भारत की विदेश सेवा के पूर्व अधिकारियों के बीच एक बहस छिड़ी हुई है. ये बहस इस बात की अच्छी मिसाल है कि भारत का अधिकारी वर्ग विदेश नीति के बारे में क्या सोचता है, और हमारी विदेश नीति में असली गड़बड़ी क्या है. जिस बात पर ये ‘बहस छिड़ी’ हुई है उसका विदेश नीति के सिद्धांतों के ज़्यादा संबंध घरेलू राजनीति से है. अफ़सोस की बात ये है कि विदेश नीति के मसले पर दोनों ही पक्षों के विचारों में बेहद कम समानता दिख रही है. अधिक बुनियादी तौर पर कहें तो ऐसा लगता है कि, ये बहस इस बात को स्वीकार करती है कि वास्तविक ताक़त के बजाय विचारों की अहमियत ज़्यादा है. भारत को किन विचारों के लिए खड़ा होना चाहिए, इसे लेकर चल रही अंतहीन बहस से उन बुनियादी प्रश्नों पर पर्दा डालने का काम हो रहा है कि हमें विचारों पर अधिक ज़ोर देना चाहिए या बाहरी ताक़तों पर प्रभाव डालने के लिए अपनी वास्तविक शक्ति बढ़ाने पर ज़ोर देना चाहिए.
ये बहस इस बात को स्वीकार करती है कि वास्तविक ताक़त के बजाय विचारों की अहमियत ज़्यादा है. भारत को किन विचारों के लिए खड़ा होना चाहिए.
इस बहस में उलझे दोनों ही पक्ष विचारों के अलग अलग प्रतिरूपों को आगे बढ़ा रहे हैं. उनके हिसाब से इन विचारों को ही भारत की विदेश नीति के मार्गदर्शक बनना चाहिए. ऐसा करके दोनों ही पक्ष ये मानकर चल रहे हैं कि विदेश नीति में विचारों को स्वायत्त रूप से महत्ता हासिल है. इस तरह वो वास्तविक कारकों की अनदेखी कर रहे हैं. बहस में उलझे विदेश सेवा के ये पूर्व अधिकारी जिस हद तक आर्थिक शक्ति का हवाला दे रहे हैं, वो केवल इसलिए दे रहे हैं कि उनके विरोधी अपने विचारों को मज़बूती देने के लिए आर्थिक शक्ति की ताक़त नहीं दे पा रहे हैं. लेकिन, ये तर्क भी तुरंत पीछे छोड़ दिया जाता है, जब बात अन्य विचारों यानी ख़ुद उनके विचारों की आती है, और उनके हिसाब से जिनके लिए भारत को खड़ा होना चाहिए. इसीलिए इस बात की आलोचना बिल्कुल उचित है कि भारत के विश्व गुरू बनने का जो विचार है, उसे आगे बढ़ाने के लिए भारत के पास आर्थिक शक्ति नहीं है. दुर्भाग्य से अगर हम इस विचार को आगे बढ़ाने का तर्क दे रहे हैं कि भारत एक अलग तरह की शक्ति है और भारत की ताक़त असल में ‘मिसाल बनने की ताक़त’ है, तो ये एक तरह का विरोधाभास ही है. वहीं दूसरी तरफ़, मोदी सरकार की विदेश नीति का बचाव करने वाले, इस बात को लेकर मंत्रमुग्ध हैं कि विचार, आर्थिक शक्ति से अधिक महत्व रखते हैं. अन्यथा वो भारत की सांस्कृतिक सॉफ्ट पावर को इस तरह क्यों आगे बढ़ाते कि जैसे अंतरराष्ट्रीय राजनीति में व्यवहारिक स्तर पर बस सॉफ्ट पावर ही मायने रखती है.
निश्चित रूप से विचार मायने रखते हैं. लेकिन, स्वयं विचारों की अपनी कोई महत्ता बमुश्किल ही होती है. विचार, फिर वो चाहे कितने ही महत्वपूर्ण न हों, कोई सफलता नहीं प्राप्त करते, अगर उनके पीछे आर्थिक या वास्तविक शक्ति की ताक़त न हो. अगर भारत की विदेश नीति के अनुभव ने हम सबको कोई सबक़ सिखाया है, तो वो यही है कि विचार, वास्तविक आर्थिक शक्ति के अभाव की जगह बिल्कुल नहीं ले सकते. इस बहस का मुख्य प्रश्न ये नहीं है कि कैसे विचार महत्व रखते हैं, बल्कि ये है कि विचारों की अहमियत कब होती है.
