Author : Malcolm Davis

Published on Oct 25, 2021 Updated 0 Hours ago

अंतरिक्ष में सैन्य शक्ति का भी संबंधित क्षेत्रों जैसे कि तैनाती, नैविगेशन और सटीक समय (PNT) से जुड़ी सेवाओं का काफ़ी विस्तार हो गया है. ये सेवाएं वैश्विक नैविगेशन सैटेलाइट सिस्टम, उपग्रह दूरसंचार और अंतरिक्ष आधारित खुफियागिरी, निगरानी, जासूसी और निशाना साधने में काफ़ी मददगार साबित हो रही हैं. (Excerpt)

अंतरिक्ष में युद्ध लड़ना: जोख़िमों से निपटना और अंतरिक्ष के सशस्त्रीरण से बचने के मौक़ों का लाभ उठाना

अंतरिक्ष, सैन्य शक्ति वाला क्षेत्र बन गया है और ऐसा तब से ही है जब से अंतरिक्ष युग की शुरुआत हुई थी. तब दोनों ही महाशक्तियों ने ज़मीन पर सैन्य अभियान चलाने और ख़ास तौर से परमाणु हथियारों को निर्देश देने और नियंत्रित करने के लिए अंतरिक्ष में सैटेलाइट तैनात किए थे. आज के दौर में ज़मीनी सेनाओं की अंतरिक्ष की क्षमताओं से मिलने वाले सहयोग पर निर्भरता काफ़ी बढ़ गई है. इससे अंतरिक्ष में सैन्य शक्ति का भी संबंधित क्षेत्रों जैसे कि तैनाती, नैविगेशन और सटीक समय (PNT) से जुड़ी सेवाओं का काफ़ी विस्तार हो गया है. ये सेवाएं वैश्विक नैविगेशन सैटेलाइट सिस्टम, उपग्रह दूरसंचार और अंतरिक्ष आधारित खुफियागिरी, निगरानी, जासूसी और निशाना साधने में काफ़ी मददगार साबित हो रही हैं.

साफ लहज़े में कहें, तो आधुनिक सैन्य ताक़तें अंतरिक्ष से मिलने वाले सहयोग के बिना न तो युद्ध लड़ सकती हैं और न ही जीत सकती हैं. अगर उन्हें अंतरिक्ष के ज़रिए मिलने वाला सहयोग बंद हो जाए, तो सेनाओं के लिए युद्ध लड़ना बहुत मुश्किल हो जाएगा और फिर, जंग के मोर्चे पर उन्हें हार का सामना करना पड़ेगा. अंतरिक्ष की क्षमताओं के बग़ैर अगर सेनाओं को जीत हासिल भी होती है तो उसके लिए बहुत ख़ून और पैसा बहाना पड़ेगा.

यही वजह है कि दुनिया की सभी बड़ी ताक़तें- ख़ास तौर से चीन, रूस, भारत और अमेरिका या तो अंतरिक्ष में दुश्मन से निपटने की क्षमताएं नाटकीय रूप से विकसित कर चुके हैं या फिर उसके मुहाने पर खड़े हैं. वो अंतरिक्ष में उच्च स्तर की एंटी सैटेलाइट क्षमताओं (ASAT) से लैस हो चुके हैं. अंतरिक्ष में दुश्मन का सामना करने की ताक़त विकसित करने में काफ़ी फ़ायदे हैं क्योंकि इन्हें अंतरिक्ष से मिलने वाले अहम सहयोग को हासिल करने में इस्तेमाल किया जा सकता है. ऐसा करके कोई भी देश रणनीतिक और अभियान के स्तर पर, दुश्मन के ऊपर निर्णायक बढ़त हासिल कर सकता है.

