामियां लगातार बनी हुई है। नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक (कैग) के हाल के दो आॅडिटों से पता चलता है कि वर्तमान ढांचे में ढेर सारी कमियां विद्यमान हैं जिससे हाल के वर्षों में मिले लाभ के बेअसर हो जाने की आशंका पैदा हो गई है। आॅडिट रिपोर्ट में गश्ती नौकाओं की क्षमता से कम उपयोग से लेकर तट आधारित बुनियादी ढांचे के निर्माण में देरी, श्रमबल की कमी और खर्च न हो पाई धनराशि तक भारत के निकट समुद्री क्षेत्रों में तटीय नीति निर्माण की निम्न स्थिति को रेखांकित किया गया। इसके अतिरिक्त, तटीय सुरक्षा में उल्लेखनीय संसाधन, ऊर्जा एवं पूंजी के निवेश के बावजूद नौसेना और तटरक्षक बल को इस कमी को पूरा करने में काफी संघर्ष करना पड़ता है।
समस्या की एक बड़ी वजह तटीय सुरक्षा व्यवस्था की विषम प्रकृति है जिसमें प्रत्येक मैरीटाइम एजेंसियों की प्राथमिकताओं में विशाल अंतर तथा प्रगति की उनकी अपनी व्याख्या शामिल है। समुद्री सुरक्षा की अंतर्निहित व्यापक दृष्टि के साथ भारतीय नौसेना महंगी पहलों को सुरक्षा ढांचे के अनिवार्य मूलभूत अंग के रूप में देखती है। अरब सागर एवं बंगाल की खाड़ी में होने वाले संयुक्त अभ्यासों से लेकर तटीय राडार श्रृंखलाओं की स्थापना, नेशनल कमांड एंड कंट्रोल कम्युनिकेशंस इंटेलीजेंस नेटवर्क (एन3सीआईएन) की स्थापना, मैरीटाइम डोमेन जागरुकता योजना एवं इंफाॅर्मेशन मैनेजमेंट एंड एनालिसिस सेंटर (आईएमएसी) तक, नौसेना उच्च स्तरीय उपक्रमों को तटीय परियोजना की सफलता के वास्तविक उपायों के रुप में देखती है। इसके अनुरुप, नौसेना के आॅपरेशनल कमांडर अक्सर तटीय सुरक्षा व्यवस्था रूपी गिलास को ‘आधा भरा’ या कहें कि अधूरा ही समझते हैं।
इसकी तुलना में, तटरक्षक अधिकारी वर्तमान स्थितियों को लेकर अधिक चैकन्ने हैं और प्रगति के बारे में आश्वस्त होने के खिलाफ आगाह करते हैं। वे सुरक्षा ढांचे -विशेष रूप से एजेंसियों के आपसी सहयोग में बेहतरी को स्वीकार करते हैं, पर साथ ही, सुरक्षा चुनौतियों की संरचनागत प्रकृति पर जोर भी देते हैं जिसके बारे में उनका मानना है कि इसका समाधान केवल उच्च-प्रौद्योगिकी आधारित प्रयासों के द्वारा ही नहीं किया जा सकता। उनका मत है कि तट के निकट की गश्ती दल की-विशेष रूप से समुद्री पुलिस की तटीय मछली पालन गतिविधियों पर निगरानी रखने में विफलता तथा साथ ही तटीय सुरक्षा श्रृंखला में पूरी तरह एकीकृत होने में उनकी अनिच्छा के कारण भी तटीय सुरक्षा असंतोषजनक बनी हुई है।
कुछ लोगों का मानना है कि समुद्री पुलिस का लचर प्रदर्शन राज्य सरकारों की तटीय सुरक्षा की दिशा में उनकी व्यापक उदासीनता का एक लक्षण है। वास्तव में, तमिलनाडु ( एलटीटीई के समुद्री लड़ाकों से संघर्ष का कुछ हद तक अनुभव रखने वाले इस एक राज्य) को छोड़कर किसी भी अन्य प्रशासन ने तटीय सुरक्षा की जरुरतों के प्रति उपयुक्त तरीके से प्रतिक्रिया नहीं जताई है।
