-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
यूरोपीय देशों को भारत जैसे एक ऐसे सहयोगी की दरकार है, जो समग्र विकास का हिमायती हो. भारत ने भी साफ कर दिया है कि पश्चिम की प्राथमिकताओं में उसकी भागीदारी है........................
जिस समय यूक्रेन संकट को लेकर नई दिल्ली और पश्चिमी देशों के बीच सतही तौर पर मतभेद दिख रहे हैं, तब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का जर्मनी, डेनमार्क व फ्रांस का दौरा मुनादी कर रहा है कि भारत और यूरोप अपने सामरिक संबंधों को बेपटरी करने के बजाय उसकी मजबूती के पक्षधर हैं. यह तय था कि तीनों देशों में यूक्रेन मुद्दे को उठाया जाएगा और ऐसा हुआ भी, लेकिन भारत ने स्पष्ट कर दिया कि वह भले सार्वजनिक तौर पर रूस की निंदा नहीं कर रहा, लेकिन वह मानता है कि इस युद्ध से सभी देशों को नुक़सान होगा और भारतीय हितों को भी चोट पहुंचेगी. संभवत: इसीलिए प्रधानमंत्री ने कहा कि इस जंग में कोई विजेता बनकर नहीं उभरेगा, और भारत जैसे देशों को, जो स्थिर वैश्विक अर्थव्यवस्था और अपने लोगों की आर्थिक ख़ुशहाली के हिमायती हैं, इस लड़ाई में नुक़सान उठाना होगा. मतलब साफ था कि हम इस युद्ध को किसी तरह से जायज नहीं मानते और कूटनीति व बातचीत के ज़रिये इसका समाधान चाहते हैं.
हम इस युद्ध को किसी तरह से जायज नहीं मानते और कूटनीति व बातचीत के ज़रिये इसका समाधान चाहते हैं.
प्रधानमंत्री मोदी की तीन दिवसीय यात्रा जर्मनी से शुरू हुई. दूसरे विश्व युद्ध के बाद अपने कदम को पीछे खींचने वाला जर्मनी एक बार फिर ख़ुदको एक बड़ी तक़कत के रूप में खड़ा करना चाहता है. जर्मनी की इस मुखरता का फायदा भारत को हो सकता है. फिर, जर्मनी उन देशों में से एक है, जिसने हिंद प्रशांत क्षेत्र को लेकर अपनी रणनीति बनाई है. चूंकि यूरोपीय देश इस क्षेत्र को काफी अहम मानते हैं, इसलिए हिंद प्रशांत में आपसी समन्वय को लेकर भारत और जर्मनी की सहमति इस यात्रा की एक बड़ी उपलब्धि मानी जाएगी. जर्मनी यूरोपीय संघ का भी एक अहम देश है, इसलिए वह इसको नीतिगत आकार देने की क्षमता रखता है, जिसका लाभ भारत को हो सकता है.
जर्मनी के साथ हमने ‘माइग्रेशन ऐंड मोबिलिटी पार्टनरशिप’ समझौता भी किया, ताकि आईटी पेशेवरों को इसका लाभ मिल सके. दोनों देशों को इसकी सख्त ज़रुरत थी, क्योंकि जर्मनी तेजी से बुजुर्ग होती आबादी वाला देश है और उसको पेशेवर नौजवानों की ज़रुरत है, जबकि भारत अपनी सेवा का दायरा बढ़ाना चाहता है.
यहां महत्वपूर्ण यह भी है कि जर्मनी की नई सरकार ने अंतर–सरकारी परामर्श की जो पहली बैठक की, उसमें एक बार फिर नई दिल्ली की अहमियत स्वीकार की गई. भारत और जर्मनी, दोनों देश रूस पर निर्भरता को लेकर भी एकमत हैं. जहां जर्मनी बहुतायत में तेल और गैस रूस से मंगाता है, तो वहीं हमारे ज़्यादातर रक्षा उत्पाद मास्को से आते हैं. यह समानता दोनों देशों के हित में है. इसके अलावा, दोनों देश जलवायु परिवर्तन से जुड़े मसलों पर भी आपसी सहयोग बढ़ाने को इच्छुक दिखे. जर्मनी के साथ हमने ‘माइग्रेशन ऐंड मोबिलिटी पार्टनरशिप’ समझौता भी किया, ताकि आईटी पेशेवरों को इसका लाभ मिल सके. दोनों देशों को इसकी सख्त ज़रुरत थी, क्योंकि जर्मनी तेजी से बुजुर्ग होती आबादी वाला देश है और उसको पेशेवर नौजवानों की ज़रुरत है, जबकि भारत अपनी सेवा का दायरा बढ़ाना चाहता है. जाहिर है, इस समझौते के दूरगामी परिणाम होंगे और जर्मनी के साथ हमारा ‘पीपुल–टु–पीपुल’ रिश्ता मजबूत होगा.
प्रधानमंत्री का अगला पड़ाव डेनमार्क था, जहां दो चीजें महत्वपूर्ण घटित हुईं. पहली, पिछले कुछ वर्षों में हमारी दोस्ती घनिष्ठ हुई है और द्विपक्षीय कूटनीतिक सहयोग भी तेजी से आगे बढ़े हैं. वहां प्रवासी भारतीयों का एक बड़ा तबका बसता है, जिसको प्रधानमंत्री ने संबोधित भी किया. जलवायु परिवर्तन और प्रौद्योगिकी संबंधी नवाचारों को लेकर डेनमार्क के साथ हमारे जो समझौते हैं, उनको आगे बढ़ाने की कोशिश इस यात्रा में हुई. अक्षय ऊर्जा में भी डेनमार्क की तकनीक काफी उन्नत मानी जाती है. ऐसे में, यह भारत जैसे देश के लिए अहम है कि वह डेनमार्क के साथ मिलकर आगे बढ़े. प्रधानमंत्री ने ठीक यही करने का प्रयास किया.