चीन और रूस ने अंतरिक्ष में मुक़ाबले से जुड़ी कई तरह की क्षमताओं वाली तकनीकों का प्रदर्शन किया है. इसमें ज़मीन से निशाना साधकर अंतरिक्ष में किसी सैटेलाइट को मार गिराने की चीन की क्षमता, धरती की निम्न कक्षा (Low Earth Orbit) में जोखिम के साथ उपग्रह तैनात करना और भूस्थैतिक कक्षा (Geosynchronous Orbit) में दुश्मन के सैटेलाइट को मार गिराने की ताक़त शामिल है. भारत ने भी दुश्मन के उपग्रह को अंतरिक्ष में मार गिराने (ASAT) की अपनी शक्ति का प्रदर्शन किया है. चीन, रूस और अमेरिका ने अंतरिक्ष में एक ही कक्षा में चक्कर लगा रहे दुश्मन के उपग्रह को बेहद क़रीब से मार गिराने की अपनी क्षमताओं का प्रदर्शन किया है. इससे सैटेलाइट की सॉफ्ट किलिंग होती है. यानी उन्हें निष्क्रिय या नुक़सान पहुंचाया जाता है. पूरी तरह से ख़त्म नहीं किया जाता. इन तीनों ही देशों के पास ज़मीन से चलाई जाने वाली अंतरिक्ष निरोधक व्यवस्थाएं हैं. जैसे कि अपलिंक और डाउनलिंक को जाम करना या फिर लेज़र से चकाचौंध करने की क्षमता, जो चीन के पास है. आख़िर में उपग्रहों या उनका नियंत्रण करने वाली ज़मीन पर मौजूद अंतरिक्ष की सुविधाओं पर साइबर हमले का ख़तरा भी काफ़ी बढ़ गया है.

अंतरिक्ष में मुक़ाबला करने की क्षमता में ज़बरदस्त इज़ाफ़े और अंतरिक्ष में अभियान चलाने की राह मे बढ़ते ख़तरे को देखते हुए, अंतरिक्ष भी जल्द ही युद्ध का मैदान बनने वाला है. इसी वजह से बड़ी और मध्यम दर्ज़े की ताक़तें अंतरिक्ष के क्षेत्र में संगठनात्मक बदलाव कर रही हैं. अंतरिक्ष के अभियानों में तेज़ी से हो रहे बदलाव से निपटने के लिए कई देश ‘अंतरिक्ष बलों’ का गठन कर रहे हैं. वर्ष 2018 में ट्रंप प्रशासन द्वारा अमेरिकी स्पेस फ़ोर्स का गठन किया गया था. लेकिन चीन ने उससे पहले ही 2015 में PLA स्ट्रैटेजिक सपोर्ट फ़ोर्स (PLASSF) का गठन कर लिया था और 2016 में रूस ने भी अपनी एरोस्पेस फ़ोर्स बना ली थी. अब ऑस्ट्रेलिया भी वर्ष 2022 तक रॉयल ऑस्ट्रेलियन एयरफ़ोर्स मुख्यालय के भीतर एक ‘स्पेस डिविज़न’ बना रहा है. वहीं, ब्रिटेन ने भी इसी साल अपनी स्पेस कमांड की स्थापना कर ली है. जापान ने भी अपने सैटेलाइट को कचरे और विरोधी गतिविधियों से बचाने के लिए अंतरिक्ष स्क्वॉड्रन बना ली है.

ये सुनकर साफ़ हो जाता है कि बड़ी ताक़तें इस आधार पर अपनी ताक़त बढ़ा रही हैं कि आगे चलकर अंतरिक्ष ही युद्ध का सबसे बड़ा मोर्चा बनने वाला है. जोखिम इस बात का है कि सुरक्षा संबंधी दुविधाएं सभी देशों को तेज़ी से सशस्त्रीकरण के लिए मजबूर करेंगी, जिससे संघर्ष और अस्थिरता का जोखिम बढ़ता जाएगा ख़ास तौर से जब किसी संघर्ष से पहले कक्षा में टकराव के ‘विवादित इलाक़ों’ का ख़तरा हो. अंतरिक्ष में युद्ध की ओर तेज़ी से आगे बढ़ने का डर वास्तविक है, और अब तक बड़ी ताक़तों की ओर से ऐसी कोई कोशिश होती नहीं दिख रही है, जिससे हम ढलाव पर लुढ़कने से रुक सकें.

