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भारत में कई लोगों को लगता है कि आतंकी गतिविधियों की जवाबदेही से पाकिस्तान को कूटनीतिक तौर पर बचाने के लिए चीन तरह तरह की पैंतरेबाज़ियों का सहारा लेता रहता है
लोकतांत्रिक शासन प्रणाली में विदेश नीति के निर्माण में युवा मत का काफ़ी प्रभाव होता है. वैसे तो आजीविका से जुड़ी चिंताएं सुरक्षा के मुक़ाबले ज़्यादा वज़न रखती हैं लेकिन सोशल मीडिया के प्रसार के चलते किसी राष्ट्र की विदेश नीति के बारे में युवा वर्ग अपने विचार प्रकट करने को लेकर मुखर हो गया है. ऐसे में युवा समाज एक नए दबाव समूह के तौर पर उभरा है जिसे देशों की सरकारें गंभीरता से लेने लगी हैं.
जैसा कि 20वीं सदी के शुरुआती दौर में दिखा था, एक बार फिर दुनिया में नई ताक़तें केंद्रीय स्थान पाने के लिए एक-दूसरे से होड़ लगा रही हैं. नतीजतन पुरानी विश्व व्यवस्था के सामने नई चुनौतियां पैदा हो गई हैं. निश्चित तौर पर प्रतिस्पर्धा अंतरराष्ट्रीय राजनीति की सबसे बड़ी ख़ासियत है. बहरहाल आज की हक़ीक़त ये है कि भूराजनीति के दो ध्रुव- चीन और अमेरिका उभरकर सामने आ रहे हैं. अभी एशिया के देश चीन के उभार से जुड़ी परिस्थितियों से दो-चार हो ही रहे थे कि अफ़ग़ानिस्तान के ग्रामीण इलाक़ों से काबुल में सत्ता की ऊंची कुर्सी तक तालिबान के “लंबी छलांग” ने सनसनी मचा दी है.
ओआरएफ़ के 2021 के “विदेश नीति सर्वेक्षण” में युवाओं और तर्क-वितर्क में महारत रखने वाले हिंदुस्तान का दिमाग़ पढ़ने की कोशिश की गई. सर्वे में पाया गया कि अर्थव्यवस्था को सुधारने के अलावा आतंकवाद से दो-दो हाथ करने की ज़रूरत उनके दिलोदिमाग़ में सबसे ऊपर थी. देश के युवा चाहते हैं कि भारत को चीन के साथ अपने मतभेदों का हल निकालना चाहिए. शायद युवाओं की इसी चाहत को पूरा करने के लिए नरेंद्र मोदी सरकार ने चीन के साथ बातचीत और जुड़ाव की नीति पर अमल करना शुरू किया था. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग के साथ वुहान और मामल्लपुरम में प्रधानमंत्री मोदी की शिखर वार्ताएं इसी क़वायद का प्रमाण हैं.
आज की हक़ीक़त ये है कि भूराजनीति के दो ध्रुव- चीन और अमेरिका उभरकर सामने आ रहे हैं. अभी एशिया के देश चीन के उभार से जुड़ी परिस्थितियों से दो-चार हो ही रहे थे कि अफ़ग़ानिस्तान के ग्रामीण इलाक़ों से काबुल में सत्ता की ऊंची कुर्सी तक तालिबान के “लंबी छलांग” ने सनसनी मचा दी है.