जलवायु परिवर्तन और प्रौद्योगिकी संबंधी नवाचारों को लेकर डेनमार्क के साथ हमारे जो समझौते हैं, उनको आगे बढ़ाने की कोशिश इस यात्रा में हुई. अक्षय ऊर्जा में भी डेनमार्क की तकनीक काफी उन्नत मानी जाती है. ऐसे में, यह भारत जैसे देश के लिए अहम है कि वह डेनमार्क के साथ मिलकर आगे बढ़े.
दूसरी बात ‘नॉर्डिक’, यानी उत्तरी यूरोपीय देशों से जुड़ी है, जिनके साथ भारत ने डेनमार्क को केंद्र में रखकर वार्ता की. इन देशों में डेनमार्क के अलावा नॉर्वे, स्वीडेन, फिनलैंड और आइसलैंड शामिल थे. नॉर्डिक देशों को हम अपनी विदेश नीति में बहुत ज़्यादा अहमियत नहीं देते थे, लेकिन इंडिया-नॉर्डिक कौंसिल की इस दूसरी बैठक में भारत ने संजीदगी से भागीदारी की. यह बताता है कि नई दिल्ली अब क्षेत्रीय नजरिये को तवज्जो देने लगी है. ऐसा करना इसलिए भी ज़रुरी था, क्योंकि इन सभी की प्राथमिकताएं एक हैं और तकनीकी क्षमता भी कमोबेश समान.
रही बात फ्रांस की, तो वह हमारा एक सबसे अहम कूटनीतिक सहयोगी है. यूक्रेन मसले पर भी दोनों देशों के रुख समान हैं. आज नरेंद्र मोदी और इमैनुएल मैक्रों ही ऐसे नेता हैं, जो व्लादिमीर पुतिन से सीधे फोन पर बात कर सकते हैं. दोनों देश मानते हैं कि रूस के साथ बातचीत के रास्ते खुले रहने चाहिए, इसलिए भारत और फ्रांस का अंतरराष्ट्रीय राजनीति को लेकर नजरिया काफी अहम माना गया है. अच्छी बात यह रही कि दोनों देश अपने–अपने रुख पर टिके रहें. प्रधानमंत्री मोदी ने यह भी संकेत दिया कि मैक्रों की फिर से ताजपोशी भारतीय विदेश नीति के लिए सुखद है और इससे द्विपक्षीय रिश्तों में कहीं ज़्यादा गरमाहट आएगी.
नॉर्डिक देशों को हम अपनी विदेश नीति में बहुत ज़्यादा अहमियत नहीं देते थे, लेकिन इंडिया-नॉर्डिक कौंसिल की इस दूसरी बैठक में भारत ने संजीदगी से भागीदारी की. यह बताता है कि नई दिल्ली अब क्षेत्रीय नजरिये को तवज्जो देने लगी है.
कुल मिलाकर, तीन मुद्दे ऐसे रहे, जिनसे इस यात्रा की अहमियत समझी जा सकती है. पहला, यूक्रेन के मसले पर भारत का रुख कहीं ज़्यादा स्पष्ट तरीके से ध्वनित हुआ. फ्रांस और जर्मनी यूरोप के महत्वपूर्ण देश हैं, और दोनों जगहों पर भारत ने अपना पक्ष रखा. इससे यूरोपीय संघ की नीतियां भी प्रभावित हो सकती हैं. दूसरा, यूरोपीय देश हिंद प्रशांत क्षेत्र को एक अहम केंद्र मानते हैं और यहां अपनी मौजूदगी बढ़ाना चाहते हैं. ख़ासकर चीन को लेकर उनकी शंकाएं भारत के लिए मुफीद हैं, जिसका फायदा प्रधानमंत्री मोदी ने उठाया भी. यूरोपीय देशों को एक ऐसे सहयोगी की दरकार है, जो समग्र विकास का हिमायती हो, न कि सिर्फ अपनी तरक्की का. भारत ने इसमें अपनी भूमिका स्पष्ट की है. भारत ने यह भी साफ कर दिया कि पश्चिम की प्राथमिकताओं में उसकी भी भागीदारी है, ख़ासकर जलवायु परिवर्तन से जुड़े मुद्दों में.
जाहिर है, भारत के पास ढेरों अवसर हैं, और शायद ही वह इनमें चूकना चाहेगा. इसमें यूरोपीय देशों का साथ कितना अहम है, यही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दौरे में जाहिर किया.
तीसरा मसला है, आपसी सामंजस्य बढ़ाना, विशेषकर सुरक्षा, हिंद प्रशांत, जलवायु परिवर्तन, वैश्विक व्यवस्था आदि से जुड़े मुद्दों पर. एक वक्त था, जब भारत और इन देशों के बीच खाई थी, लेकिन आज न सिर्फ यह खाई पट चुकी है, बल्कि आपसी रिश्तों में एक गति भी आ गई है. जाहिर है, भारत के पास ढेरों अवसर हैं, और शायद ही वह इनमें चूकना चाहेगा. इसमें यूरोपीय देशों का साथ कितना अहम है, यही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने दौरे में जाहिर किया.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Professor Harsh V. Pant is Vice President – Studies and Foreign Policy at Observer Research Foundation, New Delhi. He is a Professor of International Relations ...
Read More +