1968 की आउटर स्पेस ट्रीटी (OST) अंतरिक्ष से जुड़े क़ानूनों और अंतरिक्ष में बढ़ती हथियारों की होड़ रोकने की कोशिशों का मुख्य आधार है. ये संधि साफ़ तौर पर कहती है कि अंतरिक्ष में बड़े पैमाने पर तबाही मचाने वाले हथियार नहीं तैनात किए जा सकते हैं. लेकिन, ये संधि अंतरिक्ष के लिए ग़ैर एटमी हथियारों के विकास, परीक्षण और तैनाती पर किसी तरह की रोक नहीं लगाती. इसके अलावा, ‘अंतरिक्ष का हथियार’ क्या है, इसे परिभाषित करना भी लगातार मुश्किल होता जा रहा है. साइबर हमले और सैटेलाइंट लिंक को जाम करने जैसे क़दम तो कोई ग़ैर सरकारी संगठन भी उठा सकता है. ऐसे नापाक क़दम धरती पर बैठे-बैठे उठाए जा सकते हैं. यहां तक कि किसी सैटेलाइट का नियंत्रण अपने हाथ में लेकर अधकचरे एंटी सैटेलाइट हमलों को भी अंजाम दिया जा सकता है.

आज के दौर के सैन्य बल बिना अंतरिक्ष के न युद्ध लड़ सकते हैं और न ही जीत सकते हैं. ज़मीन पर जंग लड़ने वाली सेनाओं से अगर अंतरिक्ष से मिलने वाले अहम सहयोग को छीन लिया जाए, तो अचानक से होने वाले सैन्य हमलों और फिर हार का ख़तरा काफ़ी बढ़ जाता है.

संयुक्त राष्ट्र महासभा का प्रस्ताव 75/36 अंतरिक्ष में ज़िम्मेदारी भरे बर्ताव को परिभाषित करता है. ये प्रस्ताव अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ रोकने की सबसे ताज़ा कोशिश है. दिसंबर 2020 में इस प्रस्ताव को ब्रिटेन की सरकार ने सामने रखा था. ये किसी भी देश के लिए मानना अनिवार्य नहीं है. लेकिन, इस प्रस्ताव के ज़रिए ज़िम्मेदारी भरा बर्ताव सुनिश्चित करने के लिए और अधिक कूटनीतिक प्रयास करने की राह खोलता है, जिससे अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ लगाने को और भी मुश्किल बनाया जा सके. इस प्रस्ताव ने एक ऐसी प्रक्रिया की शुरुआत की है, जिससे किसी सैटेलाइट को सीधे तौर पर निशाना बनाकर तबाह करने पर रोक लगाने का बाध्यकारी प्रस्ताव पारित किया जा सके. लेकिन, इसकी राह में भी कई चुनौतियां हैं. क्योंकि ऐसी क्षमता क्या होती है, इसकी परिभाषा स्पष्ट नहीं है. कारण ये है कि बैलिस्टिक मिसाइल डिफेंस (BMD) के इंटरसेप्टर में ये ताकत होती है कि वो एंटीसैटेलाइट हथियारों के तौर पर इस्तेमाल किए जा सकें. 2008 में अमेरिका ने अपने ऑपरेशन बर्न्ट फ़्रॉस्ट में ऐसा करके भी दिखाया था. किसी भी समझौते की पुष्टि करना, उसकी निगरानी और उसे लागू करने का तरीक़ा भी अस्पष्ट है.