इनमें से हरेक सम्मेलन में अन्य मुद्दों के अलावा सीमा पर अमन-चैन के हालात को मज़बूत करने और आतंकवाद से निपटने पर ध्यान दिया गया. बहरहाल आतंक से निपटने को लेकर चीन ने अबतक सिर्फ़ ज़ुबानी जमाखर्च ही किया है. चीन ने जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अज़हर को सज़ा दिलवाए जाने से जु़ड़ी कोशिशों के रास्ते में लगातार रोड़े अटकाए हैं. ग़ौरतलब है कि कश्मीर में आत्मघाती बम हमले में 40 सुरक्षा बलों के जान गंवाने से जुड़े मामले में मसूद अज़हर और जैश ही मुख्य गुनहगार हैं. भारत में कई लोगों को लगता है कि आतंकी गतिविधियों की जवाबदेही से पाकिस्तान को कूटनीतिक तौर पर बचाने के लिए चीन लगातार तरह-तरह की पैंतरेबाज़ियों का सहारा लेता रहता है. दूसरी ओर अमेरिका और उसके साथियों द्वारा मसूद अज़हर को इंसाफ़ के कठघरे तक लाने की क़वायदों के प्रति भी भारत के लोगों का ध्यान गया है. हिंदुस्तान के साथ कई स्तरों पर जारी जुड़ावों के बावजूद चीनी रुख़ में बढ़ता विस्तारवाद 2017 में डोकलाम गतिरोध के तौर पर सामने आया. इसके साथ ही पूर्वी लद्दाख के अलग-अलग इलाकों में जब-तब चीनी फ़ौज द्वारा घुसपैठ और झड़पों की ख़बरें आती रही हैं. आख़िरकार इन झड़पों ने जून 2020 में गलवान घाटी में नरसंहार का रूप ले लिया. नतीजतन दोनों पक्षों के कई सैनिकों की जान चली गई. इन तमाम घटनाओं के चलते भारत में कई लोगों के मन में चीन के प्रति संदेहपूर्ण भावनाओं ने घर कर लिया है. लोग चीन के असली इरादों के प्रति शंकालु हो गए हैं. सर्वेक्षण में भी ये बात उभर कर सामने आई है. इसमें हिस्सा लेने वाले 77 प्रतिशत लोगों ने इस एकाधिकारवादी देश के प्रति “अविश्वास” जताया है. ऐसे में क्या चीन के प्रति भारतीय विदेश नीति में एक स्पष्ट और निर्णायक मोड़ बस आने ही वाला है?
वैसे तो भारतीय विदेश नीति की आस्था ‘गुटनिरपेक्षता’ के सिद्धांत पर रही है. बहरहाल मौजूदा परिस्थितियों में साउथ ब्लॉक के अधिकारी आगे इसी नीति पर टिके रहने की अनिवार्यता की नए सिरे से समीक्षा कर रहे हैं. मौजूदा सरकार की नई विदेश नीति का रुख़ अमेरिका के प्रति क़रीबी रखने वाला है. इतना ही नहीं एशिया में अमेरिका के मित्र देशों जैसे- जापान के साथ भी भारत की नज़दीकी बढ़ी है. अमेरिका और जापान के अलावा ऑस्ट्रेलिया के साथ भी भारत क्वॉड्रिलेट्रल (क्वॉड) गठजोड़ के ढांचे से जुड़ गया है. युवाओं के बीच हुए इस सर्वे से पता चलता है कि उसमें हिस्सा लेने वाले 60 प्रतिशत प्रतिभागी तेज़ी से उभरते चीन की वजह से गुटनिरपेक्षता की नीति को त्यागने के पक्ष में हैं. दरअसल चीन के प्रति मोदी के रुख़ को सर्वे में शामिल तक़रीबन 80 प्रतिशत प्रतिभागियों ने बिल्कुल सही ठहराया है. इतने ही प्रतिशत लोग आगे आने वाले दशक के संदर्भ में अमेरिका को भारत के मुख्य साथी के तौर पर देखते हैं. इतना ही नहीं लद्दाख की ज़मीन पर चीन द्वारा कब्ज़े की कोशिशें मोदी-शी के बीच पहले वुहान और बाद में मामल्लपुरम में हुई शिखर वार्ताओं के बाद सामने आईं. इससे लद्दाख में चीन की साज़िशों और चोरी-छिपे आक्रामकता दिखाने के स्वभाव का पर्दाफ़ाश हुआ. धोखेबाज़ी और झांसा देने की चीन की प्रवृति खुलकर सामने आ गई. चीन पर आईएफ़पी सर्वे के नतीजों को बीजिंग की इन्हीं दोहरी नीतियों और चालबाज़ियों से भरे बर्तावों के संदर्भ में देखने की ज़रूरत है.
भारत में कई लोगों के मन में चीन के प्रति संदेहपूर्ण भावनाओं ने घर कर लिया है. लोग चीन के असली इरादों के प्रति शंकालु हो गए हैं. सर्वेक्षण में भी ये बात उभर कर सामने आई है. इसमें हिस्सा लेने वाले 77 प्रतिशत लोगों ने इस एकाधिकारवादी देश के प्रति “अविश्वास” जताया है.