आर्थिक शक्ति और विचारों के बीच का संतुलन
दुर्भाग्य से इस बहस में उलझा कोई भी पक्ष विचारों या नियमों से आर्थिक शक्ति के संबंधों की समझ का प्रदर्शन नहीं कर रहा है. अंतरराष्ट्रीय राजनीति में विचारों के पास अपनी कोई ख़ास ताक़त नहीं होती. न तो सबसे ख़ूबसूरत विचार, न ही बिल्कुल वाजिब ख़याल या फिर ऐसा कोई विचार मायने रखता है, जिसका दुनिया के अधिकतर लोग या देश समर्थन करते हों. अगर ऐसा होता तो अंतरराष्ट्रीय समुदाय के लोग परमाणु हथियारों की चुनौती से निपटने के लिए उनके ख़ात्मे के लिए काम करते. दुनिया के अधिकतर लोग यही तो चाहते थे. (हालांकि, सच तो ये है कि न तो ये पहले अच्छा विचार था और न ही अब है). लेकिन, परमाणु हथियारों से लैस सभी बड़ी ताक़तों ने तय किया कि बेहतर होगा कि परमाणु हथियारों का विस्तार रोका जाए. ये हैरानी की बात नहीं है कि परमाणु निरस्त्रीकरण नहीं, बल्कि परमाणु अप्रसार का विचार नियम के सांचे में ढला. परमाणु अप्रसार के विचार को महाशक्तियां आगे बढ़ा रही थीं. वहीं परमाणु निरस्त्रीकरण के विचार को वो देश बढ़ावा दे रहे थे, जिनके पास बहुत अधिक आर्थिक शक्ति नहीं थी. ऐसे में इस बहस का जो नतीजा निकला, उससे किसी को चौंकना तो नहीं चाहिए.
अगर भारत की विदेश नीति के अनुभव ने हम सबको कोई सबक़ सिखाया है, तो वो यही है कि विचार, वास्तविक आर्थिक शक्ति के अभाव की जगह बिल्कुल नहीं ले सकते. इस बहस का मुख्य प्रश्न ये नहीं है कि कैसे विचार महत्व रखते हैं, बल्कि ये है कि विचारों की अहमियत कब होती है
इस बहस में एक और मुद्दा बहुत ज़ोर शोर से उछल रहा है कि राष्ट्रीय शक्ति का घरेलू आर्थिक विकास से क्या संबंध है. दूसरे शब्दों में कहें तो बहस इस बात की है कि भारत को महाशक्ति बनने की कोशिश करनी भी चाहिए या नहीं? क्या ये ऐसा मुक़ाबला है, जिसमें इतनी ताक़त लगाई जाए? ये तो सनक का ही मामला लगता है कि एक तरफ़ तो हम संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में अपने लिए स्थायी सदस्यता की मांग कर रहे हैं. भारत की तमाम सरकारों के दौरान ये महत्वाकांक्षा लंबे समय से पाली-पोसी जाती रही है. वहीं, दूसरी तरफ़ हम महाशक्ति बनने के प्रयास को ही ख़ारिज कर रहे हैं. इस बात में कोई शक नहीं है कि भारत की महत्वाकांक्षाएं अक्सर वास्तविक राष्ट्रीय आवश्यकताओं पर आधारित नहीं होती हैं; मकस़द को हासिल करना की लक्ष्य बन जाता है. जिस देश ने विश्व स्वास्थ्य संगठन की कार्यकारी परिषद का अध्यक्ष होने के बावजूद, कोरोना वायरस की उत्पत्ति की जांच की मांग तक पर ज़ोर नहीं दिया, वो इस बात को लेकर बहुत भरोसा नहीं जगाता कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता मिलने के बाद कुछ ख़ास कर पाएगा.