इन चुनौतियों से निपटने का अंतिम समाधान ये हो सकता है कि एक तरफ़ तो अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं जैसे कि कोपुओस (COPUOUS) के ज़रिए बेहतर और नए अंतरिक्ष क़ानून और नियामक सुधार किए जाएं और इसके साथ अंतरिक्ष में लचीलापन लाकर किसी भी ख़तरे से निपटने की ताक़त बढ़ाई जाए. इससे ये होगा कि उपग्रहों की क्षमता बढ़ाकर अंतरिक्ष की अहम क्षमताओं पर हमले का ख़तरा कम किया जा सके. इसके अलावा अंतरिक्ष से मिलने वाले अहम सहयोग के काम को छोटे-छोटे सैटेलाइट के ज़रिए अन्य अहम अंतरिक्ष सेवाओं से अलग किया जाए और अंतरिक्ष की ताक़त बढ़ाने की रफ़्तार को नए सिरे से गठित किया जाए, जिसमें रक्षात्मक और पलटवार करने की क्षमताएं शामिल हों. इसका मक़सद ये होगा कि दुश्मन के फ़ैसले लेने के समीकरण को इस तरह प्रभावित किया जाए कि उसके लिए एंटी सैटेलाइट हथियारों का इस्तेमाल उपयोगी ही न रह जाए, क्योंकि इन हथियारों का इस्तेमाल उसकी नज़र में बेअसर होगा. क्योंकि, दुश्मन को ये अंदाज़ा होगा कि ऐसे हमले के बदले उसे भारी कूटनीतिक, राजनीतिक और सैन्य क़ीमत चुकानी पड़ेगी.

अंतरिक्ष में दुश्मन में भय पैदा करने वाली क्षमता होने से एक बात ये भी होगी कि दुश्मन अपनी पहचान नहीं छुपा सकेगा. अगर अंतरिक्ष के क्षेत्र में जागरूकता को धरती और ख़ुद अंतरिक्ष में निगरानी के ज़रिए बढ़ावा दिया जाए, तो आक्रामक गतिविधि करने वाले किसी भी देश को पकड़ा जा सकेगा. अंतरिक्ष में अस्पष्ट क्षेत्र की गतिविधियां रोकने के लिए तो ये बात और भी अहम हो जाती है. अंतरिक्ष के क्षेत्र के प्रति जानकारी बढ़ाने और ‘फ़ाइव आईज़’ और जर्मनी व फ्रांस जैसे देशों के बीच कम्बाइंड स्पेस ऑपरेशन इनिशिएटिव (CSpO) जैसे कूटनीतिक समझौतों से अंतरिक्ष की गतिविधियों की जानकारी साझा करने में मदद मिलती है. इससे दुश्मन को अपनी ताक़त का एहसास दिलाने में मदद मिलेगी.

अंतरिक्ष में हथियारों की तेज़ हो रही होड़ को तुरंत रोकने का कोई एक कारगर नुस्खा नहीं है. हमारी अच्छी से अच्छी कोशिशों के बावजूद भी, हो सकता है कि अगले युद्ध अंतरिक्ष का क्षेत्र जंग का मोर्चा बन जाए. सबसे अच्छा रास्ता तो यही होगा कि अंतरिक्ष में मुक़ाबले की क्षमताएं विकसित करके किसी भी संभावित बड़ी ताक़त के लिए ऐसा युद्ध छेड़ने का जोखिम और क़ीमत बढ़ाई जाए. इसके साथ-साथ अंतरिक्ष के क़ानूनों को असरदार तरीक़े से लागू करने के लिए प्रयास किए जाने चाहिए. जिससे कि इन नियमों को तोड़ने वाले देश को भारी अहम कूटनीतिक, राजनीतिक और यहां तक कि आर्थिक क़ीमत चुकाने का डर हो और वो ज़िम्मेदारी भरा बर्ताव करे. भय और कूटनीतिक प्रयासों के बीच ये तालमेल ही अंतरिक्ष को जंग का नया मैदान बनाने से रोक सकता है.

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