बहरहाल हिमालय की ऊंचाइयों पर स्थित भारत-चीन सरहद पर जमी बर्फ़ में थोड़ी-बहुत पिघलन दिखाई दे सकती है. भारत-चीन के बीच तनाव में कमी महसूस भी की जा रही है लेकिन देपसांग जैसे इलाक़ों में तनातनी और टकराव अब भी जारी है. चीनी टुकड़ियां यहां भारतीय फ़ौजी गश्त को जब-तब रोकने की कोशिशें करती रहती हैं. ऐसे में दोनों देशों के बीच के रिश्ते पर एक बार फिर से काले बादल मंडराते नज़र आते हैं. सर्वे में शामिल 80 प्रतिशत से ज़्यादा प्रतिभागियों का विचार है कि चीन के साथ सीमा पर जारी तनाव से जुड़ी चुनौती पाकिस्तान के साथ विवादों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा गंभीर है. इन परिस्थितियों में भारतीय युवा के मिज़ाज में किसी तरह का बदलाव आने के आसार बेहद कम हैं.
सर्वे में शामिल 80 प्रतिशत से ज़्यादा प्रतिभागियों का विचार है कि चीन के साथ सीमा पर जारी तनाव से जुड़ी चुनौती पाकिस्तान के साथ विवादों के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा गंभीर है. इन परिस्थितियों में भारतीय युवा के मिज़ाज में किसी तरह का बदलाव आने के आसार बेहद कम हैं.
इसके विपरीत अमेरिका और भारत के रिश्तों में तालमेल और एक दूसरे की तरफ़ झुकाव बढ़ने की पूरी पूरी संभावना मौजूद है. अफ़ग़ानी सत्ता के तालिबान के हाथों में चले जाने के बाद जिस तरह से चीन और पाकिस्तान के रिश्तों के और गहरे होने के आसार हैं, उसी प्रकार भारत और अमेरिका के संबंधों के भी और ज़्यादा मज़बूत बनकर उभरने की संभावना है. इस वक़्त सामरिक मोर्च पर इस तरह की कई संचालन शक्तियां काम कर रही हैं. ऐसे में भविष्य में नई परिस्थितियां उभरेंगी और सामरिक मोर्चे पर नया प्रवाह देखने को मिलेगा. बहरहाल इस तरह के बदलाव विदेश नीति से जुड़े सर्वेक्षण में चीन के प्रति भारतीय युवाओं के रुझान को लेकर हासिल आंकड़ों की या तो बेहद बारीकी से पुष्टि करते हैं या फिर उन्हें बल प्रदान करते हैं. भारत और अमेरिका के बीच सामरिक मोर्चे पर बढ़ते मेलजोल के अलावा आगे चलकर क्वाड्रिलेट्रल व्यवस्था या क्वॉड को भी मज़बूती मिलने की पूरी संभावना है. क्वॉड समूह में अमेरिका, भारत, जापान और ऑस्ट्रेलिया शामिल हैं. भारत के ख़िलाफ़ चीन सरहदों और भूक्षेत्रों से जुड़े अपने संशोधनवादी एजेंडे पर अड़ा है. हिंद महासागर क्षेत्र (आईओआर) में चीनी नौसेना की मौजूदगी बढ़ती जा रही है. इसके अलावा पाकिस्तान के साथ चीन की सामरिक साठ-गांठ का मुद्दा भी अहम है. ये तमाम मसले भारत और चीन के बीच तल्ख़ियों और कड़वाहटों की वजह बनते रहेंगे. चीन के प्रति भारतीय शत्रुता को ये तमाम मसले और पक्का कर देते हैं. सौ बात की एक बात ये है कि विदेश नीति सर्वे में अंतरराष्ट्रीय संबंधों को लेकर युवाओं के नज़रिए और रुझानों का बड़ी बारीकी से खाका तैयार किया गया है. ये दस्तावेज़ विदेश नीति के संदर्भ में संभावित बदलावों की अगुवाई कर सकता है.
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Kalpit A Mankikar is a Fellow with Strategic Studies programme and is based out of ORFs Delhi centre. His research focusses on China specifically looking ...
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