लेकिन राज्य सरकारें तटीय गश्त करने में हिस्सा लेने में भी लगातार अपनी अनिच्छा जताती रही हैं। इस वर्ष के उत्तरार्ध में, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फड़नवीस ने एक तटीय सुरक्षा बैठक के दौरान एक केंद्रीय समुद्री पुलिस बल के गठन का प्रस्ताव रखा। बैठक में उपस्थित अन्य मुख्यमंत्रियों द्वारा अनुमोदित इस प्रस्ताव को केंद्रीय गृह मंत्री ने स्वीकार किया जो एक समर्पित तटीय सुरक्षा एजेंसी की आवश्यकता का लेकर दृढ़निश्चयी दिखे। फिर भी, हर व्यक्ति जो तटीय सुरक्षा से जुड़ा रहा है, यही बताएगा कि राज्य सरकारें तटीय सुरक्षा पहलों में एक महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं। राज्य-नियंत्रित समुद्री पुलिस की जगह एक केंद्रीय समुद्री बल की स्थापना करने की योजना अंतर्निहित रूप से अविवेकपूर्ण है क्योंकि यह स्थानीय खुफिया एवं स्थानीय भाषा कौशलों की कमी, जिसका सामना स्थापित होने वाली नई एजेंसी को करना पड़ सकता है, जैसी संरचनागत बाधाओं को नजरअंदाज करती है।
एक अन्य बड़ी विफलता किसी शीर्ष स्तरीय सामुद्रिक प्राधिकरण की लगातार कमी है। बड़ी संख्या में मैरीटाइम एजेंसियों (15 से अधिक) की भागीदारी को देखते हुए एक पूर्णकालिक तटीय सुरक्षा प्रबंधक की आवश्यकता है। हालांकि, सामुद्रिक एवं तटीय सुरक्षा को मजबूत बनाने के लिए गठित राष्ट्रीय समिति (एनसीएसएमसीएस) तटीय सुरक्षा से जुड़े मामलों को समन्वित करने में काफी कारगर रही है, लेकिन अधिक से अधिक यह केवल एक अस्थायी व्यवस्था भर है। बदकिस्मती से, एक राष्ट्रीय सामुद्रिक प्राधिकरण (एनएमए) के गठन से संबंधित तटीय सुरक्षा विधेयक 2013 से ही लालफीताशाही में फंसा हुआ है।
हम यहां यह संकेत देने का प्रयास नहीं कर रहे कि तटीय क्षेत्र में व्यवस्था का पूरी तरह अभाव है। हाल के वर्षों में तटीय क्षेत्रों में सुरक्षा की उपस्थिति में काफी इजाफा हुआ है और भारतीय तटरक्षक दल, तटीय सुरक्षा समूह, सीमाशुल्क एवं केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) की टीमों के बीच संयुक्त अभ्यासों में लगातार और उल्लेखनीय बढ़ोतरी देखने में आई है। इन अभ्यासों के बीच तटीय सुरक्षा व्यवस्था की ‘आंख एवं कान‘ के रूप में मशहूर मछुआरों के समुदायों को शामिल किया जाना एक उल्लेखनीय घटनाक्रम रहा है।