इन बातों से इतर, इस बात की संभावना बहुत कम है कि भारत केवल अपने घरेलू आर्थिक और सामाजिक विकास पर ज़ोर देने से एक महाशक्ति बन जाएगा. भारत और अन्य सभी देश ऐसी अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था का हिस्सा हैं, जहां हर देश को अपने हित ख़ुद ही साधने पड़ते हैं. इसका मतलब ये है कि राष्ट्रों का प्राथमिक उद्देश्य ये सुनिश्चित करना है कि वो अन्य देशों से पैदा होने वाले ख़तरों से सुरक्षित हैं. अगर कोई देश इस बुनियादी उद्देश्य को प्राप्त करने में असफल रहता है, तो वो न केवल अपनी सुरक्षा को जोखिम में डालता है, बल्कि अपने आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए भी ख़तरा पैदा कर देता है. हमें इसका सबूत पाने के लिए बहुत अधिक दूर नहीं जाना पड़ेगा: 1950 के दशक के भारत की ही मिसाल ले लीजिए. चीन के ख़तरे के प्रति नेहरू के ध्यान न देने से न केवल भारत को 1962 के युद्ध में हार का सामना करना पड़ा, बल्कि इसके चलते भारत के आर्थिक विकास को भी गंभीर परिणाम भुगतने पड़े. इस युद्ध में हार से भारत को 1960 के दशक में अपनी सुरक्षा में भारी निवेश करना पड़ा. इसी वजह से 1960 के दशक में भारत के आर्थिक विकास की योजनाएं पटरी से उतर गईं.
अगर कोई देश इस बुनियादी उद्देश्य को प्राप्त करने में असफल रहता है, तो वो न केवल अपनी सुरक्षा को जोखिम में डालता है, बल्कि अपने आर्थिक और सामाजिक विकास के लिए भी ख़तरा पैदा कर देता है.
हालांकि, इसका ये मतलब बिल्कुल नहीं है कि भारत को अपना पूरा ध्यान केवल बाहरी माहौल पर लगाना चाहिए, क्योंकि इससे उसकी घरेलू आवश्यकताओं को क्षति पहुंचेगी. ऐसे असंतुलन के भी तमाम उदाहरण भरे पड़े हैं. सोवियत संघ का विघटन इसीलिए हो गया, क्योंकि इसके नेता अपनी आर्थिक शक्ति से कहीं ज़्यादा ताक़त अमेरिका से मुक़ाबला करने में लगा रहे थे. भारत के क़रीब पाकिस्तान की ही मिसाल ले लीजिए; अपने से कहीं बड़ी शक्ति भारत से होड़ लगाने की मूर्खता ने पाकिस्तान के घरेलू हालात पर हर तरह से बुरा ही असर डाला है. ये उदाहरण इस बात का इशारा देते हैं कि हमें घरेलू विकास और विदेश नीति के बीच संतुलन बनाकर चलना चाहिए. लेकिन संतुलन की ये बाद उन दावों से ग़ायब है कि अगर भारत अपनी घरेलू स्थिति सुधार ले, तो विश्व स्तर पर उसकी स्थिति अपने आप बेहतर हो जाएगी.
ऐसे दावों में एक ख़राबी ये भी है कि घरेल आर्थिक विकास को कुछ ज़्यादा ही अहमियत दी जा रही है. घरेलू स्तर पर बहुत अच्छा करके भी हम विश्व स्तर पर अपने लिए सही माहौल नहीं बना सकते. ख़ास तौर से तब और, जब चीन जैसे देश भारत की सुरक्षा के लिए चिंता बने हों. ये बहुत अच्छा होता अगर अंतरराष्ट्रीय प्रतिद्वंदिता केवल तुलनात्मक समृद्धि और जनता की बेहतर स्थिति को लेकर की जाती. लेकिन, दुर्भाग्य से ऐसा होता नहीं है. तुलनात्मक रूप से अधिक आर्थिक समृद्धि से तुरंत आपकी ताक़त बढ़ जाती है. फिर ये ताक़त ऐसे ख़तरों में तब्दील हो जाती है, जिसकी अनदेखी करना मूर्खता ही होगी. इससे भी बड़ी बात ये है कि जनता की भलाई करके ही हमेशा किसी राष्ट्र की शक्ति नहीं बढ़ती. आप बस न्यूज़ीलैंड या फिर ऑस्ट्रेलिया का ही उदाहरण देखिए. इन दोनों देशों की घरेलू स्थिति काफ़ी अच्छी है. लेकिन, इस समृद्धि ने दोनों देशों को चीन के ख़तरे से बिल्कुल भी सुरक्षित नहीं किया है.
भारत ने आज़ादी के बाद से लंबे समय तक तुलनात्मक रूप से सुरक्षा का दौर देखा है. लेकिन, ख़ुशहाली के वो हालात अब बदल गए हैं. निश्चित रूप से भारत की विदेश नीति को लेकर एक ऐसी गंभीर परिचर्चा की ज़रूरत है जिससे ये निष्कर्ष निकले कि इस दिशा में आगे कैसे बढ़ा जाए. दुर्भाग्य से मौजूदा बहस ऐसी नहीं है.
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