बहरहाल, अधिकांश आॅपरेशनल ड्रिल आतंकवादियों की घुसपैठ के खतरे पर ही फोकस करते प्रतीत हुए हैं। 26/11 जैसी घटना की पुनरावृत्ति होने से रोकने पर जोर देने की बात समझी जा सकती है, पर हथियारों एवं मादक द्रव्यों की तस्करी, मानव तस्करी, आईयूयू फिशिंग, जलवायु संबंधित संकटों एवं सामुद्रिक प्रदूषण पर अपेक्षाकृत कम ध्यान दिया जा रहा है। यह कुछ लोगों की गलतफहमी हो सकती है कि उपग्रह आधारित निगरानी समुद्र के निकट सभी प्रकार के संकटों को रोकने का इलाज है। परिचालनगत खुफिया जानकारी को साझा करने, विभिन्न प्रकार के संकटों से निपटने के लिए कर्मचारियों एवं जहाजों को भौतिक रूप से तैयार करने तथा मानव बुद्धिमत्ता से जुड़े स्रोतों को तत्परता से और नियमित रूप से खंगालते रहने की भी बेहद आवश्यकता है।
कुछ प्रमुख क्षेत्रों में, असहमतियां भी उभर कर सामने आई हैं। उदाहरण के लिए, ई-सर्विलेंस एवं नौका पहचान के लिए सुरक्षा एजेंसियों ने आॅनबोर्ड ट्रांसपोंडर्स के जरिये एकल फिशिंग बोट की सक्रियता से ट्रैकिंग किए जाने की वकालत की है। इसके उलट, राज्य सामुद्रिक बोर्ड अधिकारियों (उदाहरण के लिए गुजरात में) ने उपग्रह ट्रैकिंग प्रणालियों का समर्थन किया है। उपग्रह ट्रैकिंग प्रणालियों की वकालत हमेशा केवल संचालनगत कारणों से ही नहीं की जाती। जैसाकि कुछ सामुद्रिक पर्यवेक्षकों ने बताया है-राजनीतिक वर्ग मछुआरों के समुदायों के हितों की सुरक्षा की जरुरत से भी प्रेरित रहे हैं जो उनके मुख्य चुनावी वोटबैंक हैं। संभवतः मछुआरों को डर है कि सुरक्षा एजेंसियां आॅनबोर्ड ट्रांसपोंडर्स से प्राप्त संकेतों का उपयोग अक्सर उनकी अवैध मछली पालन गतिविधियों को ट्रैक करने में कर सकती हैं।
बहरहाल, नौसेना एवं तटसुरक्षा बल के लिए सबसे अच्छी बात उनकी बेहतरीन पारस्परिकता है। संचालनगत क्षेत्र में बेहतर समन्वय अन्य सामुद्रिक एजेंसियों-विशेष रूप से तटीय पुलिस के साथ उनके परस्पर तालमेल में भी परिलक्षित होता है। इस बीच, द्वारका (गुजरात) में राष्ट्रीय सामुद्रिक पुलिस प्रशिक्षण संस्थान एवं राज्य तथा संघ शासित प्रदेशों की पुलिस प्रशिक्षण अकादमियों में राज्य सामुद्रिक पुलिस प्रशिक्षण केंद्रों की स्थापना से भी तटीय क्षेत्रों में बेहतर नौसेना-सीजी-पुलिस समन्वय की संभावना बढ़ी है।
भारत की सामुद्रिक सुरक्षा एजेंसियां धीरे धीरे महसूस करने लगी हैं कि तटीय सुरक्षा का रूपांतरण एक जटिल और दीर्घकालिक मामला होगा। कई प्रकार की चुनौतियों और इससे विविध एजेंसियों के जुड़े रहने के कारण ‘सामान्य रूप से व्यापार‘ के माॅडल के सफल होने के आसार ज्यादा नहीं हैं। न केवल उन कमियों, जो प्रणाली को बाधित करती हैं, को सहयोग, समन्वय एवं विजन की एकरूपता की आवश्यकता है, बल्कि इससे जुड़े सभी प्रकार के प्रयासों को एकजुट करने की भी जरुरत है।
संभवतः बहुत हद तक मामला यही हो सकता है कि 26/11 के बाद से हम अगर सुरक्षित हैं, तो शायद इसकी एकमात्र वजह यही रही है कि हमें अभी तक किसी गंभीर संकट का सामना नहीं करना पड़ा है।
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